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Sunday 13 May 2018

मिलकर बोझ उठाना....

व्याकुल पथिक

             एक अकेला थक जाएगा मिल कर बोझ उठाना

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         अपने जीवन का अमूल्य ढ़ाई दशक लम्बा समय इस छोटे से शहर में बीताने के बाद इस कूपमंडूक वाली स्थिति से बाहर की दुनिया में झांक ताक एक अवसर ब्लॉग लेखन ने मुझे पुनः मुहैया करवाया है। सो, जिन प्रवासी भारतीयों के लेख,विचारों और कविताओं को मैं अपने बोझिल होमवर्क में से समय चुरा कर जब तब पढ़ ले रहा हूं। उनकी रचनाओं से कहीं अधिक मेरा मन इस लिये आह्लादित हो रहा है कि वतन से सात समुन्दर दूर ये प्रवासी जन किस तरह से अपनी संस्कृति, अपनी पहचान एवं अपने संस्कार के लिये जागरूक हैं। उससे भी बड़ी बात यह है कि यह समूदाय एक दूसरे के उत्साहवर्धन के लिये तत्पर है। रेणु जी जैसी विदूषी गृहिणी जहां से शब्द साधना करते हूं , हम भारतीयों को जगा रही हैं  कि उठो, आगे बढ़ो और अपने अस्तित्व को पहचानों। ब्लॉग लेखन में मेरे जैसे बिल्कुल ही अनाड़ी अजनबी का उन्होंने जिस तरह से सहयोग किया, उस पर एक पत्रकार होने के लिहाज से सोच रहा हूं कि काश ! ऐसी ही सम्वेदनाएं , सहयोग और उससे भी कहीं ऊपर कर्मपथ पर कठिन परिस्थितियों में चलने वाले लोगों के सामाजिक संरक्षण का भाव हमारे देश, हमारे प्रदेश, हमारे शहर और गांव के वासिंदों में भी होता ... तो आज हमारे समाज की हालात ऐसी नहीं होती, हमारी नयी पीढ़ी के नौजवान धनबल, बाहुबल और अब तो एक बार फिर से जाति बल भी , को लेकर इस तरह से व्याकुल नहीं होतें !  जब भी आम चुनाव होता है , हम लोग इन्हीं तीन विषयों को केंद्र में रख वोट डालते हैं।  सफेदपोश बाजीगर भी हमारी इसी कमजोरी का लाभ  वाकपटुता से उठा लेते हैं। वहीं, सामाजिक संरक्षण के अभाव में हमारे ही गली-मुहल्ले का असली समाज सेवक ऐसे अनाड़ियों और बहुरुपियों के सामने समाज की इसी नादानी के कारण अवसाद में डूब जाते हैं, टूट जाते हैं। फिर क्या होता है , जानते है ? कर्मपथ पर अपनी उपेक्षा से वे ना भी हटें, तो उनसे जिस "अमृत कलश" की प्राप्ति की इस व्याकुल समाज को उम्मीद थी, उसे फिर कोई नहीं लाकर देगा आपकों...
      इस दर्द को बेहद ईमानदारी के साथ पत्रकारिता करने के दौरान मैंने समझा है। जेब में इतना पैसा तब नहीं था उस वक्त कि अपनी भी गृहस्थी बसा सकूं। परंतु इस समाज से मिला क्या कोर्ट - कचहरी का दर्द और अपने संस्थान की उपेक्षा का दंश। हालांकि मैं इसलिए इससे विचलित नहीं हुआ हूं कि मैं जानता हूं कि सत्य की ही विजय तय है। परंतु मैंने उस कलम को तोड़ दी है, जो समाज को समर्पित थी। मैं इसीलिये ब्लॉग लेखन शुरु किया हूं कि एकाकी जीवन में  स्वयं ही अपने सवालों का जवाब ढ़ूंढने निकल पड़ूँ...

    गुरुदेव रविंद्रनाथ की ये पक्ति जिसे बचपन में कोलकाता में पढ़ा था, आज भी मुझे याद है -

' जोदि तोर डाक शुने केऊ ना ऐसे तबे एकला चलो रे "

    पर समाज यह चिन्तन करे , वह महाभारत काल के उन महान शस्त्रविद्या के ज्ञानी आचार्य द्रोणाचार्य  का कुछ तो स्मरण करे, जिनके अबोध बालक को वह एक गिलास दूध भी नहीं उपलब्ध करवा सका। कितना भयानक परिणाम हुआ इसका। एक अजेय स्वाभिमानी आचार्य अपने मित्र के हाथों इसी कारण अपमानित होकर टूट गया। उसने कुरुवंश की गुलामी स्वीकार कर ली । जो राजकुमार अयोग्य थें उन्हें भी बलशाली उन्मादी योद्धा बना दिया। परिणाम कितना भयानक रहा,  इसी कारण वह महाभारत युद्ध भी उसी समाज को सहना पड़ा। जिसने आचार्य के पुत्र को एक गिलास दूध नहीं दिया था !

शशि 14/5/ 18

आत्म कथा, प्यारी प्यारी है, ओ मां, ओ मां

व्याकुल पथिक
( आत्मकथा )

        प्यारी प्यारी है, ओ मां ,ओ मां...
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         कल शनिवार को वाराणसी से मीरजापुर के लिये रात्रि के 8 बजे ही बस मिल पाई। तब जा कर अखबार का बंडल लगा।  सो, कम से कम सवा 10 बजे रात्रि तक का समय शास्त्री सेतु पर ही टहल घुम कर मुझे बिताना है, यह तो तय ही था। ऊपर से जाम लगने का अज्ञात भय। बड़े भैया चंद्रांशु जी की कृपा से मिले, उन्हीं के मुसाफिरखाने पर कह कर आया था कि भाई थोड़ा सहयोग करना साढ़े 11 बजे रात्रि तक तो निश्चित ही आ जाऊंगा। चूंकि यूपी में जो सरकार इन दिनों है, वह मेरे नजरिये से नौकरशाहों की सरकार है। अफसर यहां पर नेताओं सा आचरण कर रहे हैं और जनप्रतिनिधियों को पब्लिक की तनिक भी चिन्ता नहीं है, वे अफसरों से पंगा नहीं लेना चाहते हैं। वहीं विपक्षी पार्टियों की इतनी हैसियत नहीं है कि उसके नेता ऐसे अधिकारियों से पंजा लड़ा सकें। ऐसे में हम जैसे श्रमिक वर्ग के लोग अच्छे दिन की चाहत में बेहद ही बुरे दौर से गुजर रहे हैं। मैं एक पत्रकार हूं, करीब ढ़ाई दशक से इस मीरजापुर में हूं। परंतु जीवन में ऐसे बुरे दौर कभी नहीं देखने को मिलें हैं । अमूमन रात में साढ़े 10 बजे तक का समय,इसी शास्त्री पुल पर अनेकों वाहनों के काले धुएं और धूल से दोस्ती निभाने में व्यतीत हो जाता है। ऐसे में मन का व्याकुल होना स्वाभाविक है। यह मानव स्वभाव है। ऐसी मनोस्थिति में कभी कभी अतीत की सुखद स्मृतियां इस पीड़ा के उपचार के लिये जीवन संजीवनी बन जाती हैं। मुझे ही देखें न मैं यहां मीरजापुर के शास्त्रीपुल से पल भर में ही कोलकाता के हावड़ा ब्रिज पर जा पहुंचता हूं। बचपन में मां से जिद्द कर अकसर ही नीचे मिठाई कारखाने के आफिस में बैठें घोस दादू   
के साथ हावड़ा ब्रिज की ओर निकल पड़ता था। कभी -कभी तो पैदल ही पूरा ब्रिज पार कर हावड़ा रेलवे स्टेशन पर पहुंच जाया करता था या फिर ब्रिज से नीचे उतर चार पांवों वाले इस विशाल झुले को अपलक निहारता रहता था...   इसी बीच बंडल लेकर आ गयी बस मुझे झकझोर देती है कि कहां खोया है, यथार्थ तुम्हारे सामने यह अखबार का बंडल है। अब साइकिल उठाओं और अपने कर्मपथ पर बढ़ चलो। बचपन में पढ़ा है न कि वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

    वैसे ,आज तो मदर डे है। हमारे बचपन में मदर और फादर डे  को कोलकाता जैसे महानगर में भी लोग नहीं जानते थें। हां, हम बच्चे अपने प्रियजनों के जन्मदिन पर उन्हें भी कुछ उपहार देने की चाहत जरूर रखते थें। नियति की यह भी कैसी विडंबना है। जिसके पास तीन - तीन मां हो (नानी मां, मौसी मां और मम्मी तो है हीं )  , आज वह एक वक्त के भोजन से ही समय गुजर लेता है, मन ही नहीं होता रात्रि में खाने का।  खुद के हाथ से बने खाने में मां के भोजन जैसा मिठास ही कहां है।  जब भोजन की बात कर रहा हूं, तो याद आती है कि 12 वर्षें की उस अवस्था में मैंने  खाना बनाना भी तो मां से ही सीखा था। तब घर पर तीन लोग ही थें , मां , बाबा और मैं। मां की बीमारी बढ़ने लगी थी, फिर खाना कौन बनाये। सुबह देशबंधु के यहां से जलपान आ जाता था। दोपहरमें इटली- डोसा से हम काम चला लेते थें। परंतु रात में बिना पराठे के बाबा से रहा नहीं जाता था। शुद्ध देशी घी का पराठा और आलू का पराठा बाबा को पसंद था। ऐसे में मां ने ही बेड पर लेटे-लेटे मुझे आटा गुथना सिखाया था। हां पराठे बनाने में थोड़ी कठिनाई जरुर होती थी। सो, मुझे उसमें उलझा देख जब कभी लिलुआ वाली नानी जी यहां मां को देखने आ जाती थीं, तो वे मुझे चल हट किनारे बैठ , कह स्वयं ही पराठा बना देती थीं। उन्होंने अंतिम समय तक मां का साथ नहीं छोड़ा था। वे देर शाम लोकल ट्रेन पकड़ लिलुआ से आती थीं और रात्रि में जब बाबा ऊपर कमरे में आते थें, तब घर वापस जाती थीं। रात्रि के 12 तो बज ही जाते होगें उन्हें अपने घर लिलुआ पहुंचने में, परंतु काफी हिम्मती महिला थीं। इसी तरह से सादी सब्जी बनानी भी मैंने मां से ही सीख ली थी।
     शायद मां को यह आभास हो गया हो कि उनके बाद जीवन भर मुझे अपने ही हाथों का बनाया भोजन खाना है, इसिलिये तो उन्होंने मुझे खाना बनाने का बचपन में ही प्रशिक्षण दे दिया था , ताकि उनका मुनिया भूखा नहीं रहे ...
 
मां को आज के दिन और क्या कहूं कि

 तू कितनी अच्छी है, तू कितनी भोली है, प्यारी प्यारी है, ओ मां, ओ मां....

क्रमशः

(शशि) 13/5/18