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Tuesday 8 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
  आत्मकथा
           
         अपनों से वियोग का प्रथम आभास
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         मृत्यु भय से कहीं अधिक अपनों से वियोग  का दर्द होता है। मनुष्य चाहे जितना भी ज्ञान अर्जित कर ले, संत ही क्यों न हो जाए। फिर भी अपनों के बिछुड़ने की पीड़ा उसे निश्चित ही होगी !  बुद्ध के निर्वाण पर आनंद की मनोस्थिति इसका प्रमाण है। हां,  यह और बात है कि हमारा वैराग्य भाव हमारी व्याकुलता कम कर देता है...

        प्रियजनों के दूर जाने की कसक आज भी मुझे है। परन्तु इतना ही सत्य यह भी है कि मृत्यु के समय यदि मैं चैतन्य अवस्था में रहूंगा, तो बुद्ध की तरह ही मोह रहित निर्वाण को प्राप्त करूंगा। ऐसा मेरा विश्वास है। कर्मपथ के आगे जो मुक्तिपथ होता है न , उसकी तैयारी वानप्रस्थ अवस्था में पहुंच कर हमें शुरू कर देनी ही चाहिए। थकान भरे जीवन सफर का यह सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। जो हमें आखिरी मंजिल की ओर ले जाता है। जिसकी तैयारी अब मैं भी शुरू करने वाला हूं। सो, पांव में किसी प्रकार की बेड़ियों को स्वीकार करने का प्रश्न ही नहीं है ! मेरा मन आजाद पंक्षी की तरह खुले आसमान में विचरण करने के लिये मचल रहा है। पत्रकारिता का यह बंधन भी अब सहन नहीं हो रहा है !

      आत्मकथा लेखन के लिये अब जब मैं अपने अतीत में झांक रहा हूं, तो किन स्वजनों की जुदाई पर मुझे अत्यधिक पीड़ा हुयी, यादों की वे सारी तस्वीरें मानों फिर से सजीव हो उठती हैं। समय तेजी से पीछे भागा जाता है। मुझे याद है कि जब मैं वाराणसी में कक्षा पांच में पढ़ता था। संकठा घाट पर गंगा किनारे हमारा विद्यालय था। जिस खिड़की की तरफ कक्षा में मैं बैठा करता था, वहां से गंगा दर्शन भी करता रहता था। उस दिन को याद कर आज भी मैं सिहर उठता हूं। जब पहली बार एक सुंदर , स्वस्थ्य और गौरवर्ण युवक का शव गंगा में बहता देखा था। उसके मृत शरीर पर लाल रंग का गमछा पड़ा था। उस दिन जब तक क्लास रुम में था, मेरी निगाहें उसी शव पर टिकी हुई थी।   करीब दस वर्ष की ही तो अवस्था रही होगी मेरी, जब इस शव ने पहली बार मुझे जीवन के इस सत्य से परिचित कराया की सब कछ नश्वर है। मेरा मन कितना अधिक व्याकुल हो उठा था, इसे बताने के लिये शब्द नहीं है। वह रात मुझे आज भी याद है, जब मैं सोया तो अपनों के समीप ही था , लेकिन पलकें आंसुओं से भींगती ही जा रही थीं। पूरी रात यह सोचता रहा कि क्या दादी, पापा- मम्मी सभी मुझे इसी तरह से छोड़कर चले जाएंगे। मेरी यह मनोदशा कितने दिनों तक बनी रही, यह तो मुझे ठीक से याद नहीं। परंतु मृत्यु से वह मेरा प्रथम साक्षात्कार रहा। फिर भी मैं कोई सिद्धार्थ तो था नहीं कि इस दुख से मुक्ति का मार्ग तलाशने लगता ! अतः मनोस्थिति सहज हो गई होगी मेरी।
     लेकिन , सच तो यही था कि गंगा में युवक का वह शव  यह संदेश दे गया था कि मेरा जीवन ही अपनों से बिछुड़ने के दर्द को सहने के लिये बना है।  और कुछ ही वर्षों में यह प्रत्यक्ष भी हो गया था। जो मुझे सबसे प्रिय था , वह मेरी मां मुझे छोड़ कर चली गयी... मुझे याद है, जब वे मृत्यु शैय्या पर थीं , तो मैंने उनके कान में धीरे से क्या बोला था।  वह शब्द था कि मां सुन रही हैं न आपका मुनिया फस्ट हो गया है और क्लास सेवेन में अब वह मानिटर होगा...पता नहीं मां ने सुना भी था कि नहीं ! हां, लिलुआ वाली नानी जी ने मुझे विश्वास जरुर दिलवाया था कि मां ने तुम्हारी बात सुन ली है।

(शशि) 9/5/18