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Wednesday 28 March 2018

आत्म कथा मेरी यात्रा

व्याकुल पथिक
जीवन यात्रा
28/3/ 18

  यात्री को बढ़िया मुसाफिरखाना मिल जाए, तो यह उसके लिये सुकून की बात तो है। लेकिन, पथिक को पता रहता है कि यह यात्री निवास उसका मंजिल नहीं है, बल्कि एक पड़ाव है। उसे तो और आगे का सफर तय करना है। तब कहीं जा कर वह अपने आशियाने तक पहुंच पाएगा। अतः अपने पथ और मंजिल दोनों की बखूबी जानकारी राहगीर रखता है। लेकिन,  यदि कोई जब यह कहे
    मुसाफिर हूं यारो  न घर है न ठिकाना, मुझे बस चलते जाना है...।
     यह पथिक भी बचपन से यात्रा पर ही तो है। परंतु मंजिल से अंजान रहा। सो, घर ठिकाने की तलाश में वर्षों से सुबह से शाम तक भटक रहा है। कभी बढ़िया सराय मिला, तो कभी घटिया। अब जब आत्मकथा लेखन में जुटा हूं, तो चिन्तन करता हूं कि यह कैसी विडंबना भरी जीवन यात्रा है मेरी। जन्मा तो सिल्लीगुड़ी(बंगाल) के एक बढ़िया नर्सिंग होम में। वर्षों बाद ननिहाल में एक पुत्र का जन्म हुआ इसी लिये ,सभी आनंदित थें। क्यों मेरे नाना जी को पुत्र नहीं था, तब उनका कारोबार वहीं था। इसके बाद जीवन यात्रा कुछ ऐसी उलझी कि युवा अवस्था तक कोलकाता से वाराणसी फिर वहां से कोलकाता और पुनः वाराणसी  हो मुजफ्फरपुर और वहां से भी वापस वाराणसी होते हुये कालिंगपोंग जा पहुंचा। युवा हो रहा था,  गोरखालैंड आंदोलन के बावजूद पहड़ों पर बेखौफ मचल रहा था। प्रातः भ्रमण वहां मुझे बहुत पसंद था। भले ही एक बार जीवन जोखिम में पड़ गया था और मुझे संदिग्ध बाहरी व्यक्ति समझ नेपाली युवकों ने खुखरी लेकर घेर लिया था।मेरे लिये हमसफर की तलाश सबसे पहले वहीं से शुरु हुई। पहाड़ी हवा और अच्छा भोजन के कारण सारे कपड़े छह माह में ही छोटे पड़ गये थें। परंतु यहां भी मुझे मंजिल नहीं मिली। सो, वापस आकर वाराणसी से घर से निकल एक आश्रम की ओर कदम बढ़ाया । वहां भी मंजिल नहीं मिला, तो सादगीभरे जीवन को छोड़ फिर से मुजफ्फरपुर होते हुये एक बार पुनः कालिंगपोंग जा पहुंचा और वहां से काशी वापस आने के बाद जब इस विंध्यक्षेत्र में आया हूं। तभी से  (वर्ष 1994 ) अब तक यहीं इसी रंगमंच पर यह गुनगुना रहा हूं

 जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां...
   
    एक बार दिल्ली एम्स में इलाज के लिये जरूर गया था। हां , बचपन से लेकर मीरजापुर आने से पूर्व तक मेरी यात्रा जो भटकाव भरी थी। अब यहां उसका पथ निश्चित था। करीब तीन वर्ष से भी अधिक समय तक मेरी यात्रा की जो राह रही, वह वाराणसी से मीरजापुर तक प्रतिदिन आना जाना था। बाद मे यह यात्रा औराई से मीरजापुर तक समिति हो गयी । और अब कोई तीन वर्षों से शहर से शास्त्री पुल तक की यात्रा हो गयी है। इसके बाद साइकिल से पूरे शहर की यात्रा करता हूं। मौसम या स्वास्थ्य प्रतिकूल भी रहा, तो भी इस यात्रा म़े व्यवधान नहीं आया।

         यहां मीरजापुर में हॉकर और रिपोर्टर से भी बड़ी एक चुनौती मेरे सामने एक और रही। वह यह कि नीचीबाग, वाराणसी  जाकर वहां कार्यालय से गांडीव लेकर मीरजापुर की बस पकड़ यहां आने की। जब तक प्रबंधक मंजीत सिंह रहें, तो वाराणसी -मीरजापुर आता जाता था। फिर अरुण अग्रवाल जी प्रबंधक बन कर आये। उन्होंने कहा कि खर्च बहुत है। ऐसा करों कि औराई आ कर पेपर लो। पहले वहां तक एक आदमी प्रेस से पेपर लेकर आता था, हम सभी का। फिर और भी पैसा बचाने के लिये बंडल को बस से लगाया जाने लगा।  और यही से मेरी परेशानी बढ़ती ही गई। बंडल लेने के लिये लगभग 18- 19 वर्ष मैंने औराई में चौराहे पर खड़ा होकर गुजारा है। जाड़ा, गर्मी और बरसात में भी, एक यंत्र मानव की तरह हर तकलीफ को सीने में दबाये, चेहरे पर मुस्कान लिये औराई चौराहे पर खड़े खड़े वाराणसी मार्ग को निहारता रहता। वाराणसी से वह बस कब आएगी पता नहीं रहता, क्योंकि इतना ही बतया जाता है कि फलां नंबर की बस इतने बजे चली है। अब कहीं जाम लगा हो या बस खराब हो गई हो, क्या पता। धूल उड़ा रही सड़क किनारे चुपचाप खड़ा रहता।  फिर जब पेपर काफी विलंब से लगने लगा , जिस कारण औराई से मीरजापुर के लिये रात्रि में साधन का अभाव दिखा , तो मैंने मीरजापुर में बंडल लेना शुरु किया। अब बस शास्त्री सेतु तक कि यात्रा पर देर शाम निकलता हूं।
     हां अब जो यात्रा करने के लिये व्याकुल हूं, वह है मुक्ति पथ की यात्रा। जहां, से आगे न कोई सफर है, न ही हमसफर ।(शशि)

क्रमशः