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Tuesday 10 March 2020

ऊर्जा


     ऊर्जा
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     पिछले पखवाड़े भर से टारगेट
 (लक्ष्य)  पूरा करने के लिए विज्ञापनदाताओं के चौखट पर दस्तक़ देता रहा। वर्ष में एक बार झोली फैलाता हूँ , अतः इंकार कोई नहीं करता है। कितने ही घरों से तो तीन पीढ़ियों का मेरा संबंध इसी समाचारपत्र के कारण जुड़ा हुआ है। जब आया था तो पुत्रवत स्नेह मिला, कुछ वर्षों पश्चात उनके पुत्रों के लिए अनुज जैसा हो गया और अब उनके भी बच्चे युवा हैं , जो मुझे चाचा कह के बुलाते हैं। अपना तो सबकुछ पीछे छूट चुका है। अब पूरी तरह से मुसाफ़िर हूँ और सौभाग्य से वैसा ही उपयुक्त आशियाना भी मिल गया है। जो कुछ अपना है, इसी शहर में शेष है। 

   ख़ैर ,पिछले वर्षों की तरह होली का कार्टून बनवाना , संबंधित लेख लिखना और इसके पश्चात ढेर सारे समाचारपत्रों का वितरण करना और करवाना , इतना सब करने के पश्चात होली पर्व की पूर्व संध्या पर जब वापस लौटा तो पाँव लड़खड़ाने लगे थे, परंतु पद्मदेव द्विवेदी जी ने रोक कर घर के बने हुये आलू के पापड़ के साथ बढ़िया चाय पिलाई , जिससे कुछ राहत मिल गयी थी । यहाँ यही मेरी कमाई है। 

  होटल पर पहुँच कर साइकिल किनारे खड़ी की और उससे कहा कि मित्र दो दिनों तक तू भी जरा आराम कर ले और मैं भी सुस्ता लूँ  , हम दोनों के लिए होली,दीपावली और दशहरा जैसे पर्व इस लिहाज़ से ख़ास मायने रखता है, क्यों कि भरपूर विश्राम जो मिल जाता है। ऊपर कमरे की ओर बढ़ने को था कि कुछ मित्रों ने पूछा , " शशि भाई, क्या इस बार गुझिया नहीं खिलाओगे  ? पूर्व में तो राजनेताओं के यहाँ से तुम्हारे पास कई डिब्बे मिठाइयाँ आया करती थीं। "

   जिस पर मैंने तनिक मुस्कुराते हुये कहा कि पिछले वर्षों की तरह इस बार इलेक्शन  (आम चुनाव) नहीं है मेरे भाई ,जो मेरे जैसे छोटे समाचारपत्र के प्रतिनिधि की खोज- ख़बर लिया जाए। उन्होंने अख़बार के लिए विज्ञापन दे दिया, यही मेरे लिए कम नहीं है। हाँ, सपा के नये जिलाध्यक्ष देवीप्रसाद चौधरी और पूर्व राज्यमंत्री कैलाश चौरसिया ने एक- एक डिब्बा गुझिया दी, जिन्हें दोस्तों में बाँट दिया । परिस्थितियाँँ सदैव सभी की एक जैसी नहीं होती हैं। मेरे लिए तो आपसभी का स्नेह ही काफी है।  मैं तो वैसे भी नहीं खाता हूँ।        

      मेरा ज़वाब सुनकर वे वही पुराना सबक़ मुझे याद दिलाते हैं कि यार , तुम दुनियादारी को कब समझोगे ? जब अवसर आता है , तो सौदेबाज़ी में पीछे रह जाते हो और घर आया धन भी ठुकरा देते हो। इन्हें कैसे समझाऊँ मैं कि यदि सौदा ही करना होता, तो अपने पुश्तैनी घर को यूँ क्यों जाने देता । 

      वैसे आज सुबह भी नींद समय से खुल गई थी चर्चा मंच पर कामिनी जी ने मेरे होली हुड़दंग वाले कार्टून को स्थान दे रखा था । अतः मैंने वहाँ जाकर टिप्पणी की और पुनः रजाई तान ली ।बूँदा-बाँदी से मौसम खराब होने के बावजूद भी बाहर सड़क पर होली खेलने वालों की टोली मौजूद थी। प्रथम बार आसमान को होली खेलते मैंने देखा। लेकिन बच्चों एवं युवाओं पर ठंड का असर नहीं रहा ।

     प्रशासन का होमवर्क अच्छा रहा। जिससे किसी तरह का उपद्रव नहीं हुआ और आपसी " भाईचारा " कायम रहा। वैसे तो यह पर्व भी भाईचारे का है। होली कहती है कि आग से न जल पाने का वरदान प्राप्त होने के बावजूद छल-छद्म और असत्य रूपी हिरण्यकश्यप  का साथ देने की वजह से वह जल गयी ।  इसीलिए मैंने बनावट, दिखावट और मिलावट इन तीन शब्दों का सदैव विरोध किया है। 

      तभी अनिल जायसवाल जी का फोन आया कि भैया होटल पर हैं न , नास्ता लेकर आ रहा हूँ। मैंने उसी से सुबह - दोपहर का काम चला लिया। पर्व तो वैसे भी मेरे लिए उपवास के लिए बने हुये हैं , इसीलिए तो दोनों ही दिन दूधिये ने भी हाथ खड़ा कर दिया । जहाँ सुबह से किसी अपने का फोन नहीं आया , वहीं ग़ैर होकर भी अनिल भाई द्वारा अपने घर से होली की सुबह नास्ता लेकर आना, यह मेरे लिए किसी उपहार से कम नहीं था।

    हाँ ,शाम को हरियाणा से रेणु दी ने अवश्य मुझे होली पर्व की शुभकामनाएँ दीं।  इन तीन दशक में अपने घर- परिवार से दूर हो मैं अपनी जड़ से पूरी तरह से कट चुका हूँ। फिर भी यदि मैं यह उम्मीद करूँ कि परिवार के सदस्य मेरा ध्यान रखें ,तो यह मेरी एक और बड़ी मूर्खता होगी। इस छोटे से शहर में मुझे जो पहचान मिली है, वहीं मेरे श्रम और मेरी ईमानदारी का पुरस्कार है। यही मेरे जीवन का आधार है। यहाँ हिन्दू- मुस्लिम, निर्धन-धनिक और कुलीन-अकुलीन सभी वर्ग के लोगों में मेरा बराबरी का सम्मान और अधिकार है। जबकि मेरा बचपन वाराणसी के दंगाग्रस्त क्षेत्र में गुजरा है ,परंतु मैं यह कैसे भूल जाऊँ कि हमारा राष्ट्र आदिकाल से " विश्व बंधुत्व " का उद्घोष करता रहा है। यह भाव मेरे आंतरिक ऊर्जा का स्त्रोत है।

      कोलकाता में माँ की मृत्यु के पश्चात ही मैंने होली- दीपावली जैसे पर्वों से लगभग दूरी ही बना ली थी और अब तो उसकी कोई औपचारिकता भी नहीं रही है। हृदय में भले ही उदासी हो कोई बात नहीं, परंतु सोशल मीडिया पर शुभकामनाएँ तो देनी ही पड़ती है। सुबह से मैं भी यही कर रहा हूँ, यह सामान्य शिष्टाचार है। इसे कृत्रिम नहीं कहा जा सकता है , क्यों कि औरों की खुशियों को बदरंग करने का हमें कोई अधिकार नहीं है।

     दो दिनों के विश्राम के पश्चात मेरी तीव्र इच्छा यही है कि किसी प्रकार से मैं अपने इस कठोर शारीरिक एवं मानसिक श्रम ,परंतु अत्यंत सीमित आय वाले व्यवसाय से मुक्त हो जाऊँ। कल से पुनः उसी प्रकार सुबह साढ़े चार बजे अपनी साइकिल लेकर नगर भ्रमण पर निकलना पड़ेगा। मौसम भी ख़राब है और मेरे रुग्ण शरीर की स्थिति ठीक उसी प्रकार है ,जैसा मैं सुबह देखा करता हूँ कि किसी दुर्बलकाय खच्चर के पीठ पर उसकी क्षमता से अधिक ईंट का बोझ रख दिया जाता है और जब वह थक कर अड़ता है , तो चाबुक की मार ऊपर से सहनी पड़ती है। परंतु कब तक, एक दिन तो उसके पाँव लड़खड़ाते ही हैं और गिरने के पश्चात वह फिर कभी नहीं उठता। वह मुक्त हो जाता है इस बोझ और अपने जीवन से भी।  
   तभी स्मरण हो आया कि पिछले महीने अत्यधिक ठंड के मौसम में जब इतनी सुबह प्रतिदिन ढ़ाई घंटे साइकिल चलाने की मुझे बिल्कुल भी हिम्मत  नहीं पड़ रही थी और उच्चरक्तचाप के कारण सिर फटा जा रहा था, तब मैंने इन्हीं सड़कों पर उस बूढ़े बाबा को रिक्शा खींचते देखा था। जिसके  पाँव मुझसे कहीं अधिक लड़खड़ा रहे थे। परंतु संकटमोचन मंदिर के समक्ष बैठ भीख मांगना उसे स्वीकार नहीं था । 
     और मैंने उन अब्दुल चाचा को भी देखा था जो नियमित इसी प्रकार सुबह की नमाज़ के लिए लाठी का सहारा लिए आहिस्ता- आहिस्ता मस्जिद की ओर पाँव बढ़ाये जा रहे थे। ऐसे ही कर्मयोगी मेरे लिए " ऊर्जा " के केंद्र हैं। जिनका नित्य दर्शन इन्हीं सड़कों पर मुझे हुआ करता है। इनमें से किसी ने भी अभी तक अपनी पराजय स्वीकार नहीं की है ,तो फिर मैं कैसे पीछे हट जाऊँ ? 
   - व्याकुल पथिक