Followers

Tuesday 29 October 2019

रोशनी के साथ क्यों धुआँ उठा चिराग से

हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ (भाग -5)

***************************
     मैं अपनी भावनाओं से ऊपर उठकर इन दीपकों की तरह अपने दर्द को अपनी खुशी बनाने की कला सीख रहा हूँ। आँसू को मोती समझना यदि आ गया ,तो जीवन की पाठशाला में हो रही इस कठिन परीक्षा में स्वयं को सफल समझूँगा।
***************************

    सुबह के साढ़े चार बज रहे थे, जब मैं  होटल से बाहर निकला , तो देखा कि बुजुर्ग महिलाएँ टूटे सूप को पीट रही थीं ,कल दीपावली पर लक्ष्मी का आह्वान किया गया और आज दरिद्रता को घर से बाहर निकाला जा रहा था। जिसकी हमें आवश्यकता है ,उसका गुणगान करते हैं और अनुपयोगी वस्तुओं को पुराने सूप के समान दरिद्रता की निशानी बता,फेंक देते हैं , यद्यपि हम दूसरों को यह ज्ञान बांटते नहीं अघाते हैं कि सुख-दुःख सिक्के के दो पहलू हैं।
    मैंने यह भी देखा कि घर-आंगन को रोशन करने के लिये जले ये नन्हे मासूम दीपक जल-जल के बुझ चुके हैं। जिन्हें दीपावली की शाम पँक्तियों में सजाकर रख गया था,अगले दिन सुबह उन्हीं हाथों ने उन्हें बेदर्दी से भवन के बाहर फेंक दिया , क्योंकि उनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी थी । अतः उनके प्रति कोई मोह नहीं रहा ।
      इस जगत की नश्वरता और निष्ठुरता दोनों का बोध कराते हैं ये सूप और दीपक । वस्तु /व्यक्ति कितना भी उपयोगी और सुंदर हो , आवश्यकता समाप्त होते ही उसकी उपेक्षा होती है ,यही अटल सत्य है। मेरा अनुभव तो कहता है कि प्रेम एवम स्नेह की भी यही परिभाषा है, जो कल अपनों जैसे लग रहे थे, आज उनकी आँखों में घृणा और जुबां पर कड़वी वाणी है, प्रिय मित्र भी शत्रु हो जाते हैं।
       इसी कठोर अनुभूति ने कुछ माह पूर्व मेरे विकल हृदय को अब नयी दिशा और उर्जा दी है। इस घटना के पश्चात मैं जीवन के रहस्य को समझ रहा हूँ , इसलिये नियति को धन्यवाद देता हूँ कि उसने इस जग के लौकिक संबंधों के सत्य को मेरे सम्मुख प्रगट किया । अतः मैं अपनी भावनाओं से ऊपर उठकर इन दीपकों की तरह अपने दर्द को अपनी खुशी बनाने की कला सीख रहा हूँ। आँसू को मोती समझना यदि आ गया ,तो जीवन की पाठशाला में हो रही इस कठिन परीक्षा में स्वयं को सफल समझूँगा।

   इसी चिंतन में खोया मैं और थोड़ा आगे लालडिग्गी की ओर बढ़ा तो देखा कि कृत्रिम प्रकाश से जगमगा रहे एक भवन के चबूतरे पर एक असहाय अनाथ वृद्ध ठंड से संघर्ष कर रहा था । उसके लिये दीपावली की खुशियों का मायने यह रहा कि कहीं से भिक्षा में बढ़िया भोजन मिल गया था। अतीत में कोई तो उसका अपना था।
    यहसब देख  मैं अपने संस्मरण, अनुभूतियों और चिन्तन को विस्तार देने में जुटा हूँ । अपनत्व भरी मेरी भावनाओं को कुचलने में वे शुभचिंतक ही अग्रिम पँक्ति में थें, जिन्हें मैंने संवेदनशील समझा। सो, मैं इस दीपक की पीड़ा को समझ सकता हूँ कि बुझने से पहले उसने हमें रोशनी देने के लिये  किस तरह से स्वयं को जलाया है। अमावस की स्याह रात को इन्हीं नन्हे दीपों ने स्वयं का बलिदान दे ,हमारे लिये जगमग किया था, बदले में इन्हें क्या मिला ?
    हम मनुष्य कितने स्वार्थी हैं , संबंधों का मूल्यांकन तक नहीं कर पाते , फिर दीया बन क्या खाक जलेंगे ?

    दीपावली की पूर्व संध्या पर मैं जिस होटल में रहता हूँ उसके समीप ही मुकेरी बाजार में एक अस्सी वर्षीया बुजुर्ग महिला वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था देख रही महिला थानाध्यक्ष गीता राय से यह गुहार लगाते दिखी कि उसके पुत्रों ने दो वर्ष पूर्व उसे घर से निकाल दिया है। उसने पास के शिवमंदिर में शरण ले रखी है,  दो जून की रोटी के लिये कुछ घरों में झाड़ू-पोंछा करती है,किन्तु सर्दी का मौसम शुरू होने से उसकी बूढ़ी हड्डियों में इस ठंड से लड़ने की क्षमता अब नहीं है।अपने  दोनों पुत्रों से उसकी बस इतनी ही मांग थी कि उसे उसके घर में सिर छिपाने के लिये स्थान मिल जाए , परंतु वे नहीं पसीजे।
     यह कहते-कहते उस दुखियारी माँ का गला रुँध गया और आँखों से अश्रुधारा बह चली थी।यह कैसी विडंबना है कि जिन पुत्रों को उसने नौ माह अपने गर्भ में पाला, वे उसे ईंट- पत्थर के मकान में भी रहने नहीं दे रहे हैं।
    एक वृद्ध माँ को इस स्थिति में हाथ जोड़े देख महिला थानाध्यक्ष ही नहीं वहाँ उपस्थित तमाशबीनों का हृदय भी द्रवित हो उठा।  यह तो खाकी वर्दी का प्रभाव था कि वृद्धा के दोनों पुत्र सहम गये और अपनी माँ को घर ले गये। घरवापसी की खुशी में इस बुजुर्ग महिला ने जो आशीर्वाद महिला दरोगा को दिया  है , वह निश्चित ही फलीभूत होगा ।
         तनिक विचार करें कि यह कैसी मानवता है कि पुत्र अपनी माँ की सेवा करना तो दूर उसे उसके ही घर से बाहर निकाल दे रहे हैं। यह कैसा सभ्य समाज है कि पिछले दो वर्षों से यह बुजुर्ग महिला मंदिर में शरण लिये हुये है और वह न्याय नहीं कर रहा है। ये कैसे संवेदनशील इंसान हैं, जो इस अस्सी वर्षीया वृद्धा से झाड़ू- पोंछा करवा रहे हैं, क्या ससम्मान उसे दो वक्त का भोजन नहीं दे सकता है। हम कब बनेंगे मानव ? कैसा विचित्र संसार है यह,जहाँ हमारी संवेदनाओं और भावनाओं का कोई मोल नहीं है।
      इस बयालीस कमरों वाले होटल में कल की रात जब मैं बिलकुल अकेला था। रोशनी के पर्व दीपावली की इस तन्हाई भरी स्याह रात में मुझे स्वयं को ज्ञान एवं वैराग्य के दीप से जगमग करना था , जिसे मैंने अपने गुरुदेव से प्राप्त किया था।
      तभी मुझे एक गीत की ये पँक्तियाँ याद हो आई-
ये रोशनी के साथ क्यों
धुआँ उठा चिराग से
ये ख़्वाब देखती हूँ मैं
के जग पड़ी हूँ ख़्वाब से..
       इस शाश्वत सत्य से आत्मसाक्षात्कार करता रहा कि रोशनी एवं धुएँ का क्या संबंध है।
  मध्यरात्रि तक होटल के इर्द-गिर्द पटाखे बज रहे थे , परंतु पटाखों को हाथ लगाये मुझे साढ़े तीन दशक से ऊपर हो गये हैं। अब सोचता हूँ कि चलो अच्छा ही है , मुझे पटाखा नहीं बनना , जो भभक कर, विस्फोट कर अपना अस्तित्व पल भर में समाप्त कर ले साथ ही वातावरण को प्रदूषित  करे । मुझे तो इस मासूम दीपक की तरह टिमटिमाते रहना है ,जो बुझने से पहले घंटों अंधकार से संघर्ष करता है, वह भी औरों के लिये, क्यों कि स्वयं उसके लिये तो नियति ने " अंधकार " तय कर रखा है। अतः मैंने सच्चे हृदय से परमात्मा से सिर्फ एक ही बात कही है-
   इक दीप जले मेरे मन में प्रभु
  जहाँ तम न हो,कोई ग़म न हो
  जग से मेरा कोई अनुबंध न हो
  जो बंधन हो , तेरे संग अब हो..
      अनुबंध , संबंध और स्नेह  आत्मीयता को प्रदर्शित करने वाले ऐसे शब्द न जाने क्यों तक्षक बन सदैव मेरी भावनाओं को डसने के लिये फन उठाये रहते हैं। नियति को मुझसे क्या शिकायत है ? बचपन में इन बुझे दीपकों को मैंने कभी फेंका भी तो न था। मैं इन्हें एकत्रित कर ताख पर रख दिया करता था। महंगे खिलौनों की अपेक्षा दीयों से तराजू बनाने में मुझे कहीं अधिक खुशी मिलती थी । नहीं पता क्यों प्रत्येक सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं से मेरी भावनाएँ जुड़ी रहती थीं। मैं किसी को भी खोना नहीं चाहता था । यह भी कैसा मेरा बालहठ था और फिर एक-एक कर मेरे सामने से ही सबकुछ फिसलता गया।
 मैं वेदना भरी इस जीवनसफर में कुछ यूँ गुनगुनाते रहा -

बिछड़ गया हर साथी देकर पल दो पल का साथ
किसको फ़ुरसत है जो थामे दीवानों का हाथ
हमने तो जब कलियाँ माँगी काँटों का हार मिला..
     
     दीपावली पर विंध्यवासिनी भैया सस्नेह टिफिन पहुँचा गये। घर का बना मेरे स्वास्थ्य के अनुरूप भोजन था। यह मेरे लिये कम खुशी की बात नहीं कि जिसका उल्लेख मैं नहीं करूँ। मैंने जो कुछ भी भोज्यपदार्थ था , उसको दो भाग में बांट दिया, दोपहर चावल-दाल तो रात  रोटी-सब्जी। ऐसे किसी विशेष पर्व पर कालिम्पोंग की तरह टिफिन देख ,उदास होने की जगह अब मैं हर्षित होता हूँ कि घर का भोजन मिला है। क्या हुआ जो मेरे संग भोजन ग्रहण करने वाला कोई अपना नहीं है, लेकिन यह टिफिन ही आज मेरी छोटी- छोटी खुशियों में प्रमुख है।

पटाखों के शोर के मध्यम शांतिचित्त हो मैं इस दीपावली की रात अपनी खुशियों को खोज रहा था, तभी मेरा ध्यान विंध्याचल स्थित वृद्धाश्रम की ओर गया। यहाँ आश्रय पाए वृद्धजनों में से सभी निराश्रित नहीं हैं, अनेक ऐसे भी हैं, जिनका अपना परिवार है, परंतु वे अपनों से उपेक्षित हैं। सोचता रहा कि अपनों ने ही इनका क्यों तिरस्कार किया। क्या मेरी वेदना इनसे अधिक है? इन्हें और मुझे भी अपनी छोटी- छोटी खुशियों को संभालना होगा ।
   धनतेरस पर्व पर डैफोडिल स्कूल के बच्चों ने इस वृद्धाश्रम पर आकर इन निराश्रितों को ढेर सारी खुशियाँ दी, इनसे खूब बातें की । उन्होंने अपने नृत्य से इनका मन मोहने का प्रयास किया, यही नहीं अपने हाथों से इन्हें मिठाई , चॉकलेट, फल, चिप्स, बिस्किट और नमकीन के पैकेट भी दिये । इन बच्चों को ऐसा करते देख इन असहाय बुजुर्गों के नेत्रों से जो नीर बहे , उसमें खुशी और ग़म दोनों ही मिश्रित थें। अपनों से मिले दर्द और गैरों से मिले स्नेह को परिभाषित करने के लिये इनके पास शब्द नहीं थें। इन्होंने इन बच्चों को खूब आशीष दिया । अगले दिन अन्य सामाजिक संस्थाओं द्वारा भी इन्हें दीपावली का उपहार दिया गया , जबकि रोशनी और फुलझड़ियाँ लेकर पहुँचे पाल्क नामक संस्था के सदस्यों ने  इनकी दिवाली को जगमग करने का प्रयास किया , किन्तु ऐसे जीवन की कल्पना क्या कभी इन्होंने की होगी ? इन्हें अब इसी में अपनी खुशी तलाशनी है।
    मुझे भी मेरे कुछ मित्रों और शुभचिंतकों ने सस्नेह दीपावली के उपहार दिये हैं। एक बंजारे , एक यतीम के लिये यह खुशी क्या कम है ?
 यद्यपि एक बार पुनः ननिहाल में गुजरे अपने बचपन की मधुर स्मृतियों को टटोलने की तीव्र इच्छा होती रही । बड़ा बाजार स्थित छोटे नाना जी की मिठाई की दुकान गुप्ता ब्रदर्स का सोन पापड़ी ,तिवारी ब्रदर्स का समोसा( सिंघाड़ा) और देशबंधु की मीठी दही संग में मैदे की लूची- चने की दाल की याद आयी । वैसे, काजू बर्फी , मलाई गिलौरी और रस माधुरी ये तीनों ही मेरे सबसे प्रिय मिष्ठान थें।
      खैर, माँ गयी, बचपन गया और उनका वह स्नेह भी अतीत की यादें बन दफन हो गया।
मैं यतीम हो गया और ताउम्र अपनी ज़िदंगी से यह सवाल पूछता रह गया -

एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले
मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले
ज़िन्दगी और बता तेरा इरादा क्या है...

      सच कहूँ तो मैं ऐसा इंसान बनना चाहता हूँ , जो विचारवान तो हो, परंतु कल्पनाओं में उड़ने वाला नहीं। मेरा चिंतन मेरे भावुक मन को दिशा  दे रहा है। मैं अपने इस हृदयरूपी समुद्र के मंथन में लगा हूँ , जिससे हलाहल  ( व्याकुलता ) के पश्चात अमृत (आनंद ) की प्राप्ति होती है । इस अंतर्निहित ज्ञान के प्रकाशित होने पर उस शिव का दर्शन सम्भव है ,जो सत्यम -शिवम- सुंदरम है ।
  क्रमशः

     - व्याकुल पथिक
  ( जीवन की पाठशाला )

Tuesday 22 October 2019

सामाजिक स्नेह की प्रथम अनुभूति

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ ( भाग- 4)
      दीपावली की वह शाम
**************************
    नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुःखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी। अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
***************************
   वह मेरी पहली दीपावली थी, जो बस के सफर में गुजर गयी । बात वर्ष 1994 की है। उस शाम भी अखबार का बंडल लेकर प्रेस के कार्यालय से निकल सीधे कैंट बस स्टेशन पहुँच गया था। मुझे मीरजापुर अखबार वितरण कर वापस रात बारह बजे तक अपने घर वाराणसी भी लौटना होता था। अतः मन बेहद उदास और कुछ रुआँसा भी हो गया कि इतनी रात क्या बनाऊँगा, ढाबे पर भी तो कुछ नहीं मिलेगा।
  सायं साढ़े चार बजे की बस मिली। मीरजापुर पहुँचने में लगभग सवा दो घंटे लगते हैं। इस लम्बे सफर के दौरान अमावस्या का यह अंधकार मेरे हृदय में गहराता जा रहा था और मन की रफ्तार बस से कहीं अधिक तेज थी,  तभी मेरी दृष्टि बस की खिड़की से ग्रामीण क्षेत्र की ओर चली गयी। देखा कि कच्ची मिट्टी से बने घरों की दीवारों पर गोबर से लेपन किया गया था । महिलाएँ घरों के चहुँओर दीपक जला रही थीं। बुजुर्ग चौपाल लगाये बैठे दिखें और बच्चों की धमाचौकड़ी देखते ही बन रही थी। गरीबी, बेगारी और बदहाली के बावजूद हर किसी को खुश देख रहा था। मैं सोचने लगा कि इन गरीबों की खुशी का क्या राज है,तो समझ में आया कि ये सभी निश्छल एवं संतोषी प्राणी हैं ,जो आपस में एकदूसरे के प्रति समर्पित हैं। इनमें किसी तरह का मिलावट, बनावट और दिखावट नहीं है। इन्हें पढ़ेलिखे लोगों जैसी कूटनीति नहीं आती है। मैं इन्हें निर्निमेष देखता रहा।
    इन्हें देख प्रसन्नता हुई , क्योंकि बचपन से ही वाराणसी- कोलकाता आते-जाते समय ट्रेन की खिड़की से सुबह- सुबह किसानों को खेत जोतते देख खुशी से चहक उठता था।
  मैं इन्हीं विषयों पर चिंतन करने लगा और  कुछ देर बाद मीरजापुर आ गया । तब मेरे पास यहाँ साइकिल नहीं थी। अखबार वितरण मुझे इस अनजाने शहर में पैदल ही करना होता था। बड़े ही नाजोनेमत से पला था, ऐसी मेहनत मशक्कत कभी की न थी , लेकिन आँखों में स्वाबलंबी होने के जो सपने डोल रहे थें, उसने मेरे पाँवों को ग़ज़ब की गति दे रखी थी।
    मेरी वेशभूषा और व्यवहार से ग्राहक इतना तो समझ चुके थें कि मैं किसी अच्छे  परिवार से जुड़ा हूँ, ईमानदार और परिश्रमी हूँ।  अतः उस शाम कई प्रतिष्ठानों पर लोगों ने बड़े स्नेह से मुझे इतना जलपान करा दिया गया कि रात्रि भोजन की आवश्यकता ही नहीं पड़ी । इनके मुख से-"  बेटा खा लो ,संकोच मत  कर। " अपनत्व भरे यह शब्द सुन कर खुशी से मेरा गला रुंध- सा गया और इन्हें धन्यवाद भी न दे सका।
    यह अपने परिवार से इतर समाज से मिली खुशियाँ थीं मेरे लिये, कितने ही डिब्बे मिठाइयाँ मुझे ससम्मान मिली थीं। उनका मधुर व्यवहार देख खुशी से मेरी आँखें डबडबा गई। मुझे प्रथम बार यह अनुभूति हुई की घर-परिवार के अतिरिक्त सामाजिक खुशियाँ भी होती हैं और  मेरे सामाजिक संबंध विकसित हुये।
  नियति ने हमारे लिये क्या तय कर रखा है, हम नहीं जानते, कहाँ तो मैं इस चिंता में दुखी था कि घर पहुँचने पर भोजन क्या करूँगा और यहाँ मेरे लिये उसने भरपूर जलपान की व्यवस्था कर रखी थी।अब मुझे समझ में आता है कि कृष्ण ने अर्जुन से ऐसा क्यों कहा कि फल की इच्छा त्याग अपना कर्म करो।
    अखबार वितरण के पश्चात प्रतिदिन की दिनचर्या के अनुरूप बस पकड़ देर रात मैं वापस बनारस आ गया। रात भीग चुकी थी और बाजारों में इक्के-दुक्के आदमी ही दिखाई दे रहे थें, परंतु पटाखों की आवाज रह-रह कर आ रही थी। अपने कमरे पर वह पहली दीपावली मैंने दादी की अनुपस्थिति में बिल्कुल अकेले गुजारी, तब मुझे उनके स्नेह की अनुभूति हुई, परंतु दुनिया से जाने वाले वापस कभी लौट के कहाँ आते हैं। जानता था कि जो मुझपर ममता का सागर लुटाती थी, वह नहीं रही। घर पर पापा-मम्मी और भाई-बहन से भी मेरा किसी तरह का संवाद नहीं रहा । हँसते-मुस्कुराते जीवन में जब अपना ही आशियाना पराया हो जाए ,तो जिनसे स्नेह मिला, उनके साथ गुजारे दिनों की स्मृति संबल प्रदान करती है।
 घर पर किसी को मेरा अखबार वितरण करना पसंद नहीं था। लेकिन,मैंने उनके और स्वयं के ( मास्टर साहब का पुत्र कहलाने का )  सम्मान का ध्यान रखा और वाराणसी छोड़ इस छोटे से मीरजापुर शहर में चला आया।
   दरअसल, दूसरी बार जब कालिम्पोंग से वापस घर वाराणसी लौटा था ,तो मेरी प्राथमिकता अपने लिये सम्मानपूर्वक दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी ही थी। उच्चशिक्षा अधूरी रह गयी थी और किसी भी प्रतिष्ठान पर कार्य करने में मुझे तनिक भी रुचि नहीं थी।
     कुछ भी करने की अपेक्षा मैं वह करना चाहता था, जो मुझे खुशी दे । यहाँ प्रेस में अखबार वितरण के साथ ही मुझे मीरजापुर का जिला प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया गया था । अब मैं पत्रकार हो गया था। उस दौर में हमारे सांध्यकालीन दैनिक समाचारपत्र को राजनेता, वरिष्ठ प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी इस मीरजापुर में भी जानते थें। सबसे पहले दिनभर की खबर यहाँ मैं ही देता था। सो, प्रतिदिन थका देने वाली पाँच घंटे की यात्रा और ढ़ाई घंटे पैदल अखबार वितरण के बावजूद कलम की हनक और प्रतिष्ठा देख मुझे लगा कि मैंने सही कार्य  का चयन किया है। इस तरह मैं पत्रकारिता के प्रति एकाग्रचित्त हो पूर्ण समर्पित हो गया। संस्थान के बड़े- छोटे सभी लोगों का स्नेह और सहयोग मिला। अतः समाचार लिखने की कला में कुछ निपुण हो गया।
    मैं अपने कार्य के प्रति वचनबद्ध रहा और उर्जावान भी। लेकिन, लक्ष्य प्राप्ति के लिये उत्तम स्वास्थ्य की भी आवश्यकता होती है। वर्ष  1998 में मैं गंभीर  रुप से बीमार पड़ गया। चिकित्सकों ने गलत उपचार किया और पुनः स्वस्थ्य नहीं हो पाया।
   जिस कारण शीर्ष पर पहुँचने की जो दृढ़ इच्छाशक्ति मुझमें थी, खराब स्वास्थ्य के कारण वह जाती रही, फिर भी मीरजापुर छोड़ने का मेरे पास कोई विकल्प नहीं रहा। इसके पूर्व मुझे बड़े अखबारों में काम करने का अवसर मिला, जिसे मैंने ठुकरा दिया था।
   इसी शारीरिक, मानसिक और आर्थिक कष्ट में मैंने यह समझा कि हर व्यक्ति के पास उर्जा तो होती है, लेकिन परिणाम तभी मिलता है, जब उचित समय पर उसका उपयोग किया जाए।
 बहरहाल, जीवन एक पाठशाला है, यहाँ सीखते रहना है। मैं यहाँ यह कहना चाहूँगा कि सामने मौजूद अवसर को हमें कभी नहीं खोना चाहिए, फिर भी अपने कार्य को लेकर उतना भी निराश नहीं था।
  पिछले दिनों मानव जीवन के संदर्भ में " अग्नि की उड़ान " में एक कविता की ये पंक्तियाँ मैं पढ़ रहा था-

      हर  दिन जियो , जियाले
      जैसा जीवन अपना पाओ।
      जब    मूसल हो  ,  मारो
      जब ओखल हो,चोंट खाओ।

    अतः इन विपरीत परिस्थितियों में एक मझोले अखबार के माध्यम से जो सम्मान पाया , वह भी मेरी कम उपलब्धि नहीं है।
     रही बात दीपावली जैसे पर्वों की , तो जब घर- परिवार नहीं  है, फिर ऐसे त्योहार का मेरे लिये क्या मायने । हाँ , इन ढ़ाई-तीन दशकों में कभी- कभी ऐसा लगा कि  कुछ नेक व्यक्ति अपने परिवार के सदस्यों जैसा ही मेरा ध्यान रखते हैं और भविष्य में भी वे ऐसा करते रहेंगे । यही मेरी भूल अथवा हृदय की दुर्बलता रही। उनके प्रति अपनत्व के भाव ने मुझे अतिशय पीड़ा पहुँचायी है ।
    स्नेह जब कभी तिरस्कार बन कर वेदन और ग्लानि में परिवर्तित हो जाता है, तब विवेक को  पुनः जागृत करना सहज नहीं होता है । हर कोई ध्रुव ,भृतहरि, कालीदास और तुलसीदास जैसा नहीं हो सकता, जो अपने विचलित हृदय को नयी दिशा दे सके ।
    बाद में मुझे यह महसूस हुआ - " प्रेम और सम्मान" का भाव सिर्फ उन्हीं के प्रति रखिए, जो हमारे "मन" की भावनाओं को समझते हैं, वो कहते है न कि जलो वहाँ , जहाँ जरूरत हो। उजाले में "चिराग" का मायने नहीं होता।
      वैसे इस सोच में भी एक विचित्र-सी उलझन है।  हमें तो छात्र जीवन में गुरुजन सदैव ही सबसे प्रेम और सबका सम्मान करने को कहते थें, परंतु यहाँ भी तो यह तर्क अकाट्य ही है कि जहाँ पहले से ही उजाला हो , वहाँ हमारे चिराग की क्या औकात ? मेरी अनुभूति भी इसका समर्थन करती है, यदि हम अपनी भावनाओं को ऐसे व्यक्ति को समर्पित करेंगे जिसके पास पहले से ही सारी खुशियाँ है, तो वह तनिक मनोरंजन कर लेगा, परंतु ऐसे संबंध के स्थिर  रहने का कोई अनुबंध नहीं होता। अतः खुशियों की खोज करते समय मेरे जैसे बंजारों को अत्यधिक सावधान रहना चाहिए, क्यों कि हम जैसों के भाग्य में चाहत का वरदान नहीं है।
   हम जब भी विचारों के धरातल को छोड़  भावना के आकाश में उड़ेंगे ।  कटी पतंग बन वापस धरती पर गिरना तय है। फिर तो फटी पतंग की भांति सभी के पांव तले कुचले जाएंगे ।
 भला जल की तरह हिलोरें भरती भावनाओं में हम कब तक तैरेंगे । यदि विवेक रुपी चट्टान का आश्रय नहीं मिला ,तो  डूबना तय है।
    मैंने अनुभव किया कि हम जैसों की खुशी  सामाजिक कार्यों में निहित है अथवा परमात्मा के चरणों में अपने स्नेह को समर्पित करने में ।
 किसी सामाजिक मंच पर मुझे ,जो मान- सम्मान मिलता है, वही हमारी खुशियाँ हैं।
      मेरा यहाँ अपना कोई नहीं है, फिर भी मौसी जी की पुत्री, जिसे बचपन में मैंने अपने गोद में खिलाया  है, वह रक्षाबंधन और भाईदूज पर मुझे याद करती हैं। निःस्वार्थ भाव से राखी और चना- रोली भेजती है। यही मेरी पारिवारिक खुशियाँ हैं।
  कुछ अच्छा लिखूँ , जिसमें मेरी अनुभूति हो, जीवन की सच्चाई हो, हमारे संस्कार और संस्कृति को उससे बल मिले साथ ही परमात्मा के प्रति समर्पणभाव हो , इस परम-आनंद को मैं प्राप्त करना चाहता हूँ।
    इसके लिये प्रथम तो हमें हर भ्रम से दूर होना होगा। " अग्नि की उड़ान"  में ही यह पढ़ रहा था कि एक बार अपने मिशन को लेकर साक्षात्कार के लिये डा० ए.पी.जे अब्दुल कलाम को मुम्बई जाना पड़ा। कुछ पढ़ने अथवा अनुभवी व्यक्ति से वार्ता का उनके पास समय नहीं था, तभी उनके कानों में लक्ष्मण शास्त्री द्वारा सुनाए श्रीमद्भागवत का यह अंश गूँजा -

 तुम सब भ्रम की संतान
इच्छा और घृणा के छलावों से छलीं।
देखों, उन कुछ सत्पुरुषों को
पाप से परे छलावों से छूटे
दृढ़ अपनी प्रतिज्ञा पर
अडिग मेरी आस्था  में...
   अथार्त हम भ्रम मुक्त और शांतिचित्त हो अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र हो सकते हैं।
   दीपावली पर्व पर एक बात कहना चाहता हूँ कि वह कृत्रिम रौशनी ही क्या जो मिट्टी के दीपक में मुस्कान नहीं भर सके।

  (क्रमशः)

        -व्याकुल पथिक
     जीवन की पाठशाला

Friday 18 October 2019

इक वो भी दीपावली थी..


हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ( भाग- 3 )
***************************
    सच कहूँ तो पहले अभाव में भी खुशियाँ थीं और अब इस इक्कीसवीं सदी में सबकुछ होकर भी खुशियों का अभाव है।
****************************

    पिछले कुछ महीनों में स्वास्थ्य तेजी से गिरा है, फिर भी ठीक पौने चार बजे ब्रह्ममुहूर्त में शैय्या त्याग देता हूँ । आश्रम में रहने का एक बड़ा लाभ यह हुआ है कि मैंने  वहाँ जो अनुशासित जीवन व्यतीत किया है , वह सदैव के लिए  मेरी दिनचर्या बन गया है । इस शरीर का क्या है- माटी का पुतला बोले न बोले, तो निर्बल काया का शोक क्यों करूँ ?
     अतः आलस्य त्याग प्रातःभ्रमण करता हूँ, स्वास्थ्य के लिये ही नहीं , मानसिक शांति भी इससे मिलती है। आश्रम में था तो गुरुदेव कहते थें कि साधु और साधक दोनों को श्रम अवश्य करना चाहिए।
    आश्रम के समीप अखाड़े का जो कुआँ था, यदि हम अपने स्नान के लिये दो बाल्टी  जल उसमें से लेते थें , तो इतना ही पानी वहाँ स्थित पानी टंकी में डालना होता था । इस नियम का पालन सभी करते थें ।
    किसी वस्तु का स्वयं उपभोग करने के साथ ही हम औरों का भी कल्याण करें, यह संदेश इसमें निहित था।  खैर, वे दिन अब लौट के नहीं आएँगे , परंतु उनकी सुखद स्मृतियाँ सदैव मार्गदर्शन करती रहेंगी ।
  आज सुबह के सन्नाटे को चीरते हुए ,  सिखों की टोली शब्दकीर्तन  करते हुये सड़क पर दिख गयी । जिसमें शामिल पुरुष,महिला और बच्चे ढोल- मंजीरा बजाते हुये गुरुद्वारे की ओर जा रहे थें ।  कार्तिक माह प्रारम्भ जो हो गया है ।अतः गंगाघाटों पर भी स्नानार्थियों की संख्या काफी बढ़ी हुई दिखी ।
  ऐसा खुशनुमा वातावरण मुझे सदैव लुभाता है । काशी में था तो कमंडल हाथ में लिये घर से सीधे पंचगंगा घाट पहुँच जाया करता था ।
    वे भी क्या खुशियों भरे दिन थें,यह सोच ही रहा था कि कालिम्पोंग का वह दृश्य याद हो आया, जब गोरखालैंड को लेकर हिंसक आंदोलन चल रहा था । इसके बावजूद भी उस ठंड , कोहरे और दहशत भरे वातावरण में इसी तरह सुबह सिखों की टोली बेखौफ निकला करती थी । तब मैं भी रजाई त्याग बाहर निकल बारजे पर आ जाता था । वे सभी पहाड़ी ढलान और चढ़ाई से होते हुये गुरुद्वारे को जाते थें । मैंने सोचा कि यह कितनी बहादुर कौम है , न तो कोई भय न ही किसी तरह की शिथिलता , मुझमें भी इनकी तरह स्फूर्ति एवं उत्साह होना चाहिए । इसी सकारात्मक सोच का परिणाम रहा कि वहाँ मैं प्रातःभ्रमण पर निकलने लगा। पहाड़ी क्षेत्र में सुबह-शाम भ्रमण का अपना ही आनंद  है  ।
   वहाँ वह मेरी पहली दीपावली थी ,जब मैं न घर पर था, न मौसी के यहाँ और न ही ननिहाल में ।  छोटे नाना जी के घर से हमेशा की तरह टिफिन बाक्स आ गया था , पर इतने प्रमुख पर्व के दिन ऐसे कैसे अकेले चुपचाप भोजन कर लूँ । सो, मन उदास हो गया था और कुछ भी न खाते बना था ।  देर शाम अश्रु बूंदों को आँखों में ही समेटे उनकी दुकान से आहिस्ता-आहिस्ता कदम बढ़ाते हुये    अपने कमरे पर जा पहुँचा था कि तभी पड़ोसी अधेड़ दम्पति अभिभावक की भूमिका में सामने आ , स्नेह की बरसात करने लगें । उन्होंने अपने साथ मुझे भोजन कराया। उनका अपनत्व देख मेरी आँखें पुनः नम हो गयी थी, पर यह खुशियों भरे आँसू थें ।
      उस दीपावली पर उनका यह निश्छल प्रेम ही मेरी सबसे बड़ी खुशी बनी और आज भी जब अंकल-आंटी  की याद आती है ,आँखें बरसने लगती हैं और मन कालिम्पोंग के उसी कमरे पर पहुँच जाता है, जहाँ बारजे पर खड़े हो हम रात्रि में खूब बातें किया करते थें ।
       यहाँ अपने होटल पर उम्मीद है कि इस बार मेरे मित्र टिफिन पहुँचा जाएँगे , अन्यथा तो पहले ब्रेड , बिस्किट और मिठाइयों  के सहारे ही होली, दीपावली एवं दशहरा काट लेता था ।
    परंतु बचपन में मेरी दीपावली  ऐसी तो न थी । अरे हाँ , याद आया कि बनारस में हम तीनों भाई- बहन अपने माता-पिता के साथ कितने उल्लासपूर्ण वातावरण में यह दीपोत्सव पर्व मनाते थें। करवाचौथ पर्व के पूर्व ही मम्मी सफाई अभियान में लग जाती थीं । वे पापा के सहयोग से पूरे मकान में वे चूना किया करती थीं । अलकतरा ( तारकोल) से खिड़की- दरवाजा रंगा जाता था । कोलकाता से आये कागज के रंगबिरंगे फूल और रिबन से कमरों की सजावट होती थी ।  साथ ही घर के बाहर दूसरी मंजिल की खिड़कियों पर इलेक्ट्रॉनिक झालर लटकाए जाते थें । ऐसी  सजावट देख हमारे पड़ोसी चकित से रह जाते थें कि इस गरीब मास्टर का घर किस तरह से इतना स्वच्छ ,सुंदर और सजा हुआ है, परंतु उन्हें यह नहीं पता था कि जो रिबन और झालर आदि थें, उसे मम्मी कितना सहेज कर एक बक्से में रखा करती थीं । वर्षों उसी से काम चलता रहा । वे बड़े घर की बेटी होने का अपना कर्तव्य निभाती थीं ।
     हम बच्चों के लिये ढेर सारी मिठाइयाँ दीपावली पर ही घर में बनती थीं । आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि कुछ भी महंगी खाद्य सामग्री  बाहर से खरीदी जा सके । अतः बेसन और बेगार से लड्डू  और मगदल हमारे अभिभावक तैयार करते थें । इसके लिये पैसे की व्यवस्था पिछले कुछ माह से किसी तरह विभिन्न खर्चों में कटौती कर की जाती थी, परंतु दीपावली पर घर में हर तरह का व्यंजन बनता था । जिसमें कचौड़ी, सांगरी की सब्जी, कांजी वड़ा, दही वड़ा और सूरन का अचार अवश्य शामिल होता था। वैसे ,कुछ वर्षों पश्चात पिता जी मिठाइयों के कई डिब्बे लेकर आने लगे थें । दरअसल , वे जिनके यहाँ ट्यूशन पढ़ाने जाते थें, वे सभी काफी सम्पन्न शिष्य थें । अतः ये  अपने मास्टर साहब को इस त्योहार पर मिठाइयाँ कैसे न देतें । पर हम धनी के समक्ष न दीन बने और न ही धनाभाव में किसी ने रुदन किया ।
     हमारे माता-पिता हर वर्ष मिट्टी के गणेश -लक्ष्मी , ग्वालिन , दीपक , रूई ,चीनी के खिलौने और लाई-चिउड़ा आदि पहले से ही ले आया करते थें । घर में एक लकड़ी का छोटा सा मंदिर था। पापा प्रत्येक दीपावली पर चमकदार  कवर पेपर लेकर आते थें और मम्मी बड़े ही प्रफुल्लित मन से उसे लकड़ी के मंदिर पर चिपकाया करती थीं। इसी में गणेश- लक्ष्मी और गोबर गणेश को बैठा कर पूजन होता था । वहीं पर रंगोली बना उसके इर्दगिर्द दीपकधारी ग्वालिन और कुछ मिट्टी  के खिलौने रखा जाता था। दीपकों से पूरे घर को जगमगाने के पश्चात पिता जी जो सीमित संख्या में रौशनी, अनार, जलेबी, फुलझड़ी और सांप लेकर आते थें, उसका आनंद हम सभी एक साथ छत पर लेते थें । उन दिनों घर में मिट्टी के घंट के नीचे दीपक रख काजल पारने की परम्परा भी थी। अगले दिन भोर में टूटे हुये सूप को पिटती हुई दादी की यह आवाज "  ईश्वर पैठे, द्ररिद्रता भागे" सुनाई पड़ती थी।
      बात कोलकाता की करूँ ,तो यहाँ मैंने अपने बाबा-माँ संग खूब मस्तीभरी दीपावली  मनायी थी। खिलौने तो पूछे ही न बाबा मुझे और कारखाने से   किसी व्यक्ति को साथ ले टोकरी भर पक्की मिट्टी के खिलौने ले आते थें।  दुकानों पर जिस भी खिलौने की ओर मेरी ऊँगली उठी नहीं कि वह उस टोकरी में होता था । उस आखिरी दीपावली मैंने माँ के साथ बारजे में रौशनी भी जलायी और बम भी फोड़े,यद्यपि  मिष्ठान दुकान पर भी मैंने काफी समय दिया और पारिश्रमिक के रुप में छोटे नाना जी ने मुझे एचएमटी की खूबसूरत कलाई घड़ी दी थी। यह वर्ष 1982 की बात है। यह मेरे जीवन का सबसे खुशनुमा उत्सव पर्व था।तब मुझे क्या पता था कि अगले दो माह पश्चात ही माँ की छाया से मैं वचिंत होने जा रहा हूँ। मैंने तो उस दीपावली  के दिन घर- दुकान एक कर माँ को खूब परेशान किया था , पर  वे मुझे लाड़ और दुलार की थपकियाँ दिया करती थीं। मेरे जीवन में दीपावली  की वह साँझ फिर कभी नहीं आयी।
      और मुजफ्फरपुर की दीवाली को भला कैसे भुला सकता हूँ । मौसी जी इस दिन शाम साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा बन मौसा जी के मोटरसाइकिल पार्ट्स की दुकान पर पूजन करने जाया करती थी। वहाँ मौजूद बाइक मिस्त्री शहजादे सारी तैयारी किये , उनकी ही राह तकता था।
तब मौसा जी की आर्थिक स्थिति बढ़िया नहीं थी, परंतु गृहलक्ष्मी के रूप में मौजूद मौसी जी ने कभी भी किसी को इसकी भनक तक नहीं लगने दी कि धन का यह संकट कितना बड़ा है। वे कठोर से कठोर दुःखों में अविचलित रहीं।
      मेहमानों के स्वागत -सत्कार में उन्होंने कभी कोई कमी नहीं आने दिया दी  । उनकी यह व्यवहारकुशलता अपनों की चौकन्नी आँखों को भी धोखा  दे देती थी। सबसे पहले उनके कमरे पर ही रिश्तेदार और जानपहचान वाले लोग आते थें , फिर वे उनकी तीनों जेठानियों के यहाँ जाते थें । यूँ कहें कि घर को स्वर्ग बनाने की कला है उनमें ।
रिश्तों को स्वार्थ की तराजू पर उन्होंने कभी नहीं तौला । मेरा ध्यान ऐसे अवसर पर वे अपनी इकलौती पुत्री से अधिक रखा करती थीं। उनके स्नेह की गंगाजल वैसे तो आज भी मुझपर छलकती है।
      सच कहूँ तो पहले अभाव में भी खुशियाँ थीं और अब इस इक्कीसवीं सदी में सबकुछ होकर भी खुशियों का अभाव है । आप भी विचार करें कि क्या मैं असत्य कह रहा हूँ ।?  हमने निज स्वार्थ का एक घेरा अपने चारों ओर बना रखा है, तो फिर बाह्यजगत की खुशियाँ उसमें कैसे प्रवेश करेंगी ? आज स्वर्ण  का महत्व है, सत का नहीं ।
      अब रहा मेरे लिये अब इस उत्सव के मायने, तो पिछले दिनों एकांतवास जैसी स्थिति में विकल हृदय को आश्रम की स्मृतियों ने एक नयी दिशा दी है। वहाँ जब था, तो गुरुदेव सदैव कहा करते थें कि जो पीछे छूट गया,उस पर पश्चाताप न करो और मन एकाग्र कर सतनाम का मौन जप  किया करो । उनका कहना था कि साधु और साधक को सदैव आनंदमय स्थिति में रहना चाहिए। वह कहा गया है न-
सदा दिवाली संत की, आठों पहर आनंद।
कब मरि हो,कब पाई हो, पूर्ण परम आनंद ।।
         अतः काशी स्थित गुरु के सानिध्य में जो भी दिन मैंने गुजारे थें। वे सभी पर्व ही तो थें । मैं वहाँ शोकमुक्त हो कर रहा । कोई अपना सगा-संबंधी साथ नहीं था । हम साधक थें और परमात्मा की कृपा हम पर बरसती थी । अतः आज भी जीवन के तिक्त और मधुर क्षणों से ऊपर उठ कर मैं उस अमृत को क्यों नहीं प्राप्त कर सकता ? किस अनजाने मोह से जूझ रहा हूँ । आश्रम की उन्हीं खुशियों को समेटने का प्रयास इस दीपावली पर्व पर मैं पुनः करूँगा।
       मैंने इस अनजान शहर में अपने परिश्रम एवं ईमानदारी से जो भी पहचान बनायी है ,  उसका ही परिणाम है कि आज अनेक विशिष्टजन मुझे सम्मान देते हैं।
     नियति ने  मेरा स्वास्थ्य, मेरा परिवार मुझसे छीन ली है । अपने लगने वाले शुभचिंतक यूँ ही अचानक बदल गये । यह भी कह सकते हैं कि न माला गूंथी और फूल  भी  कुम्हला गया ।
       ऐसे अनगिनत प्रश्न करने से अब क्या लाभ होना है । जीवन की इस शून्यता और दर्द से इतर यह समाज भी तो एक विशाल परिवार है । इस खुशी को मैं उदासी में क्यों बदलूँ ? मुझे तो वह दीपक जलाना है , जिसके संदर्भ में महाकवि गोपालदास ' नीरज' ने यूँ कहा है-

मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ़ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आएँ नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे हृदय में उजेरा,
कटेगे तभी यह अँधेरे घिरे अब
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए...।

     - व्याकुल पथिक
  ( जीवन की पाठशाला )ः




Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (इक वो भी दीपावली थी..) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन

Saturday 12 October 2019

स्नेह भरे ये पर्व ..

हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ( भाग- 2)




***************************
  परम्पराओं के वैज्ञानिक पक्ष को तलाशने की आवश्यकता है , उसमें समय के अनुरूप सुधार और संशोधन  हो , न कि उसका तिरस्कार और उपहास ..
****************************
    यह परस्पर प्रेम , विश्वास एवं समर्पण भाव ही है कि जो हमें पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व का बोध कराता है। जिससे हम एक सूत्र में बंध कर अपने कर्तव्य के प्रति सजग रहते हैं । मेरा पूरा परिवार भी कभी एक दूसरे के प्रति समर्पित था।
    हाँ, याद है मुझे आज भी नाटी इमली का वह भरतमिलाप । दशरथनंदन चारों भाइयों के मध्य परस्पर प्रेम की एक झलक देखने की ललक लिये लाखों श्रद्धालु यहाँ जुटते हैं।
    विजयादशमी पर्व के दूसरे दिन पूरे वाराणसी और आसपास के जनपदों से भी लोग इस प्राचीन भरतमिलाप को देखने जुटते हैं। यूँ समझे कि आस्था का जनसैलाब यहाँ उमड़ता है।
    विदित हो कि धर्म की नगरी काशी में  सात वार और तेरह त्यौहार की मान्यता प्रचलित है।  नवरात्र और दशहरा के बाद रावण दहन के ठीक दूसरे दिन यहाँ विश्व प्रसिद्ध भरतमिलाप का उत्सव काफी धूमधाम से मनाया जाता है।
   कभी दादी हम दोनों भाइयों को लेकर नाटी इमली जाया करती थीं। हर-हर महादेव के उद्घोष के मध्य हाथी पर बैठ काशी नरेश ( आजाद भारत में भी जनता उन्हें सम्मान में राजा साहब ही कहती थी) आते थें और फिर जब सूर्यनारायण अस्ताचल की ओर होते थें, तो चारों भाइयों के मिलन का अद्भुत दृश्य देखने को मिलता था।  सायं लगभग चार बजकर चालीस मिनट पर जैसे ही अस्ताचलगामी सूर्य की किरणें भरतमिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ती हैं , तब लगभग पांच मिनट के लिए माहौल थम सा जाता है। भरत और शत्रुघ्न दौड़ कर राम और लक्ष्मण के चरणों में नतमस्तक हो जाते हैं। इन भाइयों का परस्पर प्रेम देख भावुक होने के कारण मेरी आँखें नम हो जाया करती थीं।
   संत तुलसीदास जी के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे। मान्यता है कि उन्हें स्वप्न में तुलसीदास जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्हींं की प्रेरणा से उन्होंने इस रामलीला की शुरुआत की थी।
    दादी हम दोनों भाइयों को भी इसीतरह से प्रेमभाव बनाये रखने को कहा करती थीं। हम तीनों भाई-बहन एक दूसरे ध्यान रखते भी थें, परन्तु हम जब बड़े हुये,तो न जाने क्यों स्नेह का यह बंधन टूट गया। बड़ों के द्वारा पक्षपात भी इसका प्रमुख कारण बना।
  खैर, यह परम्परा क्या ढोंग है ? नहीं मित्रों , इस रामलीला के माध्यम से हमें यह सार्थक संदेश मिलता है कि संकट अथवा षड़यंत्र कैसा भी क्यों न हो यदि परिवार में आपसी सद्भाव एवं त्याग की भावना है ,  हम सत्य के मार्ग पर हैं , तो इस आपसी सौहार्द के समक्ष हर विपत्ति नतमस्तक है।
    अरे! आज तो शरदपूर्णिमा है। याद है मुझे कि इस दिन मैं कोलकाता स्थित अपने कमरे के बाहर सीढ़ी पर खड़ा हो चंद्रमा की रोशनी में सुई में धागा पिरोते थे । माँ कहती थी कि ऐसा करने से आँँखों की ज्योति बढ़ती है। साथ ही खीर पकाकर रातभर ओस में चंद्रमा की रोशनी में रखा जाता था। हम सभी सुबह इस खीर का प्रसाद ग्रहण करते थें । हमें बताया गया था कि चंद्रदेव ने रात्रि में अमृत- वर्षा की है, अतः खीर खाने से स्वास्थ्य उत्तम रहेगा। बंधुओं , अपनों के स्नेह से निर्मित यह खीर बाजार में नहीं मिलती है कि पैसे से खरीदा जा सके।
  क्या इस परम्परा को भी आधुनिक तथाकथित सभ्य समाज के कूड़ेदान में फेंक देना चाहिए ?
  वैज्ञानिक व्याख्या यह है कि चन्द्रमा की किरणों को 'रजत-ज्योत्स्ना' कहने के पीछे चन्दमा पर उपलब्ध एल्युमिनियम, कैल्शियम, लोहा, मैग्नीशियम तथा टिटेनियम में वह बहुत सारे गुण विद्यमान है, जो चांदी में उपलब्ध होते है । चावल की खीर के पीछे औषधीय कारण है कि नए धान की फसल पर जब चन्द्रमा की यह किरणें पड़ती हैं तब धान (चावल) अत्यंत पुष्टिकारक हो जाता है । आश्विन मास का नामकरण अश्विनीकुमारों के नाम से होने के कारण आयुर्वेदिक चिकित्सक तमाम बीमारियों की दवा इस रात रखे गए खीर के साथ रोगियों को देते है । पुष्टिकारक एवं आयुष्य देने वाली किरणों के कारण ही हमारे ऋषियों ने 12 महीनों में 'जीवेम शरद:शतम' का आशीष देकर इस माह को गौरवान्वित किया ।
      शरदपूर्णिमा पर्व को कोजागरी पर्व कहा जाता है । संस्कृत में 'को' का अर्थ रात्रि से है और 'जागरी' का आशय जागरण से है । चातुर्मास में नारायण की योगनिद्रा की स्थिति में इस दिन माता लक्ष्मी धरती पर वरदान एवं निर्भयता का भाव लेकर विचरण करती हैं । जो जागता है और नारायण विष्णु सहित उनका का पूजन अर्चन करता है, उसे आशीष देती है । इसीलिए चन्द्रोदय होते ही सोने, चांदी, या मिट्टी का दीपक जलाकर एवं खुले आकाश में खीर का भोग लगाकर पूजन अर्चन करना बताया गया है ।
   शरदऋतु की पूर्णिमा के चन्द्रमा की रसमयी किरणों में भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर तक पहुंचने की लीला है । चन्द्रमा का सम्बंध मानव के मन से है । सृष्टि की उत्पत्ति से लेकर विकास तक के पीछे मन की भूमिका है । मन अंधकार की ओर भी ले जाता है तो ज्ञान के बल प्रकाश की ओर ले जाता है ।

   इसी पर्व के पश्चात पति- पत्नी के प्रेम का पर्व करवाचौथ आ जाता था। इस सुहाग -पर्व की सुखद अनुभूति तो मुझे नहीं है, परंतु फिर भी इस व्रत के दिन मैंने अपनी माँ, मम्मी और मौसी तीनों के सहायक की भूमिका अवश्य निभाई है।
   कुछ वे बुद्धिजीवी जो ऐसी परम्पराओं को सिर्फ दिखावटी बता इनका विरोध करते हैं, सम्भवतः इन्हें ऐसे पर्व की खुशियों की अनुभूति नहीं है।  सच तो यह है कि इस करवाचौथ पर्व में वह स्नेह निहित है , जो युवा ही नहीं वृद्ध दम्पति को भी मुस्कुराने का अवसर देता है।
  अब चलते हैं बनारस अपने घर पर , जहाँ करवाचौथ पर मेरी माता जी यानी कि मम्मी निर्जला व्रत रख सुबह से ही पूजा व्यवस्था को लेकर व्यस्त हो जाती थीं। मिश्रित धातु के बड़े और छोटे दोनों करवा और थाली को राख से अच्छी तरह चमका कर धुला जाता था। चावल भी धोकर छत पर धूप में डाला जाता था। हम बच्चों की जिम्मेदारी थी कि कोई पक्षी उसे खाने न पाए। इस चावल और चीनी को पीस कर उसमें शुद्ध घी एवं कपूर डाल कर लड्डू बनाये जाते थें। मेरा कार्य था गाय का गोबर ,  बेसन का लड्डू और करवा में  प्रयुक्त होने वाला सींक लाना। पूजाघर की दीवार के एक चौकोर भाग को गोबर से लेपन किया जाता , जिसपर पीसे चावल को पानी में घोल उससे सियामाई सहित सातों बहनों, सूरज, चांद, वृक्ष, जिसपर छलनी और दीपक लेकर चढ़ा एक युवक, निर्जला व्रतधारी उसकी बहन और उसके सातों भाई एवं भाभी के अतिरिक्त वह नाव जिसपर उसका पति सवार होता था , वे सारे चित्र बनाएँ जाते थें। पहले यह कार्य मम्मी करती थीं ,परंतु बाद में चित्रकला में रूचि होने के कारण मैं यह सब बनाया करता था। कोलकाता माँ और मुजफ्फरपुर में मौसी जी भी मुझसे से सियामाई और अन्य चित्र बनवाती थीं। अंतर सिर्फ इन दोनों स्थान पर यह था कि दीवार की जगह मोटे सफेद कागज पर गोबर लेपन कर उस पर चित्र बनाया जाता था, ताकि घर की दीवार खराब न हो और पूजन के पश्चात चित्र सुरक्षित रहे।
    पापा तो रात में ट्यूशन पढ़ा कर आते थे, अतः   सुहागिनों का सम्पूर्ण श्रृंगार करने के पश्चात व्रत की कथा मम्मी मुझे ही सुनाती थी। पुरस्कार में मुझे उसी रात सर्वप्रथम चावल के दो बड़े लड्डू मिलते थें। यह लड्डू मुझे सबसे प्रिय है। जिसे पिछले लगभग तीन दशक से नहीं खाया हूँ , क्यों कि मेरी वह छोटी- छोटी खुशियाँ एक-एक कर छिनती चली गयी।
 पापा जब रात में आते थें,तो पूजन कार्य सम्पन्न कर मम्मी को जल ग्रहण करवाते थें। एक बात बताऊँ , सदैव मौन अथवा कठोर वचन बोलने वाले पिता जी इस दिन पत्नीभक्त बने दिखते थे और निर्जला व्रत होने के बावजूद भी  मम्मी की खुशी देखते ही बनती थी। करवाचौथ एवं हरतालिका व्रत पर वे घर की मुखिया जो हो जाती थीं। हम सभी उनकी आज्ञा मानते थें।
 हाँ, कोलकाता में माँ -बाबा तो सदैव एक दूसरे को चौधरी संबोधन से बुलाया करते थें। वहाँ , पति-पत्नी में अधिकार को लेकर कोई भेद नहीं था और मुजफ्फरपुर में मौसी जी वैसे ही मेरे सीधे साधे मौसा जी पर भारी पड़ती थीं।
   पुरुषों के धैर्य की असली परीक्षा छोटी दीपावली को होती थी। चार दशक पूर्व तब कार्तिक माह में ठंड पड़ने लगता था, इसके बावजूद उन्हें करवा में रखे ठंडे जल से स्नान करना पड़ता था। सिर पर जैसे ही करवा का पानी पड़ता था पापा , बाबा और मौसा जी कांप उठते थें। बच्चों-सा नटखटपन भी इनमें आ जाता था। सो, इस जल को डलवाने से पूर्व नखरे किया करते थें, परंतु अपनी -अपनी श्रीमती जी की घुड़की के समक्ष ये सभी नतमस्तक थें।
  तो क्या माँ, मम्मी और मौसी किसी उपहार के की कामना से व्रत रहती थीं। चार दशक पूर्व तो उत्तर प्रदेश एवं बिहार में करवाचौथ का प्रचलन भी आज जैसा नहीं था। मेरी मम्मी एवं मौसी ने पति से उपहार लेना तो दूर, अपने आभूषण बेच कर हम सभी को तमाम पर्वों पर खुशियाँ दी हैं।
 विपरीत आर्थिक स्थिति में भी कितना समर्पित थें, वे एक दूसरे के प्रति ऐसे पर्वों पर ,जिसका स्मरण कर आज भी मेरा मन आनंदित हो जाता है।
   वैसे, स्त्रियों के कार्य में मुझे इस तरह से रुचि लेते देख मेरा उपहास भी होता था ,तो यह आशीष भी मिलता था कि तुम्हें सर्वगुणसम्पन्न पत्नी मिलेगी।  खैर, नियति के समक्ष हर कोई नतमस्तक है। अतः जीवनसाथी की कल्पना और   अभिभावकों का यह आशीर्वाद फलीभूत नहीं हुआ। फिर भी ये खुशियाँ ,ये परम्पराएँ और अपने लोगों की स्मृतियाँ मेरे मानसपटल पर अंकित है। यही मेरे जीवनभर की पूंजी है। जब भी पर्व-त्योहार के अवसर पर इस बंद कमरे में मन विचलित होता है। उसे खुशियों भरी यादों की यह नींद की गोली दिया करता हूँ।
   सत्य तो यह है कि यदि हम अपनी संस्कृति, अपने संस्कार एवं अपने प्राचीन साहित्य को युवा पीढ़ी को देने में असमर्थ रहे, तो वह भटकाव की स्थिति में रहेगी। वर्तमान में नैतिक मूल्यों की उपेक्षा कर अर्थ के पीछे भागती दुनिया को ही वह सत्य समझ बैठेगी। वह विचारों के ठोस धरातल पर खड़े होने की जगह सिद्धांतविहीन स्वहित के मार्ग पर बढ़ उस दलदल में जा फंसेगी, जहाँ से उसे बाहर निकालने वाला कोई मार्गदर्शन नहीं होगा। अतः परम्पराओं के वैज्ञानिक पक्ष को तलाशने की आवश्यकता है , उसमें समय के अनुरूप सुधार और संशोधन हो ,न कि उसका तिरस्कार और उपहास ।
    आज भी जब मैं अपनी खुशियों को ढ़ूंढता हूँ तो बचपन में जो पर्व- त्योहार , दर्शन-पूजन और व्रत-उपासना परिजनों के साथ मनाया , उसमें वह छुपी मिलती हैं। (क्रमशः )

- व्याकुल पथिक
जीवन की पाठशाला






Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (स्नेह भरे ये पर्व..) आज के विशिष्ट लेखों में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
    

Tuesday 8 October 2019

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ (भाग-1)

हमारी छोटी- छोटी खुशियाँ (भाग-1)
*********************
   उस उदास शाम भी मैं जीवन की शून्यता और दर्द से स्वयं को उभारने की कोशिश में जुटा हुआ था कि किसी ने आवाज लगायी..

  " सा'ब , खुरमा ताजा है, लेंगे ? "

 " ले आओं भाई दस का " -मैंने कहा।

  ठेलेवाले की पुकार सुनकर उस दिन न जाने क्यों मैं स्वयं को रोक नहीं पाया था। यह जानते हुये कि बाहर का सामान न खाने की सख्त हिदायत मिली है। वैसे, मन को चाहे कितना भी तपा लो फिर भी मेले-पर्व पर ये इच्छाएँ हैं न, बेकाबू हो ही जाती हैं। सो, यह भूल गया कि  पिछले सप्ताह भर कमरे में बिस्तर पर एकाकी पड़ा हुआ था। सिर को जरा देर सहलाने वाला भी कोई न था,तो जीवन के रहस्यों पर से पर्दा एक-एक करके हटने लगा था। वैसे , अभी तो ये बानगी है।  आगे बड़ी चुनौतियों से टकराना है। अतः अपने दुर्बल तन-मन सावधान किये जा रहा हूँ।
   खैर,  खुरमा स्वादिष्ट था , परंतु अभी एक-दो  टुकड़े खाया ही था कि मन बोझिल-सा होता चला गया । वह सीधे बनारस की उस गली में जा घुसा था , जहाँ से कोई तीन दशक पूर्व एक युवक रोजी-रोटी की तलाश में भटकते हुये मुजफ्फरपुर,कालिम्पोंग और फिर मीरजापुर आ बसा है। वहाँ उसका अपना घर था, अपना स्वप्न था, अपने लोग थें और पर्व- त्योहार भी..।
  जीवन के उन मधुर स्मृतियों को वह अब भी भुला नहीं पाया है।
  उसके बचपन का एक हिस्सा कोलकाता में तो दूसरा यहीं गुजरा था ।  दुर्गापूजा- दशहरे परिवार  के पाँचों सदस्य  इन तीन दिनों में पैदल ही बनारस शहर का मध्य हिस्सा घूम आया करते थें। तब माताजी के हाथ का बना यह खुरमा ही हम बच्चों के लिये अनमोल मिठाई हुआ करता था।
   मैदा, चीनी और घी से बने इस खुरमा मिठाई, जिसे शक्कर पारा भी कहते है , को ऐसे विशेष अवसरों पर वे बनाती थीं। तब हमारे अभिभावकों की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि बाजार से मिठाइयाँ मंगाई जा सके, फिर भी हम सभी बहुत खुश थें। प्रत्येक रविवार को पिता जी का अवकाश रहता था। अतः हम सभी राजघाट पुल तक घूमने जाया करते थें। माताजी सुबह ही खुरमा और लाई नमकीन बना कर डिब्बे में भर लेती थीं,ताकि पुल पर बैठ जब पापा-मम्मी वार्तालाप में व्यस्त रहे ,तो हम तीनों भाई-बहन उसे खाते हुये माँ गंगा को निहारते रहें। हम बच्चों को रेलगाड़ी दिखलाने थोड़ी देर के लिये पिताजी काशी रेलवे स्टेशन पर भी जाते थें। पुनः पैदल घर वापस लौटते समय पांव भले ही जवाब देने लगते थे, फिर भी हम उर्जा से लबरेज रहते थें। किसी तरह की फिजूलखर्ची न थी इसतरह के पिकनिक में भी पिताजी को जेब टटोलना पड़ता। लेकिन, खुशियाँ  जिसे याद कर आज चार दशक बाद भी भी आँखें चमक उठती हैं। हमारी ये खुशियाँ बनावटी नहीं थी। हम तंगहाल भले  थें , पर दीनहीन नहीं..।
    श्रम से कोई पीछे नहीं हटता था। हम होंगे कामयाब यह उम्मीद हमारे अभिभावकों में कायम थी। सो,अगले दिन सुबह पिता जी और हम दोनों भाई पैदल विद्यालय की ओर निकल पड़ते थें। कतुआपुरा , विशेश्वरगंज से संकठादेवी मंदिर  समीप तो न था। उसी मंदिर के सामने हमारा स्कूल था। परिवार के किसी भी सदस्य में आलस्य का नामोनिशान तक न था। सभी एक दूसरे की आवश्यकता को समझते थें। आपस में कोई बहाने हम नहीं किया करते थें। पिता जी तो पूरे सत्यवादी हरिश्चन्द्र ही थें।
 हाँ, उनमें एक अवगुण था, वे क्रोधित शीघ्र हो जाते थें। अतः रात जब वे ट्यूशन पढ़ा कर लौटते थें , तो माता जी का पूरा प्रयास रहता था कि उनकी इच्छाओं का पूरा सम्मान हो। वे नमकीन सेव लेकर आते थें। यह उन्हें सबसे प्रिय था।  भोजन की थाली में यही नमकीन सेव उनके लिये चटनी और आचार-पापड़ था।  हम तीनों को भी उसमें से थोड़ा-थोड़ा हिस्सा मिलता था। ठंड के दिनों में बिस्तरे पर रजाई से मुँह ढक कर लेटे- लेटे ही हम बच्चे इस नमकीन सेव को देरतक ठुंगते रहते थें।
     मुहल्ले-टोले में ऐसा कोई परिवार नहीं था, जो हर सप्ताह सपरिवार पिकनिक मनाता हो। गरीब मास्टर साहब के इस खुशहाल परिवार को देख धनिक पड़ोसियों को तनिक ईष्या भी होती थी। हम तीनों बच्चों को स्वच्छ,सुंदर और बढ़िया वस्त्र पहने देख , वे समझ नहीं पाते थें कि इसके लिये पैसा कहाँ से आता था , पर वे नहीं जानते थें कि  हमारे वस्त्रों की धुलाई और रख रखाव पर कितना ध्यान दिया जाता था। धूप में सारे कपड़े उलटा कर ही फैलाये जाते थें , इसलिये उसका रंग नहीं उड़ता था। विद्यालय से घर आते ही हमारे यूनिफॉर्म खूंटी पर टंग जाते थें। जूता रैक में होता था।
   त्योहार मनाने के लिये पैसे की व्यवस्था कुछ महीने पहले से ही हमारे अभिभावक करने लगते थें। खर्च में कटौती करने के लिये हर रात्रि वे डायरी पर  प्रतिदिन खरीदी गयी सामग्रियों का विवरण लिखते थें, ताकि आय- व्यय का संतुलन बना रहे। दस पैसे के सामान को भी जोड़ा जाता था। एक दीपावली पर्व पर तो माता जी ने  घर में संग्रहित लगभग सौ उपन्यास एक पुस्तक की दुकान पर बेच दिया। ये सभी उस समय के अच्छे लेखकों  के उपन्यास थें। लेकिन, हम बच्चों की खुशियाँ बड़ी थी उससे। मुझे याद है कि एक होली पर उन्होंने अपनी कई महंगी नयी साड़ियाँ बेच दी थीं, जिसका उन्हें तनिक भी दुख नहीं हुआ। इस तरह से धन के अभाव में हमारा परिवार किसी भी पर्व को मनाने से वंचित न रहा।
     रामलीला, नक्टैया और दुर्गापूजा देखने और घूमने का लुत्फ़ हमसभी ने खूब उठाया है। वैसे तो रामलीला देखने हम दादी के साथ जाया करते थें । हमारे माता-पिता से छिप-छिपा कर दादी अपनी ममता हम दोनों भाइयों पर लुटाया करती थीं ।  लाटभैरव की नक्टैया में शामिल लाग और विमान हमारे घर के समीप से देर रात गुजरता था। इसे देखने के लिये स्थान चयन की जिम्मेदारी दादी की हुआ करती थी। दारानगर और चेतगंज की नक्टैया हम देखते थें।
   हम बच्चों के लिये मुखौटे , तीर-धनुष और तलवार-गदा खरीद कर पिताजी लाया करते थें। इन्हें धारण कर हम भी राम- लक्ष्मण जैसा संवाद करते थें। मुकुट और तीर की सजावट मैं स्वयं करता था। छत पर जा बंदरों को तीर-धनुष दिखला हम भगाया करते थें। हम बच्चों को इसतरह से खेलते देख पापा- मम्मी को अत्यधिक  सुख मिलता था। मुझे याद है कि बाजार में हम तीनों ही बच्चे किसी सामग्री को लेने के लिये अपने अभिभावकों से कभी भी जिद्द नहीं करते थें। जैसे हम समय से पहले ही बुद्धिमान हो गये थें और घर की आर्थिक स्थिति का ज्ञान हो गया था।
    हमें बालू में भूनी हुई मूंगफली, रेवड़ी-चिउड़ा भी खाने को मिलती थी। इन्हीं खाद्य सामग्रियों के लिये हम बच्चे नक्टैया की बेसब्री से  प्रतीक्षा करते थें। यूँ समझें कि यही हम बच्चों का मेवा था।
  हम तीनों को खुश देख कर हमारे अभिभावकों को अत्यंत संतोष मिलता था। उन्हें प्रतीक्षा थी कि उनका श्रम कब मुस्कुराएगा। वे ईश्वर से प्रार्थना करते थें कि  धन की कुछ और व्यवस्था इन बच्चों के लिये हो जाती ,तो बढ़िया मिठाइयाँ भी आ गयी होंती... ।(क्रमशः)
         -व्याकुल पथिक
    जीवनकी पाठशाला से



Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (हमारी छोटी-छोटी खुशियाँ)आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है |