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Friday 6 April 2018

व्याकुल पथिक 6/4/18
   आत्मकथा

     संघर्ष से ही व्यक्ति शुद्ध होता है और बुद्ध बनता है। संघर्ष की राह में सहयोग भी है, तो प्रलोभन भी। सो,पत्रकारिता के संघर्ष में प्रलोभन , उत्पीड़न और सहयोग एक प्रमुख विषय है। अब तो अपने मालिकान के लिये भरपूर विज्ञापन संकलन की जिम्मेदारी भी हम जिला प्रतिनिधियों की होती है। हां, बड़े अखबारों में ब्यूरोचीफ प्रेस की तरफ से आता जाता है। सो, उसका वेतन पक्का है। लेकिन, स्थानीय पत्रकारों को काफी कम पैसा उसका प्रेस देता है। फिर भी हमें अपने ईमान पर चलना है । बनारस से यहां आया तो चालीस रुपया रोज मुझे मिलता था। बाद में दो हजार रुपया महीने में मिलने लगा। स्थिति तब वर्ष 1995 में मेरी यह रही नहीं कि स्कूटर- बाइक रख लूं। उस समय के एक उदार दिल वाले जिले के वरिष्ठ युवा अधिकारी जिनके आवास पर मैं साइकिल से ही जाया करता था। वे मेरे परिश्रम , समाचार संकलन की ललक और उसे सत्य के करीब रख कर प्रकाशन से काफी प्रभावित थें। रात्रि में उन्हें गांडीव का इंतजार रहता था। संवेदनशील अधिकारी थें, तो स्वभाविक है कि उन्हें यह लगा हो कि पत्रकारिता जगत में बनारस से अखबार लाकर और फिर उसे यहां वितरण करना काफी कठिन काम है। खैर, एक दिन उनके एक कनिष्ठ राजपत्रित पुलिस अधिकारी ने मुझे बुलाया। उनसे भी मेरी खूब बनती थी। उन्होंने धीरे से मुझे बताया कि साहब की इच्छा है कि आप भी बाइक से हो जाएं। इससे पत्रकारिता करने में आपको सहूलियत मिलेगी। यह कोई प्रलोभन नहीं बल्कि सहयोग भाव रहा साहब (आला अफसरों  को हम पत्रकार तब साहब ही कहते थें) का। दरअसल इस विभाग में गाड़ियां अकसर ही समय समय पर निलाम हुआ करती हैं। सो, मेरी व्यवस्था भी हो रही थी । यह मेरे पत्रकारिता जीवन का पहला बड़ा तोहफा था और जो साहब इसकी व्यवस्था करवाना चाहते थें, उनकी छवि भी उस समय ईमानदार अफसर की थी। मेरा युवा मन मचल रहा था। मानो चंद्र खिलौना मेरे पास आने वाला हो...

   यहीं मेरे पत्रकारिता धर्म की बड़ी परीक्षा थी। मन कह रहा था कि अन्य पत्रकारों की तरह तुम भी बाइक से चलोगे, तो बड़ी इज्ज़त मिलेगी, पर अन्तर्रात्मा की आवाज थी कि जब तुमने लाखों की अपनी अचल सम्पत्ति (घर) यूं ही छोड़ दी है, तो इतना बड़ा कोई गिफ्ट ना लो कि फिर उसी की खुशी में तिरोहित हो जाओ। वैसे भी बचपन से लेकर अब तक मेरा जीवन कटी पतंग की तरह ही है... कहीं से तनिक भी खुशी मिली, यह मेरी नियति को स्वीकार नहीं है।  फिर से मुझे उसी निराशा हताश भरे दलदल में खींच लाती है वह । सो,  मन को मुंशी प्रेमचंद की बाल मन से जुड़ी हृदयस्पर्शी कहानी ईदगाह के पात्र हामिद की तरह समझाता रहा कि मोटर साइकिल लेकर क्या करोंगे भाई ,कहां से लाओगे तेल। इसमें क्या जनहित है और यह साइकिल तुम्हारी असली पहचान है, आदि आदि...
   खूब समझाया था तब मैंने , उससे कहा था कि जानते हो न कि यह सहयोग तुम्हें कितना महंगा पड़ेगा।दो हजार की नौकरी में अपने साथ अब बाइक का भी पेट कैसे भरोगे भाई । लेकिन, इसका भी एक विकल्प था , क्यों कि कतिपय पत्रकारों को एक पर्ची जब तब किसी पेट्रोल पम्प की मिल जाया करती थी। जाहिर है कि यह पर्ची थामना एक पत्रकार के नैतिक धर्म के विपरीत था। इतना तो घर से संस्कार लेकर निकला ही था। सो, उस ब्रेक के बादलों आज तक साइकिल से ही चल रहा हूं। क्योंकि बात गाड़ी के उसी तेल खर्च की आकर फंस जाती है। पत्रकारिता के क्षेत्र में हूं धन सम्पन्न लोगों, व्यापारियों और राजनेताओं से भी अच्छा परिचय हैं। तमाम लोग अपनत्व का भाव भी रखते हैं। उन्होंने मेरा भी निःस्वार्थ भाव से सहयोग किया है। आज भी मैं जो राही लाज में शरण ले रखा हूं। वह क्या है , सहयोग ही तो है। कहां सहयोग है और कहां आपकी कलम को बंधक बनाया जा रहा है, इस पर भी विचार करना पड़ता है एक पत्रकार को। मेरी लेखनी अच्छी थी, तो स्वहित में उसका उपयोग भी लोग उठाना चाहते थें। तब अखबार भी खूब मार्केट में था। लेकिन, मैंने किसी की पार्टी और लंच-डिनर अनावश्यक स्वीकार नहीं किया । इसकी प्रेरणा मुझे अपने गुरु जी स्व० पं0 रामचंद्र तिवारी जी से मिली थी। वे गांडीव के विशेष सम्वाददाता थें। परंतु अपने से स्वयं कुछ भेजते नहीं थें। जो खबर होती थी, वह मुझे बताया सिखाया करते थें। शाम को अखबार बांटते हुये मैं उनकी स्टेशनरी की दुकान पर शहर कोतवाली के सामने जा खड़ा होता था। इससे पहले एनआईपी के वरिष्ठ पत्रकार लल्लू चाचा को भी लालडिग्गी में उनकी दुकान पर अखबार देता था। जैसा कि बता ही चूका हूं कि सुबह यहीं उनके आवास पर बैठ कर समाचार लिखता था। मेरी पत्रकारिता पर इन दोनों ही विपरीत स्वभाव के वरिष्ठ गुरुजनों का काफी प्रभाव पड़ा है। सो, मैंने बेधड़क प्रलोभन रहित समाचार लेखन किया। साथ ही निश्चित भी रहता था कि यदि कहीं फंसा, तो लल्लू चाचा तो हैं ही। रही बात दबाव की तो मुझसे बलपूर्वक आज तक कोई भी कुछ लिखवा छपवा नहीं सका है।(शशि)

क्रमशः