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Sunday 1 July 2018

पंक्षी पिंजरे से बाहर है




 
तन की दुर्बलता भले ही नहीं दूर कर पा रहा हूं , पर मन इन दिनों प्रफुल्लित है। इसके तीन कारण है। पहला तो यह कि वर्ष 1988 के बाद अब कहीं जा कर निश्चिंतता के साथ अपनी पसंद की पुस्तक पढ़ पा रहा हूं। टेलीविजन और अखबार तो मैं वैसे भी देखता-पढ़ता नहीं हूं,  रंगमंच पर चार शो करने में ही पस्त जो हो जाता था।और अब पत्रकारिता से मोह भंग हो रहा है , तो इन माध्यमों में अपना समय नष्ट क्यों करूं ? इस मामले में मैं सच पूछें तो बसपा सुप्रीमो बहन मायावती के विचारों से सहमत हूं कि निष्पक्षता कितनी है इनमें ? मैं पत्रकार हूं,अतः मुझे पता है कि फलां चैनल अथवा न्यूज पेपर का झुकाव किस ओर है और क्यों,  साथ ही यह भी कि पेडन्यूज का गेम कैसे होता है। संस्थान के मालिकान हम जैसे जिले के पत्रकारों को नादान प्यादे से अधिक कुछ नहीं समझते। वे हमें बस विज्ञापन उगलने वाली मशीन बनाना चाहते हैं। अतः मैं अब अच्छे लेखकों को पढ़ना चाहता हूं।  पुस्तक लेने  बाजार भी नहीं जाना है हमें , न ही जेब टटोलना है। अपना स्मार्ट फोन जो है न ?  दूसरा कारण मैं इस झूठे उपदेश से मुक्त होने को हूं कि पत्रकारिता को पेशा न समझा जाए, बल्कि यह समझे कि जनता की सेवा का माध्यम है। सच कहूं तो नैतिकता के इसी पाठ ने मेरे तन-मन को खोखला बना दिया है। संस्थान हम जिले के पत्रकारों को कितना वेतन देता है , यही माह में 5 से 7 हजार के आसपास। मुझे अधिकतम साढ़े चार हजार मिला करता था। जिसमें से तो डेढ़ हजार रुपया कमरे के किराये में ही चला जाता !  फिर ऐसी भी क्या जनसेवा कि हाड़तोड़ परिश्रम करने के बावजूद जिस कार्य को करने से सम्मानजनक तरीके से जीवकोपार्जन न किया जा सके। यह समाज हमें भी क्रांतिदूत बना कर शहीद तो नहीं करना चाहता है।
      वैसे, इन क्रान्तिकारियों की भी एक छोटी सी ख्वाहिश जरूर थी -
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशां होगा।
       पर यहां आज आजाद भारत में भी दौलतमंदों के चौखट पर मेला लग रहा है।
 हमारे ही कुछ कर्णधार देश का दौलत विदेशी खजानों में जमा कर रहे हैं। अंग्रेज भी तो यही करते थें। राजनीति , शिक्षा, चिकित्सा सब व्यापार हो गया है। परंतु तकलीफ इन सभी को इस बात से है कि पत्रकारिता को पेशा नहीं जनसेवा कहा जाए। आप तरमाल गटकते जाए , हम टुकुर टुकुर ताकते रहें।  यही किया है मैंने वर्षों तक। परंतु अब नहीं, मैं स्पष्ट रुप से पत्रकारिता में आने वाले युवकों से कहना चाहता हूं कि ऐसी झूठी जनसेवा के लिये स्वयं को बलिदान कर देने से कुछ भी नहीं मिलेगा आपको। अतः साथ में कोई और उद्यम करों। जेब में लक्ष्मी होगी, तभी तो घर में गृहलक्ष्मी का प्रवेश होगा और बच्चों की किलकारियों से तुम्हारी बगिया खिलखिलाती नजर आएगी।
    खैर बात मैं अपनी प्रसन्नता की कर रहा था, तो तीसरा बड़ा कारण यह है कि मुझे रंगमंच पर चार की जगह सिर्फ दो शो ही करना पड़ रहा है, विगत एक माह से।  सो , दोपहर ढलते के बाद एक ऐसा फकीर बन जाता हूं , जिसे कोई चिन्ता नहीं बस चिन्तन  करना है ! रोड जाम के कारण जब रात्रि में पेपर लाना और वितरण करना बंद करना पड़ा था, तो पूछे नहीं कितना मानसिक कष्ट हुआ था मुझे, लेकिन संस्थान को तनिक भी नहीं । संघर्ष मेरा ही जो था। ग्राहक कुछ दुकानों पर तो साढ़े 10 -11 बजे रात तक भी मेरा इंतजार करते रहते थें। पूछ भी लिया करते थें कि शशि भैया आज बहुत विलंब, जाम लगा होगा न? इतने सालों से इस सांध्यकालीन दैनिक समाचार पत्र को लेकर मुझे गर्व यह था कि जिले की ताजी खबरों को सबसे पहले मैं पाठकों तक पहुंचा रहा हूं।बाकी के अखबार तो अगले दिन ही देंगे न।परंतु वर्तमान सरकार में ट्रैफिक क्या जाम होने लगा सार काम धंधा मेरा चौपट हो गया। चलो अच्छा हुआ योगी सरकार में मैं भी एक भिक्षुक बन गया हूं।  सो, मुंशी प्रेमचंद की कहानी पूस की रात के पात्र हल्कू की तरह प्रसन्न हूं । जानवर खा गये फसल तो क्या हुआ, अब खेत पर ठंड में रात तो नहीं गुजारनी पड़ेगी न ? मुझे भी तो अखबार का बंडल उतारने के लिये घंटों रोड पर अब नहीं खड़ा रहना होगा। याद है मुझे कि किस तरह से बरसात में औराई चौराहे पर खड़े-खड़े बारिश  से सराबोर हो जाता था या फिर ठंड में बारबार मफलर को कसते रहता था कि उसके झरोखे से बर्फिली हवाएं कानों में न जा घुसे। सड़क किनारे खड़े घड़ी की भागती सूई को निहारता रहता था।  कांटा बढ़ता रहता था, फिर भी बस का पहिया रास्ते में न जाने कहां जाम हो जाया करता था। जब पेपर का बंडल हाथ लगता था ,तो देर रात होने पर औराई से मीरजापुर वापसी के लिये आटो ,बस या ट्रक कोई भी साधन मिल जाए, की तलाश में भटकता था। अब योगी राज में इन सभी तकलीफों से मुक्त हूं। ठीक उसी हल्कू की तरह, जिसे फसल नष्ट होने पर भी यह पीड़ा नहीं हो रही थी कि खेती किसानी की जगह अब मजूरी करनी होगी। सो, साधुवाद देना चाहता हूं वर्तमान सरकार की बेपटरी हुई इस यातायात व्यवस्था को जिसने ढ़ाई दशक की एक बड़ी पीड़ा से यूं ही झटपट मुझे मुक्ति जो दिलवाई है।
         सो," पिंजरे के पंछी रे तेरा दर्द न जाने कोए" , चलो यह कह कर तो कोई उपहास नहीं करेगा, क्यों कि पंक्षी पिंजरे से बाहर है !



 ( शशि)

चित्र गुगल से साभार