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Friday 1 June 2018

अंधेरी गलियों में अब ना रखूंगा कदम...



कोई ढ़ाई दशक लम्बा कठिन संघर्ष इस मई माह के आखिरी दिन  बिखर सा गया। पाठकों के लिये यह संदेश व्हाट्स अप ग्रुप में टाइप करते समय मेरी उंगलियां कुछ कांप सी रही थीं। फिर भी मजबूर था। सारे रास्ते बंद हो चुके थें।  मैंने यह लिखा था कल ही तो...
             *मित्रों/ अग्रजों सहित स्नेही सभी पाठकों को बताना चाहता हूं कि रात्रि में वाराणसी से बस नहीं मिल रही है, यदि मिल भी रही है तो भारी जाम लगा रहता है, ऐसे में बिगड़ते स्वास्थ्य और जो इस असम्वेदनशील सरकार का रवैया है(जिसका परिणाम , चुनाव में आप सभी देख रहे हैं) , इन्हीं कारणों से अब रात्रि में अखबार वितरण कर पाने में असमर्थ हूं। ढ़ाई दशक तक आपकी सेवा देर रात तक पेपर बांट कर की है। लेकिन, इस सरकार और उसके रहनुमाओं में अब सम्वेदनाओं का कोई स्थान नहीं है। सो, अब सुबह ही पेपर पहुंचा पाऊंगा। जिनका सहयोग और आशीर्वाद मुझ हॉकर पत्रकार को मिलेगा। उनकी सेवा जारी  रहेगी और जो पाठक अखबार बंद करना चाहें, तो साहब कल तक बता दें। बड़ी कृपा होगी।*

      सत्ताधारी इन रहनुमाओं से मैंने एक आखिरी गुहार 25 मई को यहां तुलसी भवन में तब लगाई थी...

   जब भाजपा के चार वर्ष पूरा होने के अवसर पर एक पत्रकार वार्ता में पार्टी के प्रदेश संगठन के मंत्री मोदी सरकार की  उपलब्धियां  गिनवा रहे थें । मैंने मंत्री जी से कहा था कि
कैंट वाराणसी से फ्लाईओवर हादसे के बाद से बस देर शाम नहीं मिल रही है। अवरुद्घ मार्ग कब खुलेगा। जिस पर ,संगठन मंत्री का कहना रहा कि धैर्य रखें रुड़की से इंजीनियरों की टीम आयेगी , जांच के पश्चात मलबा हटा रास्ता खोल दिया जाएगा। समझ में नहीं आता कि रुड़की अमेरिका में है क्या कि पखवाड़े भर से ऊपर इस हादसे को हो गया और रास्ता बंद है ।
    अंततः मुझे वह अप्रिय निर्णय लेना ही पड़ा, जिसे मैं पिछले वर्ष से ही टालता आ रहा था। मीरजापुर आने के बाद से जो मेरी पहली पहचान थी, मेरी तपस्या थी और जिसके कारण मैं श्रेष्ठता का अनुभव कर गौरवान्वित महसूस करता था, जिसे अभी मैं खोना बिल्कुल भी नहीं चाहता था, भले ही स्वास्थ्य साथ नहीं दे रहा था... जी हां यह मेरी दीवानगी ही थी कि रात्रि में 11 बजे तक पेपर बांटने वाला इकलौता हॉकर था , अपने पेशे के प्रति इस मोहब्बत का विवशता में परित्याग करते समय मेरी मनोदशा कैसी है, उसे आपको कैसे समझाऊं...शायद  इसीलिये बड़े बुजुर्ग सदैव कहा करते थें कि यौवन के ढलान पर हमसफर का होना जरुरी है। ताकि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में अवसाद से बचने के लिये किसी के आंचल का सहारा मिल सके। खैर , जब मेरा अस्तित्व ही एक बंजारे में तब्दील हो गया , तो फिर इस व्याकुलता, इस वेदना ,इस व्यथा पर नियंत्रण पा ही लूंगा , हां अभी पीड़ा में हूं। हुआ यूं कि 31 मई  को देर शाम शास्त्री पुल पर अखबार का बंटल लेने कोई पखवारे भर बाद खड़ा था। सोचा था कि यदि नौ बजे भी पेपर लेकर बस आ जाती ,तो कम से कम स्नेही पाठकों से दुआ सलाम हो जाता। पच्चीस वर्षों से हर संबंधों को तोड़ कर यही तो एक रिश्ता ग्राहक और मेरा बचा था...
      बस और बंडल का पुल पर बेसब्री के साथ बस की प्रतीक्षा में खड़ा था। घड़ी ने रात्रि के 10 बजने का संदेश दे दिया था ...कब बस आती और कब पेपर बांटता। पहले  9 बजे तक पेपर बांट कर खाली हो जाता था और  अब 10 बजे बंटल ही मिलना कठिन था ।  समय से अखबार आने से ही तो समाचार लेखन की सार्थकता हैं न। पर ऐसा हो नहीं रहा था.. और मुझे कहना ही पड़ा...
" तेरी गलियों में ना रखेंगे कदम आज के बाद "

(शशि)