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और हृदय को दहलाने वाली वह आवाज आज फिर मैंने सुनी। ऐसी करुण पुकार सुन मुझे ग्लानि होती है कि मैं इनकी रक्षा केलिए कुछ भी नहीं कर पाता हूँ...
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नववर्ष के प्रथम दिन सुबह होते ही यह सुनने को मिला कि ईसाई हो या हिन्दू.. !
मैंने सोचा , चलो अच्छा हुआ कि किसी ने मुसलमान तो नहीं कहा और कह भी देता तो कौन-सा पहाड़ टूट पड़ता मुझपर, जब हम यही मानते हैं कि सबका मालिक एक है, तो फिर मजहब को लेकर यह बखेड़ा क्यों ?
मुझे नहीं पता ऐसे व्यर्थ के खुचड़ निकालने वाले लोग अपने सारे कार्य क्या हिन्दी पंचांग से करते हैं ? हिन्दी महीने और तिथियों की इनमें से कितने को जानकारी है ।भारतीय पंचांग के अनुसार संवत, नक्षत्र, तिथि, दिन, घटी, दण्ड, पल, मुहूर्त आदि के संदर्भ में आप इनसे प्रश्न करके देख लें।
वैसे, मेरा भी यही मत है कि अपनी संस्कृति, संस्कार, पर्व और भाषा का संरक्षण करना चाहिए, परंतु इसतरह से शोर मचा कर उन्माद फैलाने वालों से मुझे घृणा है। वाराणसी के दंगाग्रस्त क्षेत्रों में मेरा बचपन गुजरा है और कर्फ्यू लगने पर किस तरह की कठिनाइयों का सामना हमें करना पड़ा, उसे ये क्या समझ सकेंगे ?
अतः मैंने सभी मित्रों एवं शुभचिंतकों को नववर्ष की पूर्व संध्या पर यह शुभकामना संदेश प्रेषित किया-"वैमनस्यता से दूर हम सभी अपने हृदय को सद्भाव रुपी जवाहरात से भरे, मानसिक, आध्यात्मिक एवं शारीरिक उन्नति करें, ऐसी कामना नववर्ष की पूर्व संध्या पर करता हूँ।"
हम हिन्दीभाषी सच पूछे तो परिस्थितिजन्य कारणों से दो नावों की सवारी के आदती हो गये हैं और हमारे पास अध्यात्म, साहित्य, संस्कृति एवं संस्कार का विपुल भण्डार होकर भी ऐसा क्यों लगता है कि अपना कुछ भी नहीं है !
खैर, अपनी दिनचर्या के अनुरूप प्रतिष्ठित ब्लॉग पर टिप्पणी संग शुभकामना संदेश देने के पश्चात मैं पौने पाँच बजे सुबह होटल राही की चौथी मंजिल से जैसे ही नीचे उतरा , मुख्यद्वार पर सामने ही आलिंगनबद्ध बंदरों की टोली मिल गयी। इस ठंड के मौसम में यह सुखद आलिंगन उन्हें उष्मा प्रदान कर रहा था। सत्य तो यही है कि आलिंगन ही सृष्टि का वह अनमोल उपहार है ,जो न सिर्फ सृजन करता है, वरन् प्रत्येक प्राणी को स्नेह और प्रेम से सराबोर कर जीवन को सार्थकता प्रदान करता है।
अभी कुछ आगे बढ़ा ही था कि मुकेरी बाजार तिराहे पर गोवंशों पर दृष्टि टिक गयी। ये सभी बिल्कुल शांत बैठे हुये थें। उनमें न काले,गोरे और चितकबरे होने को लेकर मतभेद था, न ही भूमि के स्वामित्व केलिए संघर्ष।
काश ! हम मनुष्य भी इनसे कुछ सीख पाते। मैं आज अपने चिंतन को बिल्कुल भी विराम नहीं देना चाहता था। चिंतन, अध्ययन और लेखन ये तीनों ही अवसाद से हमें दूर रखते हैं। हम इनमें जितना डूबेंगे ,हमारे विचारों में उतनी ही अधिक उर्जा संचित होगी। सो, मार्ग में जो भी मिल रहा था,उसपर निरंतर विचार किये जा रहा था। भले ही बुद्ध न बन सकूँ, फिर भी शुद्ध तो हो ही सकता हूँ।
इतने में कुत्तों के भौंकने की आवाज सुनाई पड़ती है। मैंने देखा एक कुत्ता दुम दबाये भागा जा रहा था और चार-पाँच कुत्ते उसे घेरे हुये थे। मैं समझ गया कि पहले वाले कुत्ते ने अनाधिकृत रूप से इन पाँचों के इलाके में जाने-अनजाने में घुसने का दुस्साहस किया है। अतः स्वजातीय होकर भी उसपर तनिक भी रहम वे पाँचों नहीं कर रहे थे। इनका व्यवहार कुछ ऐसा ही है, जैसा दो शत्रु राष्ट्रों की सीमा पर घुसपैठ को लेकर हम इंसानों का। इसीबीच प्रातः भ्रमण पर निकले कुछ बच्चों ने इनपर ईंट-पत्थर चला दिया। फिर क्या था, पें- पें करते ये सभी वहाँ से भाग खड़े हुये और भूमि वहीं की वहीं रह गयी। मुझे स्मरण हो आया कि अपने कबीर बाबा ने यही तो कहा है -
" ना घर तेरा ना घर मेरा चिड़िया रैन । "
न जाने क्या हो गया था आज सुबह से ही मुझे कि जो भी प्राणी सामने दिखा , मैं उसकी क्रियाकलापों को अपने " जीवन की पाठशाला " का एक अध्याय समझता गया ।
हाँ तो , इसी क्रम में गणेशगंज में नाली के समीप शिकार (चूहा) की प्रतीक्षा में बैठी बिल्ली मौसी दिख गयी। बिल्कुल कान खड़ा कर अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित किये हुये , साथ ही अपने शत्रु ( कुत्ता ) के आहट से भी सतर्क थी वह। यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस तप का फल(चूहा) मिल ही जाए , परंतु प्रतिदिन सुबह मैं इन बिल्लियों को नगर के विभिन्न गलियों और सड़क किनारे बनीं नालियों के समीप शिकार पकड़ने केलिए प्रयत्न करते देखता हूँ। यह देख मैंने स्वयं से पूछा - " बंधु ! क्या तुमने भी कभी लक्ष्य प्राप्ति केलिए इतना कठोर अभ्यास किया है ? यदि नहीं तो फिर फल न मिलने पर इतने विकल क्यों हो । "
और आगे वासलीगंज में मैंने क्या देखा वह भी बता दूँ ? मैंने देखा एक कुतिया अपने बच्चों को दूध पिला रही थी और समीप ही एक पिल्ला मृत पड़ा था। मैं समझ गया कि वह ठंड नहीं सह सका है। यहाँ भी दो बातें सीखने को मुझे मिलीं। पहला तो यह कि प्रकृति (परिस्थिति) के अनुरूप स्वयं को ढाल लेने का सामर्थ्य हममें होना चाहिए अन्यथा इसी पिल्ले की तरह मृत्यु (अवसाद ) को प्राप्त होंगे और दूसरा उस कुतिया कि तरह जिसे अपने मृत बच्चे के प्रति तनिक मोह नहीं था, उसका कर्तव्य तो बचे हुये बच्चों की देखभाल करना है। मनुष्य यदि मृत अतीत को गले लगा कर बैठा रहेगा, तब वह वर्तमान का पोषण किस प्रकार करेगा ?
और हृदय को दहलाने वाली वह आवाज आज फिर मैंने सुनी। ऐसी करुण पुकार सुन मुझे ग्लानि होती है कि मैं इनकी रक्षा केलिए कुछ भी नहीं कर पाता हूँ।
मुझे ऐसा महसूस होता है कि सम्भवतः कत्ल से पूर्व रुदन करते हुए पशु-पक्षी अपने पालक से यह पूछते हो कि कलतक जिन हाथों ने उन्हें स्नेह भरा स्पर्श और दाना-पानी दिया , आज उसमें छूरा क्यों है?
क्या कसूर है उनका ?
क्या उन्होंने अपने पालक से किसी प्रकार का विश्वासघात किया अथवा उनके आचरण में ऐसा कोई परिवर्तन आया ?
बिना अपराध बताए किस कारण उन्हें सजा-ए- मौत मिल रही है ?
मैंने देखा कि नये साल पर इनके गोश्त की मांग बढ़ गयी थी और वधिक इन निरीह प्राणियों के गर्दन पर दनादन छूरा चलाये जा रहा था। उसके हृदय में इतनी कोमलता नहीं थी कि वह मृत्युपूर्व इनकी इस आखिरी इच्छा का समाधान करता। हाँ , इन निरीह प्राणियों की चीत्कार पर मुझे वेदना भी हुई और उनकी मूढता पर तरस भी आया।
मैंने लगभग डपटते हुये उनसे कहा_ " अरे मूर्खों ! यह जल्लाद तुझपे क्यों मुरौवत करेगा
। मुझसे सुन , ऐसे पालक के प्रति यह "अति विश्वास" है न जो , वहीं तेरी सबसे बड़ी भूल है। बावले , इस झूठे जगत में कोई अपना नहीं होता। जो चतुर हैं,वे अपने मनोविनोद अथवा आर्थिक हित में हमजैसे भावुक प्राणियों का गर्दन हो या हृदय , छूरा घोंपने में तनिक न संकोच करते हैं । व्यर्थ वफादारी की शपथें ले और अश्रुपात न कर , मत फड़फड़ा , शांत हो जा सदैव केलिए शांत..!
ये तमाशबीन भी तेरी मदद नहीं करेंगे। अरे पगले , ये तेरे गोश्त के ग्राहक हैं, स्नेहीजन नहीं निष्ठुर और कपटी हैं। ये तेरे मांस को अपनी निगाहों से तोल रहे हैं । तूने क्या सोचा की वे तेरे मित्र हैं ! फिर न कहना इन्हें दोस्त ।
मैं जानता हूँ तेरे पास वक्त कम है, परंतु यह भी सुनता जा , कुर्बान होने से पहले यह संकल्प ले कि पुनर्जन्म होने पर ध्येय के प्रति अपना विश्वास ,अपनी निष्ठा सौंपते समय सजग रहेगा । "
यूँ समझ लें- " जीवन की पाठशाला" में इस कठोर सत्य की अनुभूति आभासी दुनिया से हुई है। और आपसभी कहा चलें जनाब ! तनिक ठहरे !!
संक्षिप्त में ही तो नववर्ष के प्रथम दिन का आँखों देखा हाल बयां कर रहा हूँ। क्या पता मेरी फालतू बातों में कुछ आपके मतलब की भी निकल जाए।
जब सड़कों को नापता वापस लौटा तो देखा कि मेरे एक बुजुर्ग मित्र बेहद उदास थे । उनकी जीवनसंगिनी का कुछ दिनों पूर्व निधन जो हुआ था । भरापूरा परिवार है। परंतु नववर्ष की सुबह का जलपान किये घर से निकले क्या थे कि फिर दोपहर भोजन पर घर जाने की इच्छा ही नहीं हुई। काफी कुरेदने पर उन्होंने लम्बी सांस भर बुझे मन से कहा -- "वो (पत्नी) होती तो कितनी ही बार फोन आ गया होता, अब कौन ?"
मैं उनका दर्द समझ सकता हूँ। नववर्ष पर मेरे लिए भी कहीं से टिफिन नहीं आता है । दूध, दलिया और ब्रेड यही अपने रसोईघर का साथी है। सो,जो था उसे ग्रहण किया और न्यूरोलॉजिस्ट द्वारा लिखी दवाइयों को ली और फिर रात्रि के दस बजते- बजते निंद्रा देवी के आगोश में समा गया ।
सत्य तो यह भी है कि मैंने भावनाओं की दुनिया से दूर खुली आँखों से इंसान को पहचानना नहीं सीखा है, अन्यथा मित्रता का आघात नहीं सहता।
हाँ , नववर्ष पर मेरा उत्साह बढ़ाया दर्शन, साहित्य एवं अध्यात्म में हस्तक्षेप रखने वाले एसपी सिटी श्री प्रकाश स्वरूप पांडेय ने, जिन्होंने मेरे ब्लॉग की सराहना की और पुलिस अधीक्षक डा0 धर्मवीर सिंह से पत्रकार से इतर एक संवेदनशील लेखक के रूप में मेरा परिचय करवाया। यह मेरे लिए बड़ी बात थी।
इस अवसर पर उनके द्वारा दी गयी गीता-दैनन्दिनी संग कलम और पुष्प नववर्ष पर एक ब्लॉगर के रूप में मेरे लिए अबतक का सबसे श्रेष्ठ उपहार रहा।
हाँ, एक बात और कहना चाहूँगा कि वेदना ने मुझे वह संवेदना दी, जिससे मैं औरों के दर्द को समझ पा रहा हूँ । साहित्यिक भाषा का ज्ञाता न होकर भी मैं उनकी पीड़ा को शब्द देने की कोशिश करता हूँ। वैसे, मैंने कोई नया संकल्प इस वर्ष नहीं लिया । नेताओं-सा वायदों की झड़ी लगानी मुझे नहीं आती,अभी तो पुराने काम ही अधूरे थें कि स्नेह की दो बूँद की ललक में कष्टदायी अंधकूप में जा फिसला था । कैसी विचित्र दुनिया है यह , जहाँ विशुद्ध प्रेम को भी धूर्तता समझते है लोग.. !!!
- व्याकुल पथिक
Har sambedan-sheel ko awasaad pahuncpapahunchaanehunchaanehaane wala lekh, bhai sb. 🙏🏻
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता खुफिया विभाग में तैनात एक पुलिस अधिकारी हैं
Jindgi ko jina bhi ak vedana hai dono ak hi hai .
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता श्री पन्नालाल बुंदेला, मीरजापुर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 05 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से आभार यशोदा दी, प्रणाम।
Deleteव्याकुल पथिक संवेदनशील,शिक्षाप्रद,संस्कारों से सुसज्जित सुनने को विवश करने वाली एक अनमोल पगडंडी बनकर रास्ता दिखाती है-स्नेहाशीष,सुखद,सराहनीय--रमेश मालवीय, दोहा(कतर) से
ReplyDeleteहमेशा खुश रहिये और यही ऊर्जा बनी रहे,कोई तो है!
Deleteसाहित्य सृजन अनेक जन्मों के अनंत पुण्यो का फल होता है ऐसी मनीषियों की सुदृढ़ धारणा रही है। सामान्य मनुष्य सामान्य बुद्धि रखता है किंतु साहित्यकार की बुद्धि प्रतिभा कही जाती है और प्रतिभा संपन्न व्यक्ति जगत में इने गिने लोग ही होते हैं ।उनको कोई भी आवरण ढक नहीं सकता है और न ही किसी परिस्थितियों से से वह संचालित होते हैं ।व्याकुल पथिक किसी के परिचय के मोहताज नहीं है। इनकी प्रतिभा स्वयं मुंशी प्रेमचंद की भांति प्रस्फुटित हो रही है और निश्चित रूप से एक समय ऐसा आएगा जबकि इनको लोग इनकी प्रतिभा संपन्नता और साहित्य सृजन के लिए याद करेंगे यह विश्व वांग्मय की एक परम विभूति हैं ।भाव प्रवणता एवं अभिव्यक्ति की सरलता इनकी सहज पहचान है। यथार्थ भावों का नैसर्गिक प्रकटीकरण इनकी प्रधान विशेषता है।
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता- श्री प्रकाश स्वरूप पाण्डेय,एस पी सिटी, मिर्ज़ापुर
👏 विश्वास वेदना देता है, फिर भी जीवन की विवशता या निरन्तरता के लिए विश्वास करना पड़ता है।
ReplyDeleteटिपप्णीकर्ता- श्रीमती ज्योत्सना श्रीवास्तव, पुलिस अधिकारी।
जीवन की पाठशाला सुन्दर अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता - हमारे सम्पादक स्वर्गीय राजीव अरोड़ा की धर्मपत्नी श्रीमती मीरा अरोड़ा हैं।
Shashi bhai, aapka aalekh
ReplyDeletedekha ,laga jaise ki shabd
antsrman se svatah sfoort
pravahman hain,aapko ek
Ghazal samarpit kar raha
hun,jo aapki bhavnaon ko
moort karti hai,
Jindgi hai to fir kami kya hai,
Ranj o gam kya hain aur
khushi kya hai,
Khush rahe gair to gam hi
kya hai,
gar yahi gam hai to khushi
kya hai,
sirf vish pan ki kahani hai
rahjani kya hai rahbari
kya hai,
Jo hai rahbar use to
chalna hai,
Kya andhera hai,roshni
kya hai.
Jo hai rahjan use to
dansna hai,
ki andhere ko roshni
kya hai.
Dil pe dariyadili ho
adhidarshak,
Koi aa jaye ,maut bhi
kya hai,
Aur khuda bhi ho to fir
kya kahiye,
Vo jo mil jaye ,
Jindgi kya hai?
Nut shell me yahi jindgi
Ka falsafa hai.
टिप्पणीकर्ता - श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार (मीरजापुर- मुम्बई)
आप ने जो लिखा है , ये मेरा चिंतन था , किसी की गरदन काट कर , मनुष्य नव वर्ष का आगाज कर रहा है , घोर विडंबना , उन जीवो की पीड़ा जो मनुष्य नही करता ' मेरी नजरो में वो राक्षस से भी बदतर हैँ 😥😥औऱ आपके लिखे लेख को मै दिल से प्रणाम करता हूँ 🙏 ❤ 🙏
ReplyDeleteटिप्पणीकर्ता- राज महेश्वर , मीरजापुर के प्रमुख समाजसेवी
लिखते चलें।
ReplyDeleteहृदय से आभार भाई साहब।
Deleteज़िंदगी है क्या……एक उदासियों का उपवन जिसमें हम विचरते हैं……या फिर कोई आशाओं का भवन जिसमें हम रहते हैं…… आख़िर ज़िंदगी चाहती क्या है……थोड़ा प्यार, थोड़ा दुलार, थोड़ा मान-मनुहार……कौन-सी चीज़ है, जो दिलों को जोड़ देती है ……कौन-सी चीज़ है, जो दिलों को तोड़ देती है, अलग कर देती है…… कई सवाल उभरते हैं ……क्यों मिले……क्यों बिछुड़े……हम ज़िंदा रहते हैं यादों के साथ……फरियादों के साथ…… कभी रोना तो कभी हँसना………बेचैनी में सपने भी कभी कमाल करते हैं तो कभी बहुत बुरा हाल करते हैं……बातें अधूरी, मुलाक़ातें अधूरी ……ऐसी चाहत जिसमें राहत नहीं होती है……जिन्हें हम ख़ुदा मानते हैं वो हमें ख़ुद से जुदा कर देते हैं……समझ कर भी हम समझ नहीं पाते हैं…… हम अकसर उन्हीं से दिल लगाते हैं, जो हमारी दुनिया उजाड़ जाते हैं ……फिर हम उजड़ी हुई दुनिया को खूबसूरत ख़यालों से सजाते हैं……न हम कुछ भूल पाते हैं, न कुछ कह पाते हैं……!
ReplyDeleteशशि भाई, जो सच्चा है और संवेदनशील है, चिंतन की धारा उसके ही हृदय से निकलती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आप प्रेमचंद जी की याद दिलाते हैं। सरल शब्दों का प्रयोग करते हुए अपनी बात को सहजता से कह जाते हैं। आपको पढ़कर यही लगता है कि हम ख़ुद को पढ़ रहे हैं। यदि लेखन में पाठक ख़ुद को देखने लगे, तो लेखन सफल हो जाता है। निश्चित रूप से आप ऐसा करने में सक्षम है। नववर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।💖
ReplyDeleteबहुत खूब कहा अनिल भैया ,
ReplyDeleteजागते रहो फिल्म की एक गीत की ये पंक्तियाँँ याद आ गई
ज़िंदगी ख़्वाब है
ख़्वाब में झूठ क्या
और भला सच है क्या
एक प्याली भर के मैंने
गम के मारे दिल को दी
जहर ने मारा जहर को
मुर्दे में फिर जान आ गयी ...
मुकेश की आवाज में जो दर्द है वह हमारी रचनाओं में दिखनी चाहिए
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (06-01-2020) को 'मौत महज समाचार नहीं हो सकती' (चर्चा अंक 3572) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं…
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रवीन्द्र सिंह यादव
प्रतिष्ठित ब्लॉग पर मेरे लेख को स्थान देने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद भाई साहब
Deleteयदि हम सिखना चाहे तो प्राणियों से भी बहुत कुछ सिख सकते हैं। लेकिन उसके लिए अपने ज्ञानचक्षु खुले रखने पड़ते हैं। बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति। नववर्ष की शुभकामनाएं। आपको जल्द ही स्वास्थ्य लाभ हो।
ReplyDeleteजी आभार आपका और इसलिए भी कि आप सभी को मेरे स्वास्थ्य की चिंता रहती है
ReplyDeleteबेहद हृदयस्पर्शी प्रस्तुति 👌👌
ReplyDeleteआभार आपका दी
Deleteबहुत ही हृदयस्पर्शी सुन्दर संन्देशप्रद सृजन....।
ReplyDeleteजी आभार आपका ,प्रणाम।
Deleteबहुत खूब सृजन
ReplyDeleteजी प्रणाम, आपका यह आशीर्वचन मेरा उत्साहवर्धन करेगा, पुनः नमन।
Deleteशशि भाई . आपका लेख निरीह पशुओं की वेदना के माध्यम से मानवीय संवेदनाओं की सार्थक अभिव्यक्ति करता है | असल में जब कोई व्यक्ति अंदर से खुद विकल होता है तो उसकी संवेदनाएं ओरों के दर्द के साथ अनायास जुड़ जाती हैं | मानव ने अपने स्वार्थ के लिए अनबोले पशुओं को सताने में कोई कसर नहीं छोडी है | भोजन के लिए मासूम पशुओं का वध उसकी निर्ममता का चरम है |आपने कुतिया की ममता के माध्यम से व्यावहारिक बात लिखी कि जो खो गया . उससे कहीं अनमोल है बचे हुए को सहेजना | भावपूर्ण लेख के लिए मेरी शुभकामनाएं|
ReplyDeleteजी रेणु दी जो शेष है उसे सहेज लेना ही बुद्धिमानी है
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर भावपूर्ण लेख शशि जी ,सादर नमस्कार
ReplyDeleteप्रतिष्ठित मंच पर मेरे लेख को स्थान देने के लिए हृदय से आभार यशोदा दी।
ReplyDeleteवाह!!बहुत खूब !सही है भाई ,इन पशुओं से हम बहुत कुछ सीख सकते है ,इनमें परस्पर कोई भेदभाव नहीं ,न जाति का न रंग का । और मानव अपने भोजन के लिए इन निरीह प्राणियों का जीवन कैसे समाप्त कर देता है ?
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया की सदैव प्रतीक्षा रहती है, आभार।
Deleteहर बार की तरह संवेदनशील हृदय स्पर्शी सृजन।
ReplyDeleteलाजवाब कलम है आपकी शशिभाई।
जी कुसुम दी, आपका स्नेहाशीष इसी तरह मिलते रहे, प्रणाम।
Delete