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Sunday 29 December 2019

पथिक! काहे न धीर धरे( जीवन की पाठशाला )


----आत्म उद्बोधन----


 ज़िदगी में ग़म है

  ग़मों  में  दर्द है
  दर्द  में मज़ा है
  मज़े  में हम  है..

    वर्ष 2019 का समापन मैं कुछ इसी तरह के अध्यात्मिक चिंतन संग कर रहा हूँ , परंतु ऐसा भी नहीं है कि इस ज्ञानसूत्र से मेरा हृदय आलोकित हो उठा है। असत्य बोल कर क्यों कथनी और करनी का भेद करूँ। यथार्थ और आदर्श में सामंजस्य होना चाहिए

    वस्तुतः जिस होटल में मेरा ठिकाना है , वर्ष के अंत में यहाँ तीन दिवसीय ध्यान शिविर लगता है। जिसे " मनस पूजा " कहा जाता है। इस उपासना पद्यति में साधक ध्यान के माध्यम से अपने ईष्ट को हृदय में धारण करने का प्रयत्न करता है। हर वर्ष इसी तरह के कड़ाके की ठंड में विभिन्न जनपदों से इनका आगमन होता है। इनके लिए गुरु की सत्ता यहाँ सर्वोपरि है।यथा-

 ऐसे गुरु पर सब कुछ वारु।

 गुरु ना तजूं हरि तज डारु।।

   यहाँ मैं यह देख रहा हूँ कि इनकी संख्या में निरंतर कमी होती जा रही है, क्योंकि वृद्ध साधकों की मृत्यु के पश्चात युवापीढ़ी इस रिक्तता को भरने में असमर्थ है।

        इस भौतिक युग में युवाओं को नीरसता पसंद नहीं है, उन्हें तो तनिक मनोरंजन चाहिए, भले ही पूजापाठ ही क्यों न हो। अब तो शवयात्रा में भी सेल्फी एक्सपर्ट सक्रिय रहते  हैं।
       वैसे भी मनुष्य आदिकाल से पशुपक्षियों तक को ही नहीं स्वयं मानव को भी अपने मनोरंजन का साधन समझते रहा है।
      और फिर जब ऐसे सजीव खिलौने से मन भर जाता है,तब वह उसके निर्मल, निश्छल एवं निःस्वार्थ स्नेह का कभी उपहास करता है और कभी तिरस्कार । उसे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि उसकी ऐसी निष्ठुरता किसी संवेदनशील व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक पीड़ा में वृद्धि कर सकती है।
  पर हाँ,मानव को ऐसी ही किसी वेदना के पश्चात सत्य का बोध होता है और अध्यात्म के चौखट पर पथिक दस्तक दे पाता है। वेदना में वह शक्ति है जो दृष्टि देती है।
   कुछ लोगों की आदत होती है- " वे मीठी-मीठी बात बोलते, दोस्ती करते एवं सुनहरे सपने दिखाते हैं। इंसान उनकी मृदुता में चतुराई को बहुत बादमें समझ पाता है।"
    फिर भी यह घाटे का सौदा नहीं ,क्योंकि हमें दुनियादारी का ज्ञान होना चाहिए।
    मुझे ऐसा विश्वास है कि दूसरों को अपने मनोविनोद का साधनमात्र समझने वाला व्यक्ति चाहे जितना भी चतुर हो, उसके द्वारा किये गये छल और कपट पर से आवरण न भी हटे ,तो भी ये एक दिन उसे आत्मग्लानि के उस अंधकूप  में डुबो देंगे, जिससे बाहर निकलना उसके लिए आसान नहीं होता है।
   उसके छल से पीड़ित मनुष्य बद्दुआ न दे ,तबभी हर क्रिया की प्रतिक्रिया तय है । यह प्रकृति का शाश्वत नियम है।
    भौतिक चकाचौंध से प्रभावित अनेक व्यक्ति ऐसा नहीं भी मानते हैं,परंतु धैर्य धारणकर   निहित स्वार्थ के लिए दूसरों को कष्ट देने वाले प्रपंची लोगों और उनके परिजनों पर आप लम्बे समय तक दृष्टि जमाएँ रखें, हमारे हर प्रश्नों के उत्तर मिलने लगेंगे , अन्यथा संत कबीर यह नहीं कहते-

“दुर्बल को ना सताइये, वां की मोटी हाय |

बिना साँस की चाम से, लौह भसम होई जाय ||”
   
      मैंने एक दिन दर्प से अकड़ी एक मिश्री की डली को समीप पड़े एक उपेक्षित पत्थर के टुकड़े से यह कहते हुये सुना  -  " अरे तुझसे मेरी कैसी मित्रता !  देखता नहींं कितना आकर्षण है मुझमें - तभी तो मेरे इर्द-गिर्द इतने चींटे मंडरा रहे हैं -और तुम ठहरे पाषाण - रास्ते के ठोकर बने पड़े हो - आज से हमारी- तुम्हारी दोस्ती हुई समाप्त । "
     मिश्री की डली के इस तिरस्कार भरे स्वर के  प्रतिउत्तर में बेचारे पत्थर ने किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की।  हाँ, पाषाण होकर भी उसका हृदय भर आया ,यद्यपि उसने इसे अपना प्रारब्ध समझ संतोष कर लिया , क्यों कि विभिन्न प्राणियों के पांव तले वह पहले से ही कुचला जाता रहा है।
   और फिर एक दिन मैंने देख - वहीं पाषाण पथप्रदर्शक यानी कि मील का पत्थर बना सड़क किनारे खड़ा है। भटके हुये यात्रियों को वह राह दिखला रहा है । तिरस्कृत होना उसके लिए उपहार बन गया ।
       उधर , उसके पास पड़ी मिश्री की वह डली दिखाई नहीं पड़ी । मैंने सोचा कि सम्भव है कि उसे और भी ऊँचा ओहदा मिल गया हो, वह किसी सिंहासन पर विराजमान हो,दरबारियों  से घिरी हो, मेरी दृष्टि उसतक नहीं पहुँच पा रही हो । इसी उत्सुकतावश मैंने जब उसकी खोज-खबर ली, तो दुखद समाचार यह मिला कि जिन चींटों पर मिश्री की डली को बड़ा गुमान था,उन्होंने ही उसका भक्षण कर लिया है।
    हाँ, अस्तित्व खोने से पूर्व उसे यह पश्चाताप अवश्य रहा कि जिसे उसने पाषाण कहा , जिसके संग मैत्री से उसे कोई खतरा न था, उसे वह समझ नहीं सकी और वहीं ये चींटे.. ?
    मैं समझ गया कि हमें परिस्थितियों का निरंतर अध्ययन करते रहना चाहिए- सीखने केलिए,जानने केलिए, दुनिया को समझने केलिए,  इस प्रक्रिया से गुजरकर एक दिन निश्चित ही आनंद मिलेगा,ऐसा विश्वास हृदय में रखना चाहिए।
  साथ ही हमें यह भी याद रखने की आवश्यकता है कि अनिश्चित मनः स्थिति मनुष्य के मानसिक,चारित्रिक ,सामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास में बड़ी घात सिद्ध होती है। इससे आत्मविश्वास का ह्रास होता है।
    अतः हे हृदय ! तू अपने निश्चय पर अटल क्यों नहीं रहता। तेरा मेला पीछे छूट चुका है और अब कोई झमेला नहीं है । समझ न बंधु ! जीवन का सबसे बड़ा  सत्य है अपूर्णता और यह भी सुन ले तू, इस अधूरेपन का सदुपयोग ही जीवन की सबसे बड़ी कला है। तुझे पता है न कि सारे दर्द मनुष्य अकेले ही भोगता है।
  और हाँ, सर्वव्यापित होकर भी ईश्वर अकेला ही है।

     - व्याकुल पथिक







    

Tuesday 24 December 2019

माँ ! एक सवाल मैं करूँ ? ( जीवन की पाठशाला )

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   इस सामाजिक व्यवस्था के उन ठेकेदारों से यह पूछो न माँ - "  बेटा-बेटी एक समान हैं , तो दो- दो बेटियों के रहते बाबा की मौत किसी भिक्षुक जैसी स्थिति में क्यों हुई.. क्रिसमस की उस भयावह रात के पश्चात हमदोनों के जीवन में उजाला क्यों नहीं आया.. ?
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(एक मार्मिक सत्यकथा)
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माँ - ओ माँ !

 सुन रही हैं न !!
  " आज मटर-आलू की पूड़ी बनाएँ न ?  और हाँ, साथ में कलाकंद भरकर मीठा परांठा भी चाहिए.. चटनी किस चीज की बनाएँगी .. मेरे लिए तो टमाटर की मीठी और खट्टी दोनों ही चटनी बना दें आप । "
  अपनी डिमांड को लेकर मुनिया शोर मचाए ही जा रहा था -  " अच्छा माँ, ठीक है मैं ठाकुरबाड़ी की साफ-सफाई कर सभी भगवान जी का पुष्प- श्रृंगार कर देता हूँ .. लाल-सफेद चंदन पीसकर उन्हें लगा देता हूँ और बेलपत्र पर चंदन से राम-राम भी लिख दे रहा हूँ.. बस आप आरती करने आ जाना..। "
    वह जानता था कि माँ को पूजा की तैयारी करने में दो घंटे का समय लगता है। अतः उनके स्वास्थ्य को देखते हुये बारह वर्ष की अवस्था में ही यह जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी।
   और मुनिया की ऐसी रोज-रोज की फरमाइश कोई नयी बात तो थी नहीं कि माँ उसपर झल्लाती। वे जानती थीं दादू-नाती दोनों को मटर-आलू के परांठे पसंद हैं। वे साथ में मेवे और केसर डाल खीर भी बना दिया करती थीं ।
   सच तो यही है कि मुनिया केलिए माँ से ही उसका घर-संसार था। माँ उसे अपनी अभिलाषाओं के उड़नखटोले में बैठा तरह-तरह की बातों से कुछ इसतरह सैर कराती थीं कि मानों समय को पंख लग गये हो।
   वे जब भी खुश दिखती , उसे दुलारते हुये कहती- "  मुनिया! तू जल्दी बड़ा हो जा न, तेरा विवाह कर यह धरोहर ..नाक में पड़े खानदानी हीरे के चमकीले काँटे और चाँदी के चाभी गुच्छे की ओर संकेत करते हुये, अपनी बहू को सौंप मैं भी अपने दायित्व से मुक्त हो जाऊँ..पता नहीं कब..? "
     उनकी बात अभी पूरे ही नहीं होती कि मुनिया उनके मुख पर हाथ रख झगड़ने लगता था.. और फिर माँ को उसे मनाने केलिए उसका   मनपसंदीदा कोई व्यंजन बनाना पड़ता था।
  माँ-बेटे ( नानी और नाती) की सारी खुशियाँ मानों एक दूसरे से जुड़ी हुई थीं।

 मजरूह सुलतानपुरी का वह गीत है न -


  अब तो है तुमसे हर खुशी अपनी

    तुमपे  मरना है  ज़िंदगी अपनी ..

  लेकिन, वह मनहूस दिसंबर महीने की पच्चीस तारीख, जिसे  बड़ा दिन कहते हैं ..उस क्रिसमस डे पर उसके घर के बाहर बड़ा बाजार में जहाँ क्रिसमस ट्री सजाये लोग जहाँ जश्न मना रहे थें..वहीं माँ बिस्तर पर कुछ इसतरह से निढाल पड़ी हुई थी कि बाहर निकलने को आतुर उभरी हुई उनकी दोनों आँखों को देख बाबा और लिलुआ वाली बड़ी माँ अनिष्ट की आशंका से भयभीत थें.. ऐसा लग रहा था कि उस शाम माँ मृत्युशैया पर अपनी दोनों बेटियों ( मुनिया की मम्मी और मौसी ) को ही इसतरह ढ़ूंढ रही थीं..।

   जीवन के अंतिम समय संभवतः मनुष्य अपने समक्ष प्रियजनों की उपस्थिति चाहता है। गंभीर रुप से अस्वस्थ बाबा ने भी अपने आखिरी दिनों में बनारस से कोलकाता वापस लौटते समय बेहद दर्द भरे स्वर में कहा था - " देखा हो गया ( बंगाल की भाषा), अच्छा अब चलता हूँ ! "
    परंतु दोनों पुत्रियों से यह कह अनजान डगर ( तब उनका कोई घर नहीं था , कोई सम्पत्ति नहीं थी ) की ओर बढ़ रहे दोनों पांवों से अपाहिज हो चुके बाबा के हृदय की भाषा किसी ने नहीं पढ़ी..।
  हाँ, बड़ी पुत्री के घर से जाने के पूर्व इनसभी प्रियजनों के तिरस्कार एवं उपहास से उपजी वेदना एवं ग्लानि से उनके जीवन की झोली भर चुकी थी ..इनके कड़वे बोल साक्षात मृत्यु बन उन्हें निगलने को आतुर था.. बाबा बुरी तरह से टूट  चुके थें ..उनकी आँखें बरबस बरसने लगी थीं .. फिर भी उनका धैर्य देखते ही बना..।
 मानों वे स्वयं को यह समझा रहे हो - " दोष बस अपना और अपने प्रारब्ध का है।"
  मुनिया जो अब समझदार हो चुका था , वह बाबा के अश्रु बुंदों का संदेश समझ  कांप उठा था .. ।
   उस दिन तो उसकी दादी से भी न रहा गया और उन्होंने भी स्वजनों से अनुरोध किया था - " अरे ! किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती कर दो समधी जी को..घर में न रखना चाहते हो ना सही .. इस हाल में बाबा को ट्रेन पकड़ा आओगे .. तनिक भी लज्जा नहीं आती .. ! "
 फिर वे धीरे से बुदबुदाई थीं -  " जल्लाद हैं ये सब ! "
 इससे अधिक प्रतिरोध दादी-पोता और क्या करते भी..।  मुनिया और उसकी दादी की घर में हैसियत सिर्फ दो जून के भोजन तक सीमित थी।

  हाँ, आखिरी विदाई के वक्त बाबा अपने प्यारे (मुनिया) पर अपार स्नेह लुटाते गये ..क्यों कि उसने उनके मलिन वस्त्रों को न सिर्फ स्वच्छ किया था , वरन् अपनी नयी लुंगी भी उन्हें पहनाई थी..उसने बाबा के वदन पर जमे मैल को रगड़-रगड़ खूब साफ किया था .. तेल मालिश से उनकी दुर्बल काया में कुछ निखार आ गया था..।

 काश ! उन्हें किसी भी सगे- संबंधी के यहाँ शरण मिल गया होता..।
   लेकिन, दोनों पुत्रियों ने अपनी विवशता पहले ही प्रगट कर दी।
  बाबा चले गये, फिर कभी नहीं लौट के आने केलिए.. उनकी मृत्यु कोलकाता में कहाँ हुई.. कैसे हुई..किस दिन हुई और किसने उनके पार्थिव शरीर को मुखाग्नि दी .. उनकी दोनों ही लाडली बेटियों को इसकी जानकारी नहीं है !
        ....आज माँ मैं इसी संदर्भ में आपको खत लिख रहा हूँ।

  पूज्य माँ,

  सादर प्रणाम ।

      माँ ! आज के जेंटलमैनों का जुमला हैं कि लड़का-लड़की एक समान.. उचित है, भारतीय संस्कृति ने सदैव इसका समर्थन किया  कि इनके लालन-पालन में भेदभाव नहीं होना चाहिए, परंतु क्या आपको पता है माँ कि जब आपके हृदय का स्पंदन मंद पड़ता जा रहा था और खामोश होने से पहले आपनी तरसती निगाहें अपनी पुत्रियों को ढ़ूंढ रही थीं, तो वे कहाँ थीं..? अंततः डाक्टर ने आँखें खराब न हो जाए ,इस आशंकावश उसपर रूई का फाहा रख दिया था ..।

   और फिर बेटियों से मिलन की उम्मीद के टूटते ही आँखों के सामने छायी कालिमा ने अगले दिन ब्रह्ममुहूर्त में आपको हम सबसे दूर कर दिया।
  बताएँ माँ, यदि पुत्रवधू होती तो क्या यूँ ही आप तड़पती..  कोई तो आसपास होता न ..।
    क्यों इन बेटियों केलिए अपना घर ( ससुराल ) ही प्राथमिकता हो जाती है..?
 और फिर मृत्यु के पश्चात आपकी गृहस्थी का क्या हुआ..।
   मुझे भलीभांति याद है - एक चम्मच तक आप जीवित रहते इधर से उधर होते नहीं देख सकती थीं।
 और उसदिन जब मैं , बाबा और अन्य संबंधी आपके साथ महाश्मशान पर गया था , तब आपकी चचिया सास ( बड़ी दादी) , जिन्हें मैंने प्रथम बार अपने घर पर देखा था.. उन्हें आपके समानों से छूत की बीमारी का कुछ ऐसा भय हुआ कि आपका बेड, रजाई, तकिया और बिछावन सभी बड़ाबाजार के रोड पर फेंकवा दिया गया.. क्या आपकी पुत्रवधू होती ,तो उन्हें इसतरह का मनमाना आचरण करने देती .. ?
  और माँ, अगले दिन रोती बिलखती आपकी बेटियाँ आयीं .. वे भी मायके की गृहस्थी को सहेज नहीं सकीं..। हाँ , वापस जाते समय ठाकुरबाड़ी में रखी भगवान जी कि पीतल की दर्जन भर से अधिक बड़ी- छोटी मूर्तियों और भोग लगाने की सामग्रियों को न सिर्फ उन्होंने आपस में बांट लिया, वरन् आपकी गृहस्थी की अनेक सामग्री भी लेती गयीं, क्यों कि ये सब बाबा के किस काम की थीं..।
   बड़ी दादी ने यह फैसला  सुनाया था कि मुनिया को उसके मम्मी-पाप वापस अपने घर ले जाए और बाबा के लिए टिफिन उनके घर से आ जाएगा। दोपहर यह टिफिन आता और उसी में दिन और रात दोनों वक्त का भोजन ..!
 जिस बाबा को आप तरह- तरह के व्यंजन परोसा करती थीं.. जो बाबा अपनी पुत्रियों के ससुराल जाने पर मलाई, रबड़ी , दही और दूध सहित विविध प्रकार के भोज्यपदार्थों से हम सबका हिक भर देते थें.. उन्हीं बाबा को एक वक्त   के टिफिन से गुजारा करना पड़ेगा.. !
    यह जानकर भी आपकी पुत्रियाँ बड़ी दादीजी के स्वार्थपूर्ण निर्णय पर मौन क्यों रह गयी.. उन्हें प्रतिकार करना चाहिए कि नहीं..।
  क्या आपकी मृत्यु के पश्चात दोनों पुत्रियाँ बारी- बारी से बाबा के पास नहीं रह सकती थीं.. ?
   आपकी पुत्रियाँ मुझसे पूछ सकती है कि यह भी मेरा कैसा अजीब सवाल है ..।
  ससुराल में अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ वे बाबा के पास कैसे रह सकती थीं..।
    और फिर सुने माँ , आगे क्या हुआ.. हम सबसे दूर अकेले पड़ गये बाबा टूटते गये.. स्नेह के दो बोल केलिए..किसी अपने संग दुःख-दर्द बांटने केलिए..किसी के हाथ के बने भोजन की थाल केलिए.. बुढ़ापे की जंग लड़ने की बारी आयी तो कोई संग न था..।
 यदि किसी आश्रयदाता की तलाश में , उनके पांव डगमगा गये , तो भी क्या कसूर था बाबा का बोलो माँ..?
   वाह रे ! स्वार्थी सभ्य समाज के भद्रलोग हालात से मजबूर एक टूटे हुये इंसान को दिया तो कुछ भी नहीं और अपने मान- सम्मान की बलिवेदी पर बाबा की आहुति दे डाली..।
    माँ, मैंने देखा था , बाबा आपके प्रति कितने समर्पित थें और घर को ही अस्पताल बना कर रख दिया था.. क्यों कि हॉस्पिटल आप जाना नहीं चाहती थीं ,फिर बाबा को एक जीवित पुत्र आपने क्यों नहीं दिया और उस आखिरी पुत्र के भी जन्म लेते संग हुई मृत्यु के पश्चात जब आपने अपनी बड़ी पुत्री के प्रथम संतान यानीकि मुझे अपना मुनिया समझा , तो फिर क्यों नहीं अपनी मृत्यु से यह कहा -  "  हे मौत की देवी  ! तू थोड़ा और ठहर क्यों नहीं जाती। इस घर की गृहलक्ष्मी को आ तो जाने दे। "
   मेरा छोड़ों माँ, मैं तो आवारा हूँ , दुत्कार सहने का आदती हो चुका हूँ.. पर स्वाभिमानी बाबा केलिए आपने एक बैसाखी तक न छोड़ी..ताकि जब वे अपने पांवों पर न खड़े हो सकें , तो उसका सहारा मिलता  ..।
    माँ, बाबा ने तो आपके पार्थिव शरीर का लाल चुंदरी , सोने के नथ और नाना प्रकार से श्रृंगार करवा कर अंतिम संस्कार किया था। जब हम आपको लेकर  राजाकटरा से " हरि बोल " कहते हुये महाश्मशान की ओर निकले थें , तो मार्ग में जिसकी भी दृष्टि आपके मुखमंडल पर पड़ती थी.. वह साक्षात देवी समझ आपको नमन करता गया..किन्तु आपने बाबा संग क्या यही न्याय किया .. ?
    उन्हें दो वक्त की रोटी मिले ,इसके लिए एक पुत्रवधू की व्यवस्था क्यों नहीं की.. ?
  मैं कोई मनगढ़ंत कथा नहीं गढ़ रहा हूँ , आईना झूठ नहीं बोलता ..।
  आपही इस सामाजिक व्यवस्था के उन ठेकेदारों से यह पूछो न माँ - "  बेटा-बेटी एक समान हैं , तो दो- दो बेटियों के रहते बाबा की मौत किसी भिक्षुक जैसी स्थिति में क्यों हुई.. ? जीवन का वह अंतिम क्षण उन्होंने किस तरह से गुजारा होगा.. !
   क्रिसमस की उस भयावह रात के पश्चात हमदोनों के जीवन में उजाला क्यों नहीं आया.. ? एक विकलांग की मौत की कथा यहाँ तुम्हें सुनाई है और दूसरा भी इसी राह पर बढ़ रहा है ..।
    माँ, आज तुम्हारा यह मौन मेरे सब्र की परीक्षा न ले.. अभी बहुत कुछ बातें और कहनी है..।
               आपका मुनिया
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  -व्याकुल पथिक

 

 
 

 











    

Wednesday 18 December 2019

चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो ( जीवन की पाठशाला)


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   हम घर बैठ चाहे ठंड पर कितनी ही कविताएँ और कहानियाँ लिख ले, पर यह कभी नहीं समझ सकते हैं कि इस हाड़कंपाऊ ठंड में जैसे ही कंबल इस बांसफोर  परिवार के वृद्ध सदस्यों और उनके बच्चों को मिला, उनके चेहरे पर किस तरह की मुस्कान थी,साथ में दुआएँ भी, इसमें किसी तरह की कृत्रिमता नहीं थी।
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कहता है जोकर सारा ज़माना
 आधी हक़ीकत आधा फ़साना
चश्मा उठाओ, फिर देखो यारो
 दुनिया नयी है  , चेहरा पुराना..

 ब्लॉगिंग का अपना सफर तो कुछ यूँ ही चल रहा है। कभी अपनी अनुभूतियों का जिक्र करता हूँ, तो कभी अपने चिंतन और दर्द को शब्द देने का प्रयत्न , एक पत्रकार होने के लिहाज से समाज में जो कुछ दिख जाता है, वह मेरे लिए खबर होती है। अतः थोड़ा नमक-मिर्च लगा उसे अखबार के पन्ने पर परोस आता हूँ। ढ़ाई दशक से अधिक तो यही काम करते हुये गुजार दिया है और अब कोई दूसरा धंधा करने की योग्यता खो भी चुका हूँ। जहाँ तक समाचारपत्र का सवाल है, तो वहाँ मैं अपनी पीड़ा नहीं लिख सकता , इसलिए गत वर्ष ब्लॉग पर आया , परंतु जो लिखता हूँ वह  फ़सान (काल्पनिक) नहीं है।
  वैसे यह मेरे पसंदीदा गीतों में से एक है, क्योंकि मुझे लगता है कि  " चश्मा" आँखों पर पड़े पर्दे से भी घातक है। धर्म , राजनीति और पारिवारिक - सामाजिक संबंधों का सटीक विश्लेषण करने केलिए हम इसी स्वार्थ रूपी  चश्मे का प्रयोग करते हैं। मुझे पता नहीं है कि हम दूसरों को धोखा देने केलिए ऐसा करते हैं अथवा स्वयं को !
सच तो यह है कि विदूषक चाहे अपनी कला में कितना भी निपुण हो, वह कोई भी वेष बना ले,फिर भी उसकी सच्चाई एक दिन सामने आनी ही है।
   अब सीधे मुद्दे पर आता हूँ -  क्या " गरीबी  हटाओ " से लेकर " सबका साथ - सबका विकास " जैसे करिश्माई जुमले ने कामनमैन को मुस्कुराने का अवसर दिया है ?
    पूस का महीना है और अपनी बात यहीं से शुरू कर रहा हूँ। बचपन में जब दार्जिलिंग में था तो  निश्चित ही बर्फबारी का आनंद हमसब बच्चों ने भी खूब उठाया था। लेकिन,अब भलीभांति समझता हूँ कि उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों में ठिठुरन के साथ ही गलन का  जनजीवन पर कितना व्यापक प्रभाव पड़ता है।
  अपने मीरजापुर जनपद में विगत दिनों हुये बरसात के पश्चात ठंड अपने शैशवावस्था से युवावस्था में प्रवेश कर चुका है।
  धर्म, साहित्य, समाजसेवा और राजनीति के प्रति भीड़तंत्र से जरा हट कर अपना मत प्रस्तुत करने वाले बड़े भैया सलिल पांडेय जी के शब्दों में कहूँ , तो पूस-माघ का यह दो महीना कम्बल-अवतार उदारमनाओं' के दर्शन-उपदेश का है। यह 'महानुभाव' 'प्रख्यात समाजसेवी', 'उदारमना' आदि से अलंकृत होने का महीना होता है ।  वे सौ रुपए से भी कम का थोक में कम्बल जुटातेे हैं । इसके बाद बड़ा सा जलसा, महोत्सव, सेवा कैम्प आदि लगता है । बड़ा सा मंच शोभायमान होता है । क्लास वन और क्लास टू श्रेणी के लोग बुला लिए जाते हैं तथा फोर्थ श्रेणी का यह कम्बल बांटा जाता है, फिर भी खूब तालियाँ बजती हैं ।
 क्या आप बता सकते हैं कि सभ्य समाज के ऐसे जेंटलमैनों को क्या कहा जाए.. ? अतः सरकारी अफसर हों या राजनीति के माननीय । वे मंच पर अतिथि-मुख्य अतिथि बनने से पहले कम्बल की क्वालिटी जांच लें । झुर्रीदार चेहरे को कुछ ऐसा कम्बल दें कि इसे पाने की खुशी में उनकी एकाध झुर्री कम हो सके । प्रायः जो कम्बल बांटा जाता है पहली ही बार झटकने पर उसका रेशा-रेशा गठबन्धन वाली पार्टी की तरह अलग-अलग होने लगता है ।
 सच तो यही है कि इस आधुनिक युग में भी ठंड गरीबों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है , भिक्षुओं को तो कंबल मिल जा रहा है।  सामाजिक संस्थाएंँ अपने मंच से उन्हें गर्म वस्त्र दे स्वयं को संवेदनशील कहलाने का प्रमाण पत्र समाचार पत्रों के माध्यम से ले लेती हैं,  परंतु वे लोग जो श्रम के पुजारी हैं और किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाते हैं, यह ठंड उनके स्वाभिमान की परीक्षा लेती रही है । पिछले दिनों हुई बरसात ने ठंड को बढ़ा दिया है।  ठिठुरन से श्रमिक वर्ग परेशान है। रही बात अलाव की तो वह कुछ प्रमुख स्थानों पर  अथवा सरकारी कागजों पर ही जलते हैं ? जरा घर से बाहर निकल कर हम देखें तो सही किसी-किस चट्टी चौराहे पर प्रशासन ने अलाव जलवाया है या फिर किसी सामाजिक संगठन में यह पुण्य कार्य कर रखा है.. ?
 हम पत्रकारों को इसपर बहस करना चाहिए। यहीं हमारा धर्म-कर्म है। परंतु टीवी स्क्रीन पर एंकर अपनी कम्पनी के हितों का ध्यान रखते हुये कुछ कथित भद्रजनों ( राजनीतिज्ञ / गैर राजनीतिज्ञ )  को लाभ देने केलिए जिस तरह से किसी समसामयिक विषय  को तोड़मरोड़ कर बहस करते- कराते हैं, उसे देख मुझे लगता है कि पत्रकारिता का स्तर कितना नीचे गिरता जा रहा है। सवाल यह है कि क्या हो गया है , हम पत्रकारों की निष्पक्षता को !  मीडिया को व्यवसाय क्यों बना दिया गया है ?
 और फिर यह साफ-साफ कह क्यों नहीं दिया जाता कि मीडिया भी एक धंधा है ।

     पिछले दिनों मैं अपने साथी पत्रकार नितिन अवस्थी के साथ समाचार संकलन के लिए निकला था। मार्ग में एक जनसेवक का क्षेत्र मिल गया। कड़ाके की ठण्ड के बीच भगवान भास्कर बादलों की ओट में छिपे हुये थें । सड़क किनारे ठंड की पहली बारिश से पानी ठहर गया है। उसके पास ही दर्जन भर प्लास्टिक के तम्बू तने हुये दिखें। जिसके आसपास बच्चों का झुंड खेलने में मग्न था ।  मानों ये बच्चे गरीबी और ठण्ड से लड़ रहे हो। यहीं कुछ लोग बांस को छीलकर पतली- पतली फरहटी  निकालते दिखें। महिलाएँ उसे अपने हुनर से दउरी(टोकरी) का स्वरुप देने में तल्लीन थीं। दीवारों पर लगने वाली पेंटिंग की तरह का नजारा डीआईजी आफिस के आगे ग्राम सिरसी गहरवार में देख बाइक के ब्रेक पर दबाव बढ़ गया। हमदोनों काम में लीन इन ग्रामीणों के पास पहुँचे, तो इनकी जो व्यथा कथा सामने आयी, वह दबे- कुचले वर्ग की रहनुमाई का दावा करने वालों  के लिए आईना है ।  जिसे देखने के लिए छप्पन इंच के कलेजे  से ऊपर उठ कर मानवीय संवेदना की जरुरत है । यहाँ जो लोग हमें मिले, वे अपनी मेहनत से कमाने और दो वक्त की रोटी के लिए बांस से सामान बनाने के कारण बांसफोर कहे जाते हैं। फटे चादर के बीच अपने तन को सर्द हवाओं से बचाने का प्रयास कर रहे वृद्ध की जुबां से वार्तालाप के मध्य, उसका यह दर्द फूट पड़ा -" काश ! एक कम्बल मिल जाता तो इस ठिठुरनसे राहत मिल जाती। "
   यानी कि उसकी स्थिति कुछ ऐसी ही थी, जैसाकि हिंदी साहित्य में निम्न तबके के दर्द से वाकिफ उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद्र ने मौसम की मार झेलते एक बेबस किसान को पूस महीने में तड़पते देखा, तो उन्होंने तीन रुपए के कम्बल का इंतजाम न कर पाने के वाकए को इस कहानी में चित्रित किया था । इस कहानी का मुख्य पात्र हलकू पूस की रात में जबरा कुत्ते के साथ खेत की रखवाली करता तो है लेकिन कम्बल के रूपए साहूकार के ले लेने से वह कम्बल नहीं खरीद सका । ठंडक के चलते नीलगायों से खेत की रखवाली नहीं कर सका । जब वह पूस की रात में खेत चरते जानवरों की ओर घास-फूस की अलाव छोड़कर जाता तो शीतलहरी से हिम्मत न पड़ती और हलकू फिर अलाव के पास लौट आता रहा ।
 भोजन केलिए संघर्ष के दौर में बनारस जाने वाली आखिरी बस छूटने पर जब मैंने पूस की वह रात मीरजापुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर गुजारी थी,  मुझे आज भी याद है कि अपने पास बचे हुये अखबारों को खोलकर चादर की तरह उसे शरीर पर डाल लिया था और घुटने को छाती से सटा रखा था।
     इस वृद्ध के पुकार में भी कुछ ऐसा ही दर्द था, जो  सरकार की तमाम योजनाओं की हकीकत का झलक दिखला गया।
      अपने घर गाजीपुर से 180 किलोमीटर दूर सिरसी गहरवार में आकर रहने वाले इन भूमिहीन बांसफोर के बच्चों को सरकारी विद्यालय में दाखिला महज इसलिए नहीं मिला कि उनके पास बच्चों का आधार कार्ड नहीं था। सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद अगर उसकी योजना पात्रों तक नहीं पहुँच पा रही हैं तो इसके लिए जिम्मेदार अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा जाना भी आवश्यक है। जिले का मुखिया जिलाधिकारी है, तो सबसे छोटी इकाई गाँव का बड़का साहब ग्राम विकास अधिकारी होता है ।  इसके बावजूद कमी किस स्तर से है उसकी तलाश करने वाला वाला कोई नहीं है। फिर कैसे होगी रामराज्य(सुशासन) की स्थापना?  ताकि हमसभी गर्व से कह सकें- "रामराज्य बैठे त्रिलोका, हर्षित भयऊ गये सब शोका । "
  लिहाजा, मीडिया को हकीकत का आईना दिखलाते रहना चाहिए। समाचार प्रकाशन के बावजूद भी पात्र तक योजनाओं का लाभ नहीं पहुँच रहा हो तब भी ।
    बहरहाल, यहाँ रामविलास, कमलेश, बबलू और गुड्डू का परिवार रहता है। लगभग तीस की संख्या में सदस्य हैं। जिनमें से 15 -16 बच्चे हैं।
इनमें से सिर्फ दो बच्चे ही समीप स्थित जय माँ विद्यामंदिर में पढ़ते हैं। शेष दिन भर धमाचौकड़ी मचाया करते हैं। ये बांसफोर यहाँ दउरी बनाते हैं। दिन भर में तीन दउरी ही बन पाती हैं। 80 से 100 रुपये में एक दउरी बनती है। तीन दउरी बनाने में एक कच्चा बांस लगता है। जो 100 रुपये में मिलता है।आप बताएँ जरा कि इनके श्रम का उपहास है कि नहीं, दिन भर काम कर डेढ़-दो सौ रुपये की कमाई से क्या ये अपने परिवार का विकास कर सकते हैं। ये बांसफोर लोग जो गाजीपुर से रोजी-रोटी की तलाश में यहाँ आये हैं,  इनके पास  न जमीन है, ना ही घर। ये सभी झोंपड़ी में रहते हैं। सभी सरकारी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। हमने देखा गरम वस्त्र के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं है । बारिश में पुआल , जो इनका बिछावन था, वह भी भीग गया था । क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि छोटे बच्चों के साथ महिलाएँ इन झोपड़ियों में ठंड भरी रातें किस तरह से काट रही हैं ?
   जीवकोपार्जन के लिए कर्म तो वे भी करते हैं प्रतिदिन, परंतु उनके श्रम का यह आधुनिक सभ्य समाज उपहास उड़ा रहा है। जनप्रतिनिधियों की संवेदनाएँ यहाँ परखी जा सकती है जो विभिन्न मंचों से अपनी वाह-वाह करवाया करते हैं।
  लेकिन, इन बांसफोर की पीड़ा समाचारपत्र में प्रकाशित करने के बाद हमदोनों पत्रकारों को खुशी तब मिली जब गौसेवक राज महेश्वर ने मेरे फेसबुक पर इस पोस्ट को देखा और मुझसे कहा कि वे चौबीस घंटे के अंदर इनसभी केलिए गरम वस्त्र की व्यवस्था कर रहे हैं। रोटरी क्लब डायमंड के अध्यक्ष पंकज खत्री ने भी मुझसे संपर्क किया,इसलिए ऐसा नहीं है कि मीडिया सिर्फ शोर मचाता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कि  गौसेवक राज महेश्वरी ने अपने कथनानुसार चौबीस घंटे के अंदर इन सभी बांसफोर लोगों को उनके निवासस्थान पर जाकर सस्नेह कंबल प्रदान किया, इसके लिए उन्होंने मंच सजाकर दानदाता होने का प्रदर्शन नहीं किया। यही तो है , एक सच्चे समाजसेवा का धर्म।
हम घर बैठ चाहे ठंड पर कितनी ही कविताएँ और कहानियाँ लिख ले, पर यह कभी नहीं समझ सकते हैं कि इस हाड़कंपाऊ ठंड में जैसे ही कंबल इस बांसफोर  परिवार के वृद्ध सदस्यों और उनके बच्चों को मिला, उनके चेहरे किस तरह की मुस्कान थी,साथ में दुआएँ भी थीं। इसमें किसी तरह की कृत्रिमता नहीं थी।

    अतः हम पत्रकारों का कार्य सिर्फ समाचार बेचना नहीं है , वरन हमारा कर्तव्य है अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाना। पीड़ित की सहायता करना , चाहे उसके लिए कुछ भी मूल क्यों न अदा करना पड़े।  एक सच्चा पत्रकार वर्तमान सरकार की नाराजगी जाने के लिए तैयार रहता है।  वह सरकार के अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाता।  यदि वह अपना कर्तव्य नहीं निभाता , तो उन दुकानदारों की तरह है कि किसी ने सब्जी बेच दी तो किसी ने खबर।

     - व्याकुल पथिक

Sunday 15 December 2019

ख़ामोश होने से पहले ( जीवन की पाठशाला )

ख़ामोश होने से पहले हमने


देखा है दोस्त, टूटते अरमानों


और दिलों को, सर्द निगाहों को


सिसकियों भरे कंपकपाते लबों को


और फिर उस आखिरी पुकार को


रहम के लिये गिड़गिड़ाते जुबां को


बदले में मिले उस तिरस्कार को


अपनो से दूर एकान्तवास को


गिरते स्वास्थ्य ,भूख और प्यास को


सहा है मैंने , मित्रता के आघात को


पाप-पुण्य के तराजू पे,तौलता खुद को


मौन रह कर भी पुकारा था , तुमको


सिर्फ अपनी निर्दोषता बताने के लिये


सोचा था जन्मदिन पर तुम करोगे याद


ढेरों शुभकामनाओं के मध्य टूटी ये आस

ख़ामोशी बनी मीत,जब कोई न था साथ


दर्द अकेले सहा ,नहीं था कोई आसपास


चलो अच्छा हुआ तुम भी न समझे मुझको


अंधेरे से दोस्ती की ,दीपक जलाऊँ क्यों !!


- व्याकुल पथिक

Friday 13 December 2019

दुःख तो अपना साथी है ( जीवन की पाठशाला)


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   मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि जब कोई ऐसा दुःख हमारे चित में समा जाता है,जिसे हटाना असम्भव- सा लगता है। हमें ऐसे महापुरुषों के जीवनचरित्र पर दृष्टि डालनी चाहिए। सच तो यह है कि दुःख जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है। हृदय में जमा यह बूँद-बूँद दर्द ही मानव की मानसमणि है ।
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    वैसे तो इनदिनों मैं सुबह के भोजन में दलिया - दाल से काम चला ले रहा हूँ और रात  दूध संग दलिया अथवा ब्रेड से कट जाती है।
  मेरे भोजन की थाली का स्वाद तो माँ (नानी) की मृत्यु के पश्चात ही छिन गया था और फिर तबसे  बड़े-बुजुर्ग का यह ज्ञानोपदेश ही काम आ रहा है - " दाल-रोटी खाओ और प्रभु के गुण गाओ । "
जिसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य के जीवन में परिस्थितियाँ चाहे जैसी भी हो, परंतु संतोष रूपी धन का त्याग उसे नहीं करना चाहिए। हम अपने संतोष से अमीर और अभिलाषाओं से दरिद्र हैं ।
    फिर भी विगत रविवार को यह इच्छा हो ही गयी कि क्यों न दाल-रोटी संग मौसी जी द्वारा दिया गया नींबू अचार खाया जाए। वैसे, यह मेरी  लालसा ही थी,जो मुझपर भारी पड़ी , क्योंकि  आटा गूंथने के पश्चात जैसेही रोटी बेलना प्रारंभ किया, बाएँ हाथ के अँगूठे वाले हिस्से की झुनझुनी के कारण बेलन को ठीक से संभाल  नहीं पाया। परिणाम यह रहा कि रोटियाँ फूलने की जगह जल गयीं। कभी तो सभी मेरी तारीफ  किया करते थें कि रोटी बनाने की कला में तुम इतने निपुण कैसे हो ,परंतु अब इन जली रोटियों को देख हृदय में खिन्नता हुई कि क्या यह नयी बीमारी मुझे विकलांगता की ओर ले जाएगी ?
  बचपन में कोलकाता में था , तो अस्वस्थ माँ ने मुझे पाकशास्त्र का ककहरा सीखाया था,जब रोटी अथवा परांठे ठीक से नहीं बनते अथवा जल जाया करते थें , माँ मुस्कुराते हुये मेरा उत्साह बढ़ाती थी । तब मैं बारह वर्ष का ही था और आज जीवन में अर्धशतकीय पारी खेलते हुये , उसी स्थान पर पहुँच गया हूँ, जहाँ से सीखना प्रारम्भ किया था । हाँ,अब माँ नहीं हैं, जो मुझे ढांढस दे। दिसंबर माह का वह 26 तारीख और कोलकाता का वह महाश्मशान मैं कैसे भूल सकता हूँ । वर्षों गुजर गये , इसके पश्चात मैं किसी भी प्रियजन की अंतिम संस्कार  यात्रा में सहयोगी नहीं हुआ और यह भी जानता हूँ कि मेरी मृत्यु के पश्चात मेरा भी ऐसा कोई रक्त संबंध नहीं है जो मुझे मुखाग्नि दे , परंतु इसके लिए मेरे पास मित्रों की टोली है।
 खैर, इन जली हुई रोटियों को थाल में डाली और क्षुधा शांत करने में जुट गया।  तभी मुझे टीवी पर आने वाले धार्मिक धारावाहिक महाकाली  में भगवती का यह कथन, "अंत ही आरम्भ है" का स्मरण हो आया। महामाया की इस ओजस्वी वाणी ने मार्गदर्शन किया और मैं महाभारत काल के एक पात्र एकलव्य के जीवनसंघर्ष पर विचार करने लगा। जिसकी धनुर्विद्या कला से अर्जुन ही नहीं उसके गुरु द्रोणाचार्य भी स्तब्ध थें और उसे अँगूठा विहीन कर दिया था, उसी एकलव्य ने अपने दृढनिश्चय से  तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाना सीख लिया। यहीं से धनुर्विद्या के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ।
      मेरे लिये यह उद्धरण इसलिए मायने रखता है कि मैं भी सिर्फ उँगलियों से बेलन संभालना सीख लूँ।  विपरीत परिस्थितियों में ही आत्मबल की परीक्षा होती है। यह आत्मबल ही है जो हमसे कहता है- " उठो, अपने पूरे सामर्थ्य से निरंतर उठो और अपनी मंजिल को हासिल करो।"
 सत्य यही है कि यदि हम अपने आत्मबल को झुकने न दें,तो कोई अपमान हमें गिरा नहीं सकता है और न कोई दंड हमें पीड़ित कर सकता है।
 मैं कुछ ऐसा ही आध्यात्मिक चिंतन कर रहा था कि मेरे मित्र नितिन अवस्थी आ गये । हमदोनों समाचार संकलन के लिए टांडा जलप्रपात की ओर निकले , परंतु मार्ग में बथुआ गांधीघाट स्थित अघोरेश्वर बाबा कीनाराम का आश्रम दिख गया। वहाँ हुई विशेष सजावट और आश्रम में बंगाल ,  चंदौली, वाराणसी,जौनपुर एवं सोनभद्र समेत विभिन्न जनपदों से आये अघोरियों और भक्तों की भीड़ देख हम भी वहाँ पहुँच गये। सामने मुख्यद्वार पर खड़े मेरे एक दिव्यांग मित्र दीपू भाई ने आवाज लगाई - भैया आइए , इस आश्रम को सुव्यवस्थित करने वाले बाबा दीनानाथ राम के परिनिर्वाण दिवस पर आज भंडारे का आयोजन है। सो, हमदोनों ने भी बाबा के समाधि स्थल को नमन कर प्रसाद ग्रहण किया। प्रसाद स्वरूप मिले हलवे एवं घुघरी ने हमारी क्षुधा को तृप्त कर दिया। यहाँ किसी भी प्रकार का आडंबर मैंने नहीं देखा। अघोरियों की टोली ने मुझे फोटोग्राफ लेते देख टोका कि उनका फोटो न लिया जाए, परंतु जब मैंने बताया कि हम पत्रकार है और समाचार संकलन के लिए आए हैं, तो उन्होंने ऊँचे स्वर में कहा कि ठीक है फोटो ले लो और साथ ही अपने समाचारपत्र के माध्यम से उनका यह संदेश मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तक अवश्य पहुँचा दिया जाए कि वे सभी कैलाश मानसरोवर का दर्शन करना चाहते है।
   आश्रम की व्यवस्था संभाले शीतलाराम बाबा और उनके सहयोगी प्रवीणराम बाबा ने बताया कि वर्ष 1994 - 95 में बाबा दीनानाथ राम का पदार्पण यहाँ हुआ था । उन्होंने आश्रम को सुरक्षित रखने के साथ ही सैकड़ों वृक्ष रोपित किये जो आज पूरे आश्रम को हरा-भरा बना अपनी छाया प्रदान करते हुए पर्यावरण को संरक्षित रख रहे हैं । उन्होंने कहा कि गुरुपरंपरा के तहत उनके विचारों को आगे बढ़ाने में संतसमाज लगा हुआ है ।
  इसीबीच एक वाहन आश्रम में प्रवेश करता है साथ ही भक्तगण अनिलराम बाबा का जयघोष करते हुए उनका आशीर्वाद लेने के लिए उनके चरणों में झुकते हैं। बाबा का आश्रम पड़ाव (काशी) में है। अत्यंत मृदुल स्वभाव के बाबा अनिलराम से जब हमने पूछा कि आपकी उपासना पद्धति क्या है ? तो प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा कि गुरु द्वारा बताए गये मंत्र का निरंतर जाप वे सभी करते हैं और साथ ही कुछ सामाजिक कार्य भी, पुनः मैंने प्रश्न किया कि औघड़ों का भोजन सादगीपूर्ण क्यों नहीं होता ?
 उन्होंने कहा कि जो भूखा है, विकल्प के अभाव में उसके समक्ष जो भी खाद्यसामग्री होगी, वह उसे ग्रहण करेगा ही..?
  अघोरियों के भोज्यपदार्थ को लेकर सवाल उठता है ,लेकिन सत्य तो यह है कि वे इस ढकोसले से मुक्त हैं कि अमुक दिन मांसभक्षण करना चाहिए और अमुक दिन इसलिये नहीं, क्योंकि वह किसी देवी- देवता के पूजा- आराधना से जुड़ा है। जैसे नवरात्र, सावन अथवा मंगल - वृहस्पतिवार आदि।
   अनिलराम बाबा के साथ इटली से आए गुरु बाबा भी थें। ये सभी अवधूत भगवान राम के प्रिय शिष्य हैं।
 चित्र बाबा यहाँ की व्यवस्था संभाले हुये थें। भंडारे में दूरदराज से आए भक्तों की सेवा में जटा बाबा, दीपू, राजू, गुलाब, नंदन, रवि, विनोद , शशि सिंह डॉक्टर बिंदु आदि लगे हुये दिखें । बाल भोग के बाद भंडारे में प्रसाद ग्रहण करने के बाद संतों में कंबल वितरित किया गया।
   बताते चलें  कि अनिलराम बाबा ने ही अवधूत भगवान राम को अपना एक गुर्दा दिया था । उन्होने कहा कि गुरु के लिए शीश भी कटाना पड़े तो यह उसका परम सौभाग्य है। यह बात वर्ष 1988 की है ,जब बाबा अवधूत भगवान राम न्यूयॉर्क में भर्ती थें । उनकी बीमारी के दौरान उन्हें चिकित्सकों ने गुर्दा प्रत्यारोपण का सुझाव दिया । अनिलराम बाबा को लाखों भक्तों के मध्य अपनी एक किडनी सहर्ष देने का परम सौभाग्य मिला। उनका गुर्दा निकालकर अवधूत भगवान राम को लगाया गया । जिसके पश्चात अघोरेश्वर कई वर्षों तक अपने शिष्यों पर कृपा बरसाते रहें। बाबा की मृत्यु 29 नवंबर 1992 में मैनहट्टन, न्यूयार्क में हुई। वाराणसी के पड़ाव स्थित आश्रम के समीप उनकी भव्य समाधि है। अघोर सम्प्रदाय के अनन्य आचार्य, संत कानीराम (जन्म  1693) के पश्चात अवधूत  भगवान राम ( जन्म 1937) का ही विशेष उल्लेख है।
   काशी में अघोरेश्वर भगवान राम के अंतिम संस्कार के समय मैं मालवीय पुल (तब राजघाट पुल,) पर खड़ा था और अपार जन समुदाय को देख आश्चर्यचकित भी था। यह वह दौर था, जब घर पर दादी के अतिरिक्त मेरा अपना कोई नहीं था और मैं घर से पैदल ही विभिन्न धर्मस्थलों  और दरगाहों पर जाया करता था। इसी क्रम में अपने घर कतुआपुरा( विशेश्वरगंज ) से पड़ाव स्थित अघोरेश्वर के आश्रम भी धीरे-धीरे घूमते-टहलते पहुँच जाता था। जेब मैं पैसा तो था नहीं,अतः वहाँ जो भी  प्रसाद मिलता , ग्रहण कर लेता था ।
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   संक्षिप्त में कहा जाए तो -" सबकुछ का अवधूनन कर, उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है।"
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     यहाँ मेरे चिंतन का विषय यह है कि ऐसे सिद्ध पुरुष भी सृष्टि के नियम को नहीं बदलते हैं। हाँ, वे अपनी आत्मशक्ति से स्वयं को शारीरिक कष्टों से  ऊपर उठा लेते हैं।
   गुर्दा प्रत्यारोपण के पश्चात जब अवधूत भगवान राम पुनः गंभीर रुप से अस्वस्थ होने के कारण उपचार के लिए अमेरिका गये ,तब भी वे पद्मासन में ध्यानमुद्रा में झूमते और कुछ- कुछ बुदबुदाते रहते थें।
   स्वामी विवेकानंद को ही लें । उल्लेख है कि जॉन पी फॉक्स को एक पत्र लिखते वक्त स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "मुझे साहस और उत्साह पसन्द है। मेरे समाज को इसकी बहुत ज़रूरत है। मेरा स्वास्थ्य कमज़ोर हो रहा है और बहुत समय तक मुझे ज़िन्दा बचने की उम्मीद नहीं है।"
   स्वामी विवेकानन्द को पता था कि उनकी  मृत्यु कब होगी। उनकी चेतना समय के साथ बढ़ती जा रही थी। इस बढ़ती चेतना को शरीर का संभाल पाना संभव नहीं था। विवेकानन्द कहते थें कि एक वक्त ऐसा आएगा जब उनकी चेतना अनन्त तक फैल जाएगी। उस वक्त उनका शरीर इसे संभाल नहीं पाएगा और उनकी मृत्यु हो जाएगी। कहा यह भी जाता है कि 39 वर्ष की अवस्था में ही स्वामी जी को 30 बड़ी गम्भीर बीमारियाँ हुईं। इसके बाद भी  स्वामी विवेकानन्द दैनिक कार्य किया करते थे। महानिर्वाण के पूर्व तीन घंटे तक उन्होंने योग किया था।
 स्वामी विवेकानंद जी के गुरुदेव स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो सिद्ध पुरुष ही थें। वे कैंसर से पीड़ित थें, परंतु माँ काली से स्वयं केलिए कभी कोई कामना नहीं की ।
  जबकि स्वामी रामतीर्थ को उनके छोटे से जीवनकाल में  ही एक महान् समाज सुधारक, एक ओजस्वी वक्ता, एक श्रेष्ठ लेखक, एक तेजोमय संन्यासी और एक उच्च राष्ट्रवादी का दर्जा प्राप्त हुआ। स्वामी जी ने अपने असाधारण कार्यों से पूरे विश्व में अपने नाम का डंका बजाया। मात्र 32 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने प्राण त्यागे थें ।  इस अल्पायु में उनके खाते में जुड़ी अनेक असाधारण उपलब्धियाँ यह साबित करती हैं कि अनुकरणीय जीवन जीने के लिए लम्बी आयु नहीं, ऊँची इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है। उनका स्वास्थ्य भी काफी बिगड़ गया था और वर्ष 1906 को दीपावली के दिन  गंगास्नान करते समय उन्होंने जलसमाधि ले ली | इनका जन्म और देह त्याग दोनों ही दीपावली के दिन हुआ था |
    मैंने अपनी माँ को ही देखा था कि वे गंभीर रुप से दमा सहित अन्य बीमारियों से पीड़ित थीं। उनका एक पांव भी जाता रहा। वे खड़ी नहीं हो सकती थीं। फिर भी उनकी इच्छाशक्ति इतनी दृढ़ थी कि वे मचिया पर बैठ कर खिसक-खिसक कर नित्यकर्म करती थीं। वे ठाकुरबाड़ी को पुष्पों से प्रतिदिन सजाती थीं। बेलपत्रों पर चंदन से रामनाम लिखती थीं । असाध्य रोगों ने उन्हें असहनीय कष्ट दिया, परंतु वे न तो कभी क्रोधित हुईं , न ही विचलित।  वे नियमित रुप से सुबह 6बजे ट्रांजिस्टर पर भजन सुनने के पूर्व मुझे जगाकर पढ़ने भेजती थीं।  बाबा को अपने काम से फुर्सत नहीं था और मैं सिर्फ 12 वर्ष का ही था। विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने जीवन के संध्याकाल को जिस प्रकार से ईश्वर को समर्पित किया, वह मेरे लिये प्रेरणास्रोत है कि मैं भी झुनझुनी भरे अपने बायें हाथ से अपने अनिश्चित भविष्य को लेकर विकल होने के स्थान पर नित्यकर्म करने का अभ्यास कर लूँ , ताकि नेत्रों की मंद होती ज्योति मुझे उस दिव्यप्रकाश से वंचित न कर सके,जिसकी अनुभूति मुझे ऐसे अध्यात्मिक विषयों पर चिंतन करते समय होती है। नियति ने मेरे लिये जो भी तय कर रखा है , उसे उपहार समझ स्वीकार कर लूँ।
  अतः मैं स्वयं को यह समझाने का प्रयास कर रहा हूँ कि जब कोई ऐसा दुःख हमारे हृदय में समा जाता है,जिसे हटाना असम्भव- सा लगता है, तो हमें ऐसे महापुरुषों के जीवनचरित्र पर दृष्टि डालनी चाहिए। जिनके पृष्ठों पर हमारे जैसे अनेक दुःख मिलेंगे, परंतु साथ ही बराबर जीवन में अग्रसर होते जाने का उल्लेख भी मिलेगा।
 " हृदय में जमा बूँद-बूँद दर्द ही मानव की पारसमणि है और यही दुःख जीवन का सबसे बड़ा रस है,सबको मांजता है। "
  अपनी बात स्वामी रामतीर्थ के इस शक्तिदायी  विचार के साथ समाप्त कर रहा हूँ-
" दुःखी व्यक्ति को चुपचाप अपना दुख भोग लेना चाहिए। बाहर धुआँ उड़ाने से क्या लाभ ? भीतर ही जब धुआँ प्रकाश में न बदल जाए तब तक किसी से कुछ कहना व्यर्थ है । धुएँ के बाद अग्नि अवश्य जल उठेगी- यह प्रकृति का नियम है।"


   --व्याकुल पथिक

Monday 9 December 2019

माँ तुझे ढ़ूंढता रहा अपनों में

रिश्ते न संभाल पाया जीवन के

माँ , तुझे ढ़ूंढता रहा अपनों में


बीता बसंत एक और जग में

जो पाया सो खोया मग में ?


माँ, स्नेह फिर से न मुहँ खोले

अरमान सभी कुचल दे उर के


दिल झर झर न बरसे सावन में

मुक्ति दे चिर विधुर जीवन से।


दिये असीम प्यार उपहार तुमने

बस एक और वरदान मुझे दे ।


बन गगन का टिमटिमाता दीपक

वह दुलार तेरा फिर से पाऊँ माँ !


तुझ जैसे कुछ लोग मिले जब

पवित्र स्नेह था उनके हिय में ।


अपराधी हूँ मैं उनका भी अब

यह तिरस्कृत जीवन हर ले माँ !


माँ , क्षमादान दिलवाना उनसे

बस इतना कहलाना इनसे ।


दुख जीवन में अनेक उठाये

माँ के प्यारे तुम सो जाओ ।


माँ , अब ना धैर्य बंधाना मुझको

मंजिल नयी न दिखाना मुझको।


करता विलाप विकल मन मेरा

प्यार से तू ही मुनिया कह दे ।


माँ , देखो आज जन्मदिन मेरा

क्यों रुलाता व्यर्थ ये सबेरा ?


तुझ बिन कौन मनाये इसको

सूना पड़ा यह दिल का बसेरा।


अस्थि- पंजर से लिपट कर माँ

कब तब तड़पू आहें भर- भर !


न मिला हँसने का अधिकार मुझे

बना पाप- अपराध जीवन भर ।


माँ ,ये हृदय मधु-कोष जो मेरा

विषधर-सा क्यों लगता सबकों ?


लुटा कर सर्वस्व जीवन अपना

न दे सका अमृत बूंद किसी को !


ना कुर्ता न पैजामा है माँ

बाबा ने ना कुछ भेजा है माँ ।


हाड़ी दादू केक न लाते

लिलुआ से बड़ी माँ न आती।


माँ , मौसी भी दूर हुई जबसे

बिखर गयी खुशियाँ जीवन से


अँखियों में अंधियारा छाया

लेखनी थम गयी जीवन की ।


पत्थर के दिल मोम न होंगे

हँसते हैं ये सब जग वाले ।


अब तो आ के गले लगा ले

देश पराया और लोग बेगाने ।


    -व्याकुल पथिक
    28 जुलाई 2019

( जीवन की पाठशाला )

Saturday 7 December 2019

नारी-सम्मान पर डाका ?

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पुत्र के मामले में माता-पिता और पति के मामले में पत्नी की दृष्टि जबतक सजग नहीं होगी , पुरुषों के ऐसे पाशविक वृत्ति एवं कृत्य पर अंकुश  नहीं लग सकेगा
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" तुम्हारी दोनों मौसी नहीं दिख रही हैं.. क्या वे दार्जिलिंग वापस चली गयी हैं..अच्छा,अब फिर कब आएँगीं..। "
   वह दुग्ध सामग्री विक्रेता जब भी यह प्रश्न करता था , मैं कुछ भी नहीं समझ पाता था और समझता भी कैसे, मात्र दस वर्ष का ही तो था। छं
   बनारस में मेरे मोहल्ले में ही उसकी बड़ी- सी दुकान थी और ठंड के मौसम में जब भी दार्जिलिंग वाले नानाजी का परिवार पूरे माहभर के लिये यहाँ नटराज होटल आता था , तो ये मौसियाँ मेरी मम्मी से मुलाकात करने घर पर आया करती थीं। रास्ते में लस्सी पीने अथवा रबड़ी- मलाई खाने के लिये वे मुहल्ले के उसी दूध की दुकान पर जाती थीं, जहाँ उनकी अनुपस्थिति में मुझसे ये सवाल पूछे जाते थें। मेरा बालमन उनकी मंशा को भला क्या समझ पाता, फिर भी मौसियों को लेकर उनकी हँसी- ठिठोली मुझे बिल्कुल नहीं भाती थी।
  दरअसल , मेरी ये मौसियाँ न सिर्फ काफी खूबसूरत थीं, बल्कि जींस-शर्ट पहना करती थीं, बिल्कुल, सिने जगत की हीरोइन वे लगती थीं।
  चार दशक पूर्व काशी जैसी सांस्कृतिक नगर में इस तरह के परिधान में युवतियों का दर्शन दुर्लभ था, इसीलिए जब भी वे आती थीं, मेरे मोहल्ले में वे आकर्षक का केंद्र बन जाती थीं। हाँ, तब काशी की संस्कृति का यह प्रभाव था कि महिलाओं को देख छींटाकशी कोई नहीं करता था।
  अब मैं समझ सकता हूँ कि उनके ऐसे परिधान , हमारे गली, मोहल्ले  शहर के वातावरण के अनुरूप नहीं थें। जिस कारण ही ये युवक चाहकर भी अपने मनोभाव को नहीं दबा पाते थें। संभव है कि प्रबुद्ध वर्ग का एक तबका इसे  सांस्कृतिक राजधानी काशी के वासियों का तब आधुनिक परिधान के मामले में पिछड़ापन कह सकता है और ऐसे लोगों ( दुग्ध विक्रेता) को मानसिक रूप से बीमार भी बता सकता है।
  अतः  मैं इससे आगे कुछ नहीं कहना चाहूँगा , क्यों कि स्त्री के परिधान पर चर्चा करूँगा ,तो तथाकथित आधुनिक सभ्य समाज के रखवाले ठंडा लिये बैठें हैं। वे मुझे दकियानूसी प्रवृत्ति का बता न सिर्फ उपहास करेंगे , वरन् नारी संगठनों के झंडाबरदार मुझे आधी आबादी का विरोधी बताकर सामाजिक बहिष्कार तक का फतवा जारी करा सकते हैं।
  सत्य तो यह भी है कि यदि हम पुरुषों ने अपने पारम्परिक परिधानों का त्याग कर दिया है,तो फिर स्त्रियों को हमें यह कहने बिल्कुल अधिकार नहीं है कि वे क्या पहने अथवा नहीं पहने। बस मैं इतना कहना चाहता हूँ कि यदि कोई युवती साड़ी अथवा सलवार सूट में है , तो उसे " बूढ़ी अम्मा " इस आधुनिक समाज के नुमाइंदे न कहें।
 हाँ, जो हालात है उस पर एक शे'र आपसभी के लिए यहाँ पेश है-

रखो जिस्मों को ढक के एहतिआतन,
सड़क पर भूखे कुत्ते  घूमते हैं !
संभल के  घर से तुम बाहर  निकलना
यहाँ हर तरफ दरिन्दे घूमते  हैँ !

   हमारे मीरजापुर नगर के युवा शायर खुर्शीद भारती का यह शे'र समसामयिक है, नारी-सम्मान में 'यंत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता' के  निरन्तर उद्घोष वाले देश में उन सभी महिलाओं के लिए , ताकि वे पशुवत आचरण की ना शिकार  हो। पता नहीं क्यों अपने देश में जहाँ पुरुषों का परिधान बड़ा  होता जा रहा है, वहीं स्त्रियों के वस्त्रों में निरंतर कटौती होती जा रही है, मानों देश की सारी गरीबी की मार इनके कपड़ों पर ही पड़ी हो।

दूषित वातावरण सृजन में मीडिया भी पीछे नहीं
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    अध्यात्म, साहित्यिक एवं सामाजिक सरोकार पर स्पष्ट विचार रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सलिल पांडेय जी का इस संदर्भ में कहना है कि ऐसे दूषित वातावरण के सृजन में मीडिया भी कम जिम्मेदार नहीं है। इस मामले में खासकर दृश्य मीडिया की जिम्मेदारी है कि वह सिर्फ न्यूज ही नहीं ऐसे विज्ञापनों के प्रसारण से बचें जो भारतीय संस्कारों का चीरहरण कर रहा हो । कुछेक चैनलों की एंकर तक एडल्ट फ़िल्म के ड्रेस में दिखती है ।  न्यूज पढ़ते समय फिल्मी अंदाज कहाँ तक उचित है? इस पर चिंतन की जरूरत है । महिला पुलिस अधिकारी, जज तो ड्रेस कोड में ही ड्यूटी करती हैं !  न्यूज को प्रोडक्ट बनाने से बचें या नैतिकता की दुहाई न दें । अन्यथा यह तीरघाट और मीरघाट एक करने की असफल कोशिश कहीं जाएँगी ।
   उनका यह भी कहना रहा कि बड़ा नारा लगता है -"भारत में रहना है तो हर काम भारतीय रिवाज और परंपराओं से किए जाएँ ।"      तो पहनावे के मामले में भी महिलाएँ समझें कि वे भारत में रहती हैं न कि योरप में ।
     जरा विचार करें आप भी कि पाशविकता की शिकार तेलंगाना की महिला चिकित्सक के साथ हुये  इस जघन्य अपराध से पहले  दिसम्बर 2012 में निर्भया के साथ क्या हुआ था । अकेले नई दिल्ली में ही नहीं, बल्कि पूरे देश में निर्भया की मौत की सहानुभूति में बहुत सारी मोमबत्तियाँ जली थीं । जिसके पश्चात ऐसी जघन्य घटनाओं को रोकने के लिए शासन स्तर पर अनेक होमवर्क किये गये थें। परंतु कठोर सत्य तो यही है कि निर्भया कांड के बाद ऐसी घटनाओं की बाढ़-सी आ गई है । इलेक्ट्रॉनिक/प्रिंट मीडिया में इस तरह की खबरें निरन्तर चल/छप भी रही हैं । सच तो यह है कि किसी भी अमानवीय घटना में दिखावा ज्यादा होता है । सामान्य और कम पढ़े लिखे से ज्यादा तथाकथित बुद्धिमान लोग ऐसे कामों में लिप्त पाए गए । इसमें बहुत से ऐसे लोग चाहे शासन-सत्ता में बैठे हों, आश्रम चलाने वाले संत-महंत हों, मंचों पर नैतिकता पर भाषण देने वाले हों या न्यूज चैनल चलाने और उसमें बहस करने वाले ही क्यों न हों ?

पुरुष क्या विषय वासना का पुतला मात्र !
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      मैं इसी चिंतन में डूबा हूँ कि विवाह- बारात के इस मौसम में जहाँ शहनाई की गूंज चहुँओर सुनाई पड़ रही है,वहीं ये कुछ अनसुनी भयावाह चीखें आधुनिक सभ्य समाज के पहरुओं तक क्यों नहीं पहुँच रही हैं,जिनसे मानवता शर्मसार हो गयी है।
      महिला चिकित्सक की सामूहिक दुष्कर्म कर हत्या और शव को जला देने की घटना से नारी संगठन ही नहीं हर संवेदनशील व्यक्ति हतप्रभ है ।
   इस आधुनिक (अर्थ) युग में मानवीय गुणों का पतन इसतरह से क्यों हो रहा है। इसे  स्वछंदता कहें अथवा मनोविकार , मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि आधुनिक सभ्य समाज ने हमें नैतिक मूल्यों से वंचित कर दिया है। ऐसी घटनाओं के संदर्भ में क्या कहा जाए..।
   सिर्फ वासना की दृष्टि से औरतों को देखने की पुरुषों की यह कैसी प्रवृत्ति है .. ? इस व्यभिचार से क्या वह स्वयं को कभी भी ऊपर नहीं उठ सकता ? मानव को सभी प्राणियों में श्रेष्ठ कहा गया है , किन्तु सच तो यह है कि वह "  विषय वासना"  का एक पुतला मात्र है। जो अपनी ऐसी दुर्बलता पर कभी भी नियंत्रण नहीं पा सका है।
प्रश्न यह भी है कि वासना की वस्तु त्याग कर  और वनवासी होकर भी  क्या वासना से पिंड छूट जाता है ..?  नासूर बना यह मर्ज क्या लाइलाज़ है.. ?

नारी संगठनों ने जो नहीं किया प्रतिकार
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       ऐसी दिल को दहलाने वाली अनेक घटनाएँ विगत 26 वर्षों में जब से पत्रकारिता में हूँ, अपने जनपद में देखता आ रहा हूँ। इनमें से कुछ मामलों में दुष्कर्मी हत्यारे पकड़े जाते हैं , कुछ में नहीं और कई में तो पीड़िता के शव की पहचान तक नहीं हुई है ।
   जब मैं मिर्ज़ापुर आया था ,तब पहली घटना शास्त्री सेतु के नीचे देखने को मिली थी। एक युवती के साथ ऐसा घृणित कार्य कर दुराचारियों ने बड़ी निर्ममता से उसकी हत्या की थी।  उस अभागी युवती के शव की शिनाख्त अंततः नहीं हो सकी। दूसरी जघन्य घटना और भी भयानक रही, जिला मुख्यालय पर ही घर में सो रहे एक चिकित्सक के आँखों के समक्ष ही उसकी दोनों अविवाहित युवा पुत्रियों के साथ दुष्कर्म कर तीनों की ही निर्ममतापूर्वक हत्या कर दी गयी। इसके पश्चात अनेक घटनाएँ होती रहीं, यहाँ तक अबोध बालिका संग दुराचार कर उसकी हत्या की गयी।
 एक बात मुझे समझ में नहीं आयी कि अपने ही जनपद में होने वाली ऐसी घटनाओं के पश्चात  यहाँ की नारी संगठनों ने क्यों नहीं प्रतिकार किया ? वे कभी पुलिस अधीक्षक कार्यलय पर यह नहीं पूछने गयी कि ऐसी घटनाओं में पुलिस का होमवर्क कहाँ तक पहुँचा है। उन्होंने अपने जनपद में बच्चों को संस्कारी बनाने के लिये वृहद  स्तर पर कोई कार्यक्रम किया हो , ऐसा कोई अभियान उनका जारी हो, ऐसा कोई मंच मुझे इन   ढाई दशक में नहीं दिखा।
    हाँ , समय- समय पर संस्कार भारती जैसी संस्थाएँ कुछ कार्यक्रम करवा दिया करती हैं, किंतु मार्डन सोसाइटी में उसके सांस्कृतिक कार्यक्रम  आधुनिक विचारधारा वाले जेंटलमैनों के लिये उनके फेसबुक ( सोशल मीडिया) की शोभा बन कर रह गया है।

कैसे सुधरेंगे लोग और क्या होना चाहिए ?
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  जब मैं समझदार हुआ और धार्मिक कथाओं के अध्ययन के क्रम में उससे यह वर्णन पढ़ने को मिला कि अमुक  अत्याचारी दानव एवं राक्षस अपनी पतिव्रता स्त्री के सतित्व के कारण अजेय हैं और वे महिला सम्मान तक पर डाका डाला करते थें।
   ऐसे में एक प्रश्न मैं सदैव ऐसी स्त्रियों से पूछना चाहता था कि क्या उनका कोई कर्तव्य समाज के प्रति नहीं बनता था, क्यों जालंधर वध के लिए पतिव्रता वृंदा का सतीत्व उसके ही आराध्य देव विष्णु  को भंग करना पड़ा, इसलिए न कि शिव पत्नी पार्वती पर भी उसकी कुदृष्टि पड़ गई थी और पतिव्रता पत्नी के कारण वह अजेय था।
   मेरा प्रश्न वृंदा से यह है कि यदि स्वयं का सतीत्व भंग होने पर वह अपने शरीर का त्याग कर सकती है,तो उसने अन्य स्त्रियों के साथ ऐसा ही दुष्कृत्य कर रहे अपने पति जालंधर का परित्याग क्यों नहीं किया ? इंद्र ने जब अहिल्या के साथ छल किया ,तब इंद्राणी (शची) क्यों मौन रही ?  राज्यसभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय गांधारी आदि सभी कुरुवंश  की महिलाएँँ कहाँँ थींं, वे क्यों मौन थींं और उन्होंने दुर्योधन एवं दुशासन को इस दुस्साहस के लिए दंडित क्यों नहीं किया और परिणाम क्या निकला महाविनाश ?
 अपनों द्वारा किये जा रहे अन्याय के विरुद्ध नारी समाज का मौन कब मुखरित होगा,इस आधुनिक सभ्य समाज को इसकी प्रतीक्षा है।
   ऐसे उदहारण प्रस्तुत कर मैं यह कहना चाहता हूँ कि नारी -सम्मान को आहत करने के मामले में पुरुष यदि अविवाहित हो तो उसके माता-पिता इसके लिए स्वयं को भी जिम्मेदार माने और
संस्कारहीन अपने दुष्कर्मी पुत्र का सार्वजनिक रूप से परित्याग करें। इसी प्रकार से पति की दुश्चरित्रता में पत्नी को भी अर्धांगिनी होने के कारण स्वयं को दोषी मानते हुये , उसका (पति) परित्याग करना ही चाहिए।
    यह पारिवारिक एवं सामाजिक बहिष्कार ही ऐसे कुकर्मियों की सबसे बड़ी सजा होगी , साथ ही कानून और सख्त हो।
   पुत्र के मामले में माता-पिता और पति के मामले में पत्नी की दृष्टि जबतक सजग नहीं होगी , पुरुषों के ऐसे पाशविक वृत्ति एवं कृत्य पर अंकुश  नहीं लग सकेगा।

   यदि नारी सचमुच सामर्थ्यवान बनना चाहती है,तो उसे वृंदा ,इंद्राणी और गांधारी की तरह जब स्त्रियों पर अत्याचार हो ,तो मौन नहीं रहना होगा और न ही मंदोदरी और सुलोचना की तरह अपने पतियों को उनके कुकृत्य के लिए स्वामी एवं नाथ कह कर समझाना होगा ,बल्कि सार्वजनिक रूप से उसकी भर्त्सना करनी होगी ।

एनकाउंटर विकल्प नहीं
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  गत शुक्रवार की सुबह यह खबर आयी कि महिला चिकित्सक के साथ दुष्कर्म करने वाले चारों आरोपी पुलिस एनकाउंटर में मारे गये हैं। जिसे लेकर प्रबुद्धवर्ग का एक तबका सवाल उठा रहा है , लेकिन मातृ शक्तियों ने ही नहीं आम जनता ने भी पुष्प वर्षा कर पुलिस कार्रवाई का स्वागत किया है।
  फिर भी बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि जब राष्ट्र के संविधान द्वारा तय न्याय व्यवस्था से इतर यदि  " दरोगा ही न्यायाधीश " बन जाए और किसी के जीवन-मृत्यु का निर्णय लेने लगे , तो क्या  यह व्यवस्था लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक साबित नहीं होगी ?
   यह भीड़तंत्र आज भले ही ऐसे त्वरित न्याय पर "जय हो " का उद्घोष कर रहा है, लेकिन भविष्य में इसके गंभीर परिणाम सम्भव है।खाकी वाले फिर तो परम स्वतंत्र हो जाएँगे ?
   एनकाउन्टर पर प्रबुद्धजनों ने तमाम सवाल किये हैं। पहला यह कि क्या जिन आरोपियों को पकड़ा गया वही बलात्कारी थे? दूसरा ,सैकड़ों पुलिसवालों के साथ मुंह ढांककर हथकड़ी लगाकर जिन आरोपियों को हिरासत के सात दिन बाद घटनास्थल पर ले जाया गया क्या उनके पास कोई हथियार थे?  क्या उन्होंने बंद गाड़ी में पुलिस वालों पर हमला किया था? तीसरा आरोपियों को रात के तीन बजे पुलिस को घटना स्थल पर ले जाने की क्या जरूरत थी? चौथा क्या एनकाउन्टर सुनियोजित था तथा तेलंगाना पुलिस के मुखिया एवं मुख्यमंत्री के निर्देश पर प्रायोजित किया गया था? पांचवां महत्वपूर्ण सवाल यह है कि पीयूसीएल वेर्सेस स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र, सीडीजे 2014 एससी 831 प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय  द्वारा पुलिस इनकाउन्टर को लेकर जो 16 गाइडलाइन दी गई थी, उनका पालन किया गया है या नहीं?
   डाक्टर सुनीलम  जो कि मध्यप्रदेश के पूर्व विधायक (दोबार)और समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय सचिव वर्तमान राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं , का कथन है कि एनकाउंटर के नाम पर सुनोयोजित हत्याएं महिलाओं के खिलाफ अपराध रोकने का कोई स्थायी हल नहीं है। उनका यह भी कहना है कि देश में औसतन हर वर्ष पचीस हजार से तीस हजार बलात्कार के प्रकरण दर्ज किये जाते हैं। 98 प्रतिशत बलात्कारी पीड़िता के पूर्व परिचित होते हैं,तो मुख्य सवाल यह है कि क्या जिस पर बलात्कार का आरोप लगे उसका एनकाउन्टर कर दिया जाना चाहिये?
   वैसे, हाईकोर्ट ने इस मामले को संज्ञान में लिया है और पोस्टमार्टम का वीडियो मांगा है। 9दिसंबर तक चारों शव सुरक्षित रखने का आदेश भी दिया है। तेलंगाना मुठभेड़ की जाँच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की विशेष टीम भी करेगी।
वहीं, चीफ जस्टिस  बोबड़े का यह बयान - " बदला न्याय नहीं हो सकता, न्याय जल्दबाजी में नहीं होता, न्याय का चरित्र खराब ना करें । "
  देश की जनता को इस पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए।

  - व्याकुल पथिक
   

Wednesday 4 December 2019

बचत खाता ( जीवन की पाठशाला )


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    मुझे लगा कि धन ऐसी वस्तु है कि कोई यह कहता नहीं दिखता कि बस- बस अब अधिक नहीं.. ? हाँ, सचमुच यह कैसा बचत बैंक है ..! और हमने ऐसा बचत खाता क्यों खोल रखा है ..?
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   पिछले सप्ताह सुपरिचित न्यूरोलॉजिस्ट डॉ पोद्दार से उपचार करवाने वाराणसी गया था। मेरे मित्र इंस्पेक्टर अरविंद यादव के सहयोग से शीघ्र ही नंबर मिल गया और  अपरान्ह तीन बजे तक दवा लेकर खाली हो गया था।
  एकाकी जीवन में जब जवानी का जोश ठंडा पड़ जाता है ,तब सबसे बड़ा भय यदि ऐसे व्यक्ति के समक्ष होता है,तो वह उसका बिगड़ता स्वास्थ्य है ।
   पहले बायीं आँख और अब इसी तरफ के हाथ के अँगूठे एवं हथेली ने जिस तरह से असहयोग का बिगुल बजाया है। उससे अपाहिज होने के भय से मैं निश्चित ही सहमसहमा-सा हूँ।
    सो, नियति के खेल पर चिंतन करते हुए ,पैदल ही समीप स्थित प्रसिद्ध दुर्गा जी मंदिर पर जा पहुँचा।जहाँ का दृश्य देख बचपन की स्मृतियों में खोता चला गया और रात्रि सवा आठ बजे तक मंदिर के इर्दगिर्द चहलकदमी करता रहा।
       वेदना में वह शक्ति है जो दृष्टि देती है। अतः  मैंने देखा एक वृद्ध भिक्षुक गरीबी और बेकसी की जिंदा तस्वीर बना सुबह से ही मंदिर के बाहर बैठा हुआ है । वह , ये बाबू ! कह रह-रह कर  करुण पुकार लगाता  साथ ही उधर से गुजरने वाले देवीभक्तों के समक्ष हाथ में लिया कटोरा बढ़ा दिया करता था। जो भी मिलता , उसे कटोरे से निकाल कर झोली में रखता जाता । कटोरा खाली का खाली रहता और झोली भरती जाती। मैं समझ नहीं पा रहा था कि यह दिव्यांग भिखारी अपने बचत खाते में कितना धन आदि सामग्री संग्रहित करना चाहता है और क्यों ? इतनी खाद्य सामग्री उसे मिल गयी थी कि उसकी क्षुधा निश्चित ही तृप्त हो गयी होगी । फिर भी वह क्यों दीनता का प्रदर्शन करते हुये सुबह से रात तक हर किसी के समक्ष कटोरा बढ़ाये जा रहा है  ? वह किस अनजाने मोह से जूझ रहा है ?  मानव मन का यह कैसा अतृप्त भाव है.. ?
     ###  मुझे लगा कि धन ऐसी वस्तु है कि कोई यह कहता नहीं दिखता कि बस- बस अब अधिक नहीं.. ? हाँ, सचमुच यह कैसा बचत बैंक है ..! और हमने ऐसा बचत खाता क्यों खोल रखा है ..?  ###
     इसी चिंतन में मैं डूब-सा गया था और पता नहीं कब शाम हो गयी। खैर, मंदिर में हो रही आरती एवं घंटा-घड़ियाल की गूंज से मेरी तंद्रा भंग हुई। मंदिर के मुख्यद्वार की तरफ दृष्टि उठा कर भगवती को नमन किया। जीवन का सन्ध्याकाल सकुशल गुजर जाए, यह प्रार्थना भी की।
  और तभी मैंने देखा कि मुख्यद्वार पर हृष्टपुष्ट शरीर वाला संत वेषधारी एक चालीस वर्षीय व्यक्ति आ खड़ा हुआ है ।  गेरुआ वस्त्र , गले में ढेर सारी मालाएँ और हाथ में कमंडल था । उसकी पारखी निगाहें भक्तों की भीड़ में से कुछ एक पर ज्यों ही पड़ती , वह उस दर्शनार्थी के समीप जा कर धीरे-से फुसफुसाता - " भगत जी ,माता रानी तुम्हारी झोली भरेगी। एक वक्त के भोजन की व्यवस्था करवा दो। "
  उस बूढ़े भिखमंगे की तरह उसके स्वर में तनिक भी याचना का भाव नहीं था। मैं उसके चमकते ललाट और बलिष्ठ शरीर को अपलक देखता रहा। जिसने भी उसे दिया, वह दस-बीस से कम का नोट नहीं था।
  इस दौरान उसे यदि समोसा- ब्रेड पकौड़ा आदि कुछ मिलता , तो उसे वह वृद्ध भिखारी को दे दिया करता था। जैसे , ऐसे व्यंजनों में उसे कोई रुचि नहीं हो।
  मेरे देखते ही देखते दो-तीन घंटे में उसने कोई दो-ढाई सौ रुपये एकत्र कर लिये और जब वह प्रस्थान करने को हुआ , तो मेरी पत्रकारिता जाग उठी। अतः मैं उसके समीप गया और कहा -" बाबा,  जरा ठहरो तो ।"
     उसने सोचा कि कोई बढ़िया आसामी(भक्त ) मिल गया है, जो स्वतः ही उसे यूँ पुकार रहा है। मैंने पुनः उसकी थोड़ी प्रशंसा की और फिर सवाल दागा कि शरीर से इतना बलिष्ठ होकर भी वह एक वक्त का भोजन क्यों मांग रहा है और यदि मंदिर पर आया भी तो मात्र दो घंटे में  ही अपना बाजार समेट अब क्यों जा रहा है। उस बूढ़े भिखारी की तरह रात होने की प्रतीक्षा करता तो कुछ और धन संग्रह कर लेता । मेरी बात सुनकर वह तनिक मुस्कुराया और फिर कहा कि धर्मशास्त्र का उसे भी ज्ञान है, परंतु दुकानदारी उसकी चली नहीं और मेहनत -मजदूरी कभी की नहीं, अतः यहाँ मातारानी के शरण में आ गया है। बिना वेषधारण किये भिक्षा कहाँ मिलती है, अतः ढोंगी महात्माओं- सा श्रृंगार वह किये हुए है, किंतु ब्लैकमेलिंग करने के लिए तिलक- चंदन नहीं लगाया है, न ही झूठ का आश्रय लेता है, जिसने भी भोजन के लिये उसे कुछ दिया , उसके कल्याण के लिए माँ दुर्गा से प्रार्थना करता है और   अनावश्यक किसी भी लौकिक सामग्री (अपने कंधे पर पड़े एकमात्र कंबल की ओर इशारा करते हुये)  का संग्रह नहीं करता है।
    वह संध्याकाल यहाँ मंदिर पर आता है और भिक्षा में जो भी धन मिला , उससे भोजन की व्यवस्था कर आनंदित है। भविष्य के लिये  धन, वस्त्र और अन्न संग्रह को लेकर चिंतित नहीं रहना ही उसके उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य है।   लेकिन, उसके बचत खाते का बैलेंस सदैव शून्य रहता है।
       तभी मैंने देखा कि भीख मांग रही एक बच्ची के कटोरे में दो महिलाएँ पाँच- पाँच रुपये के दो सिक्के डालती हैं। जिसे देख उस मासूम बालिका की आँखों में अप्रत्याशित चमक आ जाती है। वह कटोरा लिये सड़क उस पार दौड़ती है। वहाँ ब्रेड पकौड़े वाले को दोनों सिक्के देती है और फिर पकौड़ा हाथ में ले इस तरह से खिलखिलाती है, मानों उसे जीवन की हर खुशी मिल गयी हो , यद्यपि बचत खाते में उसका बैंक बैलेंस भी शून्य ही  है , क्यों कि कटोरा खाली जो हो गया था, फिर भी उसकी आत्मा तृप्त थी।
   बूढ़े भिखारी, संत भेषभूषा वाले उस व्यक्ति और इस बच्ची तीनों की प्रवृत्तियों पर मनन करते वक्त मुझे लगा कि अपना बचत खाता भी टटोल लूँ। याद है आज भी जब वर्ष 1994 में आजीविका की खोज में अपने प्रेस में गया था। उस समय प्रतिदिन 40 रुपया मिला करता था और लगभग 25 रुपया मैं समाचार पत्रों की बिक्री एवं बस के किराये से बचा लेता था। तब मेरे पास कोई बचत खाता नहीं था। प्रतिदिन वाराणसी से मीरजापुर बस के सफर के दौरान मैं आधा किलोग्राम अनार खरीदता था और वापसी के समय भरपेट दूध- मलाई भोजन के पश्चात लिया करता था। धन संचय का कोई लोभ नहीं था। वाराणसी के " कंबल घर " से उस समय जब मैंने एक महंगा स्वेटर खरीदा , तो प्रेस कार्यालय पर मेरे एक शुभचिंतक ने कहा कि दोस्त कुछ पैसे भविष्य के लिये बचा लिया करो। जिसे मैंने हँसकर अनसुना कर दिया था।
 उस दौर में सुबह से रात तक शारीरिक और मानसिक श्रम के बावजूद मुझे बिल्कुल थकान महसूस नहीं हुई।
   परंतु अगले वर्ष मुझे इस अखबार में स्थापित करने वाले सरदार जी , जिन्हें मैं अंकल कहता था, उन्होंने मेरे समक्ष अखबार की मीरजापुर एजेंसी लेने का विचार रखा। उनका कथन था  कि इससे तुम्हारी प्रतिष्ठा बढ़ जाएगी। डाकघर में मेरा बचत खाता खोल दिया गया। मुझे मीरजापुर एजेंसी के लिए आठ हजार रुपया शीघ्र एकत्र करना था ।
  और फिर क्या इस बचत खाते में मैं अपना भविष्य देखने लगा। मैंने  " दस लाख " रुपये एकत्र करने का लक्ष्य रखा । परिणाम यह रहा कि मैं उस संत युवक अथवा बच्ची के तरह नहीं रह गया । मेरा कटोरा उस बूढ़ भिक्षुक की तरह हो गया। जिसे मैं अपनी इच्छाओं का दमन कर अत्यधिक परिश्रम से भरने के प्रयत्न में जुट गया  ।
  कितने वर्ष गुजर गये पत्रकारिता में इतना धन कहाँ था कि वह शीघ्र भर पाता और एक दिन अंतरात्मा की आवाज सुनाई पड़ी- " रे मुर्ख ! जो भी धन तेरे पास है , अब उसका क्या करेगा ? अत्यधिक श्रम कर अपना स्वास्थ्य तो तूने खो दिया है, क्या इसका उपभोग कर सकेगा..? "
   तभी मुझे ढाई दशक पहले वाला वह युवक याद आया । जिसके पास कोई बचत खाता नहीं था , परंतु वह जब कीमती वस्त्र और जूता पहन मीरजापुर की सड़कों पर अखबार बांटने निकलता था ,तो लोग स्तब्ध हो जाते थें। हिष्ट- पुष्ट शरीर और पहनावा देख उसे  कुलीन घराने का घर से नाराज होकर भागा हुआ बिगड़ैल बेटा समझ वे सभी स्नेह वर्षा करते थें।
  परंतु उसी नादान युवक ने बचत खाता खुलते ही , उस कटोरे को भरने के प्रयत्न में अपनी हर खुशियों को पीछे छोड़ दिया ।
  और मित्रों , जिस दिन यह आत्मबोध हुआ, सच  कहता हूँ कि मैंने अपना बचत खाता क्लोज कर दिया है। संचय की प्रवृत्ति से मुक्त हो गया हूँ ।लेकिन, देर से आयी यह सद्बुद्धि किस काम की, अब तो शारीरिक अपंगता की बढ़ने लगा हूँ, उस विकलांग वृद्ध भिक्षुक की तरह..।

   वैसे तो एक बचत खाता  मुझे और स्मरण हो आया है, जब बेरोजगार था और हिय की प्यास बुझाने संत मुरारीबापू की रामकथा सुनने गया था। वहाँ , मैंने देखा कि अनेक भक्त एक पतली डायरी पर राम- राम लिख रहे थें। यह उनका बचत खाता ही था , जिसे रामनामी बैंक में जमा किया जाना था।
    क्या मैंने भी अपने जीवन मे ऐसा कोई बचत खाता खोल रखा है ? जिसकी जगमग से पथिक के विकल हृदय को जीवन के इस संध्याकाल में दिखाई पड़ रहे अंधकार से मुक्ति मिल सके। है क्या कोई ऐसा बचत खाता उसके भी पास..?

   -व्याकुल पथिक
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( बंधुओं, मैं इस लेख के माध्यम से क्या कहना चाहता हूँ ,आप भी जरा विचार करें ,प्रणाम। )

Sunday 1 December 2019

सजदा ( जीवन की पाठशाला )

न कभी सजदा किया
ना दुआ करते हैं हम
दिल से दिल को मिलाया
बोलो,ये इबादत क्या कम है।


दर्द जो भी मिला
ख़ुदा ! तेरी दुनियाँ से
कोई शिकवा न किया
बोलो,ये बंदगी क्या कम है ।


कांटों के हार को समझ
नियति का उपहार
हर चोट पे मुस्कुराया
बोलो,ये सब्र क्या कम है।


अपनों से मिले ज़ख्म पे
ग़ैरों ने लगाया नमक
बिन मरहम काट लिये वक्त
बोलो,ये सजा क्या कम है ।


बारिश में छुपा अपने "अश्क़ "
मिटा असली-नकली का भेद
सावन में दिल को जलाया
बोलो ,ये तप क्या कम है।


शूल बन चुभते रहे वो बोल
राज यह भी किया दफ़न
फ़क़ीर बन होकर मौन
बोलो, ये वफ़ा क्या कम है।


सजदे का क्यों करते मोल
ये मेरे गुनाहों की माफी है
अल्लाह की तारीफ और
पैग़ाम इंसानियत का है !


रिश्ते में भी होते हैं सजदे
मतलबी इंसानों की बस्ती में
इसे कोई करे न करे क़ुबूल
सुनो,ये तो अपनी क़िस्मत है ।

व्याकुल पथिक