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Saturday 28 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
आत्मकथा

               एक थें बाबा, एक थी मां !

    गर्मी के बावजूद अधिक श्रम और अखबार से जुड़े ढेरों कार्य के मध्य जबर्दस्त संघर्ष जारी है, इन दिनों मेरे जीवन में। यदि आज  " बाबूवार " न होता तो,सुबह उठ कर समाचार लेखन शायद ही कर पाता, क्यों कल रात ही पेपर बांटते समय पांव कदम बढ़ाने से इंकार कर रहे थें। मेरी हालत देख संकटमोचन मंदिर के पास न्यू मेन्स ट्रेलर के स्वामी जफर भाई ने टोका भी कि शशि भाई ठंडा पानी पिलाऊं क्या ..परंतु मित्रों जीवन के इस सफर में विश्राम इतनी आसानी से मिलती कहां है। सो, मैंने बनावटी मुस्कान के साथ शुक्रिया कहा और आगे अस्पताल रोड की ओर बढ़ चला। होमवर्क अधूरा छोड़ने की  जो मुझे आदत नहीं है।  तेज बुखार में भी शाल लपेट पेपर औराई लेने जाया करता था। हां, तब अखबार बांटने वाले चार व्यक्ति थें, हम सब। अब मैं अकेला ही बचा। संस्थान की स्थिति पहले जैसी नहीं रही । जब पेपर रात्रि नौ -दस बजे आएंगा, तो बांटने वाला कौन मिलेगा। और अब तो पेपर का मूल्य भी इतना महंगा कर दिया गया है कि मैं सिर्फ खरीद दाम में ही इसे अपने ग्राहकों को दे रहा हूं। ऐसा भी श्रमिक आपने कभी देखा है क्या कि जो सायं साढ़े 6 बजे से ही शास्त्रीपुल पर साइकिल दौड़ाते चला जाता है और रात्रि 11 बजे जब पेपर बांट कर मुसाफिरखाने पर लौटता है,  तो इस थका देने वाले परिश्रम की कुछ भी मजदूरी उसे नहीं मिलती हो...

अब मैं जिस स्थिति में हूं वहां पैसे की मुझे बिल्कुल भी चाहत नहीं है। इसलिये तो मित्र कहते भी है कि छोड़ क्यों नहीं देते यह काम ...बिल्कुल गांडीव के लिये पागल हो गये हो क्या ? जो रात्रि में सड़क के आवारा कुत्तों से दोस्ती कर ली है...

   अब क्या जवाब दूं ऐसे शुभचिंतकों को , यह कहूं कि विगत तीन दशक से मैं सचमुच बिल्कुल इन्हीं छुट्टा पशुओं की तरह ही तो हूं। क्या पहचान है मेरी  घर , परिवार और समाज में !  यही न कि एक पत्रकार हूं, ऐसा रिपोर्टर जिसकी कलम को पैसे और ताकत से कोई भी नहीं खरीद सकता...
फिलहाल तो  " बाबूबार " यह प्यारा सा शब्द , मुझे अपने बचपन की सुखद स्मृतियों में ले जारा है। शरीर के सारे थकान भूल कर मेरा मन कोलकाता के उस अति व्यस्त बड़ा बाजार इलाके  मे जा पहुंचा है। जहां एक मकान की चौथी मंजिल पर मेरा ननिहाल था। जीवन के सबसे सुखद दिन मैंने यही बिताए हैं। मेरे नाना जिन्हें हम सभी बाबा कहते थें, वे आज के दिन शाम होते ही पुकार लगाने लगते थें कि प्यारे( मेरे लिये सम्बोधन)  कहां हो,  बाबूबार है ,लूडो होगा क्या ?  बाबा की आवाज सुनते ही मैं चहक उठता था। अलमारी से झट लूडो निकालता था और सीढ़ियों से लगभग दौड़ लगाते हुये नीचे दूसरी मंजिल की ओर भाग पड़ता था। मां (नानी) हिदायत देती रह जाती थीं कि सम्हल कर जाओ, नहीं तो गिर जाओगे। उस जमाने का महंगा से महंगा लूडो वे मुझे दिलवाया करते थें। बताते चलूं कि बंगाली लोग रविवार को बाबूबार ही कहते हैं। मैं गर्भ के साथ कह सकता हूं कि ऐसे नाना-नानी जिन्हें मैं मां-बाबा कहता था, हर किसी को नहीं  मिलतें। नानी मां तो मेरे आंखों के सामने ही तब गुजरीं , जब मैं  12 वर्ष का रहा हूंगा। लेकिन, बाबा जिन्होंने मेरी हर इच्छा पूरी की , मैं उनका अंतिम दर्शन भी नहीं कर सका। बाबा जो मुझे खुश रखने के लिये एक- दो नहीं, बल्कि एक टोकरी भर खिलौने दिलवाया करते थें। जगरनाथ जी रथ पूजा पर्व पर मेरे लिये नया रथ , टोकरियों में भर कर तरह तरह के पुष्प, बिजली के झालर सभी कुछ वे मंगाते थें और सरस्वती पूजा पर भी यही होता था। मैं कमरे के बाहर आंगन में स्वयं ही सारी सजावट उस 12 वर्ष की अवस्था में भी किया करता था और बाबा सहयोग करते थें, नीचे कारखाने से आने के बाद। नानी मां सांस की बीमारी से पीड़ित थीं, पैर भी एक खराब हो गया था उनका। अतः वे बिस्तरे पर बैठे-बैठे ही हम दादू-नाती के खिलवाड़ को देखा करती थीं। हां , रात होने पर डांट जरुर पड़ती थी कि मुनिया ( बड़ा प्यारा सम्बोधन था मेरे लिये ) सोना नहीं है, सुबह स्कूल कब जाएगा। प्रातः जैसे ही ट्राजिस्टर पर विविध भारती रेडियो स्टेशन वंदेमातरम... गीत गाने को होता था, मुझे उठा कर आंगन के बाहर ऊपर वाली सीढ़ियों पर बैठा देती थी मां। ताकि अपना पाठ ठीक से याद कर सकूं। बाबा देर से उठते थें। मैं उन्हीं के बगल में सोया करता था। ....

(शशि) 29/4/18

क्रमशः