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Monday 25 February 2019

याचना नहीं अब रण हो



वीर शहीदों को श्रद्धांजलि के बाद
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  रामधारी सिंह "दिनकर" की वीर रस से भरी एक रचना की इन पंक्तियों-

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा...

      ...को साकार करने की मंशा लिये  आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों के प्रति राष्ट्रीय और उसके नागरिकों ने विभिन्न आयोजनों के माध्यम से अपना श्रद्धा सुमन अर्पित किया । प्रबुद्ध वर्ग से लेकर साधारण तबक़ा तक ऐसे कार्यक्रमों को करते दिखा। जिससे लगा कि सचमुच हमारे सैनिकों की इस शहादत से हमारी सुप्त संवेदना , हमारी भ्रष्ट व्यवस्था , हमारे जुगाड़ तंत्र, हमारी राजनीति और रहनुमाओं की सोच में बड़ा परिवर्तन आने वाला है। आतंकवाद का पुतला दहन और पाकिस्तान मुर्दाबाद जैसे नारे लगाते लोगों को इस प्रकार से गली -सड़कों पर उतरते मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बड़ों की बात छोड़ें,  नासमझ बच्चों का समूह 'मुर्दाबाद-मुर्दाबाद' कहते हुए हाथ में पुतला लिए गलियों में घूम रहा था । सभी की इच्छा यह रही कि आतंकवादियों और उनके संरक्षक को सबक़ सिखाने का समय आ गया है । अब भी अधिकांश लोग यह कहते मिल रहे हैं कि हमारी केंद्र सरकार निश्चित ही इन जवानों की हत्या का प्रतिकार लेगी। जब समझौता का कोई भी विकल्प शेष न हो तो युद्ध का शंखनाद कोई उन्माद नहीं है।  अन्यथा योगेश्वर कृष्ण महाभारत युद्ध होने ही न देते । 
    जब दुर्जनों को प्रेम की भाषा समझ में न आए, उसे यह लगे कि अहिंसा की बात करने वाले मूर्ख हैंं,कमजोर हैंं , बुज़दिल हैं और समझौते का आखिरी मार्ग भी बंद हो जाए तो फिर योगेश्वर कृष्ण द्वारा प्रदत्त 'ज्ञान गीता' रूपी रथ पर सवार हो अर्जुन बन हमें भी शस्त्र उठाना होगा। आरम्भिक परिणाम चाहे जो भी हो ,परंतु विजय सत्य की ही अंततः होती है।

आखिरी रास्ता
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   हमारे राजनेताओं का नज़रिया भले ही सियासत से जुड़ा हो। लेकिन , इस वोट बैंक की राजनीति से देश की रक्षा और उसके मान, सम्मान और स्वाभिमान की सुरक्षा संभव नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री द्वय लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने  युद्ध के आमंत्रण को स्वीकार किया और इसीलिये आज भी इन्हें राष्ट्र याद करता है। परिस्थितियाँँ चाहे जितनी भी कठिन हो, अंतरराष्ट्रीय दबाव जो भी हो,  लेकिन युद्ध जब आवश्यक है तो फिर उस महायुद्ध के लिए कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिए और इन परिस्थितियों में विपक्ष में चाहे जो भी राजनीतिक पार्टी हो उसे सत्ता पक्ष का समर्थन करना चाहिए । इंदिरा गाँँधी के बाद हमने छद्म युद्ध कला भुला दी।  जिसका परिणाम है कि आतंकवादी बाहर के भी हैं और घर के भी..., इंदिरा गांधी स्वयं भी घर के आतंकवाद का शिकार हुई थीं। राजनीति में जब भी हम अपने स्वार्थ में अराजक तत्वों के साथ क़दमताल करेंगे तो उसका परिणाम हमें और हमारे राष्ट्र को भी निश्चित भुगतना पड़ेगा । जैसा कि पाकिस्तान स्वयं भी भुगत रहा है और वहाँँ के रहनुमाओं को अपनी सत्ता बचाने के लिए और सेना को खुश रखने के लिए सर्प रूपी ऐसे अराजक तत्वों को दूध पिलाते रहना होगा,  क्यों कि स्थिति उनके हाथ से निकल चुकी है। भारत के प्रति विद्वेष की राजनीति पर उनकी सत्ता टिकी हुई है।

मातमी चोले से करें तौबा
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   यह कैसी विचित्र विडंबना है हम भारतीयों की भी कि अभी कुछ दिनों पूर्व राष्ट्र के वे नागरिक , जो जवानों की हत्या पर आतंकवादियों और पाकिस्तान के विरुद्ध आग उगल रहे थे। शोक संवेदना का मातमी पर्व- सा माहौल पूरे भारत में बना हुआ था। यह सब देख कर पत्रकार से कहीं अधिक एक नागरिक के रूप में मैं भी इस उम्मीद से उत्साहित था कि क्या सचमुच 'व्यवस्था' में एक बड़ा परिवर्तन इस घटना के बाद हो रहा है? क्या अब लोग पहले से अधिक संवेदनशील हो रहे हैं ? क्या  हमारे नेता धनबल , जातिबल और बाहुबल की राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय के प्रति सच्चे हृदय से स्वयं को समर्पित करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ?
    काश !  ऐसा होता तो कितना सुखद होता है।  इन वीर जवानों के बलिदान पर  इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होती कि हम एक संवेदनशील भारतवासी बन गए होतें ,परंतु एक संदेह यूँ कहें कि वेदना इस दौरान और भी हृदय में गहरा गई  कि अनेक लोग जो कि दिन में पुतला दहन कर रहे थे, वे शाम ढलते ही विभिन्न मांगलिक आयोजनों में डीजे पर थिरकते दिखेंं। मदिरालयों में भीड़ उमड़ी हुई थी।  और मैंने यह भी देखा कि पुतला दहन जुलूस के साथ सेल्फी लेने वाले युवकों की टोली भी थी, जिनकी आँखों में पानी नहीं था , वे तो अपने कार्यक्रमों के हर दृश्य की वीडियो ग्राफी कर सोशल मीडिया को गुलजार कर रहे थे । वे जुलूस के आगे खड़ा होकर सेल्फी ले रहे थे। 
      इतनी बड़ी घटना के बाद यदि वैवाहिक समारोह में डीजे नहीं बजता तो क्या विवाह बारात की भव्यता में कमी आ जाती ? सुबह तक उपदेशक की भूमिका में जो थे, वे शाम को " आज मेरे यार की शादी है " जैसे गीत पर  ठुमके लगाते मिले। तेज आवाज़ वाले वाद्य यंत्रों पर थिरकते ऐसे नादान लोगों को इतना भी समझ नहीं है कि पड़ोस में कोई व्यक्ति बीमार है, कोई बच्चा परीक्षा की तैयारी में जुटा है, किसी के घर का चिराग़ बुझ जाने से वहाँ मातम का माहौल है । वाद्ययंत्रों और पटाखों की तेज आवाज़ से हृदय रोग से पीड़ित बुजुर्ग लोगों का बुरा हाल है । तो फिर ऐसे तथाकथित देशभक्त शहीदों को खाक श्रद्धांजलि देंगे ? सो,अच्छा तो यही होता कि हमारी असंवेदनशील आँखें पूर्व की भांति वैसी ही पथराई रहतींं , उनमें ऐसी नमी किस काम की है ? कथनी- करनी का  फ़र्क परिवार , समाज एवं राष्ट्र के लिए अत्यधिक पीड़ादायक और हानिकारक है।  ऐसे महाशय जो सुबह मातमी चादर लपेटे  दिखते हैं, शाम होते ही रंग क्यों बदल लेते हैं ? इनकी संवेदना किस तरह के बलिदान से जगेगी ? यह तब भी यक्ष प्रश्न था और अब भी है । समय के साथ यह और भी गहराते जा रहा है।

पुकार रहा कर्मपथ
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  हमारी सुरक्षा व्यवस्था , हमारी खुफिया व्यवस्था और हमारी पुलिस की कार्यप्रणाली कितनी कमजोर है । इसका एक उदाहरण अपने मिर्ज़ापुर मंडल का भदोही जनपद रहा। जहाँ  गत शनिवार को एक मकान में भीषण विस्फोट हुआ था। यह घटना अत्यंत भयावह थी। उस मकान में रहने वाले एक दर्जन से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी। बताया जाता है कि पटाखा बनाने के लिए भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री यहाँ रखी गयी थी । पुलिस प्रशासन द्वारा इस अवैध पटाखा फैक्ट्री की अनदेखी किये जाने का मामला गरमाने लगा तो आलाअफ़सरों ने अपने ही महकमे के कतिपय प्यादों पर दांव खेल अपनी कुर्सी बचा ली।  हर बड़ी घटनाओं में उनके द्वारा कुछ इसी तरह से से मातहतों को शहीद किया जाता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व पटना के गांधी मैदान में आयोजित उनकी रैली के दौरान जो बम ब्लास्ट हुआ था। उसमें प्रयुक्त बम हमारे मिर्ज़ापुर नगर में बने थे। बाद में जब इसका खुलासा हुआ , तो यहाँ  से भी कुछ युवकों को उठाकर सुरक्षा जाँच ऐजेंसी की टीम ले गई थी । जरा विचार करें कि जनपद स्तर पर  हमारा सुरक्षा तंत्र और ख़ुफ़िया महकमा कितना कमजोर है , परंतु क्या हम नागरिकों का यह दायित्व नहीं है कि पड़ोस में यदि मौत का सामान बन रहा हो तो इसकी जानकारी हमारे माध्यम से शासन-प्रशासन तक पहुँच जाए ? मैं तो सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर   देश के हर नागरिक का यह नैतिक कर्तव्य है कि ऐसे अराजकता तत्वों पर, ऐसे संदिग्ध लोगों पर दृष्टि रखी जाए ? यही हमारा धर्मपथ और कर्मपथ भी है। कभी-कभी माँ भारती के इस पवित्र कार्य के लिए रक्तदान भी करना पड़ सकता है,इन शहीद जवानों की  तरह-

कर्मपथ पर सीना ताने,
 वीर जवान चल दिये,
माँ भारती के थे  दुलारे,
 धर्मपथ पर चल दिये।

-व्याकुल पथिक