Followers

Thursday 26 April 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक

    हम सभी ने अपना एक कर्मपथ चयन कर रखा है। जिसे मैं रंगमंच कहता हूं। इस पर हमारा अभिनय जितना उम्दा रहेगा,वहीं हमारी निशानी बचेगी। अन्यथा तो एक दिन मिट जाएंगे माटी के मोल...  मैंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया, सलीम भाई ने दबे कुचले वर्ग और अल्पसंख्यक समाज के लिये संघर्ष किया। अरुण दादा ने छात्र जीवन में रिक्शा- एक्का वालों और मजदूरों की लड़ाई लड़ी, शिवशंकर यादव ने समाजवादी झंडे की पहचान के लिये इस जनपद में बोल मुलाकात हल्ला बोल का शंखनाद किया, अफसरों में डा0 विश्राम की अलग पहचान है । और भी तमाम लोग हैं, जिनकी अलग पहचान रही है यहां । पर सवाल इस पहचान को बनाये रखने का है, जिसके लिये हमने वर्षों संघर्ष किया है। क्योंकि ऐसी स्थिति में हमारे कर्मपथ पर कदम कदम पर प्रलोभन है। परंतु हमारा दायित्व है कि समाज हित में जो संकल्प हम सभी ने कर्मपथ पर पहला कदम बढ़ाते समय बिल्कुल ही निर्मल मन से लिया था, उसकी पवित्रता  तब भी बनी रहे , जब हमारे पास अपनी पहचान हो और जिसकी बोली लगाने वाले तैयार हों। मैं जब वर्ष 1994 में यहां आया। राजनेताओं में सबसे अधिक प्रभावित अरुण कुमार दूबे दादा से हुआ। तब मैं युवा था और मुद्दों पर संघर्ष करने वाला कोई भी  मध्यमवर्ग  का नौजवान उस शख्स से प्रभावित क्यों न हो ,जो अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के हक अधिकार की बात करता हो ! उसी दौर में कामरेड सलीम भाई का उत्साह भी चरम पर रहा। पर इन दोनों नेताओं में अब एक बड़ा फासला है। दादा ने अपनी खाटी समाजवादी पहचान को कायम नहीं रखा। उन्होंने अगले नगरपालिका चुनाव में समाजवादी पार्टी का दामन थाम यहां तक तो कुछ ठीक था, लेकिन  विचारधारा के बिल्कुल विपरीत जाकर एक भव्य होटल में विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी राजेशपति त्रिपाठी को समर्थन देकर तमाम समाजवादियों को चौका दिया। हालांकि उनके ही करीबी दादा के इस फैसले को उनकी पहचान के अनुकूल नहीं मान रहे थें। एक ने तो मुझसे भी कहा कि दादा से आप कुछ कहें। दरअसल शुरू से ही मैं बिना किसी संकोच अपनों से अपनी राय व्यक्त करने में परहेज नहीं करता था। खैर, दादा को अपनी गलती का एहसास हुआ। परंतु समाजवादी पार्टी में पुनः वापसी पर वह पहचान वापस तो नहीं आ सकी न... फिर भी दादा आज के राजनेताओं से बेहतर हैं। सलीम भाई पर कहने के लिये मेरे पास बहुत कुछ है। क्यों कि उन्होंने भी मेरी तरह अपनी पहचान नहीं बदली है। हां, अवस्था के लिहाज से हम दोनों की ही संघर्ष क्षमता में कुछ कमी आ गयी है, एक तकलीफ का विषय यह भी है कि अपने जैसे तेज तर्रार और अपने क्षेत्र की जानकारी रखने वाले किसी युवा को न तो वे इस मीरजापुर में आगे ला सकें और न ही मैं पत्रकारिता में...
  कारण इस अर्थयुग में हर कोई अपने श्रम का मोल चाहता है। थोड़ी भी पहचान बनी नहीं कि बिक गया। हानि-लाभ के पचड़े में गुमराह हो जा रही है , हमारी यह नयी पीढ़ी। अतः उन्हें राह दिखलाने के लिये किसी को तो दीपक बनना ही होगा। खतरा मोल लेना होगा, अपने हितों की अनदेखी करनी ही होगी। यह सोच कर यदि सलीम भाई हताश हो जाए कि चुनाव में उस वर्ग ने उनका साथ नहीं दिया, जिसके लिये उन्होंने लम्बा संघर्ष किया, तो आज उनके उस मिशन का क्या होता। उनका वहीं पहचान कैसे कायम रहता इन बहुरुपियों के मध्य...
(शशि) 26/4/18

क्रमशः