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Saturday 26 January 2019

वर्षगांठ समारोह क्या इनके लिये भी ?


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर  विवाद
  (  प्रकाशित समाचार)
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  गणतंत्र दिवस पर्व पर राष्ट्र हर वर्ष अपनी संप्रभुता और शक्ति का प्रदर्शन ध्वजारोहण समारोह में करता है। यह उत्सव (वर्षगांठ) हम इसलिये मना पाते हैं, क्यों कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, क्रांतिकारियों और वीर जवानों ने इसके लिये निहित स्वार्थ से ऊपर उठ कर त्याग और बलिदान को  प्राथमिकता दी है । जिनका एक ही स्वप्न रहा है कि राष्ट्र का हर नागरिक सुरक्षित, खुशहाल और स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर सके। लेकिन यहाँ हर नागरिक का मतलब यह थोड़े न हुआ की आतातायी, दुराचारी और अन्य पाप कर्म करने वाले लोग भी इस उत्सव समारोह में आजादी की दुहाई देते हुये आ घुसे और लगे गोली- बम चलाने। ऐसे अराजक तत्वों को दूर रखने के लिये ही तो तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जाती है।
   अच्छा आप ही बताएँ  कि अपने किसी प्रियजन का वर्षगाँठ मना रहे हो, तो क्या ऐसे किसी व्यक्ति को कार्यक्रम में शामिल होने देंगे , जिसके आचरण से अराजकता फैलने का भय हो ?  क्या करेंगे आप , यही न कि ऐसे अवांछनीय तत्वों को त्वरित कार्रवाई करते हुये कार्यक्रम स्थल से बाहर कर देंगे ?  इसके लिये पहले से भी हम व्यवस्था करते हैं और   आपातकालीन स्थिति के लिये भी। कोई भी यह कभी नहीं चाहेगा कि किसी भी उत्सव में अवांक्षित तत्वों का प्रवेश हो।
   
    फिर तिरंगा लहराते समय डोर यदि उनके हाथ में हो ,  कथनी-करनी में जिनके भिन्नता रहती है, ऐसे लोग "जेंटलमैन" का  मुखौटा पहन महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री जैसे कैसे हो जाते हैं। छोटे बड़े मंचों पर ऐसे वर्षगांठ के अवसर पर वे ही छाये रहते हैं ,उनके उपदेश को सुनकर आम आदमी ताली बजाता रहता है,कोई यह नहीं टोकता है कि कल तक तो हर कार्य में इन्हें सुविधा शुल्क, गुंडा टैक्स चाहता था, वे जाति - धर्म के नाम पर वोट मांगते थें और आज इस मंच पर वे नैतिकता के पुजारी बने खड़े हैं।

     ऐसे में पता नहीं क्यों मेरा यह मासूम हृदय ऐसे कार्यक्रमों से दूर मुझे लेते जाता है। वह दुनियादारी के इस सच को समझने कि कृत्रिमता का चोला पहन हँसी ठहाके लगाना ही जीवन है , की जगह उस सत्य को तलाशने लगता है, जब बचपन में वह छोटा सा तिरंगा हाथ में लिये विद्यालय जाया करता था , तब गुरूजनों से वह जो ज्ञान पाता था। नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में जो सबक उसने पढ़ी थी। अब जब पत्रकार होने के लिहाज से चहुँओर  बड़े - बड़े कार्यक्रमों में सम्मिलित होने का अवसर मिलता रहा है, तो इसी सत्य को जान वह हर बार आहत हो जाता है।
           अतः मैं तो अपने मन मंदिर में ही अपने प्यारे तिरंगे को समाहित कर लेता हूँ, तकि ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकूं , जिससे ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर मेरी ही लेखनी मुझसे सवाल करे। यदि एक संकल्प भी हम अपने और ऐसे राष्ट्रीय पर्व के वर्षगांठ पर सच्चे मन से लिये होते, तो फिर परिस्थितियाँ भिन्न होती।  पथिक अपने जीवन पथ पर अकेला इसलिये पड़ गया कि वह भावनाओं के भूलभुलैया में उलझ गया और    आम आदमी  इस लिये पीछे रह गया , क्यों वह भी जुमलेबाजों के झुनझुने से मन बहलाने लगा।
 
       जो लोग वैचारिक क्रांति, परिवर्तन और समानता का संदेश लेकर प्रकट होते हैं , वे जनता का सरदार बनते ही अपना रंग बदल देते हैं। समृद्धि , सच्चाई , ईमानदारी , पारदर्शिता और आम आदमी के  हित के लिये कुछ करने की बात आखिर वे क्यों भुला देते हैं। यह सब तो प्राचीन काल से होता रहा है। विडंबना तो अब यह है कि जिन्होंने कुछ किया है हम उन्हें भुला देते हैं। उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। चाहे वे स्वतंत्राता संग्राम सेनानी ही क्यों न रहे हो। ऐसे में फिर कौन देश और समाज की सेवा करना चाहेगा।
  अपने मीरजापुर में विगत दिनों यहाँ के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बैरिस्टर युसूफ इमाम जिनका नाम मंडलीय चिकित्सालय भवन पर लिखा था, उसे मिटाने के लिये एक प्रमुख राजनैतिक दल के युवा बिग्रेड के सिपहसालार अड़ गये। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन इस होहल्ला के दौरान किसी ने वहाँ लिखे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर गोबर फेंक दिया। जिससे हृदय मेरा भी आहत हुआ,मैंने उस अनुशासित राजनैतिक दल के मुखिया और जनप्रतिनिधियों से भी एक पत्रकार की जगह देश के एक नागरिक के रुप में यह प्रश्न किया कि जो हुआ उस दिन क्या वह उचित था ?
  इस प्रकरण पर  मैंने विस्तार से समाचार तब लिखा भी था। किसी को वह खबर पसंद आयी , तो किसे ने बुरा मान लिया।
 इस तरह से राजनीति से जुड़ी बातें  वैसे तो मैं ब्लॉग पर पोस्ट नहीं करता हूँ।
  परंतु  आप सभी से जानना चाहता हूँ कि किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को जाति-धर्म के चश्मे से देखना कितना उचित होगा ?