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Friday 5 April 2019

चलो मन विंध्याचल धाम-1






शक्ति की अराधना से करें नववर्ष का स्वागत
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विन्ध्य- क्षेत्रं परं दिव्यम् पावनं मंगल - प्रदम्।
यत्र  सिद्धयः  प्रसिद्धन्ति  तमा  प्रलयं  त्राम्।।
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विंध्य क्षेत्र परम दिव्य, पवित्र ,मंगल देने वाला है। जहां पर तप करने से कामना सिद्ध होती है।  भारत में यह पर्वत मध्य से उत्तर दक्षिण स्थित है।

          
    


   यहीं पर आदिशक्ति माँ विंध्यवासिनी का पावन मंदिर है। वर्ष 1994 में जब आजीविका की तलाश में भटकते हुये सांध्यकालीन गांडीव समाचार पत्र लेकर काशी से मीरजापुर आया था। तो उस वर्ष वासंतिक नवरात्र से पूर्व ताऊजी ने मुझसे कहा था कि जब प्रतिदिन तुम्हें मीरजापुर जाना ही है, तो विंध्याचल मंदिर भी चले जाना और दूसरी हिदायत उनकी यह थी कि सदैव मखाने का सेवन करते रहो। वह मेरे संघर्ष का सबसे कठिन दौर रहा। वाराणसी से बस से औराई आना पुनः जीप से मीरजापुर और यहाँ सायं 6 बजे से 9 बजे तक इस अनजान शहर में पैदल ही अखबार का वितरण। इसके पश्चात रात्रि बस पकड़ कर 12 बजे वापस वाराणसी। पांव जमीन पर अगले दिन सुबह पड़ते नहीं थें। लेकिन, यह जो पेट की आग है न , वह भला माने तब तो। मास्टर साहब का अयोग्य सुपुत्र था। भले ही कक्षा में सदैव अव्वल रहा और अपने गुरुजनों का प्रिय भी, परंतु नियति के समक्ष नतमस्तक    एक भूल, एक अभिश्राप एवं जिन्हें भी स्नेह किया , उनके द्वारा तिरस्कृत  कुछ ऐसा ही है , इस पथिक का जीवन । जिसे भी वह अपना समझता है, वह एक नया दर्द दे जाता है। इसलिये हृदय का बंद कपाट कभी नहीं खोलना चाहता था तब भी और अब भी, फिर भी मार्ग में जो लोग मिले , उनमें से कुछ ऐसे भी रहें, जिन्होंने अत्यधिक स्नेह प्रदर्शन किया और फिर बेगाना बता के चल दिये।
   बात ताऊ जी के निर्देश की कर रहा था। मैं विंध्याचल गया भी, तब वरिष्ठ तीर्थ पुरोहित मणिशंकर मिश्र ने अत्यधिक स्नेह दिया। विंध्यवासिनी देवी के महात्म्य के विषय में जानकारी दी। परंतु देवी धाम में जिस तरह का व्यवहार आम दर्शनार्थियों संग होता था, वह देख मन कुछ खिन्न हो गया  और वीआईपी दर्शन मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था, अतः झांकी से दर्शन करने का निश्चय कर लिया । वैसे , आम दर्शनार्थियों के साथ अच्छा व्यवहार हो, इसके लिये तीर्थ पुरोहित, प्रशासन और पुलिस तीनों ही सजग रहते हैं, परंतु विशिष्ट भक्त के आते ही उनका यह संकल्प भंग हो जाता है।  इस बार भी विंध्य पण्डा समाज ने आम सभा कर सभी दर्शनार्थियों को उत्तम दर्शन करवाने का संकल्प लिया है।
  इसी विंध्य क्षेत्र में तप कर मैं एक पत्रकार बन गया और जहाँ तक मेरे एकाकी जीवन का प्रश्न है, तो तपोस्थल पर भला कौन साथ निभाता है। यह सफर तो अकेले ही तय करना होता है। यहाँ कोई स्नेह का संबंध नहीं है और यदि आपका वैराग्य डगमगाया, तो उपहास के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा आपकों।  विचित्र विरोधाभास है मनुष्य जीवन भी।

     भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं
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     देखें न भारतीय संस्कृति में नववर्ष का स्वागत जनमानस शक्ति की आराधना से करता है । देवों के देव महादेव यानि शिव भी शक्ति बिना शव अर्थात शून्य हैं  । सती के यज्ञ कुण्ड में समाहित होने के बाद सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कोहराम मचा था । तब भगवान विष्णु ने शिव के कंधे पर सती के शव को काट - काट कर अलग करना आरम्भ किया था । सती के अंग जहाँ -जहाँ  गिरे वह शक्ति पीठ के नाम से विख्यात हुआ । शक्ति स्वरूपा के बिना जीवन पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता यह सन्देश अर्धनारीश्वर के स्वरूप के साथ शिव ने दिया है । देश के विभिन्न स्थानों पर शक्ति पीठ है, जबकि विन्ध्य क्षेत्र सिद्धपीठ के नाम से विख्यात है । आदिशक्ति ब्रह्मांड के केंद्र बिंदू पर बिन्दुवासिनी नाम से अपनी सम्पूर्ण शक्तियों के साथ स्वयं विराजमान है ।
     'भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विन्ध्याचल सदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्। अर्थात-हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराण  में विंध्याचल-निवासिनी इन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ। त्रेता युग में भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचल आए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुग में मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतार हेतु विंध्याचल में लक्षचण्डी का अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई। मार्कण्डेयपुराण के अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती (देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवें युग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी । श्रीमद्भागवत महापुराण के श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
  मन्त्रशास्त्र के सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है, उसका स्वरूप यह है कि जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादि सभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुन्दर मुखवाली इन विंध्यवासिनी के समीप सदा शिव विराजित हैं। धर्मग्रंथों का निरंतर अध्यन करने वाले वरिष्ठ साहित्यकार सलिल पांडेय का कहना रहा कि सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है। धर्मग्रन्थ इस धाम की महत्ता से भरे पड़े हैं ।
         तीर्थ राज प्रयाग के संगम के बाद विंध्याचल में एक और संगम होता है । वह है विन्ध्य पर्वत के साथ दो बहनों का मिलन । हजारों मील का सफर करने वाली पतित पावनी गंगा धरती पर आकर विंध्य क्षेत्र में आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी का पांव पखारती है । इसके बाद वह त्रैलोक्य न्यारी शिव नगरी काशी में प्रवेश करती है । हजारों मील लम्बे विंध्य पर्वत एवं गंगा नदी मिलन माता के धाम विंध्याचल में ही होता है । आगे जाकर गंगा उत्तरवाहिनी हो जाती है जबकि विंध्य पर्वत दक्षिण दिशा की ओर घुम जाता है । त्रिकोण पथ पर केंद्र में स्थापित सदाशिव के तीनों कोण में विराजमान मातालक्ष्मी, महाकाली एवं महासरस्वती अपने भक्तों को दर्शन देकर उनकी समस्त मनोकामना पूरी कर रही है ।
   मीरजापुर में पूर्व वाहिनी गंगा नदी के तट पर विन्ध्य पर्वत के ऐशान्य कोण में विराजमान आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी का दर्शन और त्रिकोण करने से भक्तों  की सारी मनोकामनायें पूरी होती है । संगम स्थल पर आदिशक्ति अपने तीनों  स्वरूप महाकाली , महालक्ष्मी व महासरस्वती के रूप में विराजमान होकर भक्तों की सारी मनोकामनाए पूर्ण कर रही हैं  | आदिशक्ति माता विंध्यवासिनी अपने भक्तों को लक्ष्मी के रूप में दर्शन देती हैं  । रक्तासुर का वध करने के बाद माता काली एवं कंस के हाँथ से छूटकर महामाया अष्टभुजा सरस्वती के रूप में त्रिकोण पथ पर विंध्याचलविराजमान हैं

 आदिवासियों की पूजित वन देवी कालान्तर में सर्वजन देवी बन गयी
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विंध्यवासिनी की पूजन सामग्री तथा फल फूल जो है उनमें अभिजन्य संस्कृति में स्वीकार सेव, अनार तथा अंगूर नहीं है,  बल्कि रोरी, रक्षा, बतासा और लाची दाना है । जो आम जन के लिए उपलब्ध हैं ।
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देवकी मथुरायां तु पताले परमेश्वरी।
चित्रकूटे तथा सीता विन्ध्ये विन्ध्यवासिनी।।
ऊँ विन्दुस्था विन्ध्यनिलया विन्ध्यपर्वतवासिनी ।
योगिनी योगजननी चण्डिका प्रणमाम्यहम्।।

    घने पेड़ों से आच्छादित विंध्य पर्वत पर विराजमान जगत जननी माता  विंध्यवासिनी देवी सतयुग में वन देवी थीं फिर जन देवी हुई और अब सर्वजन देवी विंध्यवासिनी के रूप में पूजित है । पुराणों में वर्णित हैं कि विंध्य पर्वत पर विराजमान आदिशक्ति जगत जननी माता विंध्यवासिनी आदि अनादि काल से विन्ध्य पर्वत पर विराजमान हैं । हर रोज माता के दर पर हाजिरी लगाने भक्त आते हैं । नवरात्र पर माता के दरबार में आने वाले भक्तों की तादात प्रतिदिन लाखों में पहुँच जाती है । उत्तर में पूर्ववाहिनी गंगा तो दक्षिण में विशाल विंध्य पर्वत भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है । आज भी आदिवासी एवं भील अष्टमी तिथि पर माँ का पूजन अर्चन करने आते है । मीरजापुर आदिवासी संस्कृति और दस्यु संस्कृति का प्रधान केंद्र था । यहा आदिवासी राजा होते थे । सबरों का भी विंध्याचल के जंगल में निवास होता था । यह आदिवासी टोना, टोटका, ओझयती तथा सोखयती के साथ - साथ शक्ति के पूजक थे । उन्होंने शक्ति स्वरूपा माता विंध्यवासिनी आराधना करना स्वीकार किया । माँ विंध्यवासिनी की पूजन सामग्री तथा फल फूल जो है उनमें अभिजन्य संस्कृति में स्वीकार सेव, अनार तथा अंगूर नहीं है,  बल्कि रोरी, रक्षा, बतासा और लाची दाना है । जो आम जन के लिए उपलब्ध हैं ।
साहित्यकार बृजदेव पाण्डेय ने बताया कि शिव और शक्ति द्रविणों और आदिवासियों के देवता थें । शिव का सांप लपेटना और मंदार की माला , धतूरा तथा बेलपत्र से प्रसन्न होना । शक्ति का नगाड़ा, धुधुका तथा  तासा आदि बाजाओ से प्रसन्न होना इस बात का प्रतीक है कि यह दोनों देवता वन वासियों के देवता थें । जिनके पराक्रम को देख बाद में इन्हे आर्यो ने स्वीकार किया ।
   पतित पावनी गंगा तट के दक्षिण भाग में विंध्य पर्वत पर विराजमान माता विंध्यवासिनी का चरण पखारने के लिए गंगा ने इसी स्थान पर पूर्व वाहिनी होकर काशी के लिए उतर वाहिनी होकर निकल जाती है । आदिशक्ति विंध्यवासिनी से मिलने के लिए गंगा आतुर रहती थी । इसलिए आदिशक्ति और गंगा का संगम धरा पर इसी स्थान पर होता है । विंध्याचल देवी के संदर्भ में पुराणों में अनेक मत है । वामन और मार्कण्डेय पुराण आदि मानते है कि देवी की स्थापना देवराज इंद्र ने की थी । इंद्र ने देवी की स्थापना विंध्य पर्वत पर क्यों किया इसके पीछे यह अवधारणा है कि देवी विंध्यवासिनी की बहन गंगा हैं । उनकी तीव्र उत्सुकता गंगा से मिलने की थी । इसलिए इंद्र ने इस पर्वत पर आदिशक्ति की स्थापना की । एक और मत है कि समूचा विंध्य पर्वत शैव और शाक्य संस्कृति से प्रभावित है । शिव और शक्ति अभिन्न है । यह क्षेत्र पहले वैष्णव प्रधान संस्कृति का नहीं था । इसलिए उपयुक्त स्थान मानकर देवी की स्थापना की गयी । देवी भागवत और दूसरे शाक्य पुराण यह मानते हैं कि दानव संस्कृति के अंत के लिए त्रिदेवों के साथ- साथ अन्य देवताओं ने अपने तेज को एक आकार दिया जिससे तेजस्विनी माता विंध्यवासिनी का अवतरण हुआ । उन्होंने महिषासुर सहित अनेक दुर्दांत दानवों का अंत किया ।     कुछ विद्वान ऐसा मानते है कि विंध्याचल के जंगलों में रहने वाले भैंसे बहुत शक्तिशाली होते थे । उनसे सिंह भी भयभीत होते थे । वह इतने हिंसक और घातक होते थें  कि वन्य जातियां भी घबड़ाती थी । इसलिए वन्य जातियों ने शक्ति स्वरूपा माता विंध्यवासिनी का आहवान किया और शक्ति ने भैंसों का वध किया । उन्हीं भैंसों को प्रतीकात्मक रूप में महिषासुर कहा जाता हैं । भैंसों का वध कर भक्तों को भयमुक्त करने वाली देवी को महिषासुर मर्दिनी कहा जाता है । नवरात्र में प्राचीन काल में अष्टमी तथा नवमी को सबरोत्सव होता था । सबर बाजा - गाजा के साथ माता विंध्यवासिनी की अर्चना के लिए आते थें  । जबतक इनकी पूजा नहीं होती थी तबतक नवरात्र का भी पूजन विधान पूरा नहीं होता था ।
   मान्यता हैं कि शिव - शक्ति द्रविणो और आदिवासियों के देवता थे । इनकी पूजा आराधना जंगलों में सरलता से मिलने वाले फल फूल से की जाती थी । जंगलों में कशेरु, फालसा, कमलगट्टा आदि बहुतायत थें  । प्राचीन काल में इन्ही पदार्थो से देवी की अर्चना करते थे । इसलिए भी लगता हैं कि माता विंध्यवासिनी वन देवी थी जो जन देवी बनी । आज यह सर्वजन देवी के रूप में पूजित हैं । वाममार्गियों ने देवी विंध्यवासिनी को भी अपना इष्ट माना और पूजा तांत्रिक विधि से करते हैं ।

गुरु और माता के चरण पड़ने से विंध्याचल हुआ पावनधाम
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     मां विंध्यवासिनी धाम की महत्ता जहां पौराणिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण है वही वैज्ञानिक दृष्टि से भी इसकी महत्ता बहुत ही अधिक है । पौराणिक आख्यानों के अनुसार पवित्र क्षेत्र विंध्याचल के शक्तिमान होने के पीछे महादेव की आराधना भी है और विंध्याचल पर प्रसन्न होकर देवाधिदेव महादेव ने उसको सर्वश्रेष्ठ होने का वरदान दिया था । विंध्याचल द्वारा स्थापित शिवलिंग भी द्वादश ज्योतिर्लिंगों में शामिल है । विंध्याचल परिक्षेत्र महादेव की अनुकम्पा से आज भी ऐश्वर्ययुक्त है ।
  विंध्याचल धाम की महिमा बताते हुए आध्यात्मिक साहित्यकार सलिल पांडेय ने बताया कि शिवपुराण के कोटि रूद्र संहिता के अध्याय 18 के अनुसार ऋषि नारद मर्त्यलोक में भ्रमण करते जब इस पर्वत पर आए तो विंध्यपर्वत यद्यपि नारद के सम्मान में सेवा के लिए दौड़ पड़ा लेकिन उसकी बातों में नारद को अहंकार दिखाई पड़ा । विंध्यपर्वत ने कहा था- हे मुनिश्रेष्ठ, मेरे यहां रहिए । यहां सब कुछ है । किसी चीज की कमी नहीं है । नारद को विंध्याचल की बातों में अभिमान झलकता नजर आया । वे बोले- तुम्हारे पास सब कुछ है लेकिन देवमंडल में सुमेरु पर्वत का महत्त्व ज्यादा है । इससे दुःखी होकर विंध्याचल ने नर्मदा नदी (मध्यप्रदेश के खंडवा) के तट पर पार्थिवशिवलिंग की स्थापना की ।यद्यपि एक ही ज्योतिर्पीठ है लेकिन जो मन्त्र पढ़े गए वह ओंकारेश्वर एवं पार्थिव शिव को अमलेश्वर की मान्यता महादेव ने दी । इस प्रकार विंध्याचल पर्वत इतना श्रेष्ठ हुआ कि सूर्य का मार्ग भी अवरुद्ध करने में सफल हुआ था । सलिल पांडेय ने कहा कि महादेव के आशीर्वाद से वह उच्चता प्राप्त करने में समर्थ हो गया । वह सूर्य के तेज से भी अधिक तेज अर्जित करने में समर्थ हुआ । पुराणों के अनुसार एक रात जब विंध्याचल अनन्त ऊँचाई को प्राप्त हो गया और प्रातः सूर्यदेव उदित हुए और उनका मार्ग अवरुद्ध हो गया तब धरती के उत्तर के भाग भीषण गर्मी से जीव-जंतु झुलसने लगे तथा दक्षिण भाग में अँधेरा ही अंधेरा छा गया । देवमण्डल में खलबली मच गयी । सारे देवता असहाय हो गए । भगवान विष्णु के पास गए । उन्होंने भी  विंध्याचल को महादेव द्वारा दिए गए आशीर्वाद के चलते कहा कि वे कुछ नहीं कर सकते । अलबत्ता उन्होंने कहा कि इसके लिए विंध्याचल के गुरु अगस्त्य के पास जाना होगा । देवता गुरु अगस्त्य के पास आए ।  गुरु अगस्त्य जब विंध्याचल के पास आए तो वह विनम्र हो कर झुक गया ।
     सलिल पांडेय ने बताया कि शक्तिमान होने के बावजूद जो श्रेष्ठ जनों के समक्ष विनम्र होता है, उसको प्रसिद्धि मिलती है । देवी भागवतपुराण के अनुसार विंध्याचल की ब्रह्मांड में इसी प्रसिद्धि के चलते सृष्टि के आरंभ में मनु-सतरूपा की आराधना से प्रकट हुई त्रिपुर सुंदरी शक्तिस्वरूपा मां ने उन्हें आशीर्वाद देकर कहा कि अब मैं विंध्याचल जा रही हूं । जहां मैं  विंध्यवासिनी के नाम से जानी जाऊंगी । जब मां यहां आयीं तो उसके बाद से अन्य देवी-देवताओं का भी यहां आगमन शुरू हो गया ।
    सलिल पांडेय ने बताया कि जिसके सिर पर ज्ञान देने वाले गुरु स्वयं आ जाएं तथा प्रेम-स्नेह देने वाली मां के चरण पड़ जाएं है, वह तो भाग्यशाली हो ही जाता है । फिर तो उसका डंका चहुंओर बजने लगता है । गुरु और माता के आगमन से विंध्यपर्वत जो जंगली जीव-जंतुओं से घिरा था, वह पावन हो गया । इस धाम में मां विंध्यवासिनी गरीब-अमीर, पावन-अपावन सबको आशीर्वाद देती हैं। इसीलिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था नहीं भी इस क्षेत्र में मिलती है  तो भी हर वर्ग के लोग नवरात्र के अलावा भी मातारानी का दर्शन कर स्वयं को धन्य मानते हैं ।

     महात्रिकोण क्षेत्र *******************
     त्रिदेवियों के मंदिरों का जहां अपना पौराणिक महत्व है। वहीं यहाँ नवरात्र में महात्रिकोण क्षेत्र में अद्भुत नजार देखने को मिलता है। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं सभी नंगे पांव त्रिकोण परिक्रमा करते हैं। पूरी रात देवी भक्त त्रिकोण साधना में जुटे रहते हैं। दिन में तप रही भूमि भी उनके पथ को विचलित नहीं कर रही है। विंध्याचल क्षेत्र में स्थित महा त्रिकोण परिक्रमा का भी विशेष महत्त्व शास्त्रों में वर्णित है। नवरात्र पर्व पर यहां आने वाले प्रमुख संत नरहरि बाबा का कथन रहा है कि भगवान शंकर के तीन नेत्र से ही त्रिकोण  बनता है । तीनों गुणों की अधिष्ठात्री शक्तियां इसका निर्माण करती हैं। त्रिकोण क्षेत्र में आदि शक्ति जगदंबा  तीन स्वरूप महालक्ष्मी (विंध्यवासिनी) ,मां सरस्वती(माता अष्टभुजी )और महाकाली( काली खोह) का मंदिर स्थित है। अन्य देवी देवताओं के मंदिर भी त्रिकोण मार्ग में पड़ते हैं। विंध्य क्षेत्र जिसे  गंगा  स्पर्श करती है । इस कारण इसका सर्वाधिक महत्व है । विंध्याचल के त्रिकोण का मध्य रामेश्वर मंदिर है। इसके अलावा  इस क्षेत्र में शिव, राम, हनुमान आदि देवी देवताओं तथा शिव शक्ति के गण भी अधिष्ठापित हैं।  विंध्य क्षेत्र के बाबा भैरवनाथ , लाल भैरव, काल भैरव कोतवाल के रूप में विराजमान हैं । त्रिकोण यात्रा प्रारंभ करने के लिए यात्री को शुद्ध, सात्विक एवं एकाग्र होकर गंगा स्नान करना पड़ता है।  त्रिकोण यात्रा मार्ग में गंगा स्नान के पश्चात मां विंध्यवासिनी देवी, शीतला मंदिर पकरीतर ,भैरव भैरवी (थाना कोतवाली), श्री हनुमान जी बरतर, ग्राम देवी सायरी देवी, वनखंडी महादेव, बंधवा महावीर, पातालपुरी हनुमान जी, करणगिरी की बावली,  काली खोह , भैरव जी भूतनाथ, कामाख्या देवी, गणेश जी , गेरुआ तालाब ,भगवान श्री कृष्ण जी, मुक्तेश्वर( मोतिया तालाब),  मां अष्टभुजा देवी मंदिर ,, भैरव कुंड,  मत्स्येंद्र स्थली, मंगला गौरी , रामेश्वर नाथ, तारा देवी , राम शिला ,संकटा देवी,  शीतला माता , प्रत्यगीरा माता, निहुत महावीर,  चामुंडा देवी, बिंदेश्वर महादेव मंदिर होते हुए पुनः मां  विंध्यवासिनी के साथ ही पताका दर्शन भी करना होता है। नंगे पांव चिलचिलाती धूप में कंकड़ युक्त सड़कों पर बिना विचलित त्रिकोण साधक अपना परिक्रमा पूरा कर रहे हैं वृद्ध ,महिलाएं ,बच्चे भी रात्रि में समूह में त्रिकोण परिक्रमा करते देखे जा रहे हैं । संतों के अनुसार एक त्रिकोण परिक्रमा करने मात्र से सहस्त्र चंडी यज्ञ का फल प्राप्त होता है  वैसे अधिकांश साधक जो त्रिकोण परिक्रमा करने में असमर्थ हैं। वे विंध्यवासिनी मंदिर के गर्भगृह परिसर में ही स्थित देवी देवताओं का दर्शन पूजन करते हैं।  इन्हीं से उन्हें त्रिकोण का फल प्राप्त होता है । गर्भ गृह परिसर में दक्षिण दिशा में महाकाली, पश्चिम में महासरस्वती एवं सदाशिव विराजमान हैं । इस तरह से जो त्रिकोण पूरा होता है, उसे लघु त्रिकोण  कहा जाता है। वैसे, विंध्य क्षेत्र में वृहद त्रिकोण (पंचकोशी) यात्रा का वर्णन है।  इसके अंतर्गत कई दर्शनीय स्थल हैं। तारकेश्वर नाथ महादेव मंदिर , संकटमोचन महावीर मंदिर , बूढ़े नाथ महादेव मंदिर, नारघाट काली मंदिर, लोहंदी महावीर , लाल भैरव, विंध्येशवर महादेव, भगवान वामन मंदिर ओझला, लाल भैरव, दुग्धेश्वर महादेव,  नाग कुंड, सप्त सागर,  कंकाल काली, इत्यादि प्रमुख मंदिर इस पंचकोशी यात्रा क्षेत्र में पड़ते हैं।
   वैसे, नियति से पथिक को नारी शक्ति के माध्यम से उपहास ही मिला है, फिर भी उसे नमन है, इस शक्ति पर्व पर..।

       ---शशि गुप्ता