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Friday 13 April 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक 12 -13 /4/18

  पत्रकारिता में जो मुझे उचित लगा,सो किया। ठीक है कि इन ढ़ाई दशक के सफर में बंसत कभी नहीं आया , पतझड़ ही मेरे श्रम की पहचान है इस रंगमंच पर। फिर भी है तो कोई पहचान यहां ? सो, इसे अपनी बर्बादी कैसे मान लूं। यदि हम  ईमानदारी से जहां तक सम्भव है पत्रकारिता कर रहे हैं, तो इतना सुकून तो है  कि चाहे  कितने भी शत्रु हो, फिर भी वे हानि नहीं पहुंचा सकतें, क्यों कि हमने कर्मपथ ही ऐसा चयन कर रखा है कि उंगली उठाने वाला, स्वयं ही एक दिन अपने ही किसी कुकर्म के कारण अवसादग्रस्त हो जाता है।  ढाई दशक तक एक ही समाचार पत्र का जिला प्रतिनिधि बन कर रहना ही  स्वयं में एक बड़ी चुनौती भरा कार्य है।  वह भी इस अर्थ युग में। जहां सारे संबंध के मूल में व्यापार है। जबकि मैं ठहरा  पत्रकारिता के क्षेत्र में बिल्कुल फकीर। बड़े समाचार पत्रों के बीच अपनी इसी पहचान से इतना विज्ञापन तो प्राप्त कर ही लेता हूं कि संस्थान यह नहीं कह पाता कि यह " बेजान " हो गया है। हां, बात जब पहचान पर हो रही है तो 12 अप्रैल को देर शाम जिलाधिकारी मीरजापुर रहें विमल कुमार दूबे के स्थानांतरण को ही लें । वे करीब एक वर्ष यहां रहें। पहली बार वे डीएम की कुर्सी पर बैठें थें। सो, इस शांतिप्रिय जनपद में यदि वे चाहते तो यादगार पाली खेल जातें। परंतु दुआ सलाम में ही 358 दिन गुजर गयें। एक भी बड़ी धमाकेदार कार्रवाई उनकी कलम से  होते नहीं दिखी।  अब मेरे जैसे पत्रकारों को यह सोचना पड़ रहा है कि उनके कार्यकाल पर कलम से क्या बड़ाई लिखूं। तो मैंने अपने समाचार के कालम में लिखा कि श्री दूबे मृदुभाषी, सरल स्वभाव के और सामाजिक कार्यक्रमों में रुचि लेने वाले अधिकारी रहें... एक और कनिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की पहचान बताऊं आपको ! जिनका नाम आज भी जनपद में अनेकों की जुबां पर है। वे हैं यहां कुछ वर्ष पूर्व एसडीएम की छोटी कुर्सी को सम्हालने वाले युवा प्रशासनिक अधिकारी डा० विश्राम । सामाजिक कार्यकर्मों  में तो जब वे यहां थें, तब डीएम -एसपी से कहीं अधिक पूछ एसडीएम (उनकी) की रही। परंतु जब वे अपने कार्यालय कक्ष में कुर्सी पर बैठते थें, जम कर होमवर्क भी करते दिखें । खनन माफियाओं के विरुद्ध उनकी धमाकेदार पाली, आज भी अनेकों की जुबां पर हैंं। यह उनके एक योग्य अधिकारी होने की पहचान रही !  (शशि)

क्रमशः