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Friday 24 May 2019

ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..


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ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..
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(संदर्भः ग़लीचे को उद्बोधन)

कर के बदरंग तुम अपनों को
ग़ैरों को क्यों रंग दिया करते हो ?

जन्मे कामगारों की बस्ती में
अब महलों में इठलाया करते हो !

उलझी थी दुनिया कच्चे धागे में
बन  काती  अश़्क बहाया करते थें ।

जिन हाथों ने संवारा था तुझको
 उनसे क्यों फ़ासले बढ़ाया करते हो ?

मैंने देखा उन उजड़ी झोपड़ियों में
चूमते थें माथ तेरा वे क़िस्मत कह के

  इन अमीरों के ऐशगाहों में
पांव तले कैसे मुस्कुराया करते हो ?

रंग बदलना इंसानों की फ़ितरत है
  तुम क्यों पहचान बदलते हो ?

ग़ैरों पे रहम अपनों पे सितम
 यह जुल्म किया क्यों करते हो ?

उनमें और तुझमें हो कुछ तो फ़र्क
  ए ग़लीचे !  वहम ये रहने दो ?

ज़िंदगी में कभी वो दौर भी थें
 स्वपनों का ग़लीचा बुना करते थें ।

जब से बदली हैं निगाहें उनकी
यादों का ग़लीचा  हम सिलते हैं ।

जिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
 पैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।

वे तो शहर छोड़ चले गये कबके
  हम उनकी राह तका करते हैं  !!
     
                  - व्याकुल पथिक

 (काती - ग़लीचा बनाने में प्रयुक्त होने वाल धागा, जो भेड़ के ऊन से बनता है )