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ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..
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(संदर्भः ग़लीचे को उद्बोधन)
कर के बदरंग तुम अपनों को
ग़ैरों को क्यों रंग दिया करते हो ?
जन्मे कामगारों की बस्ती में
अब महलों में इठलाया करते हो !
उलझी थी दुनिया कच्चे धागे में
बन काती अश़्क बहाया करते थें ।
जिन हाथों ने संवारा था तुझको
उनसे क्यों फ़ासले बढ़ाया करते हो ?
मैंने देखा उन उजड़ी झोपड़ियों में
चूमते थें माथ तेरा वे क़िस्मत कह के
इन अमीरों के ऐशगाहों में
पांव तले कैसे मुस्कुराया करते हो ?
रंग बदलना इंसानों की फ़ितरत है
तुम क्यों पहचान बदलते हो ?
ग़ैरों पे रहम अपनों पे सितम
यह जुल्म किया क्यों करते हो ?
उनमें और तुझमें हो कुछ तो फ़र्क
ए ग़लीचे ! वहम ये रहने दो ?
ज़िंदगी में कभी वो दौर भी थें
स्वपनों का ग़लीचा बुना करते थें ।
जब से बदली हैं निगाहें उनकी
यादों का ग़लीचा हम सिलते हैं ।
जिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
पैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।
वे तो शहर छोड़ चले गये कबके
हम उनकी राह तका करते हैं !!
- व्याकुल पथिक
(काती - ग़लीचा बनाने में प्रयुक्त होने वाल धागा, जो भेड़ के ऊन से बनता है )