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Saturday 13 April 2019

धर्म

      धर्म
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तुझसे  सीखा हे पुरुषोत्तम
 है  संघर्ष  ही  जीवन- धर्म ।

विमाता को दे कर सम्मान
पुत्र धर्म का किया  निर्वहन ।

सिंहासन की चाह न की
कह, वन भी है अपना स्वर्ग।

अनुज केलिये छोड़ा अयोध्या
दिया विभिषण को स्वर्णमहल।

पुष्पक कुबेर को लौटा के
कहा पर सम्पत्ति का लोभ न कर।

छल से पाषाण बनी अहिल्या
रखा तब  तूने उसका भी धर्म ।

बैर भीलनी के खाकर जूठे
 तुमने,समरसता का दिया संदेश।

द्वापर में कृष्ण बन कर तूने ही
 रोका कृष्णा का चीरहरण  ।

मान  बढ़ाया नारी का तब
बोला ,छोड़ दुर्योधन ये अधर्म ।

फिर बोलो  हे  पुरूषोत्तम
क्यों अग्निपरीक्षा है नारी -धर्म ?

सती सीता का परित्याग
क्या यही था , तेरा राज- धर्म  ?

राम के तुलसी थें फिर भी
ठहर गयी,क्यों उनकी कलम ?

पत्नी के  निर्वासन को कहते
  कैसे  वे  राम का धर्म ?

                 -व्याकुल पथिक