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Wednesday 30 January 2019

ये कैसा ख़ुमार है...

 ये कौन सा ख़ुमार है...
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कसमे वादे प्यार वफ़ा सब, बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या
सुख में तेरे साथ चलेंगे दुख में सब मुख मोड़ेंगे
दुनिया वाले तेरे बनकर तेरा ही दिल तोड़ेंगे
 देते हैं भगवान को धोखा, इनसां को क्या छोड़ेंगे ...

      उपकार फिल्म का गीत है यह । आवाज़ तो मेरी मधुर नहीं है, फिर भी जब कभी गंभीर रूप से अस्वस्थ हो जाता हूँ ,आसपास किसी को नहीं पाता हूँ , तब जीवन का यह सत्य सामने होता है, जो इस नगमे में है। ऐसे में हृदय की व्याकुलता को दिलासा देने के लिये  मैं इसकी दो चार पंक्तियों को गुनगुना लेता हूँ। स्नेह की तलाश में इस खूबसूरत पर रंग बदलती दुनिया में भटकते हुये हम बंजारे ही रह गये हो , तो मन के भारीपन को कम करने का यह तरीका बूरा नहीं है ?
     गत सप्ताह बारिश और ठंड के कारण  तबीयत अधिक बिगड़ गयी  , तो उस रात्रि मेरे एक मित्र मिश्रा जी, जो  सीनियर मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव हैं, ने कुछ दवाइयाँ लाकर मुझे दी । वे सांईं मेडिकल पर रखा मेरे भोजन का पैकेट भी लेते आये। पिछले एक माह से सप्ताह में छह दिन रात्रि में मेरे लिये रोटी- सब्जी के पैकेट की व्यवस्था समाजसेवी श्री अमरदीप सिंह की संस्था के सौजन्य से हो जा रही है। अन्यथा तो सुबह की तरह रात्रि में भी दूध ब्रेड या दलिया से काम चल रहा था। असंतुलित भोजन और व्यथित हृदय का सीधा प्रभाव मनुष्य के स्वास्थ्य पर पड़ता है, इसकी अनुभूति है पथिक को , परंतु  न ही कोई विकल्प है,ना ही जीवन के प्रति मोह शेष है ,  जब यूँ ही स्नेह की तलाश में एकाकी चलते हुये उसने अपने जीवन के स्वर्णिम काल गुजार दिये , तो अब ट्रेन की आखिरी सीटी बजाने की ही  प्रतीक्षा है।
 
         उस रात्रि जब मिश्रा जी दवा लेकर कमरे पर आये , तो उन्होंने अपने  " थ्री ईडियट्स " दोस्तों की एक संक्षिप्त जीवन कथा और व्यथा मुझे बातों ही बातों में कह सुनाई।
     बड़ी विचित्र है, इन तीनों की दुनिया भी, जो कर्मपथ पर था वह भी अपनी निष्ठा की कीमत चुका रहा है और जिसने " झूम बराबर झूम शराबी "  को अपना जीवन दर्शन समझा , उसकी  भी वही स्थिति है।
    वो उक्ति है न , " टके सेर खाजा, टके सेर भाजी। "

  दरअसल मेरे एकाकी जीवन पर कुछ लोग सवाल उठाते रहे हैं। कुछ तो उपहास भी करते हैं कि जीवन के हर आनंद से दूर यह मनहूस प्राणी कैसे जेंटलमैन हो सकता है ? घर आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है, इसीलिए तो गृहलक्ष्मी इसके पास नहीं आयी। जाहिर है कि जनपद स्तरीय पत्रकारिता में यदि अतिरिक्त आर्थिक स्त्रोत नहीं है, तो फिर हम जैसों (पत्रकार) का बाजार भाव ठंडा है। युवावस्था में तब पत्रकारिता का यह जुनून जो था  , इस नशे के लिये मैंने अपने भविष्य को दांव पर लगा दिया । व्यस्तता बढ़ती गयी और स्नेह के बंधन टूटते गये। जो अपने थें ,वे दूर हो गये।

      मेरे मित्र मिश्रा जी ने देश - दुनिया देखी है, समाजिक , राजनैतिक और कुछ पत्रकारिता के क्षेत्र में भी रहे हैं। लेकिन , समय के साथ चल रहे हैं। काम के नशे में परिवार की उपेक्षा नहीं की ,उन्हें नियति ने श्रम के प्रतिदान में खुशहाल परिवार दिया है। वे मुझे दो- ढ़ाई दशक से जानते हैं, उन्हें पता है कि ईमानदारी की राह में कांटे हैं ,फूल नहीं।
 अतः मेरे प्रति उनके हृदय में एक सम्मान है। हाँ ,इतना अवश्य कहते हैं कि भोजन की व्यवस्था पर किसी तरह ध्यान दें , शेष तो किस्मत का खेल है।
  यहाँ बात मैं उनके तीन मित्रों की जीवन यात्रा की कर रहा था। पहला मित्र उनका उनके ही पेशे से जुड़ा  है। अच्छी खासी आमदनी  रही । लेकिन मधुबाला से पहले मधुशाला से दोस्ती हो गयी।  मित्रों ने काफी समझाया कि देखों भाई थोड़ा बहुत ले लिया करों, मन बहलाने के लिये, परंतु शराब उनके यार के जैसी हो गयी ।  परिणाम यह रहा कि छोटे भाइयों का विवाह हो गया और जनाब अकेले अब यह दर्द भरे नगमे गाया करते हैं-

ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा
मेरा ग़म कब तलक, मेरा दिल तोड़ेगा..

    अत्यधिक शराब सेवन से  काम धंधा चौपट हो गया है और स्वास्थ्य भी बेहतर नहीं है। जीवन साथी के लिये जब मन ने पुकार लगाई , तो उनके पास  न काया रहा न माया  , बेचारे सोशल मीडिया के माध्यम से चैटिंग करने लगें। एक विदेशी युवती पर डोरा डालने में सफल हुये भी , तो सात समुंदर पार जाने के लिये पैसा अब नहीं शेष है। सो, मन में इस उम्मीद को जीवित रखते हुये कि कभी तो उनके पास इतना पैसा होगा कि वे अपनी प्रेयसी के देश जाएंगे और दुल्हन बना उसे संग लाएँगे , परंतु कब यौवन तो ढलने को है ?  सो, अब बाकी बचा है यह गीत उनके लिये -

सुहानी रात ढल चुकी ना जाने तुम कब आओगे -
जहाँ की रुत बदल चुकी ना जाने तुम कब आओगे
हर एक शम्मा जल चुकी ना जाने तुम कब आओगे
तड़प रहे हैं हम यहाँ तुम्हारे इंतज़ार में ..

 दूसरे मित्र की दास्तान भी कम दर्द भरी नहीं है। दवा का अच्छा कारोबार रहा। सुंदर पत्नी मिली और पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई। लेकिन , कांच की बोतल से दोस्ती कर ली और जब नशा उतरा तो घर पर न बीवी मिली न बच्चा। मदिरा और ध्रूमपान ने उपहार में अस्थमा का मर्ज दे दिया। बढ़िया कारोबार चौपट हो गया। परिवार के अन्य सदस्यों ने भी दूरी बना ली। उम्र के इस पड़ाव पर जब एकाकीपन जीवन संध्या को गमगीन किये हुये है। वे अपनी अर्धांगिनी और प्रेम पुष्प की वापसी के लिये पुकार लगा रहे हैं ।  कोई ऐसा मिल जाए , जिसके प्रयास से उनके उजड़े आशियाने में फिर से रौनक हो जाए । होली और दीपावली की वह खुशियाँ वापस लौट आये , पर देर हो चुकी है। वे जिससे भी अपना दर्द कहते है, झिड़क मिलती है कि पहले अपना स्वास्थ्य तो सुधारों , आदत बदलों और धनलक्ष्मी की व्यवस्था करों , फिर करना गृहलक्ष्मी की वापसी की प्रतीक्षा ।
     काश  !  शराबी फिल्म में अमिताभ बच्चन का यह डॉयलॉग  "नशा शराब में होती तो नाचती बोतल"  ही सुन लिया होता ,तो तुम भी कहा करते-

थोड़ी आँखों से पिला दे रे सजनी दीवानी..

  आज जीवन संगिनी  के इंतजार में यूँ बैचेन तो न होते आप  ?

   तीसरे मित्र की जीवन यात्रा इन दोनों से विपरीत और करूणामय है। वे एक ऐसे संगठन से जुड़ा हैं , जो  चाल ,चलन और चरित्र  की बात करता है । डेढ़ दशक से वे निष्ठावान कार्यकर्ता के रुप में अपनी सेवा दे रहे हैं। कर्मपथ पर हैं, फिर भी धनलक्ष्मी का दर्शन दुर्लभ है। परिणाम यह है कि समाज, परिवार और वह संगठन जिसके लिये वे समर्पित हैं , तीनों के द्वारा उपेक्षित हैं। दुनिया में पैसा ही किस्मत है, यह बात तब उन्हें समझ में आयी , जब जीवन संगिनी और बच्चों ने उन्हें सम्मान देना बंद कर दिया। ऐसे में हाहाकार कर उठता है हृदय कि सच के मार्ग पर चलने वालों को ऐसा कठोर दंड, फिर विलाप करता है मन-

किस्मत के खेल निराले मेरे भैया.
किस्मत का लिखा कौन टाले मेरे भैया..

  यहाँ भी तो उसका यह जुनून , जो संगठन के प्रति था , नशा बन गया । यह नशा भी "जाम" बन उसकी बर्बादी की पठकथा लिख गया।
      निठल्ले होने का दर्द क्या होता है, "पथिक" को इसकी कड़ुवी अनुभूति है। अन्यथा उसका भी आशियाना था, जहाँ अपनों का बसेरा था और सपनों का घरौंदा था। अब वह सिर्फ एक बंजारा है , न अनाड़ी है न ही खिलाड़ी !

होगा मसीहा सामने तेरे फिर भी न तू बच पायेगा
तेरा अपना खून ही आखिर तुझ को आग लगायेगा
आसमान में उड़नेवाले मिट्टी में मिल जायेगा
सुख में तेरे साथ चलेंगे दुःख में सब मुख मोड़ेंगे
 दुनियावाले तेरे बनकर तेरा ही दिल तोड़ेंगे ...

इस सत्य से साक्षात्कार कर चुका है वह।
    पथिक  की अनुभूति तो यही कहती है कि स्नेह भी एक नशा है, इसके पीछे मत दौड़ों ,अन्यथा कर्मपथ पर ठोकर खाओगे। फिर भी यदि नशा करनी है तो कुछ ऐसे करो -

हुई महंगी बहुत ही शराब के थोड़ी थोड़ी पिया करो
 पियो लेकिन रखो हिसाब के थोड़ी थोड़ी पिया करो...

Saturday 26 January 2019

वर्षगांठ समारोह क्या इनके लिये भी ?


स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर  विवाद
  (  प्रकाशित समाचार)
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  गणतंत्र दिवस पर्व पर राष्ट्र हर वर्ष अपनी संप्रभुता और शक्ति का प्रदर्शन ध्वजारोहण समारोह में करता है। यह उत्सव (वर्षगांठ) हम इसलिये मना पाते हैं, क्यों कि हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, क्रांतिकारियों और वीर जवानों ने इसके लिये निहित स्वार्थ से ऊपर उठ कर त्याग और बलिदान को  प्राथमिकता दी है । जिनका एक ही स्वप्न रहा है कि राष्ट्र का हर नागरिक सुरक्षित, खुशहाल और स्वतंत्र जीवन व्यतीत कर सके। लेकिन यहाँ हर नागरिक का मतलब यह थोड़े न हुआ की आतातायी, दुराचारी और अन्य पाप कर्म करने वाले लोग भी इस उत्सव समारोह में आजादी की दुहाई देते हुये आ घुसे और लगे गोली- बम चलाने। ऐसे अराजक तत्वों को दूर रखने के लिये ही तो तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था की जाती है।
   अच्छा आप ही बताएँ  कि अपने किसी प्रियजन का वर्षगाँठ मना रहे हो, तो क्या ऐसे किसी व्यक्ति को कार्यक्रम में शामिल होने देंगे , जिसके आचरण से अराजकता फैलने का भय हो ?  क्या करेंगे आप , यही न कि ऐसे अवांछनीय तत्वों को त्वरित कार्रवाई करते हुये कार्यक्रम स्थल से बाहर कर देंगे ?  इसके लिये पहले से भी हम व्यवस्था करते हैं और   आपातकालीन स्थिति के लिये भी। कोई भी यह कभी नहीं चाहेगा कि किसी भी उत्सव में अवांक्षित तत्वों का प्रवेश हो।
   
    फिर तिरंगा लहराते समय डोर यदि उनके हाथ में हो ,  कथनी-करनी में जिनके भिन्नता रहती है, ऐसे लोग "जेंटलमैन" का  मुखौटा पहन महात्मा गांधी और लालबहादुर शास्त्री जैसे कैसे हो जाते हैं। छोटे बड़े मंचों पर ऐसे वर्षगांठ के अवसर पर वे ही छाये रहते हैं ,उनके उपदेश को सुनकर आम आदमी ताली बजाता रहता है,कोई यह नहीं टोकता है कि कल तक तो हर कार्य में इन्हें सुविधा शुल्क, गुंडा टैक्स चाहता था, वे जाति - धर्म के नाम पर वोट मांगते थें और आज इस मंच पर वे नैतिकता के पुजारी बने खड़े हैं।

     ऐसे में पता नहीं क्यों मेरा यह मासूम हृदय ऐसे कार्यक्रमों से दूर मुझे लेते जाता है। वह दुनियादारी के इस सच को समझने कि कृत्रिमता का चोला पहन हँसी ठहाके लगाना ही जीवन है , की जगह उस सत्य को तलाशने लगता है, जब बचपन में वह छोटा सा तिरंगा हाथ में लिये विद्यालय जाया करता था , तब गुरूजनों से वह जो ज्ञान पाता था। नैतिक शिक्षा की पुस्तकों में जो सबक उसने पढ़ी थी। अब जब पत्रकार होने के लिहाज से चहुँओर  बड़े - बड़े कार्यक्रमों में सम्मिलित होने का अवसर मिलता रहा है, तो इसी सत्य को जान वह हर बार आहत हो जाता है।
           अतः मैं तो अपने मन मंदिर में ही अपने प्यारे तिरंगे को समाहित कर लेता हूँ, तकि ऐसा कोई कार्य नहीं कर सकूं , जिससे ऐसे राष्ट्रीय पर्व पर मेरी ही लेखनी मुझसे सवाल करे। यदि एक संकल्प भी हम अपने और ऐसे राष्ट्रीय पर्व के वर्षगांठ पर सच्चे मन से लिये होते, तो फिर परिस्थितियाँ भिन्न होती।  पथिक अपने जीवन पथ पर अकेला इसलिये पड़ गया कि वह भावनाओं के भूलभुलैया में उलझ गया और    आम आदमी  इस लिये पीछे रह गया , क्यों वह भी जुमलेबाजों के झुनझुने से मन बहलाने लगा।
 
       जो लोग वैचारिक क्रांति, परिवर्तन और समानता का संदेश लेकर प्रकट होते हैं , वे जनता का सरदार बनते ही अपना रंग बदल देते हैं। समृद्धि , सच्चाई , ईमानदारी , पारदर्शिता और आम आदमी के  हित के लिये कुछ करने की बात आखिर वे क्यों भुला देते हैं। यह सब तो प्राचीन काल से होता रहा है। विडंबना तो अब यह है कि जिन्होंने कुछ किया है हम उन्हें भुला देते हैं। उनके प्रति हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। चाहे वे स्वतंत्राता संग्राम सेनानी ही क्यों न रहे हो। ऐसे में फिर कौन देश और समाज की सेवा करना चाहेगा।
  अपने मीरजापुर में विगत दिनों यहाँ के प्रमुख स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बैरिस्टर युसूफ इमाम जिनका नाम मंडलीय चिकित्सालय भवन पर लिखा था, उसे मिटाने के लिये एक प्रमुख राजनैतिक दल के युवा बिग्रेड के सिपहसालार अड़ गये। यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन इस होहल्ला के दौरान किसी ने वहाँ लिखे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर गोबर फेंक दिया। जिससे हृदय मेरा भी आहत हुआ,मैंने उस अनुशासित राजनैतिक दल के मुखिया और जनप्रतिनिधियों से भी एक पत्रकार की जगह देश के एक नागरिक के रुप में यह प्रश्न किया कि जो हुआ उस दिन क्या वह उचित था ?
  इस प्रकरण पर  मैंने विस्तार से समाचार तब लिखा भी था। किसी को वह खबर पसंद आयी , तो किसे ने बुरा मान लिया।
 इस तरह से राजनीति से जुड़ी बातें  वैसे तो मैं ब्लॉग पर पोस्ट नहीं करता हूँ।
  परंतु  आप सभी से जानना चाहता हूँ कि किसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को जाति-धर्म के चश्मे से देखना कितना उचित होगा ?

Friday 25 January 2019

वो सुबह कभी तो आयेगी..

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युवाओं के लिये यह "अवसाद युग" है। अनापेक्षित आंकाक्षा रूपी यह "ऑक्टोपस"  अपनी मजबूत भुजाओं में युवा वर्ग के मन- मस्तिष्क को इस तरह से जकड़ ले रहा है कि वह संज्ञा शून्य हो जा रहा है।
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 इन काली सदियों के सर से, जब रात का आंचल ढलकेगा
जब दुख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नज़्में गायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी..

   उस सुबह की उम्मीद जब टूट जाती है, मानव जीवन पर जब अंधकार पूर्ण ग्रहण लगा देता है ,हृदय जब यह समझ लेता है कि ऐसा कोई नहीं है जिससे स्नेह का प्रतिदान या अवलंबन इस जग से प्राप्त कर सके,संसार के हर रिश्ते बेगाने लगने लगते , तब व्यथित हृदय की पीड़ा शब्द बन जाती है-

क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है
हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है
ये किस मुकाम पर हयात, मुझको लेके आ गई
न बस खुशी पे कहां, न ग़म पे इख्तियार है ...

  यही अवसाद है , जब भी मानव अपने सामान्य जीवन से राह भटक जाता है, परिस्थितियाँ चाहे जो भी हो,  प्रेम का बंधन छलावा लगता है, महत्वाकांक्षाएँ बोझ बन जाती हैं,पद- प्रतिष्ठा और वैभव नष्ट हो जाते हैं , भ्रष्टतंत्र में ईमानदारी का उपहास होता है, श्रम का मूल्य नहीं मिलता है, जुगाड़ तंत्र प्रतिभाओं का गला घोंट देता है,तब हृदय चित्कार कर उठता है। वह नियति से सवाल करता है-

 हसरत ही रही मेरे दिल में बनूँ तेरे गले का हार
दर्पण को देखा, तूने जब जब किया श्रृंगार
फूलों को देखा, तूने जब जब आई बहार
एक बदनसीब हूँ मैं मुझे नहीं देखा एक बार..
     
      पत्रकारिता के क्षेत्र में रह कर ऐसी कितनी ही हृदय विदारक घटनाओं को देखा और समझने का प्रयास करता रहा हूँ , आखिर क्यों अवसादग्रस्त व्यक्ति को मौत को गले लगाना ही मुक्ति पथ समझ में आता है।

     नगर के एक ख्याति प्राप्त चिकित्सक की पुत्री , जो की इंटरमीडिएट की छात्रा थी, ने गत वर्ष अपने बंगले में फांसी लगा ली।  रात्रि में उसने अपने परिवार के साथ भोजन किया,  इसके बाद अपने कमरे में गयी और सुबह सब कुछ समाप्त।
शुभचिंतकों की भीड़ जुट गयी,तमाशबीनों की तरह- तरह की बातें शोकाकुलपरिजनों के हृदय और प्रतिष्ठा को कहीं और अधिक आहत कर रही थीं। पता चला कि अभिभावकों की उम्मीद उसकी महत्वाकांक्षा बन गयी और प्रवेश परीक्षा में मिली असफलता ने जिस अवसाद को जन्म दिया, वह जीवन पर भारी पड़ा। यह अवसाद ही  तो है, जब कोमल हृदय की महिलाएँ अपने मासूम बच्चों संग मौत की छलांग लगा लेती हैं। प्रेम के बंधन को टूटते देख कितने ही युगल एक दूसरे का हाथ थाम साथ मरेंगे की राह पर बढ़ लेते हैं।

       युवाओं के लिये यह "अवसाद युग" है। अनापेक्षित आंकाक्षा रूपी यह "ऑक्टोपस"  अपनी मजबूत भुजाओं में युवा वर्ग के मन- मस्तिष्क को इस तरह से जकड़ ले रहा है कि वह संज्ञा शून्य हो जा रहा है।

            मैं जिस अवसाद की बात करना चाहता हूँ, वह है सतकर्म का उपहास ,यह एक ऐसी सजा है , जो इंसान के हृदय को सर्वाधिक चोट पहुँचाती है। हर क्षेत्र में एक सच्चे व अच्छे व्यक्ति को उपेक्षा का दंश सहते देखा है मैंने। बात राजनीति से शुरू करूँ, तो माननीय बनने का अवसर किसे मिल रहा है। उसे ही न जो धनबल, जातिबल और बाहुबल से सम्पन्न हो। आमतौर पर निष्ठावान आम कार्यकर्ताओं की हिस्सेदारी राजनीति में दोयम दर्जे के पदाधिकारियों तक ही सीमित है, उस राजनेता की पीड़ा जब अवसाद बन जाती है,तो पूरे समाज पर उसका आवरण छाने लगता है। सारी व्यवस्था बिगड़ जाती है। यही तो हो रहा है न वर्तमान में ?

       राजनीति की बात छोड़े,  मैं अपने पत्रकारिता जगत और स्वयं से जुड़े कटू अनुभूतियों को बताना चाहूँगा। इस क्षेत्र में छब्बीस वर्ष गुजारा हूँ। आज भी बेरोजगारों जैसा हूँ । लेखनी , निर्भिकता और निष्पक्षता की सराहना कभी हुई भी थी । लम्बे समय से राजकीय मान्यता प्राप्त पत्रकार हूँ। लेकिन पत्रकारिता पूरी तरह से व्यवसाय बन गयी, हम जैसे पत्रकार जो नहीं बदलें, जीवन की खुशियों से वंचित रह गये,चले पुरस्कार नहीं सही लेकिन इस कर्तव्य का जब जुगाड़ तंत्र में उपहास होता है,तो यही अवसाद को जन्म देता है। चुनाव में पराजय के बाद सत्ता की चकाचौंध से वंचित राजनेता  आसमान से जब जमीन पर गिरते हैं,तो अवसाद में वे ऐसे सिद्धांत विहीन गठबंधन की राजनीति करते हैं  कि  लोकतंत्र की गरिमा गिरती है।

     धर्मग्रंथों पर दृष्टि डाले , तो परिजनों को युद्ध क्षेत्र में देख अर्जुन को जो अवसाद हुआ, कृष्ण ने विराट रूप के माध्यम से उसका ही निवारण किया है, जो गीता में वर्णित है । रामचरित मानस में जब सीता की खोज में निकले बंदरों ने समुंद्र उस पार लंका जा , वापसी में संदेह जताया,हनुमान भी मौन थें, अवसाद छाने लगा,तभी जामवंत के जादुई शब्द ने-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना। का चुप साधि रहेहु बलवाना, पवन तनय बल पवन समाना।बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ...
 
      पल भर में इसका निवारण कर दिया, उल्लास से भर उठे हनुमान ,उन्हें अपने पराक्रम का अनुमान हो गया।  दुर्गासप्तशती के पहले  ही अध्याय में मेधा ऋषि ने अवसाद ग्रस्त राजा सुरथ और समाधि वैश्य को भगवती के रुप में उस तेजपुंज का अवलंबन दे , इन दोनों के जीवन में उल्लास का संचार किया। मेधा क्या है ,बुद्धि ही तो है न ?

     आशय यह है कि अवसाद दूर हो सकता है, यदि कोई अवलंबन हो। बुद्ध, विवेकानंद सभी ने इसी तरह से अपने अवसाद को दूर किया।  सामान्य मानव जीवन में पति, पत्नी प्रेयसी , मित्र, अभिभावक और गुरुजनों में से किसी ने भी स्नेह वर्षा यदि उचित समय पर की , तो यह भावनात्मक आश्रय विवेक का सृजन करता है, अवसाद निवारण के लिये वृद्ध माता- पिता के लिये भी हमारा यही स्नेह होना चाहिए। जो लोग अपनों के स्नेह से वंचित रह गये हैं, बंजारों सा जीवन जी रहे हैं,अवसाद में हैं ,उनके आहत हृदय को यह प्रार्थना भी सुकून दे सकती है-

तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो
तुम्ही हो साथी तुम्ही सहारे
कोई ना अपने सिवा तुम्हारे
जो खिल सके ना वो फूल हम हैं
तुम्हारे चरणों की धूल हम हैं...

  वैसे तो, अवसाद का घटाटोप इस अर्थयुग में छाता ही जा रहा है। दौलत से शोहरत हासिल करना चाहता है, आज का इंसान। इस दौड़ में जो पीछे छूट जाता, किसी मोड़ पर वह अकेला हो जाता,उसके अपने ही जब उसकी असफलता पर उपहास करते हैं , कोई अपना नहीं होता जो आगे बढ़कर हाथ थाम ले, फिर भी कोई अवलंबन तलाशें, जो यह विश्वास दिलाता रहे-

मजबूर बुढ़ापा जब सूनी, राहों की धूल न फांकेगा
मासूम लड़कपन जब गंदी, गलियों भीख न मांगेगा
ह़क मांगने वालों को जिस दिन, सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आयेगी..

   सदाबहार गीतों और दर्द भरे नगमों में मैं अपने इसी अवलंबन को ढ़ूंढ़ लेता हूँ।

    पथिक का जीवन भी स्नेहीजनों के बिछुड़ने से अवसाद से भरा रहा है। पत्रकारिता की परिभाषा अब जबकि व्यापार हो गयी है,तो इसमें गुजरे लम्बे जीवन और उस अनुभव का भी मोल नहीं रहा। वह तो ऐसा सौदागर बन गया है कि जो दर्द खरीदता और बेचता है । जहाँ सकारात्मकता के अमृत कलश की पूछ हो , वहाँ दर्द का सौदा कौन करता है। सो, वह पथ पर बिल्कुल अकेला है। उसका तो यही  मानना है कि उजाले का सब रिश्ता है, अंधेरे का संबंध दो लाशों के मिलन  या फिर तन्हाई से है। इस मिलन की चाह और तन्हाई से जो बाहर निकल सका ,वही अवसाद से मुक्त हो सका।

    जब भला मानुष बन कर भी किसी का स्नेह नहीं मिल रहा हो, इस अवसाद को यूं समझ गले लगा लो बंधु-

 ठोकर तू जब न खाएगा,
पास किसी ग़म को न जब तक बुलाएगा
ज़िंदगी है चीज़ क्या नहीं जान पायेगा
रोता हुआ आया है चला जाएगा...

  मेरी सबसे पसंदीदा फिल्म "जोकर" का है यह गीत , जिसे कवि गोपालदास "नीरज" ने लिखा है। इसी अंदाज में दुनिया के सर्कस को समझ रहा हूँ। जो स्नेह की राह में मिल रहे हर ठोकर पर सावधान करता रहा है , ये भाई जरा देख कर चलो..

      जीवन का यह कड़ुवा अनुभव (गम) ही अवसाद में पथिक का दीपक बन जाता है। जब कोई अवलंबन नहीं हो, यह दर्द पथिक की किस्मत बन जाता है। जिसने उसे ब्लॉग पर सृजन का अवसर दिया है।
    यह सदैव याद रखें कि नेत्रों की नमी से नहीं हृदय में दबी  वेदनाओं के पिघलने से अवसाद दूर होता है।

    

Thursday 24 January 2019

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
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    ऐसे राष्ट्रीय पर्वों पर यह चिन्तन- मंथन और खुली बहस होनी चाहिए कि आजाद हिन्दुस्तान में नैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक मूल्यों के लिहाज से हमने कितनी ऊँचाई तय की है और आम आदमी का जीवन स्तर खास आदमी के वैभव के समक्ष कहाँ पर टिक पा रहा है। जिन्होंने हमें आजाद मुल्क दिया ,हम उनके स्वप्न को कहाँ तक साकार कर पाये हैं।
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ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झनकार
ये इसमत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
ये कूचे, ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के
कहाँ हैं, कहाँ हैं मुहाफ़िज़ खुदी के
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
कहाँ हैं, कहाँ हैं, कहाँ हैं..

    1957 में रिलीज हुई प्यासा फिल्म का यह गीत है। जिसमें अभिनेता आजाद भारत के रहनुमाओं से यही सवाल कर रहा था । परिस्थितियाँ आज भी कमोबेश वही है, बस नीलाम घर का स्वरूप थोड़ा बदला हुआ है। उस वक्त सिक्कों की झंकार पर  बेबस अबलाओं की अस्मत बिकती थी और अब भद्रजनों का ईमान नीलाम होता है। जनता जहाँ न्याय की उम्मीद लेकर जाती है,जिसके हाथ भी वह सत्ता सौंपती है, वह लोकतंत्र की जगह भ्रष्टतंत्र का पुजारी , संरक्षक अथवा मूकदर्शक हो जाता है। ठगी सी रह जाती है जनता, वह फिर से पुकार लगाती है-

ज़रा इस मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कूचे ये गलियां ये मंज़र दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ..
 
   सुबह साढ़े चार बजे जब होटल से निकलता हूँ और अपने शहर के मुकेरी बाजार तिराहे पर खड़ा अखबार का बंडल लेकर आने वाली जीप की प्रतीक्षा करता रहता हूँ , तभी इस कड़ाके की ठंड में जीवन का संघर्ष देखता हूँ। अलावा के लिये लकड़ी के अभाव में आजाद भारत के लोग सड़कों पर बिखरी पड़ी रद्दी सामग्री किस तरह से बटोर कर जला रहे होते हैं । यह गलन (ठंड) वैसे मुझे भी परेशान करता है, परंतु ललचाई नजरों से दूर से जल रही आग को देख गरमाहट महसूस कर लेता हूँ, क्यों कि जीप के आते ही अखबार वितरण के लिये साइकिल से नगर भ्रमण पर निकलना जो होता है। सोचता हूँ कि श्रम तो भरपूर करता हूँ , परंतु जेब खाली फिर भी क्यों है।
    उधर,  चुनाव को लेकर टिकट के अनेक दावेदारों ने अपनी तिजोरी खोल रखी है। करोड़ों में सौदा पटेगा और उससे दुगना- चौगुना खर्च होगा , परंतु किसी एक चौराहे पर अलावा जलवाने का कलेजा फिर भी नहीं है इन भावी प्रत्याशियों में। जब ढाई दशक पहले यहाँ की पत्रकारिता से जुड़ा था , तो पता चला था कि दस प्रतिशत कमीशन का खेल होता है, सराकरी धन से होने वाले विकास कार्यों में और अब किसी निर्माण कार्य पर स्वीकृत धनराशि का आधा भी ठीक से खर्च नहीं होता है। बनते ही सड़कें टूट जाती हैं, क्या किसी ठेकेदार को कठघरे में खड़ा होते देखा है आपने? पारदर्शिता किसी भी सरकारी कार्य में दिखती है आपको ?
   ऐसे भी अनेक लोगों के हाथ में आज अपना प्यारा तिरंगा है , वे ध्वज फहराते हैं , सलामी लेते हैं और हम बस ताली बजाते हैं। अपने राष्ट्रीय ध्वज को इनके गिरफ्त से किस तरह से आजाद कराया जाए । स्वच्छ प्रशासन का स्वप्न आम आदमी का पूरा हो। यह चुनौती नौजवानों के सामने है। क्रांति की उम्मीद तो सदैव इसी युवा वर्ग से रहती है। वह गीत है न -

हिंद के नवजवानो उठो शान से ,
अपनी हस्ती मिटा दो वतन के लिये....

      राष्ट्र भक्ति से भरे ऐसे गीतों को सुनकर कभी अपना भी मन भी झुम उठता था, बाहें फड़फड़ाने लगती थीं और देश प्रेम जाग उठता था। राष्ट्रीय पर्वों पर आज भी इन गीतों को सुनना मैं पसंद करता हूँ , अनेक सवाल मन में लिये, जिसका जवाब हमारे रहनुमाओं के पास नहीं है और कभी होगा भी नहीं , क्यों कि कठघरे में वे स्वयं हैं। मैं नहीं समझ पाता कि एक सम्प्रभुता सम्पन्न राष्ट्र ,जिसे कभी सोने की चिड़िया कहा जाता था,जिसने सम्पूर्ण विश्व को मानवता का संदेश दिया, उसी देश में असमानता की खाईं इतनी गहरी क्यों हो चली है।
          छात्र जीवन की अनेक स्मृतियाँ ऐसे राष्ट्र पर्व से जुड़ी हैं। जब कुछ बनने की चाहत, कुछ करने की आकांक्षा थी। कितने शान से तिरंगा हाथ में लिये हम सभी बच्चे अपने विद्यालय जाया करते थें । वहाँ गुरुजनों से ऐसे पर्व की महत्वता को जानते समझते थें , सांस्कृतिक कार्यक्रम के साथ ही एक प्रमुख आकर्षण हम बच्चों को वहाँ मिलने वाला मिष्ठान होता था। युवावस्था में प्रवेश करने से पूर्व तक देशप्रेम की भावना कुछ ऐसी थी कि दिन भर राष्ट्रीय पर्व से जुड़े गीत सुना करता था। वाराणसी में पिता जी के विद्यालय में झंडारोहण की तैयारी से संबंधित सारा कार्य मैं ही करता था,  सजावट का यह गुण मुझे अपनी मौसी से प्राप्त हुआ है। अब यह बात और है कि न मैं अपने आशियाने को सजा पाया और न जीवन को , फिर राष्ट्र की सजावट में मेरी उपयोगिता कहाँ से रहती ?
       मेरी वे सारी महत्वाकांक्षाएँ , जो युवावस्था तक  राष्ट्र ,समाज , परिवार और स्वयं को लेकर थी, इस चिन्तन तक सिमट कर रह गयी है कि अपने देश में व्यवस्था परिवर्तन सम्भव नहीं है । न तो भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन मिलेगा और न ही भय मुक्त जनता होगी । पत्रकार हूँ अतः इन ढाई दशकों में करीब से राजनीति में बहुत कुछ परिवर्तन देखा हूँ। अपने प्रदेश में मंडल - कमंडल का कमाल देखा , जाति - मजहबी बयार  ,धनलक्ष्मी का धमाल और जुमलेबाजों की सरकार भी देखा हूँ। सत्ता परिवर्तन के लिये  हर तरह की राजनीति हुई, परंतु गरीबों की पहचान नहीं बदली, रोटी, कपड़ा और मकान की मांग नहीं बदली , नौजवानों की बेरोजगारी नहीं बदली और दौलतमंदों की तिजोरी नहीं बदली। हाँ, जिन क्रांतिकारियों ने अपनी हस्ती वतन की आजादी के लिये मिटा दी थी , आज उनके पथ पर चलने वालों की राह जरूर बदल गयी है। लोगों की  सोच बदल गयी है , वे चाहते हैं कि पड़ोसी का बेटा भगत सिंह बने, लेकिन उनका लाल टाटा, बिड़ला और अंबानी हो जाए, चाहे किसी भी तरह से ।  इतना तक भी ठीक परंतु नौजवान क्या चाहते हैं , इसपर चिन्तन और चिन्ता दोनों की ही आवश्यकता है। पहला तो यही कि वे रोजगार सरकारी नौकरी चाहते हैं। चाहे जिस भी प्रकार से उच्चशिक्षा की डिग्री उनके पास है ही। जिसकी ललक में वे कमोबेश दौड़-भाग करते है। लेकिन , जनसंख्या विस्फोट का दंश झेलते हैं। हजार में एक को आर्थिक रुप से सुखमय जीवन का यह मधुकलश (सरकारी नौकरी) मिल पाता है। शिक्षा प्राप्ति के बाद कुछ युवक छोटे- बड़े  पैतृक अथवा नये व्यवसाय में जुट जाते हैं , तो कुछ दूसरों की चाकरी करते हैं और सम्मान भरा जीवन चाहते हैं ।
  अब जब राजतंत्र नहीं रहा, देश गुलाम भी न रहा , ऐसे में फिर आमजन को उसके ही द्वारा चुनी गयी सरकार से यह उम्मीद तो रखनी ही चाहिए न कि भले ही वह प्राइवेट सेक्टर में हो, लेकिन उसके श्रम का इतना मूल्य मिलता रहे कि वह अपने परिवार का सामान्य तरीके से भरण पोषण कर ले। पहला अन्याय युवाओं के साथ यही से शुरू होता है कि आर्थिक स्थिति में बिल्कुल असमानता है। प्राथमिक पाठशाला का एक सहायक अध्यापक चालीस हजार से ऊपर  वेतन लेकर कक्षा से अकसर लापता रहता है और उससे कहीं योग्य शिक्षक छोटे शहरों में प्राइवेट स्कूल की नौकरी में मात्र पाँच हजार में पसीना बहा रहा है। सुबह से रात तक घर -घर जा बच्चों को पढ़ा कर अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींच रहा है। यह एक बानगी है। रोजगार की असमानता वाली इसी स्थिति से गुजर रहे करोड़ों लोग जिनकी मूलभूत आवश्यकताओं को निर्ममता के साथ बदस्तूर उसी तरह से कुचला जा रहा है, जैसा कि राजतंत्र में और गुलाम भारत में होता रहा । फिर यह शिकायत स्वभाविक है -

अंधेरे में जो बैठे हैं,
नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों
बुरे इतने नहीँ हैं हम
ज़रा देखो हमें भा लो
कफ़न से ढांक कर बैठे
हैं हम सपनों की लाशों
को..
   युवावर्ग उस जुगाड़ तंत्र को भी देख रहा है कि कतिपय समाज के ठेकेदारों, राजनेताओं , अपराधियों और भ्रष्टजनों  ने किस तरह से राष्ट्र के सम्पूर्ण वैभव को अपनी मुट्ठी में कर रखा है। मानो देश की तकदीर को ही बंधक बना लिया हो।
 लोकतंत्र में एक और बड़ा उलटफेर हुआ है।पहले कुछ ही राजनेता , मुखिया और सम्पन्न व्यक्ति अपने वर्चस्व के लिये माफियाओं की बैसाखी खरीदते थें, परंतु जब से कुछ प्रमुख क्षेत्रीय राजनैतिक दलों ने विभिन्न प्रांतों में सत्ता पर अधिकार जमाना शुरू किया, माफिया स्वयं माननीय हो गये। जो दोनों हाथ से सरकारी खजाने को लूट रहे हैं, बिना किसी प्रतिरोध के, ऐसे लोग जब मंच से तिरंगा फहराएंगे और शुचिता की बातें करेंगे, तो निश्चित ही सच्चाई, ईमानदारी, पवित्रता , मानवता कर्तव्यनिष्ठा और राष्ट्र भक्ति जैसे गुण स्वतः ही जंजीरों में जकड़ जाएँगें। यह युवावर्ग इसीलिये गुमराह है। वह यह समझ रहा है कि सारा वैभव उसी के पास है जो चतुर बहेलिये की तरह हो और लोकलुभावनी बातों का जाल बिछा कर भोली जनता का आखेट करना जानता हो।
    दुर्भाग्य से आज ऐसे ही अनेक लोग हमारे बलिदानी क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के उत्तराधिकारी बन गये हैं। देश का नौजवान रंग बदलती इस दुनिया की रीति नीति को देख रहा है। उसी दौड़ में शामिल होने की होड़ में यह भूल बैठ रहा है कि "रंगे सियार" की स्थाई पहचान नहीं होती है। वहीं जिन्होंने त्याग किया, जो बलिदान से पीछे न हटें, आज भी यदि कहीं कोई  खंडहर है उनके नाम से तो वहाँ दीपक जलते हैं, श्रद्धा से जनमानस नतमस्तक होता है,  वे अमर हैं, यह बात इन नौजवानों को फिर से बतलाना होगा -

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा..।
(शशि गुप्ता)

Sunday 20 January 2019

जो दुनिया जीवन से खेले..!

जो दुनिया जीवन से खेले..!
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   इस दुनिया के मेले में क्यों मन रमा रहा है , किसी से "स्नेह की भीख " मांगने से अच्छा है कि तू फंटूश फिल्म के इस गीत को गुनगुनाये जा
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दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना
जहाँ नहीं चैना वहाँ नहीं रहना
दर्द हमारा कोई न जाने
अपनी गरज के सब हैं दीवाने
किसके आगे रोना रोएं
देस पराया लोग बेगाने..

      विवाह- बारात का मौसम है। चहुंओर गाजे बाजे का शोर है। भव्य मंडप जिसके समीप ही डीजे पर स्त्री , पुरूष और बच्चे सभी थिरक रहे हैं। अगली सुबह शहनाई की गूंज के संग विदाई का रश्म पूरा होते ही , यह समारोह स्थल तन्हाई में बदल जाता है। यहाँ सजे हुये फूल बिखर जाते हैं, पांव तले कुचले जाते हैं और विवाह मंडप से बाहर कूड़ेदान में पहुँच जाते हैं।
   कैसी विचित्र सृष्टि की संरचना हैं , आज हँसी है, तो कल रोना है। जीवन के प्रारम्भ होते ही मृत्यु की आहट हर पल तेज होती जाती है, तो फिर क्या शहनाई और क्या तन्हाई ?
शहनाई का संग तो पल दो पल का है,लेकिन तन्हाई महबूबा है। वह गीत है न -

ज़िन्दगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी
मौत मेहबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी..

 सो,मैं इसी तन्हाई के लबादे को कसता जा रहा हूँ। उसी महबूबा से मिलन की चाह लिये ।
   अभी पिछले ही दिनों एक कसाई की दुकान के समीप से गुजर रहा था,जहाँ पर मैंने एक तंदुरुस्त बकरे को देखा । बड़ा  इतरा रहा था अपने भाग्य पर, क्यों कि कसाई बड़े जतन से उसकी देखभाल जो करता था ,किन्तु वहीं मैंने जीवन का यह सच भी देखा कि जो हाथ कभी स्नेह से उसका पीठ सहला रहा था, उसकी क्षुधा शांत कर रहा था,वहीं हाथ उसका कत्ल कर रहा था , तब बकरे के जीवन के प्रति उसे तनिक भी मोह न हुआ। मतलब की यह दुनिया है।
   हाँ, मैंने उसके गर्दन पर छूरा चलते समय समीप खड़ी बकरियों जिन पर यह मूर्ख बकरा अपना अधिकार समझता था, उनकी आँखों का भय देखा है । वे नहीं समझ सकेंगे इसे ,जो उनका गोश्त टटोल रहे होंगे । विडंबना यहाँ भी यह है कि इन बकरियों को बकरे की मौत से कहीं अधिक अपने जीवन का भय है ..

माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥

   छात्र जीवन में इस दोहे की उपयोगिता हम विद्यार्थियों के लिये मात्र हिन्दी व्याकरण की दृष्टि से रही, परंतु अब इसके  चिन्तन पक्ष को समझ सकता हूँ ।
        यह निष्ठुर प्रकृति हमारे साथ यही तो करती है।  कबीर दास की यह सबक याद है न..

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे।
 एक दिन ऐसा आएगा, मैं रोंदूगी तोहे।।

     वह हमें मिटा देगी, अपने में समा लेगी तय है । आश्चर्य तो यह है कि फिर भी हम उसी स्नेह के पीछे दौड़ते हैं, जो निश्चित ही हमें कष्ट देगा,आज नहीं तो कल।
    माँ थी, तो मैं भी उसी बकरे की तरह तंदुरुस्त था। स्नेह और बढ़िया भोजन दोनों ही मिलता था। माँ के असमय जाने पर उस कसाई ने अपना यह धर्म भुला दिया , मेरे प्रति कि  कत्ल से पहले वह मेरी आवश्यकताओं का ध्यान रखता।
  वैसे तो ऐसा न कर वह स्वयं ही घाटे में है, क्यों कि दुर्बल बकरे में मांस कम होगा तो कीमत भी कम मिलेगी उसे। अतः मुझे तो  हँसी आती है, उसकी इस मूर्खता पर कि वह क्यों घाटे का सौदा किये है। थोड़ी खुशी मुझे भी बख्शी होती , तो उसे कोई मालदार सौदागर मिलता, तब मेरी इन सूखी हड्डियों में कुछ गोश्त जो होता।
    और रही बात उस छूरे के भय की, जिसे वह मुझे  व्यर्थ ही दिखला रहा है । मैं तो स्वयं ही सांसों की इस डोर से आजाद होने के लिये व्याकुल पथिक बना मुक्ति पथ की ओर बढ़े जा रहा हूँ। ऐसा कोई स्नेह का बंधन नहीं रहा , जो हाथ पकड़ मेरी राह रोकता हो । माँ से बिछुड़ने के बाद आशियाना और मुसाफिरखाने सभी मेरे लिये एक जैसे रहें।

     मौत के चौखट पर इन आँसुओं का कोई मोल नहीं होता है। उसमें "मानवता" कहाँ होती है अन्यथा जीवन की आयु सीमा तय होती। मृत्युदंड से पूर्व अंतिम इच्छा पूछ ले , इतनी तो इंसानियत उसमें होनी चाहिए न ..?  हमारे इस प्रश्न पर वह यह कह उपहास उड़ाती है कि तुम मनुष्य क्या ऐसा नहीं करते हो , कभी किसी को राह चलते अपने वाहन के पहिये तले रौंद दिया , तो कभी किसी को निजी खुन्नस में ठोंक दिया। कितने ही युद्ध तुमने अकारण निजी महत्वाकांक्षाओं के लिये लड़े हैंं।
       मेहंदी हाथ की छूटी भी नहीं कि विधवा विलाप सुन मुझ जैसे पत्रकारों का हृदय भी कभी- कभी दहल उठता है, अंत्यपरीक्षण स्थल पर इस करुण क्रंदन को ही नहीं उस माँ के रोते हृदय से भी हमारा सामना होता है , जिसकी गोद में उसका लाल सोया होता है, ममता की डोर तोड़, माटी का पुतला बना पड़ा होता है।
        इस कत्लखाने में बकरे की चीख पर रहम किसे आता है ? ग्राहक को मांस चाहिए और विक्रता को धन, फिर बकरे के दर्द का क्या ?  अरे , नादान क्यों छटपटाहट है तूँ इतना । छूरा किसी के गर्दन पर चले या किसी के मासूम हृदय को आहत करे , रक्त तो दोनों का ही सूर्ख है।  कौन समझाय इस मन को  कि मत हाथ पसारा करो-

लाख यहाँ झोली फैला ले
कुछ नहीं देंगे इस जग वाले
पत्थर के दिल मोम न होंगे
चाहे जितना नीर बहाले..

   यही इस जगत का सत्य है। अध्यात्म, चिन्तन और विज्ञान को चाहे जितनी भी ऊँचाई तक हम ले जाएँ । अंहिसा के पुजारी महात्मा गांधी ही क्यों न बन जाएँ , फिर भी याद रखना है कि मृत्यु हमसे स्नेह नहीं करेगी।
   इस दुनिया के मेले में क्यों मन रमा रहा है , किसी से "स्नेह की भीख " मांगने से अच्छा है कि तू फंटूश फिल्म के इस गीत को गुनगुनाये जा -

अपने लिये कब हैं ये मेले
हम हैं हर इक मेले में अकेले
क्या पाएगा उसमें रहकर
जो दुनिया जीवन से खेले..!

      तब भी सत्य तो यही है न कि हमें ये सारी अनुभूतियाँ इसी जगत और इसी मानव तन से  प्राप्त हुई हैं । यदि मृत्यु सत्य है, तो उसका आश्रय स्थल यह जगत कैसे असत्य हो सकता है, अन्यथा ये दोनों ही नश्वर हैं ?

Friday 18 January 2019

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..
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  एक कल्पना, एक दिवास्वप्न और एक उम्मीद में कभी खो जाता हूँ कि हम मनुष्यों की ऐसी कोई बस्ती कहीं तो होगी, जहाँ  "मानवता" का पुष्प खिला हो । जिसकी पंखुड़ियों को बिखेरने वाले अमानवीय हाथ वहाँ न हो। हम भी जहाँ इसी तरह झूम,नाच और गा लें
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किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है..

   बिखरी हुई इंसानियत और कदम- कदम पर मिली तन्हाई से यह मासूम दिल जब भी उदास होता है, अनाड़ी फिल्म का गीत उसे एक पैगाम देता है। मुकेश की जादुई आवाज़ में राजकपूर को उछले, कूदते , मुस्कुराते और गुनगुनाते देख व्याकुल मन बरबस बोल उठता है , वाह! यही तो मानवता है। एक कल्पना, एक दिवास्वप्न और एक उम्मीद में कभी खो जाता हूँ कि हम मनुष्यों की ऐसी कोई बस्ती कहीं तो  होगी, जहाँ मानवता का पुष्प खिला हो । जिसकी पंखुड़ियों को बिखेरने वाले अमानवीय हाथ वहाँ न हो। हम भी जहाँ इसी तरह झूम,नाच और गा लें। भीड़ भरी सड़कों पर निकलते ही ठोकर खाने का भय न हो , गलियों के सन्नाटे में घुटन न हो , अपने ही आशियाने में षड़यंत्र न हो और घरौंदे के उजड़ने का दर्द जीवन की खुशियों को वक्त से पहले ही  विरक्त न कर दे ।  मानव, मानव जीवन, मानव प्रवृत्ति, मानव स्वभाव की पहचान मानवता से ही है, अन्यथा पशुवत है हम।अपने मन, वचन और काया से, दूसरों की मदद करना, यही मानव जीवन का उद्देश्य है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानवता की परिभाषा कुछ यूँ बताई है-

'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई'।

      वैसे, यह हृदय है न जो हमारा ,वह हमारे प्रत्येक मानवीय और अमानवीय कार्यों पर मुस्कुराता और मुर्झाया करता है।  मन की आवाज से बढ़ कर कोई पाठशाला नहीं है, मानवता को समझने का।

   अमानवीय हाथ की बात से ही अपने विचारों को व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ। जिसने प्रथम विश्वयुद्ध ( महाभारत) को जन्म दिया। याद करें हस्तिनापुर की वह राजसभा जिसमें एक धर्मराज ने जिन हाथों से पासा फेंक द्यूतक्रीड़ा में अपनी पत्नी को दांव पर लगाया था , युवराज के उस हाथ को भी जो बार - बार जंघा को थपथपा रहा था, किसी नारी कि अस्मत को तार- तार करने के लिये उतावला हो रहा था और उन हाथों को भी जिसने भरी सभा अग्रज की पत्नी के चीरहरण का प्रयास किया। साथ ही "मानवता" के उस हाथ को भी समझने का प्रयास करता हूँ ,जिसे देख एक कवि ने यूँ लिखा-

 सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है
सारी ही की नारी है कि नारी की ही सारी है..

   मानवता पर ऐसे कुठाराघात का वर्णन और कहीं भी नहीं है कि एक राजा के दरबार में उसकी ही कुलवधू न्याय की गुहार लगा रही हो,अपने अस्मत की रक्षा की पुकार लगा रही हो। वहाँ बैठें जितने भी ध्यानी, ज्ञानी, विज्ञानी भद्रजन थें , सभी उसके अपने थें ,जिनमें उसके वे बलशाली पाँच पति भी थें ,परंतु इन सारे नेत्रहीनों की सभा में मानवता का दीपक लिये खड़े एक विदुर को छोड़ किसी ने भी कुलवधू का चीरहरण होते देख प्रतिकार नहीं किया। जिसका परिणाम महाभारत रहा। उस राजसभा में मानवीय मूल्य को भूल अपनी निजी प्रतिज्ञा को जिन्होंने भी महत्व दिया, वे भी नष्ट हो गये इस युद्ध में। महाभारत कथा की दृष्टि से इसे ऐसा विश्वयुद्ध मान सकते हैं। जिसमें लाखों स्त्रियों को विधवा होने का दंश सहना पड़ा। लिंगानुपात असंतुलित हुआ और इसकी परिणति इस कलयुग का प्राकट्य है।
     अब तो इंसानियत किस तरह से हैवानियत में बदल गयी दामिनी कांड उसका एक घिनौना चेहरा है। छोटी- छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म और साक्ष्य छिपाने के लिये उनकी निर्मम हत्या तक कर देते हैं ऐसे दरिंदे। ऐसी घटानाओं में समाचार संकलन के दौरान कांप उठता है हृदय हम पत्रकारों का भी। जिसे नासमझ बच्ची अंकल जी कहती थी , उस मासूम को टाफी दिलाने का प्रलोभन दे, ऐसा कृत किया जो कोई पशु भी न करता हो। ऐसे में मानवता चित्कार कर उठती  है-
  देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान
सूरज न बदला चांद न बदला ना बदला रे आसमान
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान...
   
   विदेश में रह रहे एक बेटे ने पिता की मृत्यु के बाद अपने वतन लौट अपनी माँ से कहा कि जो यह भवन है न उसे बेच दो और चलो साथ ,वहाँ तुम्हारी पुत्रवधू  सेवा को तत्पर रहेगी। उधर मकान बिका और इधर एयरपोर्ट पर माँ को छोड़ पुत्र लापता । पुत्र के इस धोखे से आहत बेचारी माँ जब वापस लौटी उसी घर में , तो जानते हैं सजल नेत्रों से नये गृहस्वामी से उसने क्या कहा था , यही कि इस मकान को उसके मृत पति ने अथक परिश्रम से बनवाया था , अतः  इसी में दाई की नौकरी दे दो, आखिरी सांस जीवन का वह अपने पति के घर ही लेना चाहती है।वह टूट चुकी थी और विश्वास नहीं कर पा रही थी कि जिस लाडले को इतनी ऊँचाई दी, वह इतना नीचे जा गिरेगा। लेकिन, तभी मानवता ने हाथ बढ़ा उस वृद्ध महिला को सम्हाल लिया , क्यों कि नये भवन स्वामी ने यह जो कहा , " माँ मुझे ही पुत्र समझ ले न, आप यहाँ अभिभावक बन कर रहें ।"

   हम इसी इंसानियत की तलाश करते हैं । हर मनुष्य चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो कभी न कभी मानवता उसमें आ ही जाती है। छात्र जीवन में विद्यालय में एक कहानी "तैमूर की हार पढ़ी" थी। जिसमें यह क्रूर आक्रमणकारी एक बच्चे से कहता है कि तैमूर खूंखार है, लेकिन वह बहादुर बच्चे को सलाम करता है। तेरा दूध और चाकू  हमेशा याद रहेगा,  बिना खूनखराबा किये यह गांव छोड़ कर वह जा रहा है। उस बालक की निर्भिकता ने एक लुटेरे के हृदय में कुछ क्षण के लिये मानवता को जन्म दे दिया।
    बुद्ध के समक्ष आते ही अंगुलीमाल डाकू से साधु हो गया । उसका हृदय गुनगुनाने लगा-

मिटे जो प्यार के लिए वो जिंदगी
जले बहार के लिए वो जिंदगी
किसी को हो न हो, हमें तो एतबार
जीना इसी का नाम है..

      सच तो यही है कि कायर मनुष्य कभी मानवता का उपासक हो ही नहीं सकता है। कोई भी ध्वज तभी सुरक्षित रहेगा है,जब उसका आधार (दंड) दृढ़ हो। सिर्फ भावनाओं से करुणा से मानवता की रक्षा संभव नहीं है। इसके लिये कठोरता भी होनी चाहिए । बौद्ध धर्मावलंबी अहिंसक तिब्बतियों से यही गलती हुई। भावनाओं में बह कर कभी हमनें भी "हिन्द- चीन भाई " कहा था। हमारे रहनुमाओं की यह मानवता राष्ट्रीय अस्मिता के लिये महंगी पड़ी।

         यह चुनावी वर्ष है , तो बात थोड़ी राजनीति पर भी हो जाए।  महामानव बने लोग खादी के वस्त्रों में लकदक जन मंच से मानवीय कल्याण के पक्ष में बड़ी बड़ी लच्छेदार बातें करेंगे। लेकिन , यह सब उनका मुखौटा मात्र होगा। पर याद रखें कि गांधी की तरह लंगोटी में कोई न होगा, न ही लाल बहादुर शास्त्री की तरह सादगी की झलक उनके चाल चलन से दिखेगी। महंगे लग्जरी वाहनों का काफिला , धनवर्षा करता प्रचारतंत्र और झूठे आश्वासनों का पिटारा इनके संग होगा। चुनाव प्रचार के दौरान आमजन के प्रति कुछ ऐसा दुलार दिखलाएँगे कि इनसे बड़ा मानवता का पुजारी और कोई है ही नहीं।
अपने जनपद में भी पाँच वर्ष पूर्व वे बुझी काटन मिल की चिमनी में धुआँ करने का आश्वासन देकर  चले गये थें। भोली जनता ने मानवीय गुण का परिचय दिया और उन्हें सिंहासन सौंप दिया ।  मानवत कथनी और करनी की इन रहनुमाओं की यह रही कि बेरोजगार, बदहाल, बेबस अपने जनपद के नौजवान  आज भी इस बुझी चिमनी ( कलकारखाने की चाह)को टुकुर- टुकुर ताक रहे हैं।
         मुट्ठी भर राजनीति के नेताओं, अर्थपतियों, सफेदपोश अपराधियों और धनलोलुप कुछ नौकरशाहों ने इंसान और इंसानियत से जुड़ी सारी व्यवस्थाओं को चौपट कर रखा है। मानवता खून के आंसू रो रही है, फिर भी मजे की बात यह है कि वे ही इस समाज के भाग्य विधाता बने बैठें है। सभामंडप में बापू (महात्मा गांधी) का द्वितीय अवतार स्वयं को साबित करने के लिये शब्दजाल बुनते रहते हैं। मानवता  इसी में बंधक बनी छटपटाहट रही है। इनकी चकाचौंध भरी दुनिया को देख युवावर्ग दिगभ्रमित है,वह भी मानवीय गुणों का त्याग कर इस अंधकूप में छलांग लगा रहा है।
      नैतिक शिक्षा का वह सबक  जिससे विद्यालय में बच्चे स्वयं ही मानवीय गुणों से परिचित हो जाते थें , वह कहाँ और क्यों गुम हो गया है । सभ्य समाज को इस पर गंभीर चिन्तन करना होगा। पहला तो यही कि जो जनहित में तप ( सृजन) कर रहा हो, समाज उसका संरक्षण करे, उसके कार्य , उसके श्रम, उसकी निष्ठा और निःस्वार्थ भाव से की गयी उसकी साधना को सम्मान दें। उसके इन मानवीय गुणों का उपहास इन शब्दों से करना कि जमाने के साथ चलना  नहीं  सीखा । इससे बढ़ कर अमानवीयता और कुछ भी नहीं है। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों को जिस मंच से सम्मान- पुरस्कार मिलना चाहिए , उसपर यदि कोई जुगाड़ तंत्र से अपना अधिकार जमा लेगा ,तो दिन प्रतिदिन मानवता का इसी तरह से क्षय होगा। इन ढ़ाई दशकों में पत्रकारिता के क्षेत्र में उपेक्षा ,उपहास और बेरोजगारी के इस दर्द से मैं  गुजर चुका हूँ। राजनीति, साहित्य और समाज सेवा के मंच पर मुझसे भी अधिक त्याग करने वालों के हृदय को टटोले जरा उनकी इसी "मानवता" ने अनेकों जख्म उसे दिये हैं। भ्रष्ट राजनीति के अपराधीकरण ने माननीयों की परिभाषा बदल दी है। बगुला जब समाजसेवा के मंच पर "हंस" बन खड़ा हो , तो फिर मानवीय गुणों का संरक्षण कदापि सम्भव नहीं है ।

          जब बनारस में कम्पनी गार्डेन से मेरी दोस्ती थी। वहाँ , एक मानव जी , जो कवि भी थें, प्रातः भ्रमण को आते थें। धर्म ग्रंथों की कथाओं को ज्ञान-विज्ञान की तराजू पर तौला करते थें। अतः वहाँ काशी में वामपंथियों जैसी उनकी वाणी को मुझ जैसे चंद युवकों को छोड़ कौन पसंद करता। परंतु एक बात वह यह कहते थें कि बेटा मतभेद विचारों का हो ठीक है,मनभेद मत करना कभी। यदि संकट काल में किसी ने सहायता को पुकारा तो उसकी जाति- धर्म न देखना। यह जो दिल से दिल तक का रिश्ता है न यही "मानवता" है।

 रिश्ता दिल से दिल के एतबार का,
जिंदा हमीं से नाम प्यार का,
कि मरके भी किसी को याद आएँगे,
किसी के आँसुओं पे मुस्कराएँगे,
कहेगा फूल हर कली से बार-बार
जीना इसी का नाम है..

   यह गीत मुझे बेहद सुकून देता है, जब कभी मेरा हृदय स्वयं को छला हुआ, ठगा हुआ महसूस करता है।
   -व्याकुल पथिक
 (जीवन की पाठशाला )

Monday 14 January 2019

चली-चली रे पतंग मेरी चली रे ..


चली-चली रे पतंग मेरी चली रे ...
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चली-चली रे पतंग मेरी चली रे
चली बादलों के पार हो के डोर पे सवार
सारी दुनिया ये देख-देख जली रे...

   मकर संक्रांति पर्व है आज । मैं कब से नीले आसमान में रंगबिरंगी बड़ी -छोटी पतंगों को इठलाते देख रहा था। उस अनंत की ऊँचाई नापने की एक मासूम सी कोशिश में जब वे मचलती ,उछलती और फड़फड़ाती हैं , तो पतंगबाज मुस्कुराते हैं।यही नहीं इन्हें आपस में लड़ाते भी है और जब कोई पतंग कट जाती है , असहाय सा नीचे की ओर गिरने लगती है । उसी दौरान विजेता के ' वह काटा- वह काटा ' के अट्टहास से आकाश गूंज उठता है।
       .दो पतंगों के पेंच की लड़ाई में एक दूसरे की डोर काटने का यह जो जुनून पतंगबाजों की होती है। जिसके लिये वह अपने सारे अनुभवों का उपयोग करता है। वह यह व्यवस्था करता है कि डोर( मांजा) मजबूत रहे और पतंग भी अच्छी रहे। तब जाकर उसका मनोरंजन पूर्ण होता है।
         कटी हुई पतंग जो नीले अंबर से अगले पल धरती की ओर गिरने लगती है , सोचे जरा उसका अस्तित्व क्या होता है । उसे तो लूटने के लिये लोग दौड़ते हैं। उस पर भी यदि किसी एक का अधिकारी नहीं हुआ , तो सब मिल कर उसे लूटते हैं और वह फट जाती है, मिट जाती है, किसी को याद नहीं रहता कि कुछ क्षण पूर्व यह खूबसूरत पतंग इस आसमान की ऊँचाई छू रही थी। पतंगबाजों का मनोरंजन कर रही थी।  जमीन पर पड़ी इस फटी हुई कटी पतंग को पांव तले मत कुचलो मित्र , इससे कुछ सबक लो।
    कैसी विचित्र विडंबना है कि ये पतंग आपस में कभी नहीं लड़ती - झगड़ती हैं , पर यह डोर इनकी दुर्गति का कारण बनती है। जब तक डोर नहीं बंधी रहती है , पतंग बेखौफ पतंग विक्रेता के यहाँ पड़ी रहती है , पर जैसी ही "धागा" के बंधन में आयी , वह पतंगबाज के अधीन हो गयी जो फिर अपना मनोरंजन उससे करेगा। निर्माता ने धन की चाह में उसे बेच दिया। पतंगबाज ने अपने मनोरंजन के लिये उसे कटी पतंग बना दिया और लुटेरों ने उसका छीना झपटी कर उसका अस्तित्व मिटा दिया।
    इसी को आधार बना मैं अपने चिन्तन को शीर्ष पर ले जाने का प्रयत्न जब भी करता हूँ ,तो जीव(पतंग) , माया(डोर) और ब्रह्म (मनुष्य) , मेरा दृष्टिकोण कुछ ऐसा हो जाता है । फिर मुझे लगता है कि इस पतंग की तरह हम भी तो किसी के मनोरंजन की सामग्री तो नहीं है। इस तरह के चिन्तन से मन आहत होता है , वह प्रश्न  करता है -

 दुनियाँ बनाने वाले, क्या तेरे मन में समायी
काहे को दुनियाँ बनायी, तूने काहे को दुनियाँ बनायी
काहे बनाये तू ने माटी के पुतले
धरती ये प्यारी प्यारी, मुखड़े ये उजले…

   इस सवाल का सही जवाब किसी के पास नहीं है कि आखिर यह दुनिया किसके मनोरंजन के लिये बनायी गयी है।  हम सब तो बस पतंग हैं,माया-मोह रूपी यह डोर जीतनी मजबूत होगी, हम उतना अधिक आसमान में फड़फड़ाते हैं, फिर भी जमीन पर गिरना ही नियति है हमारी।
    अतः यह तो तय है कि हम कर्ता नहीं है, नियति के अधीन हैं, बात यदि कर्मफल की करूँ, तो यहाँ भी मेरा चिन्तन इस चिन्ता में बदल जाता है कि कर्मफल से नहीं जुगाड़ तंत्र(छल प्रपंच) से यह दुनिया चल रही है। अन्यथा स्नेह का ,श्रम का, कर्त्तव्य निष्ठा का प्रतिफल हमें उस अनुपात में न सही तो भी कम से कम संतोष जनक निश्चित मिलता। पत्रकारिता में हूँ, यदि थोड़ा सा अपने पथ से हट जाता तो आज मेरे पास भी वह तमाम भौतिक सुविधाएँ निश्चित होतीं। बंगले, मोटर और रूतबे से ही अब तो हम लोगों को भी सम्मान मिलता है । जिनके पास धन है ,जुगाड़ है , वे सब लोकतंत्र के प्रहरी "माननीय" बन जा रहे हैं। अपराधियों को भी दागी जनप्रतिनिधि कोई कहाँ कहता है , बल्कि उनके दरबार में कहीं अधिक रौनक रहती है।

           खैर ,विषय मेरा यहाँ पतंग , डोर और पतंगबाज है यहाँ , तो क्या हमें भी किसी ने  अपने आनंद के लिये पतंग का रुप दे रखा है। सच तो यह है कि हम इंसान आपस में कभी नहीं झगड़ते है। हम जिस डोर रूपी भावनाओं से बंधे हैं, वे भड़कती हैं,भभकती हैं और फिर बुझ जाती हैं ,हमें कटी पतंग बना कर।
    अन्यथा तो हमारा मन सदैव विश्राम की स्थिति में रहता है , जगतगुरु शंकराचार्य की तरह यह उद्घोष करते हुये-

चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ...

   संत , दार्शनिक , वैज्ञानिक  , आस्तिक और नास्तिक  जिनमें भी थोड़ी चिन्तन शक्ति है , वह इसी खोज में है कि मृत्यु  के बाद क्या ..? सृष्टि के निर्माण का रहस्य क्या है ?? पहले बताया जाता था कि चंद्रमा पर जो काला धब्बा है, वहाँ एक बुढ़िया सूत कात रही है। धर्मशास्त्रों में तो इस पर कई कथाएँ हैं , लेकिन विज्ञान ने बताया कि ये ऊँचे पहाड़ और गहरी खाईं के निशान हैं। पर इस ब्रह्मांड का एक छोर भी विज्ञान अभी तक नहीं पकड़ पाया है,तो इसके निर्माण और निर्माता की कैसे जाने।

  अपनी बात करूं तो चिन्ता से यदि चिन्तन की ओर बढ़ता हूँ, तो वह मानसिक संतुष्टि जो उस छोटे से आश्रम जीवन में मुझे प्राप्त हुयी थी , वह मुझे पुकार रही है, विवेक की पहरेदारी  मेरे आहत हृदय पर इन दिनों बढ़ती जा रही है। वह मानो बार बार उलाहना दे रहा है कि इस वर्ष के प्रथम दिन जब तुम बिल्कुल एकाकीपन  की अनुभूति कर रहे थे, तुम्हारी भावनाएँ तुम्हारे हृदय को आहत कर रही थीं , तब कोई था तेरा, कोई स्नेहीजन , कोई प्रियजन ..?  वह मुझसे निरंतर झगड़ रहा है कि आश्रम छोड़ कर तुम्हें क्या मिला ? कोई ऐसा डोर अब भी मोह का शेष है ..? वैसे, उसका यह कड़वा सच मेरे हृदय की वेदना पर मरहम की जगह जख्म  पर नमक के छिड़काव जैसा है।  मैं शर्मिंदा हूँ ,बस एक आत्मसंतुष्टि लिये कि चलो इसी बहाने दुनिया तो देख ली । अपना- पराया, दुख- सुख, प्रेम और छल , षड़यंत्र और धोखा , धनलक्ष्मी का खेल, किसी के प्रति भी अत्यधिक कर्तव्यपरायणता का दंड जैसी अनुभूतियाँ मुझे वही संदेश एक बार फिर से दे रही हैं जिसे ग्रहण कर सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त की और गौतम बुद्ध बन गये। बड़ा सरल सा संदेश रहा उन नृत्यांगनाओं का,  वीणा के तार के संतुलन की ही तो बात उन्होंने कही थी।
     मनुहार, प्रेम , स्नेह युक्त भोजन और वह क्षुधा  जिनका उपभोग गृहस्थ प्राणी करते हैं ,उसकी आकांक्षा और कल्पना हम जैसों को नहीं करनी चाहिए, अन्यथा जिन्हें तुम अपना मित्र समझते हो, वही तुम्हारा उपहास करेंगे। यह तुम्हें ही तय करना है कि इनसे किस तरह से मुक्त हो , किस आश्रम के पथ की ओर कदम रखते हो । कटी पतंग कहलाने से पूर्व आसमान की ऊँचाई पर पहुँचना ही जीवन की सार्थकता है।
   कोलकाता में था,तो सिर्फ आज के ही दिन मुझे किसी के देखरेख में पांचवीं मंजिल के ऊपर छत पर जाने की अनुमति थी, पतंग लेकर । बनारस में था तो हम तीनों भाई-बहन गैस वाले गुब्बारे उड़ाते थें। पतंग उड़ाना नहीं सीख पाया, परंतु कटी पतंगों को    सहेज - संवार कर रखता था। ऐसी अनेक पतंग मेरे कमरे में टंगी रहती थीं। एक विशेष मोह था ,इनके प्रति मुझे। कभी - कभी तो अभिभावक नाराज भी हो जाते थें कि  मैं क्यों कमरे को कूड़ाघर बना रखा हूँ। पिता जी अध्यापक थें, अतः पतंग से उन्हें नाराजगी थी। छिपा कर मैं इन कटी पतंगों का रखा करता था। समझ में नहीं आता कि मैं किस राह पर चल पड़ा कि आसमान की ऊँचाई छूने से पूर्व ही कटी पंतग बन आ गिरा और मुझे किसी का सहारा( स्नेह)  न मिल पाया  ?

 न किसी का साथ है, न किसी का संग
 मेरी ज़िंदगी है क्या, इक कटी पतंग है ...

बस इस प्रश्न का उत्तर चाहता हूँ,अपनी किस्मत से।

Friday 11 January 2019

ओ माँझी, ले चल सबको पार..


ओ माँझी, ले चल सबको पार...
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माँझी की तरह पथिक को भी यह समझना होगा कि नाव तो सबकी है , पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं। सबकी अपनी अलग राहें हैं। नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है
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सबको किनारे पहुँचाएगा
माँझी तो किनारा तभी पाएगा
गहरी नदी का ओर ना छोर
 लहरों से ज्यादा मनवा में शोर...

   नैया फिल्म के इस गीत को आत्मसात कर रहा था। नाविक   और पथिक में यही तो अंतर है । नाविक  सबको उनके गंतव्य तक पहुँचाता है, तब उसे विश्राम मिलता है । वहीं पथिक पहले स्वयं किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिये प्रयत्न करता है, यदि उसे मुकाम मिला तो वह भी सबके लिए पथ प्रदर्शक बन सकता है।  इसके लिये उसे भावनाओं के शोर को रोकना होगा। माँझी की तरह उसे भी यह समझना होगा कि नाव तो सबकी है , पर उस पर बैठे लोग अपने नहीं हैं। सबकी अपनी अलग राहें हैं। नदी के इस पार से उस पार तक बस इतना ही सबका साथ है।
   जिसने जगत के इस रहस्य को समझ लिया , सब (यात्री) उसके हैं, फिर भी उसका कोई नहीं है। वह  समदर्शी हो जाता है ,कुछ इसी नाविक की तरह-

अपना तो नित यही काम है
आने जाने वालो को सलाम है
गोरी ये दुआए करना जरूर
माँझी से नैया हो नहीं दूर..

     सबको पार उतराते हुये वह अपनी जीवन नैया भी पार लगा लेगा। एक सच्चे साधक- संत की तरह ।
      बीते रविवार की बात है यहाँ मीरजापुर में बिखरे हुये हमारे स्वजातीय समाज के लोग एक मंच पर आ गये । सबकों एक साथ कदमताल करते देखने की मेरी भी वर्षों से इच्छा थी, हालांकि सामाजिक कार्यक्रमों में मेरा कोई विशेष योगदान तो नहीं रहता ,फिर भी मेरी मौजूदगी , सबको साथ लेकर चलने की सोच और केंद्रीय राज्यमंत्री अनुप्रिया पटेल द्वारा सांसद निधि से समाज की जमीन पर 32 लाख रुपये से "उत्सव भवन" बनवाने की घोषणा से मुझे यहाँ सम्मान मिला। अब जो नयी कमेटी बनी वह सबके लिये है। दशकों से समाज के लोग दो खेमे में बंटे थें। लेकिन यह दीवार अंततः गिर गयी । सबको साथ लेकर चलने का निर्णय लिया गया। इस खुशी के अवसर पर समाज  के वरिष्ठजनों का स्नेह मुझे भी प्राप्त हुआ, साथ ही नवनियुक्त पदाधिकारियों ने एक पुष्पहार मेरे गले में डाला दिया। इतने लोगों के मध्य यदि सम्मान मिले , तो व्याकुल पथिक होकर भी चेहरे पर एक स्वभाविक मुस्कान आ जाती है , क्यों कि आपसी एकजुटता का स्वप्न साकार हुआ। ऐसे में कुछ और अधिक करने की चाह में मन गुनगुनाता है-

ओ नदिया चले चले रे धारा
 चन्दा चले चले रे तारा
 तुझको चलना होगा,तुझको चलना होगा
ओ तू ना चलेगा तो चल देंगी राहें
 मंज़िल को तरसेंगी तेरी निगाहें
तुझको चलना होगा,  तुझको चलना होगा..

    यह एकजुटता ही  किसी भी समाज के विकास की प्रथम सीढ़ी है कि पहले व्यष्टि से निकल समष्टि की ओर बढ़ो। एकाकी जीवन से सम्पूर्णता की ओर बढ़ों।
        " एकोहं बहुस्यामि "  सृष्टि का यही सूत्र है। सबको समाहित करना ही तो कृष्ण का विराट रूप है ,क्यों कि बचपन से ही कृष्ण ने सबके अधिकार की बात की, चाहे वह गोवर्धन पूजन हो अथवा यमुना नदी में कालिया नाग का मान मर्दन हो। भीष्म, द्रोण , कर्ण ने इस विराट रूप को पहचाना अवश्य , परंतु अनुसरण सिर्फ विदुर और अर्जुन ने किया। प्रकृति द्वारा निर्मित हमारा शरीर हो या हम मनुष्यों द्वारा निर्मित कम्प्यूटर एक ही तत्व से किसी का अस्तित्व नहीं है। सृष्टि की रचना पर दृष्टि डाले तो यह पृथ्वी , आकाश  प्रकाश, वायु, जल , अग्नि सभी के लिये है। यहाँ मैं नहीं ,तुम नहीं , वो नहीं , ये नहीं यह सब बिल्कुल भी नहीं है। दुख- सुख , बचपन, यौवन और वृद्धावस्था , जीवन - मृत्यु यह भी सभी के लिये है।  सर्वे भवंतु सुखिनः ,सबको सन्मति दे भगवान , सबका मालिक एक से लेकर वसुधैव कुटुम्बकम  , इन सभी वाक्यों में सब और सबके हित , सबके अधिकार , सबके कल्याण , सबके विकास की कामना समाहित है।  सबको साथ लेकर चलने का उद्घोष है।

      राजतंत्र को इसीलिए नष्ट होना पड़ा, क्यों कि उसमें
 "सब" के स्थान "स्वयं" को प्रमुखता दिया गया। लोकतंत्र में एक नहीं सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है।  अपने यहाँ तो  एक राजनैतिक दल का यह जुमला भी बीते चुनाव में खूब सुर्खियों में रहा कि सबका साथ , सबका विकास।  लेकिन यदि हम अपनी बातों पर खरे नहीं उतरेंगे , किन्हीं कारणों से अपने विकास को महत्व देंगे , तो सबका साथ छुटने लगता है। गत माह कुछ राज्यों में सम्पन्न विधान सभा चुनाव परिणाम एक बार फिर से हमें यह संदेश दे गया। देश, समाज और परिवार का जो भी मुखिया है, वह अपने पद पर तभी तक है, जब तक सबको साथ रखता है, सबके लिये सोचता है।

   मैं ब्लॉग पर राजनीति को अधिक महत्व नहीं देना चाहता, इसके लिये अपना अखबार काफी है। अतः " सबका कौन " इस प्रश्न का उत्तर मैं महादेव और बुद्ध से होते हुये गांधी में तलाशता हूँ। जब भी मन भटकता है, तो मेरी कोशिश होती है कि इनके जीवन दर्शन से अपने अंधकारमय जीवनपथ के लिये प्रकाशपुंज की तलाश करूं।
         शिव ने जगत के कल्याण के विष ग्रहण किया, तो महादेव हो गये । सिद्धार्थ ने अपनी करुणा को दिशा दी , घर-परिवार के मोह का त्याग किया  ,जन कल्याण के लिये , तो बुद्ध हो गये। गांधी ने सत्यग्रह के माध्यम से सबको अहिंसा रूपी अमोघ अस्त्र दिया , तो वे महात्मा हो गये।
     कुछ बात अपने ढ़ाई दशक के पत्रकारिता जीवन की करूं, जब खुलकर राजनीति और अपराध पर खबरें लिखता था। तब भी संबंधित लोग इसलिये बुरा नहीं मानते थें , क्यों कि सभी जानते थें कि मैं सबके लिये निष्पक्ष भाव से लिखता   हूँ। इसके लिये किसी सुविधा शुल्क की चाहत मुझे नहीं है। अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े लोगों को वह सम्मान इस लिये नहीं मिलता है , क्यों कि वे सबके नहीं किसी खास के प्रति समर्पित होते जा रहे हैं।
    फिर भी मनुष्य की क्षुधा कुछ ऐसी भी होती है जिसे "सब" नहीं तृप्त कर सकते हैं। इसके लिये कोई अपना होना चाहिए।
 अन्यथा  वर्ष के प्रथम दिन पथिक का हृदय विचलित हो यूँ न पुकारा होता-

मेरा खींचती है आँचल मन मीत तेरी हर पुकार
मेरे साजन हैं उस पार, मैं मन मार, हूँ इस पार
ओ मेरे माझी, अबकी बार, ले चल पार, ले चल पार...

 यह तर्क भी उचित है कि जीवन के लिये कोई तो अवलंबन चाहिए । इसी समाधान के लिये संत का सृजन मानव समाज में हुआ है ,क्यों कि एक सच्चे संत को किसी भी प्रकार की भूख पीड़ा नहीं देती है। उसका तो अपना कुछ होता ही नहीं, क्यों कि वह अपने स्नेह को सबमें  समभाव से बांट देता है। वह सबका हो जाता है और समाज उसका। अन्यथा तो-
 
छल-छल बहती जीवन-धारा
मांझी नैया ढूंढे किनारा
किसी ना किसी की खोज में है ये जग सारा...

    

Wednesday 9 January 2019

गहरा सागर है यह जग सारा

गहरा सागर है यह जग सारा
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   पतंग उड़ाना तो आता नहीं था , बस किसी ने उड़ा कर डोर पकड़ा दी हाथ में तो उसी से खुश हो जाता था। परंतु उड़ते पतंग को सम्हाल नहीं पाता था , अतः डोर और पतंग जिसका था, उसे सौंप दिया करता था।
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न कोई उमंग है, न कोई तरंग है
 मेरी ज़िंदगी है क्या, इक कटी पतंग है
आकाश से गिरी मैं, इक बार कट के ऐसे
 दुनिया ने फिर न पूछा, लूटा है मुझको कैसे
न किसी का साथ है, न किसी का संग...

   नववर्ष के प्रथम दिन भावनाओं का उफन बार-बार पथिक से यह सवाल कर रहा था कि दोस्त , अब भी यहाँ क्या कुछ शेष है..? किसी का इंतजार है ..?? किस लिये दिन भर यूँ बेचैन से हो...???
           विचित्र सा प्रश्न था उसका भी , जो नादान बच्चे की तरह मचल रहा था । विवेक उसे समझा रहा था कि तुम्हारा तो एकाकी जीवन है , न तुम्हें इसके प्रति लोभ है और न ही मृत्यु का कोई भय ,न तो तुम किसी की जिम्मेदारी हो न ही किसी को तुम्हारा अवलम्बन चाहिए , ना ही किसी को तुमसे प्रेम है, न ही तुम्हारे स्नेह का कोई मोल है । समझो न जरा कि ऐसी खुशी के अवसर पर भला अपने घर - परिवार की व्यस्तता छोड़ तुम्हें वक्त कैसे कोई दे, सभी की अपनी विवशता है । अपने इस मासूम हृदय को समझाते हुए बढ़ते चलों बंधु , पीछे मुड़ने से कोई नहीं मिलेगा, फिर भी वह नहीं माना और इस झूठी उम्मीद में -

बुला रहा क्या कोई चिलमनों के उस तरफ़
 मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है उदास बेक़रार है ..

    शाम ढलते- ढलते दर्द से लहूलुहान हो गया। लगा फिरसे दिवास्वप्न और अतीत में भटकने उस काइट मेकर बूढ़े महमूद की तरह । इंटरमीडिएट में था ,तो अंग्रेजी की पुस्तक में एक अध्याय उसका भी था। मानों मानव जीवन की पूरी कहानी ही हो। उसकी खूबसूरत पतंग जो एक जमाने में नबाबों को लुभाता था, वह बदले वक्त में भद्रजनों के पांवों तले कुचल दिया गया था। उसकी दुकान बंद हो गयी थी । बस अब वह अपने नन्हे से पौत्र अली के लिये पतंग बनाता था। एक दिन उन्हीं स्मृतियों में खोया बरगद के तने से सिर टिकाया महबूब , फिर नहीं जगा, उसके दिवास्वप्न टूट जो गये थें।
      ब्लॉग पर इस वर्ष का पहला पोस्ट डालने से पहले रेणु दी को मेल पर बताया था और फिर मोबाइल फोन भी अपने पास से हटा दिया था। उस काइट मेकर सा ही कुछ - कुछ तकियों का  सहारा ले दीवार पर सिर टिका स्मृतियों में खोता ही चला जा रहा था। ऐसा लगा कि चेतना शून्य सा होता जा रहा हूँ। हर दृश्य अतीत के आईने में धुंधली दिखाई पड़ रही थी। तभी लगा कि कोलकाता में पांचवें मंजिल से ऊपर छत पर हूँ। पतंग उड़ाना तो आता नहीं था , बस किसी ने उड़ा कर डोर पकड़ा दी हाथ में तो उसी से खुश हो जाता था। परंतु उड़ते पतंग को सम्हाल नहीं पाता था , अतः डोर और पतंग जिसका था,उसे सौंप दिया करता था। ताकि वह आसमान से नीचे तो न गिरे। आज भी मेरे हाथ में न कोई डोर है न ही पतंग है। दूसरों  की उड़ती पतंग की डोर पकड़ बचपन वाली क्षणिक खुशी प्राप्त करने की वही मासूम सी कोशिश ने मुझे ही कटी पतंग बना दी है।
   इस वेदना से निकल सकता था , यदि आश्रम का वह जीवन मिल जाता । तब यह हृदय खाली डिब्बा था। माँ को खोने का दर्द भर था उसमें, जमाने भर की बातों से कोई वास्ता नहीं था। सो, ज्ञान की बातें ग्रहण करने में वह समर्थ था।  सच तो यह है कि मनुष्यों का आपस में स्नेह ( प्रेम ) घटता-बढ़ता रहता है । इसमें  स्थायित्व कहाँ होता है, यदि गृहस्थ धर्म से बंधे हैं, तो वहाँ आपसी समझौते को भी प्रेम जैसा ही मान लिया जाता है। उसमें वह सुगंध हो या न हो ..?
     आश्रम में एक बात समझ पाया कि साधक का अपने अराध्या के प्रति समर्पण बढ़ता ही जाता है। यदि उस स्नेह की डोर वह दूसरे को सौंप भी दे, तो भी वह कटी पतंग नहीं कहलाता है। ऐसा लगा कि वह स्नेह का डोर अनंत होता जाता है,उसका दूसरा छोर उसके इष्ट के हाथ में जो होता है।
  यह तो हमारी पुकार के ऊपर है , संकट काल में द्रोपदी ने कृष्ण को पुकारा और अद्भुत स्नेह वर्षा हुई। उसकी साड़ी  का दूसरा छोर उसने शिशुपाल वध के दौरान अपने सखा कृष्ण को समर्पित कर दिया था।वह उसके आराध्य के हाथ में  था , फिर कैसे होता चिरहरण ..?

  नववर्ष पर मेरे हृदय की वेदना वह पुकार नहीं बन सकी ,अतः लज्जित होना पड़ा मेरे स्नेह को इस बार भी।
    वैसे मैं अब किसी अज्ञात सत्ता में विश्वास नहीं करता। स्वयं को इस जगत रूपी भवसागर का एक बुलबुला मात्र समझता हूँ। अपने इसी मानव तन में देवासुर संग्राम की अनुभूति करता हूँ, इसी में धर्म- कर्म , स्वर्ग- नरक और दुख- सुख है, ऐसा मानता हूँ। इसीलिये नियति के छल पर मेरा मन सदैव आहत होता है।
           वहीं , जो लोग किसी एक आराध्य ( परमात्मा) के हो लिये हैं। उनके स्नेह की डोर टूटती नहीं, छुटती नहीं और कटती भी नहीं। उसकी पतंग ( मनोबल) सदैव ऊंचाई पर रहती है, क्यों कि कष्ट चाहे जैसा भी हो, उसे तो बस इतना ही कहना होता है-

बंदे दर पे उसीके अपने सर को झुका ले
फिर वो जाने अल्लाह जाने
उसके खेल निराले,वो ही जाने अल्लाह जाने..

     ऐसा आश्रम में देखा और उसकी मुझे अनुभूति है ।  मुखमंडल पर जो तेज कुछ ही महीनों में उस पवित्र वातावरण में आ गया था, फिर से वह चमक कभी वापस नहीं आयी पथिक की राह में । क्या मिलता था वहाँ, यही दो वक्त का भोजन ही न , पर मेरे स्वास्थ्य से शुभचिंतकों को लगता था कि आश्रम में तरमाल गटक रहा हूँ । रात्रि में भोजन भी वहाँ नहीं था, किसी को इसकी  चिन्ता नहीं रहती, हम सभी रात्रि में चिन्तन(साधना) करते थें । जिसके प्रति हमारा समर्पण था , उसके स्नेह की अनुभूति के लिये यह सब करते थें। लेकिन , अध्यात्म का एक ऐसा पेंच फंसा कि मुझे लगा कि स्वतंत्र चिन्तन के लिये आश्रम में कोई स्थान नहीं है। यदि वहाँ यह बताया जाए कि सूर्य पृथ्वी का चक्कर लगाता है,तो उसे स्वीकार करना ही पड़ेगा। दूसरी बात यह कि किसी साधक को यह अनुभूति नहीं थी कि आम आदमी अपने परिवार के लिये दो जून की रोटी के लिये किस तरह से संघर्ष करता है।  वहाँ रोटी , कपड़ा और मकान का लोभ कहाँ था। जो मिला उसी से काम चला लो, यह सबक था हम सबके लिये। किसी प्रकार के दुख की अनुभूति फिर कैसे होती । हम तो उस सतनाम का जाप कर रहे थें । हमें उस दिव्य प्रकाश की अनुभूति करनी थी ।
   और अब आश्रम जीवन में परे  हम अपनी सम्वेदनाओं, भावनाओं , औरों की पीड़ा,अपनी महत्वाकांक्षा सहित किसी अपने का स्नेह पाने के लिये अपनी उर्जा का व्यय करते हैं। इसी भूलभुलैया में अटकते,भटकते और तड़पते हैं ।
   जब मन आहत होता , राह नजर नहीं आती हैं ,तो निराश हताश हो कहते हैं-

ओ इसका नाम है जीवन धारा ,इसका कोई नहीं किनारा
हम पानी के कतरे  , गहरा सागर है यह जग सारा
कभी जो आशा बनती है ,  वही निराशा बनती है
आशा और निराशा का ,  बस झूठा खेल ये सारा..

        जब कभी-कभी सोचता हूँ कि फिर से आश्रम में अपने जैसों के मध्य लौट जाना चाहिए। किसी विचारधारा के बंधन में स्वयं को बांध लेना चाहिए। लेकिन , पथिक का यह हठ है कि  जिस राह का चयन किये हो , उसी पथ पर चलते चलो । यहाँ भी समाज है, सेवा है , पहचान है और अपनापन भी है। पर शाम कोई अपना नहीं था। जिस तक मेरे विकल मन की यह पुकार पहुँच पाती-

ये शाम मस्तानी, मदहोश किये जाए
मुझे डोर कोई खींचे, तेरी ओर लिए जाए
दूर रहती है तू, मेरे पास आती नहीं
होठों पे तेरे, कभी प्यास आती नहीं
ऐसा लगे, जैसे के तू, हँस के ज़हर कोई पीये जाए..

शायद ऐसी कोई डोर मेरी नियति में थी ही नहीं।  आज भी याद है आश्रम की वह स्वभाविक मंद- मंद मुस्कान , कालिम्पोंग की वादियों से निकलने के खोती ही चली गयी। अब तो अपना दर्द छुपाने के लिये इसका अभियन भर करता हूँ।

Friday 4 January 2019

आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है

आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है
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आशियाना कभी किसी का नहीं होता है।  जिन्होंने महल बनवाये आज उसमें उनकी पहचान धुंधली पड़ चुकी है। फिर भी आशियाना है, तो जीवन है। ब्रह्माण्ड है , पृथ्वी है, तभी प्राणियों की उत्पत्ति है। हर प्राणी को ठिकाना चाहिए ।
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गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
करोगे याद तो, हर बात याद आयेगी
गुज़रते वक़्त की, हर मौज ठहर जायेगी ...

       इन पंक्तियों में छिपे दर्द ने मुझे अपने आशियाने की याद दिला दी है। इस तन्हाई में सोचता हूँ कि क्या उन्हें भी मेरा इंतजार होगा ? मैं तो अपने किसी भी आशियाने को भूला नहीं हूँ। कोलकाता में बड़ा बाजार , वाराणसी में कतुआपुरा , मुजफ्फरपुर से लेकर कालिम्पोंग तक , अपना वह आश्रम और यहाँ मीरजापुर में जहाँ-जहाँ रहा मैं। एक-एक करके मेरे ये घरौंदे बिखरते चले गये। मेरे तन मन पर एक और नया जख्म वे छोड़ते गये। जिन्हें भी अपना समझा, उन्होंने निराश्रित किया।
      मैंने कितनी खूबसूरती से इन्हें सजाया था, जो भी देखता , बिना तारीफ किये नहीं रह पाता था। वह सब अब भी स्मृति में हैं ,उनके लिये मैं अवश्य स्मृति शेष हूँ।हाँ,सिल्लीगुड़ी (प० बंगाल) में माँ-बाबा के जिस घर में मेरा प्रथम आगमन हुआ , उसे नहीं देखा हूँ । बस उसके किस्से सुना हूँ। वहाँ उस गुप्ता नर्सिंग होम को जहाँ मेरा जन्म हुआ था दार्जिलिंग से लौटते समय युवावस्था में अवश्य देखा हूँ ।
     वैसे तो घर छोड़ने के बाद विवशता में किसी दुकान की पटरी और रेलवे प्लेटफार्म भी मेरा आशियाना सा ही रहा । अब बड़े भैया चंद्रांशु गोयल जी के सुविधाओं से युक्त होटल में बीते एक वर्ष से हूँ।  कुछ शेष न रहा , तो सोचता हूँ कि एक दिन जब मैं अनंत में समा जाऊंगा तब यह ब्रह्माण्ड अपना ही होगा और  यहाँ जो ठिकाने हैं , वे सब नश्वर हैं । ऐसे में बचपन में फकीर बाबा की वाणी की चेतावनी मेरे उदास मन की चिंता को चिंतन में बदल देती है -

 माटी चुन चुन महल बनाया, लोग कहें घर मेरा ।
 ना घर तेरा, ना घर मेरा , चिड़िया रैन बसेरा ।।

    और अब भी दाऊजी घाट जाने वाले मार्ग पर स्थित इन महाशय ,जो सभ्रांत परिवार के हैं, का यह विश्राम स्थल , जो ऊपर चित्र में है , पथिक को पुनः दृढ़ता से इसी राह पर चलने का संदेश देता है कि कुछ भी यहाँ अपना कहाँ। संसार तो एक सेतु है,बस इस पर से हमें गुजरते जाना है। जो इस आशियाने में ठहरने के इच्छुक है , उन्हें यह भी ज्ञात होना चाहिए कि जीवन घड़ी भर का है। आश्रम में मुझे यही तो सिखाया जा रहा था-

उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मेला ...

      मन जब कभी अपने ख्वाबों के महल को लेकर अशांत होता है, अतीत में भटकता, तड़पता है , उस सूने पड़े दरवाजे को याद करता है, जिसके अंदर अपनों का बसेरा था। उस वेदना में डूबने लगता हूँ । कोलकाता में था तो बचपन में मैं कितना सुंदर दो मंजिला घरौंदा बनाता था। वह पीले रंग का सभी सुविधाओं से युक्त घर (माडल) मुझे पुकार रहा है। कबूतरों तक के लिये टोकरी और डिब्बों से उनके लिये छावनी बनाता था, माँ की डांट के बावजूद भी। याद आता है ढ़ाई दशक पूर्व के वे दिन जब इस पत्रकारिता पेशे से रोटी, कपड़ा और मकान की चाह थी । सुबह से रात तक अपने रंगमंच पर डटा रहा वर्ष 2017 तक , पर कुछ नहीं मिला ,सिर्फ थोड़े से सम्मान के अतिरिक्त। न घर न परिवार मिला, न मठ न संत मिला, न अनाथालय और न मुझ जैसा यतीम मिला। त्रिशंकु की तरह मध्य में अटका- भटका सा हूँ। इस विराने में जब  कभी  दिल का जख्म बढ़ जाता है, तो यह घाव नगमा बन जाता है-

एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में
आब-ओ-दाना ढूँढता है, आशियाना ढूँढता है
दिन खाली खाली बर्तन है, और रात है जैसे अंधा कुँवा
इन सूनी अन्धेरी आँखों में, आँसू की जगह आता हैं धुँआ
जीने की वजह तो कोई नहीं, मरने का बहाना ढूँढता है ...


      वैसे तो, जब भी मन शांत होता है , उसे समझाने का प्रयास यूँ करता हूँ कि सिद्धार्थ ने पत्थरों का राजभवन छोड़ा, तो बुद्ध बन गये, उन्हें सुगंध से भरा उपवन मिला.. ।  जब निर्वाण को  प्राप्त हुये बुद्ध तो किसी बंद मठ में नहीं, यह धरती और खुला आसमान उनका अंतिम विश्राम स्थल था। फिर से कोई एक और गौतम बुद्ध क्यों नहीं हुआ, इसलिए न कि बौद्धों ने मठों को अपना लिया। बंद कमरे में ज्ञान का प्रकाश कैसे हो अन्यथा राजमहल छोड़ सिद्धार्थ को वन में पीपल के पेड़ का आश्रय क्यों लेना पड़ता।
       काश ! यदि ऐसी सोच हम मनुष्यों की हो जाती, जमीन के इन टूकड़ों के लिये नरसंहार नहीं होता , संघर्ष नहीं होता। जिस धन से हर एक के लिये सुंदर आशियाना बन सकता था, उससे एटम बम तो न बनता। लेकिन, हम इंसान तो जानवरों की तरह एक दूसरे के घरौंदे को उजाड़ने , लूटने और उस पर अधिकार जमाने के प्रयत्न में आज भी हैं, जैसे आदिमानव युग में थें। भले ही विश्व युद्ध नहीं हो रहा हो, फिर भी भाई- पट्टीदार लड़-मर रहे हैं। मैं अपना घर इसीलिये छोड़ा था कि मुझे यह व्यंग्य चुभन दे गया था ,
  "इसके दादा का है, इसीलिये मुफ्त में रोटी चाहिए ।"
घर छोड़ने के बाद से भटकता ही रहा, अब यह होटल मेरा ठिकाना है, मेरी नियति है, मेरे जीवन की पाठशाला है।
      पक्षियों को घोंसला बनाते तो हम सभी ने देखा है। वे कितना कठोर श्रम कर इसे बनाते हैं, अंडे देते हैं और जब उसमें से बच्चे निकलते हैं, तो उसका पालन बड़े प्यार से करते हैं। परंतु आपने क्या कभी यह भी देखा है कि बच्चे जैसे ही उड़ने लगते है, उस घोंसले से उनका नाता टूट जाता है। उनके पालनहार ही उन्हें वहाँ से भगा देते हैं । वे अपने श्रम से अपना नया नीड़ बनाते हैं । इस प्रकृत का सिद्धांत भी गजब का है । जो अपने थें वे पराये हो जाते हैं, दूर हो जाते हैं। आशियाना कभी किसी का नहीं होता है।  जिन्होंने महल बनवाये आज उसमें उनकी पहचान धुंधली पड़ चुकी है।

    .सच तो यह है कि हम प्राणियों का आशियाना अपना ही यह "शरीर" है । वह स्वस्थ है , तो यह जग अपना है। नववर्ष के पहली ही शाम कमरे पर तबीयत बिगड़ गयी, उठ कर एक गिलास पानी लेना भारी था।
कमरे में मौन पड़ा रहा। कोई आश्रय नहीं था
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मूर्छित सा होता जा रहा था ।  ऐसा लगा तब
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कि मेरी पुकार में शायद वह दर्द नहीं था,जो
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जिस तरह से नववर्ष का मेरा पहला पोस्ट
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कहीं अपना स्थान न बना सका ।
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   इस उत्सव के दिन किसी को पुकारना भी उचित नहीं था । ऐसे "उत्सव और उत्साह" का निवास स्थल हमारा हृदय है। वह छला गया,तो फिर उपवन में भी हम क्यों न हो, जब तक किसी अपने का " स्नेह" अथवा " वैराग्य " भाव दो में से एक  नहीं मिलता , हर वैभव पीड़ा देगा। विवेक जिसका निवास   मस्तिष्क में है, शरीर में रक्तसंचार यदि कम हो जाए , तो  ज्ञानी का भी  मति भ्रम हो जाता है । जिह्वा पर वाणी का निवास है। शब्द से ही समाज में हम सभी की पहचान है। आश्रम में रह कर देखा कि साधक का "मौन" बिना वाणी के मुखरित हो जाती है। इसी शरीर में उस "क्षुधा" का भी निवास है , जो सदैव धधकती रहती है । जिसकी भूख कभी नहीं मिटती है। इस सृष्टि में जितने भी प्राणी  हैं, सभी में यह सम भाव से व्याप्त है।  शरीर रूपी हमारे आशियाने के स्वास्थ्य की यह कुंजी है। क्षुधा की पूर्ति के लिये ही मनुष्य सहित पशु - पक्षी सभी प्राणी जीवनपर्यंत कर्म करते हैं। कर्म से ही परिवार और समाज के लिये आशियाने का निर्माण होता है।
          आशियाना है, तो जीवन है। ब्रह्माण्ड है , पृथ्वी है, तभी प्राणियों की उत्पत्ति है। हर प्राणी को ठिकाना चाहिए । फिर कैसा होना चाहिए,  किसी इंसान का बसेरा। कुछ ऐसा ही , जो कभी मेरा युवा मन गुनगुनाता था, कालिम्पोंग की वादियों में ,जब हर शाम  मैं अपने कमरे के बारजे पर खड़ा बादलों को अपने करीब आते देखता था । तब भी अकेला ही था  लेकिन भावी जीवन के लिये इन आँखों में कोई स्वप्न था -

   प्रेम की गली में एक छोटा सा घर बनाएंगे
कलियाँ ना मिले ना सही काँटों से सजाएंगे
 बगियाँ से सुंदर वो बन होगा
झिलमिल सितारों का आँगन होगा
 रिमझिम बरसता सावन होगा
ऐसा सुंदर सपना अपना जीवन होगा ..

  बिल्कुल ऐसा ही होना चाहिए स्त्री- पुरुष का यह आशियाना। गृहस्थ जीवन से इतर भी है, यह प्यार का घरौंदा। हममें से अनेकों ने इसे देखा है और महसूस किया है , जब मन मयूर थिरक उठता है-

जिस गली में तेरा घर ना हो बालमा
उस गली से हमें तो गुज़ारना नहीं
जो डगर तेरे द्वारे पे जाती ना हो
उस डगर पे हमें पाँव रखना नहीं..।

  चलते- चलते यह कहना चाहूँगा कि माँ की गोंद से सुखद आशियाना मेरी दृष्टि में और कोई नहीं है। हाँ , वे खुशनसीब  हैं, जिन्हें अपने हमसफर के आंचल का छांव मिला।
    

Tuesday 1 January 2019

जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे

जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे
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   भावना और विवेक में एक द्वंद वर्षों से मेरे हृदय में रहा है। भावना विजयी होती है, क्षणिक इठलाती है और फिर आहत हो छटपटाती है , तो विवेक मुस्काता है। वह पथिक को उलाहना देता है कि क्षणिक सुख का स्मरण कर अपने लिये देखों किस दुख का सृजन तुमने किया है।
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जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे
 हो कितनी भी लम्बी रात, दिया बन जलते जाना रे
कभी पेड़ का साया पेड़ के काम न आया
सेवा में सभी की उसने जनम बिताया
कोई कितने भी फल तोड़े, उसे तो है फलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे...

       नववर्ष का स्वागत मैं इस संदेश को आत्मसात कर करना चाहता हूँ। जाने - अनजाने किन्हीं परिस्थिति में , विवशता या भावुकता में जिस राह का चयन मैंने किया , पथिक बन मुझे चलते ही जाना है , रंगमंच पर अपनी भूमिका पर खरा उतरने का प्रयास करते हुये , अनंत में विलीन होने तक । इस एकाकी राह में जिन्होंने ने भी स्नेह दिया, उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुये आगे बढ़ते ही जाना है। इस सबक को सदैव याद रखते हुये कि किसी मुसाफिर का यहाँ कुछ भी अपना नहीं होता। बटोही का कोई घर नहीं होता, वर्ष 2018 ने मुझे आशियाने से वंचित कर दिया और बीता वर्ष होटल में गुजारा। इस राह का चयन भी मैंने ही किया और जाता भी कहाँ.. ?
   रात की तन्हाई विकल मन लिये व्याकुल पथिक बने गुजरा। दूध ब्रेड और दलिया पर ही गुजर गये बीते वर्ष के अधिकांश दिन। यह कोई साधारण दर्द नहीं था । लम्बे एकाकी जीवन की प्रथम अनुभूति  रही मेरी, हृदय की इसी पीड़ा ने मुझे शब्द दिया, विचार दिया,लेखन कार्य के लिये प्रेरित किया।
     किशोरावस्था से ही भटकता रहा हूँ  मैं , किसी अपने की तलाश लिये, जिसमें माँ जैसा निश्छल  प्रेम मैं पाता । जिन्होंने थोड़ा भी स्नेह दिया , चाहे जिस भी संबंध से मैंने अपना सम्पूर्ण प्रेम उन्हें दिया ,  फिर भी किसी के घर में ,  मन मंदिर में मेरे लिये कोई स्थान नहीं बना । बस इस दर्द को लिये आगे बढ़ते ही जा रहा हूँ-

जीवन के सफ़र में ऐसे भी मोड़ हैं आते
जहाँ चल देते हैं अपने भी तोड़ के नाते
कहीं धीरज छूट न जाये, तू देख सम्भलते जाना रे
 उसी राह पे राही चलते जाना रे..

    मेरा विवेक सदैव मुझे समझाता है कि किसी को अपना समझोगे तो ठोकर लगेगा ,वेदना मिलेगी और जब तुम उसे पुकारोगे , तो राह में फिर से स्वयं को अकेला पाओगे। परंतु इस वर्ष मैं उसे यह संदेश देना चाहता हूँ कि राह में जहाँ भी , जिसने भी , जैसे भी और जो भी स्नेह दिया उसे स्मृति में सजा लो , फिर बढ़ चलों और आगे -और आगे मंजिल की तलाश में। तुम्हें अपनी भावनाओं से कोई द्वंद नहीं करना है ।  जो खो  गया उसके पीछे नहीं दौड़ना है। उसके छल को नहीं , उसमें समाहित उस क्षणिक स्नेह को समेटना है।
जिन्होंने तुम्हें ठगा, उस ठगी के गम में भी नहीं फंसना है , यह  सोचना है कि यहाँ तुम्हारा अपना क्या था , अन्यथा फिर तू कैसा पथिक ..?
    तुझे भावुकता से ऊपर उठना है। इस दिवास्वप्न से भी कि काश !  कोई हम जैसों से भी स्नेह से यह पूछता कि कमरे पर कब पहुँचे , आज कैसे क्या भोजन बनाओगे, मन नहीं करता होगा न , थक भी गये होगे और तनिक मुहँ भी फुला यह कहता कि तुम न खाओगे तो मुझे भी कुछ अच्छा न लगेगा। माँ, पत्नी और प्रेयसी के अतिरिक्त  हम बंजारे कभी किसी के लिये प्राथमिकता नहीं होते हैं। फिर भी हमें चलते जाना है-

तेरे प्यार की माला कहीं जो टूट भी जाये
जनमों का साथी कभी जो छूट भी जाये
दे देकर झूठी आस तू खुद को छलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे


हाँ,  यदि कभी किसी ने अपनापन दिखला कर पूछ लिया तो वह दिन हम जैसों के लिये निश्चित ही " खास " हो जाता है। फिर भी इस अनजाने स्नेह पर हम  इतना न इतराए कि इसमें कमी आने पर एक और वेदना को गले लगा बैठें । अतः जिन्होंने ने हम जैसों को स्नेह दिया , उनके लिये दुआ करते जाना है ।
   अब जब यह मन रूपी मोमबत्ती जलते - जलते, आंसुओं में ढुलक- ढुलक  कर राख हो गयी है। तो जीवन के उस दर्द से बाहर आना चाहता हूँ।
   इसकी प्रेरणा मैं प्रतिदिन सुबह त्रिमुहानी के समीप गंगाघाट से ऊपर एक मंदिर के चबूतरे पर बैठे उस वृद्ध व्यक्ति से ले रहा हूँ , जिसकी मुस्कान नियति ने अवश्य छीन ली है, परंतु उसके नेत्रों को नम होने भी नहीं दिया है। हाँ ,ये आँखें  समय के थपेड़ों से आहत हो कुछ पथरा सी अवश्य गयी है , फिर भी उसमें किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं है , कोई चाहत नहीं है , कोई लोभ नहीं है, कोई लालसा नहीं है , कोई भावना नहीं है, पर वह मृत भी नहीं है, उसकी ये आँखें कुछ तो बोल रही हैं, शायद यही कि

तेरी अपनी कहानी ये दपर्ण बोल रहा है
भीगी आँख का पानी, हक़ीकत खोल रहा है
जिस रंग में ढाले वक़्त, मुसाफ़िर ढलते जाना रे
उसी राह पे राही चलते जाना रे...
 
 सुबह उठने के पश्चात यह अधेड़ व्यक्ति हाथ जोड़े उसी मंदिर के बाहर चबुतरे पर बैठे जहाँ वह रात्रि में विश्राम करता है , अपनी नजरों से दूर गंगा मैया की याद में खोये रहता है, जैसे मैं दिल पर लगे हर जख्म के बाद माँ को याद करता हूँ।  सुबह  के अंधकार में प्रतिदिन मैं इधर से भी गुजरता हूँ। एक ही मुद्रा में ये व्यक्ति गंगा घाट की ओर देखते ही रहता हैं । मानो कि गंगा मैया से कुछ पूछ रहा हो, पर क्या किसी से कोई शिकायत भी तो नहीं है उसे। हम दोनों एक दूसरे का सिर झुका कर सम्मान करते हैं, फिर में अपनी राह पकड़ लेता हूँ।
    भावना और विवेक में एक द्वंद वर्षों से मेरे हृदय में रहा है। भावना विजयी होती है, क्षणिक इठलाती है और फिर आहत हो छटपटाती है , तो विवेक मुस्काता है।
     वह पथिक को उलाहना देता है कि क्षणिक सुख का स्मरण कर अपने लिये देखों किस दुख का सृजन तुमने किया है।  यह भावना तो " जल "जैसी है , जिसमें  हम तैर तो सकते हैं , परंतु घर नहीं बना सकते हैं । इसके लिये विवेक जैसे " चट्टान "की आवश्यकता है। हर किसी ने भावना को मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता बतायी है।  परंतु क्या सचमुच भावना इतनी भी बुरी है। माना कि यह हृदय को आहत करती है, परंतु विवेक की प्राप्ति भी इसी से होती है। इस दुनिया के हर रंग को विवेक  से नहीं भावना से देखा जा सकता है।  आग के स्पर्श के बिना  हम कैसे विवेक से यह समझ पाएंगे कि इससे कितनी पीड़ा होती है।  फिर समाधान क्या है , सोचता हूँ  कि हम क्यों नहीं अपनी भावनाओं को विराट को समर्पित कर दें, वह किसी एक के लिये न हो ..? फिर छले जाने का भय कहाँ रहेगा।
    जो राह चुनी तूने, उसी राह पे राही चलते जाना रे..