मेहंदी के रंग..
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केश कटाने के बाद उसपर सफेदी कुछ अधिक ही झलक रही थी। सो, वर्षों बाद प्रफुल्ल ने स्वयं अपने हाथों से मेहंदी लगा ली .. ।
दर्पण में इन चमकीले बालों को देख एक फीकी मुस्कान संग वह स्वयं में खो गया था कि तभी किसी ने पुकारा ..।
वो हैंडसम ! ..आज तो बड़े स्मार्ट दिख रहे हो .. कहीं कोई ..?
अरे ! ये किसने टोका..सकुचा सा गया था प्रफुल्ल ..। मानों चोरी पकड़ी गयी हो। वह पलट कर देखता है , परंतु कोई तो न था वहाँ.. जो अपने थे , वे कब के उसे छोड़ चले ..।
उफ ! ये स्मृतियाँ भी न..।
फिर से उसका मन कसैला हो उठा था। वही भूली बिसरी यादें टीस बन उसके हृदय को कुतरने लगी थीं..।
ये हिना भी कैसे रंग बदलती है.. । बचपन में तीज- करवाचौथ पर्व पर वह अपनी माँ के दाहिने हाथ पर मेंहदी रचता था..तो उसे ढेरों आशीष मिलता था ..। उस समय कोई ब्यूटीपार्लर था नहीं । घर में और कोई महिला भी नहीं थी। अतः माँ के दाँए हाथ का सूनापन उसकी ही चित्रकारी से दूर होता था.. खुश होकर वो कहतीं कि तेरी दुल्हनिया तो सिर-आँखों पर तुझे बैठा कर रखेगी।
पर मम्मी आपको पापा क्यों नहीं मेंहदी लगा देते हैं ? उस दिन तो रामायण पढ़ते समय आप कह रही थीं कि वन में भगवान राम ने माता सीता का पुष्पों से श्रृंगार किया था..।
उसकी पेंचीदगी भरे ऐसे सवालों का भला क्या जवाब देतीं वे भी ? बस इतना कहती थीं --चल हट यहाँ से -- सब तेरे जैसे नहीं हैं ।
प्रफुल्ल की कोशिश यही होती थी कि वह अपनों को प्रसन्न रखे। स्नेह भरे संबंधों पर कृत्रिमता का रंग न चढ़ने पाए और वह बिल्कुल हिना के रंग की तरह सुर्ख हो..।
लेकिन, बचपन में हथेली पर रची मेहंदी के चटख रंग के मामले में बाजी उसके बहन-भाई के हाथ लगती थी । यह देख उसका मन डूबने लगता था .. क्यों कि घर की महिलाओं को उसने यह कहते सुना था कि जिसके हाथों पर मेंहदी खिलती नहीं, उसे प्रेम करने वाला जीवनसाथी नहीं मिलता..। उस जमाने में दाम्पत्य जीवन में प्रीति की यह मेहंदी भी एक परीक्षा जैसी ही थी..।
और समय के साथ उसकी आशंका सत्य में परिवर्तित होती गयी। जैसे-जैसे मेहंदी का रंग कृत्रित होता गया..उसके वे सभी अपने जो उसे औरों से अलग बताते थे .. उसे बुरे इंसान का खिताब दे चलते बने..।
काश ! उसे भी बाजारों में मिलने वाली मिलावटी, बनावटी और सजावटी मेहंदी की तरह दो-चार दिनों में ही रंग बदलना आ गया होता..
परंतु उसे तो उस उपवन की सुंगधित मेहंदी की चाह थी , जहाँ वह अपनी दादी संग जाया करता था.. वह हिना जो एक बार हाथों पर चढ़ जाती , तो उसकी लालिमा उतरती न हो .. ।
हाँ, इसके लिए सिल-बट्टे पर अपने स्नेह भरे हाथों से उसे रगड़ना पड़ता था..।
प्रफुल्ल ने भी अपने ऐसे संबंधों को इसी प्रेम भाव से संभालना चाहा था..।
लेकिन, वह भूल गया कि यह कृत्रित मेहंदी का युग है..।
" यूज एंड थ्रो ..! ओह ! तभी उसे भी ऐसा ही समझा गया ..। "
- भारी मन से कुछ ऐसा ही बुदबुदाते हुये प्रफुल्ल बिस्तर पर जा गिरता है ।
रात होते-होते उसका सिर भारी हो गया । पेट में ऐंठन होने लगी । बुखार से शरीर तपने लगा था । वह समझ गया कि वर्षों बाद मेहंदी का स्पर्श उस पर पुनः भारी पड़ा है..।
हाँ , पहले यह हिना उसके मन को छलती थी,..किन्तु इसबार उसके दुर्बल तन से भी उसने भरपूर वैर निकाल लिया ..।
उसकी( प्रफुल्ल) खुशियों से उसे इतनी घृणा क्यों है.. ? फिर क्यों वह ही मेहंदी को मान दे। बाजार में उसके लिए कृत्रिम रंगों की क्या कोई कमी है..?
तो क्या वह भी औरों की तरह हो जाए..भावुक व्यक्ति के अंतर्मन का यह द्वंद भी कैसा विचित्र है !!
- व्याकुल पथिक