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Sunday 30 September 2018

गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा , हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा

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आज रविवार का दिन मेरे आत्ममंथन का होता है। बंद कमरे में, इस तन्हाई में उजाला तलाश रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि यह मन भी कैसा है , जख्मी हो हो कर भी गैरों से स्नेह करते रहा है।
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मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पूछे
 के तेरा हाल क्या है
किस्मत तेरी रीत निराली, ओ छलिये को छलने वाली
 फूल खिला तो टूटी डाली
 जिसे उलफ़त समझ बैठा, मेरी नज़रों का धोखा था
 किसी की क्या खता है ...
 
     अभी कल ही मैंने अपने इस नादान मन से एक बार फिर से यह प्रश्न पूछा था कि जब तुम्हारी मंजिल उस वैराग्य की खोज है, जहाँ न किसी रिश्ते नाते की डोर है । अकेला आया था और अकेला जाना है,तो फिर किस प्रपंच में जा फंसा है। क्यों सामाजिक सारोकारों को उठा रहा है। अपने दर्द को यूँ खोल रहा है। जो राज वर्षों तक इस नाजुक मन को जख्मी करता रहा है, उन संस्मरणों को क्यों न दफन कर दे रहा है। दुनिया का तमाशा यूँ ही चलता रहेगा प्यारे ! तू क्यों बावला बना डोल रहा है रे मन !!
     अब कौन यहाँ है  तेरा , फिर क्यों है किसी का इंतजार। आने वाले को सलाम बोल ओर जाने वाले को खुदा हाफिज , क्यों कि हे मन..

गुज़रा हुआ ज़माना, आता नहीं दुबारा
हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा
खुशियाँ थीं चार पल की आँसू हैं उम्र भर के
तन्हाइयों में अक़्सर रोएंगे याद कर के
 दो वक़्त जो कि हमने इक साथ है गुज़ारा
हाफ़िज़ ...

     ढ़ाई दशकों तक राजनीति पर लिखा, अपराध जगत पर लिखा। कितनों को पसंद आया  तो कितनों ने बुरा भी माना । पर वह तुम्हारा पेशा था, रोजी रोटी का जरिया था। आज भी मित्रगण चाहते हैं कि तू ब्लॉग पर देश दुनिया के हालात पर लिख, पत्रकारिता के अपने अनुभवों से इस ब्लॉग की उपयोगिता को सार्थक कर।  आखिर में मैं अपने विषय से क्यों भटक गया यहाँ आकर । क्यों इस समाज में एक नन्हा सा दीपक बनने को रे मन तू यूँ मचल रहा है, जब कि यहाँ नहीं कहीं तेरा ठिकाना है।
   आज रविवार का दिन सदैव मेरे आत्ममंथन का होता है। सो, मुकेश के गाये इस गीत का रहस्य सुलझा रहा हूँ-

दुनिया बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई
काहेको दुनिया बनाई, तूने काहेको दुनिया बनाई
 काहे बनाए तूने माटी के पुतले,
धरती ये प्यारी प्यारी मुखड़े ये उजले
काहे बनाया तूने दुनिया का खेला
 जिसमें लगाया जवानी का मेला ...

   बंद कमरे में, इस तन्हाई में उजाला तलाश रहा हूँ। सोच रहा हूँ कि यह मन भी कैसा है , जख्मी हो हो कर भी गैरों से स्नेह करते रहा है। दो बातें  किसी ने क्या कर ली, उसे अपना मीत सा समझ लेता है। वर्षों गुजर गये मनमीत को लेकर क्यों कल्पनाओं में खोया- खोया सा रहा। भृतहरि सा वैराग्य क्यों तेरे मन में तब ना आया और अब तूँ , उन्हीं विषयों को उठा रहा है, एक टूटे हुये दर्पण को चूर-चूर कर रहा है। यह ठीक है कि तुझे किताबी धर्म नहींं सिर्फ कर्म में आस्था है। फिर मन की किताब के पन्ने क्यूँ बार बार पलट रहा है।  वैराग्य धारण कर क्यों नहीं उस निर्वाण को प्राप्त कर रहा है। जो कब से तेरे द्वार पर दस्तक दे रहा है।  तूने क्यों इसे भी छोड़ रखा है, खुद को सामाजिक भावनाओं से जोड़ रखा है। यादों की जंजीर पहने डोल रहा है,जरा सोच फिर कैसे मंजिल तेरे करीब आएगी। बचपन से ही तू एक चिन्तक रहा। दर्जा पांच में जब था, तभी मृत्यु भय से साक्षात्कार हुआ था। फिर दो वर्ष बाद ही अपनी प्यारी माँ की अर्थी लेकर निकला था। कोलकाता का वह महा श्मशान आज भी तुम्हें याद है।  सोच जरा कोलकाता में पड़ोस वाले कमरे का बारजा तुझे याद है न, माँ की मौत पर तब तक वहाँ खड़ा अनंत को निहारता रहा, जब तक तुझे जबरन बनारस ना भेजा गया। जहाँ से तेरी बर्बादी की कहानी शुरू क्या हुई , नगरी- नगरी भटकता ही रहा है। अब तो तू इस बंद कमरे का द्वार खोल वैराग्य की किरणों से अपनी कोमल मन की उन सारी भावनाओं को झुलसा दें। न कहीं तू आता है, ना जाता है, न ही कहीं तू कुछ खाता है। जब जैनियों सा तेरा भोजन है,परिग्रह का लोभ न है, फिर क्यों नहीं ब्लॉग पर अंतिम हस्ताक्षर कर उस महानिर्वाण का सुख पाता है। इस अनंत की ओर तो जरा देख जहाँ तेरे अपने हैं  , एक मनमीत को छोड़ दे , तो वहाँ तेरे सपने हैं। वहाँ न तुझे सिर दर्द की दवा चाहिए, ना ही नींद की गोली, इस अंधकार भरे  कमरे में न हँसी न ठिठोली है, पर वहाँ तो हर वक्त उजाला है। रे हंसा प्यारे ! यह दुनिया का मेला है। मेले में तू बिल्कुल अकेला है। हाँ , यह तमन्ना जरूर है, तेरी कि तू किसी के काम आ सके। पर व्हाट्सएप्प का स्टेटस बदले से क्या तेरा अकेलापन दूर हो जाएगा। फिर से सोच रे पागल मन कहीं तूने कुछ झूठ तो न लिख डाला । इस पवित्र पुस्तक को बदरंग करने से पहले चल चला चल मेरे यार । अब तेरा इस जहां पर कुछ भी कार्य तो शेष नहीं बचा । जब तक रहा सिर उठा के जिया है, पहचान और सम्मान भी पा लिया है । पटरियों पर गुजरी रात या महल में, पकवान मिले भोजन में या लोटा भर जल ही पिया है । हाथ तेरे कभी न फैले थें किसी के सामने, परंतु किसी अपने की चाहत में तू गिरता गया, झुकता गया, टूटता गया, लूटता गया। फिर इस नगमे से कब और कैसे तेरा  रिश्ता हो गया -

घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं
कभी इस पग में कभी उस पग में
बँधता ही रहा हूँ मैं
घुँघरू की तरह ...
कभी टूट गया कभी तोड़ा गया
सौ बार मुझे फिर जोड़ा गया
यूँ ही टूट-टूट के, फिर जुट-जुट के
 बजता ही रहा हूँ मैं...

      बस तेरी यही कहानी है, न वंश ना ही जिंदगानी है। पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नबाब, यह ख्वाहिश तेरे मन में भी लायी गयी थी बचपन में , पर तू तो " यतीम " बना दर दर भटक रहा है। रंगमंच पर अपने उस आदर्श पुरुष " जोकर " सा अभिनय कर रहा है।  आज शरीर साथ दे रहा है, तो दलिया बना ले रहा है, कल को रोटी जब न बना पाया तो क्या करेगा प्यारे । तूने अपना बैग हमेशा तैयार रखा है ,जैसे एक लम्बे सफर पर निकला है । तो फिर से ये मन क्यों भटक रहा है , जब न कोई साथी न बसेरा है। देख तो जरा वहाँ कितना उजाला है, जहाँ तुझे जाना है। आज तूने इस शाम के अंधेरे में , इस एकांत में  , जहाँ न कोई सखा न सहेली यह जो चिन्तन किया है मेरे दोस्त  , फिर पीछे पलट कर न देख। दर्द जो तेरे हृदय में समाया है , स्वयं को अनंत को समर्पित कर उसे बांट ले। जहाँ  न किसी के संदेश की प्रतीक्षा हो, न गुजरे दिनों की याद हो..
     रे मन ! तू उस कठोरता (वैराग्य) को प्राप्त कर । एक संत बनने की राह पर बढ़, फिर प्रस्थान कर इस जग से ।

 अपनों में रहे या ग़ैरों में
घुँघरू की जगह तो है पैरों में
कभी मन्दिर में कभी महफ़िल में
सजता ही रहा हूँ मैं
 घुँघरू की तरह ...
 
मुक्त हो जा अब इस दर्द से, इस तन- मन से ...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा, हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन