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Sunday 5 August 2018

सभी को देखो नहीं होता है नसीबा रौशन सितारों जैसा


" एक बंजारा गाए, जीवन के गीत सुनाए
हम सब जीने वालों को जीने की राह बताए
ज़माने वालो किताब-ए-ग़म में
खुशी का कोई फ़साना ढूँढो
हो ओ ओ ओ ... आँखों में आँसू भी आए
 वो आकर मुस्काए "

 1969 में बनी फिल्म " जीने की राह " का गीत है यह। इसी वर्ष इस धरती पर मैंने भी आंखें खोली थीं और अब जब कभी आंखें भर आती हैं, अपने अकेलेपन का एहसास होता है, तो मैं इसे जरूर सुनता हूं, अपना उपदेशक समझ कर।  ऐसा लगता है कि इस गाने से अपना जीवन और सांसों का रिश्ता है। यूं भी कह सकता हूं कि ऐसे गीत ही मेरे लिये मंदिर हैं, जिसका मैं पुजारी हूं। मेरे लिये एक सार्थक संदेश निहित है यहां । हालांकि , फिल्म की पटकथा मेरे मतलब की नहीं है,क्यों कि अब न दौलत चाहिए , न ही वह प्रेम जो कभी तन्हाई में सताया करता था । अपने बारे में मैं वर्षों पहले ही यह कह चुका हूं कि मेरे नसीब में ऐ दोस्त तेरा प्यार नहीं। पर हां , अपने जीवन के इस निर्णायक वर्ष में उस राह पर बढना चाहता हूं, कुछ सीखना चाहता हूं , कुछ लिखना चाहता हूं और कुछ बताना चाहता हूं, जो यह बंजारा कहता है।अपने व्याकुल मन को यही तो समझाना चाहता हूं कि सुनो बंधु रे !

" सभी को देखो नहीं होता है
नसीबा रौशन सितारों जैसा
सयाना वो है जो पतझड़ में भी
 सजा ले गुलशन बहारों जैसा "

 हम तो उनमें से हैं , जिन्हें  परीक्षा देनी है , कागज़ के फूलों को महका कर दिखलाने की । इसीलिये गीत की हर पक्ति आत्मसात कर लो। उसका अनुसरण करों । सच यही है कि हमारी विकलता दूसरों के किसी काम की नहीं होती। इसे हमारा रुदन समझ सांत्वना देने वालों, स्नेह करने वालों से कहीं अधिक उपहास करने वाले मिल जाएंगे। ब्लॉग पर मैंने अपने मन की जो पीड़ा लिखी या वह स्वतः ही प्रगट हो गयी,इससे मुझे यह सीखने को भी यहां मिला है। पर चाहे जो हो, सच यह भी है कि मन में दबा वर्षों का दर्द बाहर तो आ ही गया। फोड़ा तभी ठीक होता है, जब वह अपने चरम पर पहुंच कर फूटता है, बहता है, तब उस पर मरहम लगता है और यह घाव भरने लगता है। यदि जख्म गहरा है, तो फिर भी उसके काले निशान शेष रह जाते हैं। आखिर कब-तक उसे वस्त्र के आवरण में छिपाकर हम रखेंगे। सत्य प्रकट होकर ही रहेगा, क्यों कि सत्य वह सूर्य है जिसे बादल सदैव नहीं ढ़क कर रख सकता । जिसका कटु अनुभव मुझे भरपूर है। सो, परिस्थितियां यदि हमें असत्य बोलने पर विवश कर भी दें ,तो भी इससे हमारा भला नहीं होगा। जिस दिन पर्दा गिरेगा, ग्लानि महसूस होगी, झूठे बंधन टूटेंगे , रिश्ते कलंकित होंगे, मन अशांत होगा, राह भटक जाएगी और फिर पथिक क्यों नहीं व्याकुल होगा। अतः बनावटी संबंधों से हमें परहेज करना चाहिए। ब्लॉग पर लिखने के दौरार मैं अपनी स्मृति एवं चिन्तन शक्ति  का भरपूर सदुपयोग करने का प्रयास कर रहा हूं। बात जब सच की राह पर चलने की करता हूं, तो बचपन की एक घटना मेरे स्मृतिपटल पर अब भी मौजूद है। हुआ कुछ यूं कि मुझे एक पहचान वाली किराना दुकान से घी लाने को कहा गया था। दुकान मेरे घर से कुछ दूर था। सो,  बालमन ने कहा कि उतना दूर जाने की क्या जरूरत है, समीप में भी तो दुकानें हैं । तब मैं पड़ोस से घी लेकर आ गया। उसके स्वाद म़े अंतर रहा, या फिर कारण जो भी रहा । पिता जी ने मुझे तलब किया। पूछा गया कि कहां से लाये हो घी ? घर पर हम सभी जानते थें कि वे अनुशासन प्रिय हैं और यह भी की उनकी बात को काटना लक्ष्मण रेखा पार करने जैसा दुस्साहस है। लिहाजा, मैं थोड़ा सकपकाया लेकिन फिर हिम्मत के साथ कह दिया कि आपने जहां से कहा था , वहीं से तो लाया हूं। जब कोई सवाल मुझसे और नहीं पूछा गया, तो मैंने सोचा कि चलो जान बची, आगे से ध्यान रखूंगा। वैसे, तब ग्लानि भी हो रही थी, क्यों कि मिथ्या तो हम सभी नहीं ही बोलते थें उन दिनों भी।  सोचने लगा कि थोड़ा आगे बढ़ ही जाता तो क्या हो जाता। पैर टूट थोड़े ही जाता। खैर बात आई-गई । तभी एक दिन पापा की वही कड़कदार जानी पहचानी आवाज सुनाई पड़ी कि पप्पी इधर आओ। बस मैं समझ गया था कि अब क्लास लगनी है। उन्होंने दुकानदार से जानकारी प्राप्त कर ली थी कि मैं उस दिन उसकी दुकान पर नहीं गया था। झूठ पकड़े जाने पर मैं बुरी तरह से सहम गया था। हां ,पिटाई तो नहीं हुई उस दिन पर मेरे लिये एक अनूठी सजा तय हुई । जानते हैं क्या ? एक मोटे सफेद कागज पर मुझसे सुंदर और बड़े अक्षरों में लिखवाया गया था कि अब कभी मैं झूठ नहीं बोलूंगा। फिर पापा के समक्ष मम्मी ने रामचरित मानस लाकर रखा था। मम्मी प्रतिदिन देर शाम रामायण पढ़ा करती थीं।  उस कागज को उसी में रखवा दिया गया मुझसे और कहा गया था कि अब यदि असत्य बोले, तो समझ लो कि तुम्हें कितना पाप पड़ेगा । उस समय मैं पाप लगने के भय से कितना सहम गया था आपको बता नहीं सकता। एक चिन्ता बनी रहती थी कि आज कहीं झूठ तो नहीं बोला। कोलकाता जाने के बाद यह भय मेरा समाप्त हुआ। आज सोचता हूं कि बचपन वाला वही डर कायम रहता, तो परिस्थितियां चाहे जो भी होतीं, झूठ तो नहीं न बोलता कभी। सो, अभिभावकों का जो कार्य तब मुझे बहुत बुरा लग रहा था, उसमें छिपे संदेश को अब जाकर समझ पाया हूं। दरअसल, तमाम चतुराई के बावजूद भी झूठा सिक्का पहचान लिया जाता है। सच्चे सिक्के जैसी झंकार उसकी आवाज में भला कहां से होगी ।अतः कभी न कभी उसे भट्ठी पर चढ़ना ही है। लेकिन, कड़ुवी सच्चाई यह भी है कि जो सत्य की राह पर चलते हैं, उनके लिये कोई घर , कोई शरणस्थली नहीं है। जो मित्र हैं, वे इसलिये शत्रु बन जाते है कि उनके झूठ में हम सहभागी नहीं होते हैं। पत्रकारिता के दौरार अकसर ऐसा हम सभी के साथ होता है कि जो अपने हैं, उनके भी किसी अन्यायपूर्ण कार्य की खबर हमसे छप जाती है।  जाहिर है कि फिर क्या होगा। सारी दोस्ती, सारे संबंध समाप्त। वे सबसे बड़े शत्रु हो जाते हैं हमारे।  मैं इसे झेल रहा हूं, अतः बतला रहा हूं। यह सच जो है मित्रों हमारे लिये सूली है , वहीं झूठ इस जुगाड़ तंत्र का सिंहासन। हम अपमानित होते हैं और वे सम्मान पाते हैं।  हमारी सामाजिक व्यवस्था आज की ऐसी ही है। हां आत्मसंतोष का विषय यह है कि हम जिस राह से गुजरते हैं, वह हमारी शहादत की गवाही देती है। इसीलिये आज मुझे अपने अभिभावकों का वह कार्य बुरा नहीं लगता, सम्भवतः मैं ही राह भटक गया था। पर अब इस बंजारे को यही कहना है और करना भी ...

" सूरज न बन पाए तो, बन के दीपक जलता चल
फूल मिलें या अँगारे, सच की राहों पे चलता चल "