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Monday 26 March 2018

आत्म कथा

व्याकुल पथिक
26/3/18

      आत्म कथा लिखना कितना पीड़ा दायी होता है। इसका एहसास अब मुझे हो रहा है। बिखरे एक एक रिश्ते सामने सजीव हो उठ रहे हैं। बचपन से लेकर करीब आठ -दस वर्ष पूर्व तक मैं जिनके पीछे दौड़ा अथवा जो मुझे चाहते थें, वे सभी एक एक कर दूर होते चलें। फिर भी मै इसी रंगमंच पर उसी तरह से तना हुआ खड़ा और डटा रहा। जो दर्द दिल में था, उसका तनिक भी प्रभाव अपनी लेखनी पर नहीं पड़ने दिया।
        मैंने खूब डट कर पत्रकारिता की है। जो चाहा, जैसे चाहा, उसे लिखा। जो लिखा वह सत्य के करीब रहा। यही मेरी पहचान रही। इसी कारण अपनों से दूर जाने के बावजूद मुझे बहुतों का साथ मिला।  जो किसी अच्छे सरकारी नौकरी अथवा व्यापार में भी नहीं मिलता। यही मेरी बड़ी उपलब्धि है कि इस अनजान शहर में अब सब पहचान वाले हो गये हैं। जो चेहरे से नहीं जानता , वह नाम से जानता था । एक बार की बात बताऊं मैं विंध्याचल गया। मंदिर पर किसी युवा तीर्थ पुरोहित ने अपने स्वभाव के अनुरूप रोकटोक शुरु कर दिया। मै भी अपने स्वभाव के अनुसार यह कम ही बताता था कि पत्रकार हूं। सो, अगला क्या समझे। लेकिन, इतने में पीछे से किसी की आवाज आई कि ये तो गांडीव के पत्रकार शशि गुप्ता हैं। मुझे तब आश्चर्य हुआ कि जो पंडा अभी कुछ देर पहले तक मुझ पर बरस रहा था, वह स्नेह की बरसात करने लगा। अपने व्यवहार से कुछ झेप रहा था वह , कहता मिला कि आप ही शशि भैया है।नाम सुना था, आज मुलाकात भी हो गई। कारण यह रहा मित्रों कि उसे मेरा निष्पक्ष और बेखौफ समाचार लेखन पसंद था। परंतु अब मैं इस समाचार लेखन कार्य से भी मुक्त होना चाहता हूं।और यदि आप युवा भी इस धंधे ( यहीं कहूंगा) में आना चाहते हैं, तो मैं यही कहूंगा कि अपना युवा काल पत्रकार कहलाने के प्रयास में बेजा न करें। पत्रकारिता अब समाज का दर्पण नहीं रहा। यह खरीद फरोख्त की वस्तु हो कर रह गई है।
      इसीलिये इस पहचान से मैं आजाद होना चाहता हूं। मुक्ति पथ जिसे वैराग्य पूर्ण स्थिति मैं कहता हूं। वही मेरा गणतव्य है। जो अवसर  27 वर्षों  पूर्व  मुझे आसानी से मिल रहा था उस आश्रम में, उसे त्यागने की बड़ी कीमत मैंने चुकाई है। ऐसे में लम्बी सांसें लेकर आंखें बंद करने से भी मन को बड़ी शांति मिलती है मुझे। स्मृतियों में जो कुछ है, वह धुमिल पड़ने लगता है। किसी ने क्या कष्ट दिया अथवा स्नेह ही क्यों न दिया हो, मैं इनसे ऊपर उठना चाहता हूं। लेकिन,
ऐसा भी नहीं है कि मैं जिस रंगमंच पर तब और अब भी खड़ा हूं । वह मेरी विवशता है। मैं जब चाहता इसका परित्याग कर सकता था । पत्रकारिता में आकर धन अर्जित करना या फिर स्वयं को समाज का एक विशिष्ट व्यक्ति समझ कर दर्प से इतराना मेरे स्वभाव में नहीं है। अनेक ऐसे अवसर आये जब मैं प्लेटफार्म बदल सकता था। परंतु स्वभाव से मैं हठी हूं। किसी की अधिनता स्वीकार नहीं मुझे । सो, सीना ताने खड़ा रहा। पहचान मेरी  धीरे धीर अब बदलने लगी थी। मैं भले ही अखबार बांटता था, परंत मेरी छवि कभी और हॉकरों की तरह नहीं रहीं। बल्कि लोग तो मुझे देखते ही यह कहते थें कि शशि यदि मौजूद है, तो वह दबेगा नहीं, लिखेगा जरुर। उनका यह विश्वास मैं तब टूटने भी नहीं देता था। शाम होते होते गांडीव की टंकार सुनाई पड़ने लगती थी। यह भी भय नहीं था मुझे कि स्वयं ही खबर छाप कर उसे बांटने निकला हूं, तो कोई विवाद नहीं कर बैठै। ऐसा शायद इसलिये क्योंकि लोगों को मुझसे स्नेह था और अब भी है। वे कहते कि क्या खराब छपा है, सही तो लिखा है। बात समाप्त हो जाती थी। हां, लेखनी के माध्यम से मैंने किसी का भयादोहन कभी नहीं किया। अनजाने में कभी कोई समाचार कुछ गलत छपा भी हो, तो सत्यता ज्ञात होते ही , उसमें सुधार करना भी अपना कर्तव्य समझता रहा। (शशि)

क्रमशः