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Saturday 2 March 2019

है अभिशाप ये कैसा !

है अभिशाप ये कैसा !
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वो आश्रम की बातें,न सपने थें झूठे;
कहाँ भूल बैठा, रे पथिक तू बेचारा !

निर्मल सा मन था,वो सुंदर सा काया;
मिटा खाक में सब  , हुआ तू पराया।

भटकती जवानी थी, है कैसे गुजारी;
लूटे अरमानों को,न सजाया-संवारा।

 वो ज्ञान की बातें,थी अमृत सी धारा;
 कहाँ भूल बैठा ,  वो वैराग्य तुम्हारा।

थी वृक्षों की छाया, था कुएँ का पानी;
छूटा देशअपना,न मिला कोई ठिकाना।

वो पादुका की खटखट,मौनथी वाणी;
कहाँ भूल बैठा, वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा।

था गुरु ने पुकारा , मिला जब सहारा;
है यादें वो पुरानी ,जो संकल्प तुम्हारा।

वो कर्मपथ तुम्हारा,वो धर्मपथ तुम्हारा;
 कहाँ भूल बैठा , वो सत्यपथ तुम्हारा।

वो ग्रंथों की बातें ,थी संतों की वाणी;
कहाँ भूल बैठा , वह मौन की भाषा

वो कांति तुम्हारी , वो शांति तुम्हारी;
कहाँ भूल बैठा , रे पथिक तू बेचारा !

वो चौखट पुकारे,वो आश्रम की रोटी
कहाँ भूल बैठा , वो  गुरूमंत्र तुम्हारा

ठठरी सी  काया , है अकथ कहानी;
जला तू दीपक ,बुझा मन की वाणी।

बटोही तेरा दर्द  , किसी ने न  जाना;
अभिशप्त-सा जीवन,न कोई ठिकाना।

पथ में मिले जो , वो झूठे थें साथी ;       
जला मनकी होली,है मरघट पे जाना।

पाषाण बना क्यों, अहिल्या हो जैसे;
वैदेही सा फिर तू , न धरा में समाना।

तेरे स्नेह का मोल , किसने है जाना ?
क्यों भटक रहा ,रे पथिक तू दीवाना।

चढ़ा प्रत्यंचा तू , है वीरगति पाना ;
शापित था जीवन, कर्ण को है जाना।

अभिशाप ये कैसा,क्यों दंड तूने पाया;
नियति से ना पूछ, छोड़ उसकी छाया।

                 - व्याकुल पथिक