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Friday 31 May 2019

प्रदूषण करता अट्टहास

प्रदूषण करता अट्टहास
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प्रदूषण दशानन सा करता अट्टहास
दसों दिशाओं में हैं जिसका प्रताप
है कोई मर्यादापुरुषोत्तम ?
रण में दे उसे ललकार ।

रक्तबीज सा गगन  में करता प्रलाप
भूमंडल पर निरंतर  जिसका विस्तार
है   कोई   महाकाली ?
करे उसका रूधिरपान ।

दक्षराज सा बढ़ता जिसका अभिमान
सती होती  प्रकृति , असहनीय संताप
है   कोई   वीरभद्र ?
करे   उसका   संघार ।

जनसेवकों की वाणी में करता निवास
शकुनि सा जिसका कपट जाल
है  कोई  कृष्ण ?
दे   गीता का  ज्ञान ।

भ्रष्टतंत्र का कर नित्य नव श्रृंगार
प्रदूषण हिंसा को देता उपहार
है कोई गांधी ?
करे फिर अहिंसा पाठ ।

वसुंधरा का"मानव"करता कुटिल मंथन
वासुकी सा फुफकार प्रदूषण
है कोई नीलकंठ ?
हलाहल का करे पान ।

सागरपुत्रों सा दिग्विजय का लेके प्रण
 कपिल का तप ध्वनि प्रदूषण से किया भंग
भस्म हुईं महत्वाकांक्षाएँ अनंत
न मानव रहा, न उसका यंत्र ?

रे हतभाग्य ! किया सृष्टि का महाविनाश
मुक्ति की याचना लिये बन प्रदूषण की राख
नहीं  कोई  भगीरथ  ?
 न गंगावतरण की आस।
 
             -व्याकुल पथिक

Thursday 30 May 2019

हमें कौन देगा रोटी, कपड़ा और मकान... ! (पत्रकारिता दिवस)

पत्रकारिता दिवस पर हुई निष्पक्ष लेखनी की बात
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पर हमें कौन देगा रोटी, कपड़ा और मकान !
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प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के अंदर से भाव निष्पक्ष है, लेकिन , आदर्श के साथ अर्थ का गहरा संबंध है। हमारे सामने अपने परिवार का भी खर्च है। अतः कहीं न कहीं हमें समझौता करना पड़ता है।
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    प्रत्येक वर्ष 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर हम आत्मावलोकन करते हैं । इसके लिये हम जो मंच सजाते हैं और उस पर जो अथितिगण उपस्थित रहते हैं। वे इस दिन  समालोचक की भूमिका में होते हैं। वे हमारी पत्रकारिता के गुण- दोष को बतलाते हैं। राष्ट्रीय, प्रांतीय ,जनपदीय एवं ग्रामीण स्तर पर पत्रकारिता की दशा- दिशा पर चिंतन- मंथन होता है। इस संदर्भ में हम लोगों को याद दिलाया गया कि आजादी के पहले पत्रकारिता मिशन रही, इसके बाद उद्योग और अब यह लाइजनिंग (दलाली)  हो गयी है।
वहीं , एक बुजुर्ग पत्रकार जिन्होंने अपने समय के सबसे प्रमुख समाचार पत्र के कार्यालय में उप सम्पादक की कुर्सी संभाली थी। अपने संघर्ष एवं अनुभव के आधार पर उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के अंदर से भाव निष्पक्ष है, लेकिन , आदर्श के साथ अर्थ का गहरा संबंध है। हमारे सामने अपने परिवार का भी खर्च है। अतः कहीं न कहीं हमें समझौता करना पड़ता है।
      मैं वर्ष 1994 से ही हमलोगों की पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए, इसपर उपदेश सुनते आ रहा हूँ। कोई कहता है कि जनपद स्तर पर सरकारी विभागों में अनेक भ्रष्टाचार हैं। स्थानीय पत्रकार ऐसे मुद्दों पर कलम चलाने से बचने लगें हैं , तो किसी का कहना रहा कि हम विज्ञापनों के पीछे दौड़ने लगें हैं और सत्ताधारी राजनैतिक दल के हाथों की कठपुतली हो गये हैं। किसी ने यह भी कह दिया कि कम से कम सम्पादकीय पृष्ठ तो निष्पक्ष रखा जाए। जो मुख्य वक्ता होते हैं, वे आजादी के समय की पत्रकारिता और उस दौर में लेखनी के पराक्रम की चर्चा अवश्य करते हैं । लेकिन कभी किसी ने यह नहीं जानना चाहा हम जैसे श्रमिक पत्रकारों से कि हमारे परिवार का खर्च कैसे चलता है। आय का श्रोत क्या है , कितना है और बस इतना ही क्यों है , हम पत्रकारों की जीविका के संदर्भ में उनकी जुबां पर एक भी शब्द नहीं रहता  ?
    वे यह जानते ही नहीं कि श्रमिक पत्रकारों का सबसे बड़ा संघर्ष उनके कार्यक्षेत्र से इतर पारिवारिक जिम्मेदारी को लेकर है।  ये भद्रजन हमें जाने और पहचानने भी कैसे , क्यों कि वे तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध देख रहे हैं,  टीवी चैनलों पर अथवा वे कुछ पत्रकार जो इस जुगाड़ तंत्र में खिलाड़ी समझे जाते हैं और उनके पास सारी सुख सुविधा हैं, उन्हें ही असली पत्रकार समझते हैं। ऐसे जेंटलमैन इस तरह के पत्रकारों से मित्रता किये रहते हैं। शासन, प्रशासन और राजनेताओं से लेकर औद्योगिक घरानों में जुगाड़ू पत्रकारों की पूछ होती है , वहीं श्रमिक पत्रकारों को सुदामा समझ इन प्रभावशाली लोगों के द्वारपाल ही  इनका रास्ता काट देते हैं। वह सखा कृष्ण जो की द्वारकाधीश है , वह द्रुपद हो गया है। वह नहीं पहचानेगा सुदामा को। नहीं मिलेगा सुदामा को अपने कर्मपथ पर डटे रहने का पुरस्कार। होता क्या है अब कि पत्रकारिता के सिद्धांतों से समझौता नहीं करने वाले पत्रकारों को यह कॉकस किसी न किसी तरह अपने चक्रव्यूह में फंसा ही लेता है। समाचार लेखन में कोई कमजोरी पकड़ उसपर मुकदमे आदि दर्ज करवा देता है, फिर सम्पादक को नोटिस जाते ही , ईमानदार पत्रकार छटपटाने लगता है। आय का स्त्रोत उसका इतन नहीं है कि वह कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा से। सम्पादक से अलग डांट मिली कि ऐसा क्यों समाचार लिखा ।  तब ऐसे भद्र लोग उस पत्रकार का सहयोग करने सामने नहीं आते, वरन् यह कहते मिलते हैं कि बेचारे के साथ बहुत बुरा हुआ ।
  अतः मरा- कटा और आपराधिक घटनाओं की खबर , बड़े राजनेताओं की बयानबाजी, सामाजिक कार्यक्रम और कभी कभी जनसमस्या भी , अमूमन इन्हीं सब समाचारों से पेज भर दिया जाता है।
       कभी- कभी तो ऐसा भी हो रहा है, जिनके विरुद्ध क्षेत्रीय पत्रकारों ने बिल्कुल सही रिपोर्टिंग की है और अखबारों में प्रकाशित होनेके बाद खलबली भी मची है, ऐसे कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों को प्रेस के स्वामी  " कालापानी" की सजा सुना दे रहे हैं, क्यों कि जिसे पत्रकार ने  खलनायक बताया था , वह प्रेस के स्वामी की निगाहों में नायक बन बैठता है। है न यह भी आठवां आश्चर्य ? जुगाड़ तंत्र में सब चलता है। जिसके पास लक्ष्मी है ,वह मायाजाल का सृजन कर लेता है। फिर देते रहे श्रमिक पत्रकार अपनी ईमानदारी की सफाई।
  मुझे यह समझ में  नहीं आता कि ये भद्रजन जिस गोदी मीडिया  की बात हम पत्रकारों के बीच रख रहे हैं, उसमें हमारे जैसे लोग कितना सुधार कर सकते हैं , क्यों कि यह कार्य तो संस्थान के स्वामी ही कर सकते हैं। हमें तो संस्थान से जो दिशा निर्देश मिलता है , उसी का अनुसरण करना होता है। तमाम बड़े समाचार पत्रों में ऐसा ही होता है।
   मुझे तो यह भी समझ में नहीं आता कि पत्रकारिता दिवस पर हम इन प्रबुद्धजनों को आमंत्रित कर अपनी पत्रकारिता की समीक्षा ही क्यों करवाते हैं, जब हम उनकी सुझावों का अनुपालन ही नहीं कर सकते हैं। हम तो कठपुतली है साहेब अपने संस्थान के और अपने मन से कुछ नहीं कर सकते हैं। हाँ , एक काम हम बखूबी कर सकते हैं , वह यह कि पत्रकारिता के लाइसेंस के सहारे नौकरशाहों, राजनेताओं और औद्योगिक घरानों में अपनी पहचान बना सकते हैं। उनका फंसा हुआ कुछ काम " दलाल " बन कर प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं से करवा सकते हैं। ऐसा करने में हम पत्रकार जितना अधिक प्रवीण होंगे, हम इस समाज की नजरों में उतने ही बड़े पत्रकार होंगे। यह कड़ुवा सत्य है कि आज ऐसे ही जुगाड़ू पत्रकार सफल हैं।
   फिर भी कर्म की पूजा निश्चित होती है। इस वर्ष पत्रकारिता दिवस से जुड़े एक कार्यक्रम में मंच पर जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक संग वरिष्ठ कालीन निर्यातक बाबू सिद्धनाथ सिंह भी बैठे हुये थें। एसपी संग गुफ्तगू के दौरान उन्होंने मेरे बारे में उन्हें बताया कि एक ऐसा पत्रकार भी है , जो साइकिल  से ही चलता है और जुगाड़ तंत्र से दूर है। उन्होंने मेरा परिचय जब इन विशिष्टजनों से करवाया , तो मुझे एक सुखद अनुभूति निश्चित हुई कि ऐसे आत्मीयजनों के होते हुये मेरा त्याग निरर्थक तो नहीं गया। लेकिन, अब भी यही कहूँगा कि हमारे श्रम का उपहास न किया जाए और हमें इतना वेतन मिले कि हम श्रमिक पत्रकार भी  मान, सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीवन यापन कर सकें। अपने परिवार की  सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
  आप सभी देख ही रहे होंगे कि हम सुबह से रात तक कार्य करते हैं। परंतु जनपद स्तर पर हमें वेतन चार से आठ हजार के   मध्य ही मिलता है। वैसे हम जुगड़ से पैसा कमा सकते हैं,लेकिन तब ये ही भद्रजन आलोचना करते हैं। यदि हम छोटे संस्था से जुड़े हैं, तो वह हमें पर्याप्त वेतन देने में असमर्थ है।बड़े संस्थान भी यही करें, तो निश्चित कष्ट होता है।  हमारी योग्यता और हमारे परिश्रम का मूल्यांकन न भी किया जाए, तो कम से कम सिर उठा कर समाज में उठने बैठने का अवसर तो मिले। एक बात बताऊँ मैं, जब साइकिल से किसी बड़े कार्यक्रम अथवा आला अफसर के यहाँ जाता हूँ, तो कभी- कभी नकली (फर्जी)पत्रकार ठहरा दिया जाता हूँ, क्यों कि पहरेदारों को यह विश्वास नहीं होता कि साइकिल से भी पत्रकारिता आज के दौर में होती है। फिर मुझे अपना परिचय पत्र दिखलाना होता है कि मैं मान्यता प्राप्त पत्रकार हूँ।  तब वे कहते हैं , " सर , प्लीज ! बुरा न माने भ्रम हो गया था। "
   अब आप बताएँ कि बाइक खरीद भी लूँ , तो पेट्रोल का पैसा कहाँ से लाऊँ ?
   हाँ, जुगाड़ तंत्र की दासता स्वीकार कर लूँ,तो दो क्या चार पहिया गाड़ी के स्वामी हम भी होंगे।  खैर ,मुझ जैसे पत्रकारों से यह सम्भव नहीं हो सका।
   ऐसे में जहाँ पत्रकारिता दिवस पर मंच से हमें नसीहत दी जा रही है। वहीं मंच के नीचे हमारे जैसे श्रमिक पत्रकारों के जीवन में अंधकार है, आजीविका के लिये संघर्ष है और जुगड़ तंत्र का उपहास भी सहन करना है। भले ही पत्रकारिता बनिये की दुकान नहीं हो, यह सन्यासी का काम है, फिर भी आप सब हमारी परिस्थितियों पर विचार करें कि ऐसी चुनौतियों के समक्ष हम कब तक तनकर खड़े रहेंगे। मित्रों , हमारी नोकदार कलम भोथरी न हो, इसके लिये सरकार एवं समाज हम श्रमिक पत्रकारों  रोटी ,कपड़ा और मकान मुहैया करवाएँ ?
प्रणाम।
    -व्याकुल पथिक

बाहरी व्यक्ति से बिना आर्थिक सहयोग लिये प्रेस क्लब ने मनाया पत्रकारिता दिवस
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पत्रकारिता में पारिश्रमिक की शुरुआत मदन मोहन मालवीय ने की थी
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     आदर्श पत्रकारिता के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए मिर्ज़ापुर प्रेस क्लब रजिस्टर्ड द्वारा इस बार बिना किसी बाहरी व्यक्ति से आर्थिक सहयोग चंदा लिए बिना पत्रकारिता दिवस के आयोजन का जो निर्णय लिया गया था।  उस पर संस्था के सभी सदस्य खरे उतरे। मिर्ज़ापुर के पत्रकारिता जगत के लिए यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम रहा। वरिष्ठ और कनिष्ठ पत्रकारों की मौजूदगी में भव्यता के साथ  इसका आयोजन किया गया । जिसमें जिलाधिकारी अनुराग पटेल के अतिरिक्त ऐसे वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार मौजूद रहे, जिन्होंने पत्रकारिता और पत्रकार से जुड़े सभी विषयों पर प्रकाश डाला।  मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार बृजदेव पांडेय फिक्की की उस  टिप्पणी का उल्लेख किया, जिसमें उसने कहा है, "  मैं मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए पत्रकारिता करता हूं।"  उन्होंने बताया कि मदन मोहन मालवीय ने 1947 में अभ्युदय पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही पत्रकारों को पारिश्रमिक देने का चलन पारित किया था। मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार  रविंद्रनाथ जायसवाल ने वर्तमान समय में प्रिंट मीडिया की बढ़ती विश्वसनीयता को रेखांकित किया । विशिष्ट वक्ता भोलानाथ कुशवाहा जिन्होंने इलाहाबाद में एक प्रमुख समाचार पत्र के जिम्मेदार पदों पर रहकर कार्य किया है , उन्होंने पत्रकारों की हर तरह की परिस्थितियों पर व्यापक प्रकाश डाला और कहा कि अखबारों का अस्तित्व निष्पक्षता की बुनियाद पर टिका है। यह सच है कि बहुत कुछ अखबार के मालिक की मर्जी पर निर्भर है ,पर भाषा और संवेदना तो पत्रकार के हाथ में है। उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया दस्तावेज है । पत्रकारों का आर्थिक पक्ष मजबूत हो इसके लिए समाज तथा सरकार दोनों को मंथन करना चाहिए गोष्टी में जिलाधिकारी पटेल ने कहा कि नैतिक और विकसित समाज बनाने में पत्रकारों की अहम भूमिका होती है। कार्यपालिका ,न्यायपालिका, व्यवस्थापिका  तीनों ही पत्रकारिता के आईने में अपनी खामियों एवं अच्छाइयों को देख सकता है । उन्होंने कहा कि समाज उन्हें ही याद करता है जो विषम परिस्थितियों में सकारात्मक कार्य करते हैं । पत्रकार इसी श्रेणी में आते हैं। गोष्टी को सर्व श्री सलिल पांडेय, देवी प्रसाद चौधरी ,संजय सिंह गहरवार ने भी संबोधित किया। विषय परिवर्तन पत्रकार संतोष श्रीवास्तव ने किया।  संस्था द्वारा वरिष्ठ पत्रकार सर्व श्री भोला नाथ पांडेय, कृपा शंकर चतुर्वेदी, रविंद्र नाथ जायसवाल ,चंद्रभूषण तिवारी एवं भोलानाथ कुशवाहा को मतवाला सम्मान से सम्मानित किया गया। संस्था के अध्यक्ष प्रभात मिश्रा, सचिव अजय शंकर गुप्त ,शिवशंकर उपाध्याय, शशि गुप्ता ,सुजीत वर्मा ,प्रभाकर मिश्र ,विनोद सिंह ,प्रवीन सेठी ,दिनेश उपाध्याय और राहुल गुप्ता आदि क्लब के सदस्य मौजूद रहे। गणमान्य जनों में विवेक बरनवाल, डा0 रमाशंकर शुक्ला ,बद्री विशाल ,धीरेंद्र सिंह ,कमलेश दूबे ,सुरेश सिंह, संजय दूबे, राजाराम यादव, देव गुप्ता ,मोहित गुप्ता विश्वजीत दूबे,सुनील कुमार पांडेय, आयुष सिंह आदि भी उपस्थित रहे।


Tuesday 28 May 2019

न मिले मीत तो...

न मिले मीत तो...
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न कोई मीत मिले तो फ़क़ीरी कर ले
जलती शमा को बुझा के जुदाई सह ले

मिलती नहीं खुशियाँ तन्हाई जब होती
स्याह रातों में ग़मों से फिर दोस्ती कर ले

लोग ऐसे भी हैं उजाले में नहीं दिखते
आज़माएँ उनको भी ग़र अँधेरा कर ले

देके दर्द अपनों को जो वाह-वाह करते
वो अपनी ही निगाहों में कभी गिरते हैं

यतीमों की दुनिया में तू अकेला भी नहीं
राह में जो मिलते हैं वो हमदर्द तो नहीं

आँखें भर आई क्यों इक सहारा ढ़ूंढे ?
है इंसान तो मज़लूमों से दोस्ती कर लें

ख़ुदा के घर देर हो और अंधेर भी सही
ज़ख्म दिल का न भरे पर जिया करते हैं

कैसे समझाऊँ तड़पते नाज़ुक दिल को
उम्मीदों की चिता में यूँ न जला करते हैं

राह वीरान हो मुसाफ़िर तो चला करते हैं
दुनिया के  तमाशे में वो न रमा करते हैं

दर्द  को यूँ  ही सीने में दबाए रख ले
तेरी बिगड़ी है तक़दीर, वे नसीबा वाले ।

                       - व्याकुल पथिक

Sunday 26 May 2019

काकी माँ..




काकी माँ..
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   काकी माँ तो सचमुच बड़े घर की बेटी हैं।   संकटकाल में भी वक्त के समक्ष न तो वे नतमस्तक हुईं , न ही अपने मायके एवं ससुराल के मान- सम्मान पर आंच आने दिया । वे संघर्ष की वह प्रतिमूर्ति हैं ।
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     काकी माँ.. ! यह प्यार भरा सम्बोधन आज भी स्मृतियों में आकर मुझे आह्लादित कर जाता है। हाँ , इतने बड़े घर में एक काकी माँ ही तो थीं। जिनके समक्ष हुड़दंगी बच्चों की भी बोलती बंद हो जाया करती थी , फिर भी उनके चौखट पर हाजिरी देने परिवार के सारे बच्चे आया करते थें। आर्थिक परिस्थितियाँ चाहे जैसी रहीं हो, लेकिन काकी माँ न जाने कहाँ और किस तिजोरी से बिस्किट-टॉफी का जुगाड़ इन शैतानों के लिये किये रहती थीं। इनके जन्मदिन पर भी कुछ न कुछ वे देती ही थीं। कोई दर्जन भर बच्चे तो घर के ही थें।

   वैसे मैंने स्वयं किसी को कभी काकी माँ नहीं कहा है। परंतु बचपन में इस कर्णप्रिय शब्द को उस घर-आंगन में गूंजते हुये देखा है। जिसका अब अस्तित्व ही नहीं है। वहाँ न संयुक्त परिवार रहा,न बच्चे रहें और नहीं ही काकी माँ । अब तो वे नानी माँ बन गयी हैं।
    मैं यहाँ जिस भद्र महिला की बात कर रहा हूँ । विवाह के पूर्व वे बड़े घर की बेटी जैसी ही थीं । महानगर में रहती थीं  और अपने माँ- बाप की लाडली बिटिया थीं। जिस परिवार से तब वे संबंध रखती थीं, वे धनिक थें। बंगला, गाड़ी और नौकर भी सेवा में हाजिर रहते थें। वैसे तो, काकी माँ के पिता उतने संपन्न नहीं थें , क्यों कि जब वे छोटे थें तभी माँ की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति का बंदरबांट हो गया था । फिर भी रहन-सहन उनका धनिकों से कम नहीं था , यूँ  कहें कि वे दिल से अमीर थें । उनकी दो पुत्रियों में काकी माँ छोटी  हैं। हर कार्य में निपुण और व्यवहारिक ज्ञान ऐसा है कि  कई प्रांतों में फैले सगे सम्बंधियों से आत्मीयता आज भी कायम है।
     हाँ, जिनके बीच वे रहती थीं , उस सोसाइटी के अनुरूप जरा बन संवर के रहना पड़ता था। बनावट, दिखावट और मिलावट ,भद्रजनों की यह एक गंभीर बीमारी है । वे समाज में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित करना चाहते हैं। अतः उनके साथ उठते- बैठते काकी माँ ने भी अपने ऊपर यह आवरण डाल रखा था।  सम्भवतः यदि वे ऐसा न करती तो हीन भावना से ग्रसित हो सकती थीं , उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता और इन जेंटलमैनों की सोसायटी में कोई उन्हें स्वीकार नहीं करता ।
   इतने सम्पन्न परिवार के मध्य उनका अविवाहित जीवन ठीक-ठाक गुजर रहा था।  एक नटखट बालक कुछ वर्षों तक इस परिवार का अंग रहा। वह अपनी नानी माँ और मौसी माँ का राजदुलारा था । कोलकाता जैसे महानगर के पहचान वाले कान्वेंट स्कूल में उसे दाखिला दिलाया गया था। काकी माँ उसे अंग्रेजी की कविता रटवाया करती थीं।
   उन्हें पता था कि  हिन्दी भाषी तभी जेंटलमैन कहे जाते हैं, जब विलायती बोली उनकी जुबान पर हो। लेकिन , दो बंगालियों को आपस में अपनी भाषा छोड़  अंग्रेजी बोलते उन्होंने भी कम ही सुना होगा ।
  खैर वह शैतान बालक पढ़ने की जगह कमरे से लेकर बरामदे तक दौड़ लगाया करता था। माँ -बाबा( नाना-नानी ) तो उसे डांटते न थें कभी , ऐसे में काकी माँ की तिरछी नजरों से ही वह तनिक घबड़ाता था। वही क्या हर बच्चा काकी माँ की आँखों का इशारा समझता था। मायके और ससुराल दोनों ही जगह जब बच्चे शैतानी करते थें ,तो काकी माँ की सेवा ली जाती थी। ऐसे हठी बच्चों को रास्ते पर लाने के लिये  डांट- फटकार एवं  पिटाई की कभी आवश्यकता ही नहीं पड़ी काकी माँ को। वे तो बस आँखें तरेरती थीं और स्टेच्यू बनकर खड़े हो जाते थें, ये सारे हुड़दंगी बच्चे । मानो वे अनुशासन की पाठशाला थीं  । जिसने इसमें  प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया । वह अडानी- अंबानी परिवार के मध्य पहुँच कर भी अपनी परवरिश पर गर्व कर सकता है। फिर भी उस नटखट बालक को यह औपचारिकता पसंद नहीं थी। बचपन से ही उसे दुनिया की हर दौलत से कहीं अधिक प्रिय था ,अपनों से मिलने वाला प्यार - दुलार। इसी स्नेह और अपनत्व के लिये न जाने क्यों आज प्रौढ़ावस्था में भी वह उसी बालक सा  मासूमियत लिये मचलता है ?
    वह नादान ,जिन्हें अपना समझता है, उसी से जब कभी दुत्कार मिलता है। तो अस्वस्थ तन से कहीं अधिक उसका मन आहत हो उठता है। अपनी इस निर्लज्जता पर वह क्या कहे ! संत बनने की चाहत है और भिक्षुक बना स्नेह की याचना करता है। उसकी अंतरात्मा उसे झकझोरती है कि धिक्कार है उसके जीवन पर , संकल्प में जिसके बल न हो ।
    क्या यह विकल इंसान वही बालक है ,जो डिनर टेबल पर  प्लेट से चम्मच का टकराव न हो, काकी माँ  के इस फरमान को रद्दी टोकरी में डाल, कभी यह कहता था कि ऐसे भद्रजनों के मध्य उसका क्या काम ? उस बालक की निर्भिकता , स्पष्टवादिता एवं आत्म स्वाभिमान के समक्ष जब ऐसे जेंटलमैन मौन रहते थें, तो आज वह आत्मबल कहाँ चला गया उसका ?  सम्भवतः इसीलिये कहा गया है , " समय होत बलवान  "
   लेकिन, काकी माँ तो सचमुच बड़े घर की बेटी हैं।   संकटकाल में भी वक्त के समक्ष न तो वे नतमस्तक हुईं , न ही अपने मायके एवं ससुराल के मान- सम्मान पर आंच आने दिया । वे संघर्ष की वह प्रतिमूर्ति हैं , जो अपनी माँ , पिता , श्वसुर एवं पति की मृत्यु के पश्चात भी न टूटी और न झुकी ही।  तब ऐसे संकटकाल में भी अपने धनाढ्य सगे सम्बंधियों से  आर्थिक सहयोग उन्होंने नहीं मांगा था।
   विवाह के बाद जब तक उनकी माँ जीवित थीं , ससुराल आना-जाना लगा रहता था। पति उच्च शिक्षा प्राप्त थें, परंतु दुर्भाग्य से अथवा अपनों के छल से, उनका व्यवसाय ठीक से चला नहीं। फिर भी मायके की छत्रछाया  में उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय थी। लम्बी प्रतीक्षा के बाद एक नन्ही परी का आगमन उनकी माँ के रहते ही हो गया था। माँ ने तो पहले से ही नाती हो या नातिन  सारी व्यवस्था कर रखी थी। लेकिन, काकी माँ के धैर्य की कठोर परीक्षा तब शुरू हुई , जब माँ का लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। ऐसे में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी बमुश्किल ही हो पा रहा था । काकी माँ को तेल और नमक से चावल खाते कभी सगे- संबधियों ने नहीं देखा । कभी- कभी इस मुट्ठी भर चावल के लिये भी पैसे नहीं होते थें। उन्हें हल्दीराम का भुजिया और समोसा अत्यंत प्रिय है। कोलकाता में थीं, तो बाबा दिन भर तरह तरह के चाट और महंगे फल भेजा करते थें। शाम को वह बूढ़ा नौकर  भेलपुरी बनवा कर लाता था। मलाई गिलौरी, मलाई लड्डू, काजू एवं पिस्ता बर्फी से लेकर संदेश, राजभोग , खीरमोहन और वह शुद्ध देशी घी का सोनपापड़ी तो नीचे कारखाने से ही  आ जाया करता था। लेकिन यह ससुराल में अपने मुहल्ले के चौक पर स्थित प्रसिद्ध दुकान से वह बड़ा वाला समोसा जो, तब पचास पैसे में मिलता था , उस एक छोटे सिक्के की व्यवस्था भी कठिन थी।
     परंतु उनका व्यक्तित्व इतना विराट था कि दरवाजे पर लटके पर्दे के पीछे के अपने जीवन संघर्ष की भनक तक उन्होंने अपने संयुक्त परिवार को लगने नहीं दिया। उनके हाथ की बिना घी लगी रोटी , कभी कड़ी नहीं हुआ करती थी। छोटी सी लौकी से वे रसेदार सब्जी इतना स्वादिष्ट बनाती थीं कि पकवान का स्वाद तक फीका पड़ जाता था।  दीपावली - होली जैसे पर्व घर आने वाले मेहमानों को उनके हाथों से बने व्यंजन इस तरह पसंद थें कि सबसे पहले वे काकी माँ के दरवाजे पर ही उनके पति अथवा पुत्री का नाम लेकर आवाज लगाया करते थें। कांजीबड़ा, दहीबड़ा, मालपुआ सहित तरह - तरह के पकवान बनाने की व्यवस्था वे कैसे कर लेती थीं, यह रहस्य उनके दिवंगत पति भी नहीं जान सके थें।
  हाँ,उनके शरीर पर से गहने एक-एक कर कम होते चले गये, फिर भी अपनी इस उदासी को पर्दे के उस पार नहीं जाने दिया। वह बालक जो समझदार हो गया था, उसे जब कभी वे अपने खाली हुये शरीर के उन अंगों को दिखलाती थीं, जिनपर मायके से मिले स्वर्णाभूषण शोभा बढ़ता थें, तो काकी माँ की डबडबाई आँखों में जिस दर्द को उसने देखा है, उसे कोई बड़े घर की बेटी ही सहन कर सकती है। फिर भी औरों के यहाँ आयोजित मांगलिक कार्यक्रमों में वे खाली हाथ कभी नहीं गयीं। बाद में एक दौर वह भी आया ,जब काकी माँ  को सुबह से शाम तक चौका - बर्तन करते देखा गया। मायके में जिन हाथों से वे झाड़ू पोछा तक नहीं करती थीं। उन्हीं नाजुक कलाइयों से वे घंटे भर चटनी और मसाला  पीसा करती थीं , क्यों कि उनके पति का व्यापार जब चौपट हो गया, तो पिता ने उन्हें नालायक समझ अपनी दुकान में मालिक नहीं, वरन् अघोषित सेवक के रुप में जगह दे रखी थी। सो, श्वसुर और उनकी मित्र मंडली के भोजन की सारी व्यवस्था काकी माँ ही किया करती थीं। श्रम उनका था और धन ससुर जी का।
   देखें न नियति को यह भी कहाँ मंजूर था। ससुर जी ने जैसे ही आँखें बंद की , उनके पति को अपने ही सगे सम्बंधियों ने पिता की दुकान से बेदखल कर दिया। यह घृणित कार्य करते हुये , तनिक भी नहीं पसीजे थें, उनके भाई- भतीजे। बिल्कुल सड़क पर आ गया यह दम्पति। जीवकोपार्जन के लिये किसी तरह से एक छोटे से विद्यालय में नौकरी मिली थी उनके पति को। घर पर काकी माँ भी छोटे बच्चों  को पढ़ा लिया करती थी। एक चिन्ता और थी उन्हें , पुत्री के लिये योग्य वर की खोज पूरी नहीं हो पा रही थी। उन्होंने तो बड़े घर की नातिन और अपने इकलौती संतान के लिये कितने ही स्वप्न संजोये थें। काकी माँ योग्य जमाता के लिये अनगिनत बार ईश्वर से प्रार्थना करती थीं,पर उन्हें क्या पता कि अग्नि परीक्षा तो अभी बाकी है और एक दिन ठंड के मौसम में विद्यालय जाते समय उनके पति की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। जो पिता सुबह से रात तक स्कूल-कोचिंग पढ़ा अपनी पुत्री के हाथ पीले करने का स्वपन साठ वर्ष की अवस्था में देख रहा था। वह सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। बाहदुर पुत्री ने ही तब पिता का अंतिम संस्कार किया था, क्यों कि सम्पन्न होकर भी सगे सम्बंधियों ने कभी भी उनकी आर्थिक स्थिति समझने का प्रयत्न नहीं किया । अतः बेटी ने पुत्र बन पिता को मुखाग्नि दी थी। वह बालक जिसे काकी माँ ने बचपन में बड़ा दुलार दिया था। वह भी उनके संकट में काम नहीं आया। वह तो किसी दूसरे प्रांत में दो वक्त की रोटी के लिये गुलामी कर रहा था।
   अब बचीं माँ - बेटी । काकी माँ अपने जर्जर मकान में  छोटे बच्चों को पढ़ाया करती थीं और उनकी पुत्री ने भी एक निजी विद्यालय में नौकरी कर ली। तब उनके मन में एक ही प्रश्न था कि किस अपराध का दण्ड मिला है। अपने मांग का सिंदूर तो उजड़ गया , परंतु पुत्री के हाथ पीले कैसे हो। अनेक प्रांतों में अति सम्पन्न रिश्तेदार जिसके हो , जिसने कितनी ही शादियों में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करवाई है। उसके आंगन में शहनाई बजवाने वाला कोई नहीं  !
    डगमगाने लगा था उनका स्वाभिमान। तभी एक चमत्कार सा हुआ और एक उच्चकुल के सुशील लड़के ने उनकी पुत्री का हाथ थाम लिया। इस तरह से काकी माँ के संघर्षपूर्ण जीवन का धुंध छंट गया। अब वे अपनी पुत्री, जमाता और सुंदर से नाती के साथ रहती हैं। इस अवस्था में भी दुर्बल तन को किसी तरह संभाल वे घर का काम काज किया करती हैं।       अब वह प्यारा चंचल बालक जब नानी- नानी पुकारते हुये खिलखिलाता है , तो अतीत के आईने में काकी माँ को उसी का मुखड़ा नजर आता है। उस बच्चे के परवरिश में वे अपनी सारी वेदनाओं को न जाने कब का भूल चुकी हैं। काकी माँ अब बेहद खुश हैं, परंतु वृद्धावस्था ने अपना प्रभाव दिखलाना शुरू कर दिया है। फिर भी वे कोलकाता वाले उस शैतान बालक को भुला नहीं पायी हैं।

                          - व्याकुल पथिक


  यहाँ काकी माँ कोई काल्पनिक पात्र नहीं हैं। वे आज भी जीवित हैं और प्रकाश स्तंभ के रूप में अपने परिजनों के कर्म पथ का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं-प्रणाम

Friday 24 May 2019

ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..


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ए ग़लीचा ! वहम ये रहने दो..
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(संदर्भः ग़लीचे को उद्बोधन)

कर के बदरंग तुम अपनों को
ग़ैरों को क्यों रंग दिया करते हो ?

जन्मे कामगारों की बस्ती में
अब महलों में इठलाया करते हो !

उलझी थी दुनिया कच्चे धागे में
बन  काती  अश़्क बहाया करते थें ।

जिन हाथों ने संवारा था तुझको
 उनसे क्यों फ़ासले बढ़ाया करते हो ?

मैंने देखा उन उजड़ी झोपड़ियों में
चूमते थें माथ तेरा वे क़िस्मत कह के

  इन अमीरों के ऐशगाहों में
पांव तले कैसे मुस्कुराया करते हो ?

रंग बदलना इंसानों की फ़ितरत है
  तुम क्यों पहचान बदलते हो ?

ग़ैरों पे रहम अपनों पे सितम
 यह जुल्म किया क्यों करते हो ?

उनमें और तुझमें हो कुछ तो फ़र्क
  ए ग़लीचे !  वहम ये रहने दो ?

ज़िंदगी में कभी वो दौर भी थें
 स्वपनों का ग़लीचा बुना करते थें ।

जब से बदली हैं निगाहें उनकी
यादों का ग़लीचा  हम सिलते हैं ।

जिन ताने-बाने में खुशियाँ थीं मेरी
 पैबंदों से उसे अब ढका करते हैं।

वे तो शहर छोड़ चले गये कबके
  हम उनकी राह तका करते हैं  !!
     
                  - व्याकुल पथिक

 (काती - ग़लीचा बनाने में प्रयुक्त होने वाल धागा, जो भेड़ के ऊन से बनता है ) 

Saturday 18 May 2019

रुदन से मोक्ष की ओर !

रुदन से मोक्ष की ओर !
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    किसी स्नेहीजन के कड़वे संवाद अथवा व्यवहार से हृदय  जिस दिन रुदन करता है एवं अंतरात्मा की धिक्कार से जब अत्यधिक ग्लानि की अनुभूति होती है , तब स्वतः ही वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
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    आज मैं अपने उस आदर्श पात्र को आप सभी के सम्मुख रख रहा हूँ । जिनके विषय में दांवे के साथ यह कहा जा सकता है कि वे गृहस्थ हो कर भी विरक्त हैं। उनका शयनकक्ष ही उनका मंदिर और साधना स्थल है। करोड़ों की अचल सम्पत्ति है। उम्र के उस पड़ाव पर , जहाँ लोग वरिष्ठ नागरिक कहे जाते हैं , वे पुरुषार्थी हैं एवं परिवार की समस्त आवश्यकताओं का निर्वहन करते हैं, फिर भी एक साधारण गृहस्थ की तरह उनकी दिनचर्या है। वे ऐसे साधक , साधू  एवं गृहस्थ हैं ,जिनकी कठिन दिनचर्या को देख हर कोई, उनके समक्ष नतमस्तक है।
    जीवन संगिनी के द्वारा किन्हीं परिस्थिति में मृत्यु का वरण किये जाने के पश्चात , बच्चों का लालन-पालन , उनकी शिक्षा और फिर विवाह सभी कार्य उन्होंने कुशल अभिभावक की भांति सम्पन्न किया। लोक व्यवहार में उनकी तुलना समाज के श्रेष्ठ जनों में होती है। सुबह नित्य गंगा स्नान कर वे अपने परिवार के जीवकोपार्जन के लिये घर से कर्मस्थान पर जाते हैं। लक्ष्मी की कृपा है , परंतु दो वक्त के साधारण भोजन के अतिरिक्त , उन्हें कभी भी किसी ने अमीरों जैसे  खानपान , मनोरंजन एवं वेशभूषा पर धन का उपयोग/ दुरुपयोग करते नहीं देखा है।
    पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने बच्चों का ध्यान रख, दूसरा विवाह नहीं किया था। विमाता को लेकर एक संदेह जो मन में रहती है।  मनोरंजन की सामग्रियों से दूर हैं ,  साथ ही उनमें परस्त्री गमन , मदिरापान , ध्रूमपान  सहित एक भी  अवगुण नहीं है।
   उन्हें  हँसी-ठहाका लगाते कभी किसी ने नहीं देखा है। न ही वे एकांत में रुदन करते और न तो अपना दर्द किसी को बताते हैं। मन की वेदना ही नहीं,  शारीरिक पीड़ा को भी, वे हृदय में दबाये रहते हैं। जीवकोपार्जन के लिये जो व्यवसाय विरासत में मिला है। उसे अपने परिश्रम से संभाले हुये हैं। जाड़ा, गर्मी और बरसात मौसम कोई भी हो, अपने ड्यूटी के बिल्कुल पक्के हैं। शेष समय उनका पूजन, होम , मंत्र जाप एवं अध्यन में गुजरता है।  उनके सानिध्य में रह कर पथिक को यह अनुभूति हुई कि घर में भी आश्रम का सृजन सम्भव है। जिस माध्यम से स्नेह की राह में भटकते, अटकते एवं तड़पते मानव हृदय को उस स्वर्णिम पथ की ओर अग्रसर किया जा सकता है, जहाँ शांति है, वैराग्य है और मोक्ष भी है।
     वैसे उनका भी मानना है कि पति- पत्नी से ही गृहस्थ जीवन के सारे सुख हैं। उन्होंने एक दिन भोजन की थाली देख बताया था कि अब इसके स्वाद के बारे में वे कभी नहीं सोचते हैं। इस थाली का स्वाद तो पत्नी की मृत्यु के साथ चला गया। सो,खाने में आज क्या बनेगा अथवा बना है ? इतनी सम्पन्नता के बावजूद, यह पूछते उन्हें कभी नहीं देखा गया ।
    मन, भावना एवं मोह पर उनकी नियंत्रण क्षमता  देख,  पथिक यहीं से अपने मुक्ति पथ की खोज पुनः शुरू  की थी, परंतु उसकी एक  दुर्बलता यह है कि पथ में यदि कहीं  स्नेह एवं अपनत्व मिल जाता है, तो वह ठहर जाता है। उसे ऐसा लगता है कि निश्छल हृदय से किसी ने मैत्री के लिये हाथ बढ़ाया है।
   जबकि उस नादान को यह पता होना ही चाहिए कि जो अपने नहीं हैं ,वे सदैव ही ऐसा आचरण उसके साथ नहीं करेंगे ? वह किसी की जिम्मेदारी नहीं है, किसी का प्रेम अथवा प्रियतम भी नहीं है। ऐसे में जब उसकी उपेक्षा होती है , उसे पुनः आघात लगता है  ।
     किसी स्नेहीजन के कड़वे संवाद अथवा व्यवहार से हृदय  जिस दिन रुदन करता है एवं अंतरात्मा की धिक्कार से जब अत्यधिक ग्लानि की अनुभूति होती है , तब स्वतः ही वैराग्य का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । माया-मोह रुपी घूँघट का पट खुलते ही इस स्नेह रुपी भूलभुलैया से बाहर निकल कर पथिक पिया मिलन अथार्त मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर हो जाता है। फिर कभी किसी लौकिक स्नेह एवं अपनत्व की आवश्यकता उसे नहीं होती। न ही उसे याचकों की तरह इसके(स्नेह) लिये गिड़गिड़ाना- छटपटाना पड़ता है। उसकी सारी लालसा इस वैराग्य में विलीन हो जाती है।
 अपनों के लिये भटक रहा उसा चित्त शांत हो जाता है । मीरा की तरह उसका मन आनंदित हो उठता है -

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो ना कोई
जाके सर मोर-मुकुट, मेरो पति सोई...

      हाँ , इसके लिये दृढ संकल्पित होना आवश्यक है। मेरा मानना है कि ऐसी कोई भी घटना जिससे आपका स्नेह आहत हुआ हो , लक्ष्य  प्राप्ति के लिये सहायक होती है ।      अतः जिस किसी ने भी कड़वी वाणी का प्रयोग कर हमारे निर्मल एवं स्नेहयुक्त हृदय पर आघात किया है , उन्हें धन्यवाद दिया जाए। उनके ये कठोर शब्द और आचरण हमारे ऊपर एक ऋण है , मोह युक्त स्थिति से मोह मुक्त होने तक।
   तभी यह ज्ञात होगा कि यह स्नेह एवं अपनत्व इस संसार रुपी माया नगर में एक स्वप्न है। जो असत्य था।  सच तो यह है कि आदमी अकेला आया है और वैसे ही चला जाएगा। यह मानव जीवन उसका तृप्त तभी होगा , जब वह विरक्त भाव का स्वामी हो ।
       सावधानी इतनी रखनी है कि इस भाव को पुनः हृदय से जाने न दें। कहीं ऐसा न हो की किसी की थोड़ी सी सहानुभूति हमारे मन को पुनः पिघला दे उसमें स्नेह का संचार कर दे और फिर जब कभी उपेक्षा का वही दंश सहना पड़े , तो यह विवेक है न,वह धिक्कारने लगता है । बार-बार उलाहना देता है कि तुमने वर्षों के परिश्रम से पांव जमा कर एक-एक सीढ़ी चढ़ी थीं । लेकिन, देखो तो सही अपनत्व की तुम्हारी इस क्षुधा ने फिर से तुम्हें उसी स्थान पर ला पटका है।
      कैसे संभल कर एक बार पुनः खड़ा होंगे पथिक , है कोई विकल्प ? जाओ जाकर ढ़ूंढो उन्हें , जिन्होंने तुम्हें सच्ची एवं पक्की मित्रता का आश्वासन दिया था। वे तो चल दिये अपनी दुनिया में  और जाते -जाते तुम्हारी वेदना पर स्नेह का तनिक मरहम भी नहीं लगा गये।
      ऐसी ही स्थिति को कहते है कि न माया मिली , न राम मिले । जब मुक्ति पथ के लिये साधक को शून्य से अपनी यात्रा  बार-बार शुरु करनी पड़ेगी , तो वह सीढ़ी- सांप के खेल में अटक- भटक जाएगा। उसे हर कोई झटक देता है । उसका जीवन उपहास बन कर रह जाएगा। साधना अधूरी रह जाएगी। वह बुद्ध कभी नहीं बन पाता है। बताएँ कैसे शुद्ध  होगा उसका जीवन  ?
       बुद्ध पूर्णिमा पर इसी चिंतन में डूबा पथिक आज अत्यधिक व्याकुल है। उसका विकल हृदय उससे यह प्रश्न किये ही जा रहा है कि रे मूर्ख  !  तू ही बता स्नेह के बदले  मिला क्या कुछ तुझे  ?  किस लिये अपनेपन की चाहत रखता है । इस संसार में तो झूठा व्यापार है। जो अपनी इच्छानुसार तुझसे जुड़ते हैं , यदि उनके आचरण में बदलाव आ जाता है ,तो तुम क्यों अश्रु बहा रहा है। सारे संबंध ही चार दिनों के है -

 मात-पिता सूत नारी भाई
 अंत सहायक नाही
 दो दिन का जग में मेला
 सब चला चली का खेला ..।
     
     - व्याकुल पथिक

Tuesday 14 May 2019

तुम खुश हो न..

तुम खुश हो न ..
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देकर तनिक प्यार दुलार
बंद हो जाते सबके द्वार
पथिक फिर करता पुकार
 बोलो ! तुम खुश हो न ?

 दे दो पल बातों का साथ
करते  हैं वे  क्यों उपहास
विकल हृदय करता चीत्कार
बोलो ! तुम खुश हो न ?

दोस्ती पर करके विश्वास
करता वह जिनका इंतजार
  मिलता जब उनसे दुत्कार
बोलो! तुम खुश हो न ?

सपनों का मंदिर हो वीरान
भ्रमित है जिसका पुरुषार्थ
तेजहीन-बलहीन  वो इंसान
बोलो ! तुम खुश हो न ?

कौन है ऐसा निगेहबान
 रंज-ओ- ग़म में देता साथ
दिल में जगी ये कैसी आस
बोलो ! तुम खुश हो न ?

न प्यार भरे आंचल का छांव
न हमदर्दी के  मीठे बोल
अश्रु भी  है उसके ढोंग !
बोलो ! तुम खुश हो न ?

सह न सका वो यह परिहास
 झूठे अनुबंधों का साथ
हिय में लगी फिर कैसी आग
बोलो ! तुम खुश हो न ?

मन में दृढ़ता का हो प्रकाश
 कर जोगी सा वह सिंगार
किया तप्त शिला पर प्रवास
  बोलो ! तुम खुश हो न ?

कांप उठा तब दुर्बल काया
कठोर कर्म उसे न भाया
लौट के  बुद्धू वापस आया
 बोलो ! तुम खुश हो न ?

था आँखोंं में अंधेरा छाया
स्नेहिल स्पर्श फिर ना पाया
 मृत्यु ने उसको ठुकराया
 बोलो ! तुम खुश हो न ?

     - व्याकुल पथिक

Saturday 11 May 2019

तुम ऐसी क्यों हो..

तुम ऐसी क्यों हो..
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    क्या अंतर है उस असभ्य लड़की और इनमें ..? नारी में तो साक्षात देवी का स्वरूप होता और आंचल में स्नेह । वह पुरुषों से भिन्न होती है ! बोलो , फिर तुम ऐसी क्यों हो  ?
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     आज सुबह वह फिर नज़र आ गयी। हमेशा की तरह गुटखा चबाते हुये। पुराने लिबास में भी एक आकर्षक था उसमें। न जाने क्यों जब भी मैं उसे देखता हूँ , मन में उसके प्रति घृणा और दया , यह मिश्रित  भाव आ ही जाता है।
   उस लड़की में शालीनता, लज्जा एवं शिष्टाचार , जिसे यह सभ्य समाज नारी का आभूषण बताता है, ऐसा भाव मैंने कभी नहीं देखा । बिल्कुल मुँहफट है और गाली तो उसकी जुबां पर है। मुझे तो लगता है कि भले ही " ककहरे " का ज्ञान उसे ठीक से न हो, परंतु अपशब्दों के प्रयोग में मास्टर की डिग्री अवश्य ले रखी है। पता नहीं किन परिस्थितियों में उसने यह ट्रेनिंग ली हो।
   अब तो उसका यौवन भी निखार पर है, किन्तु क्या मजाल कि कोई मर्द उसकी ओर नजर उठा के देख भी ले।
     यहाँ तक कि गलियों में मंडराने वाले मनचले उसकी परछाई देख रास्ता बदल देते हैं कि कहीं वह शुरू न हो जाए..।
    फिर भी एक कमजोरी है उसमें, जो हर प्राणियों में होती है। वह है पेट की आग । मुझे अनुभूति है इसकी कि यह  ऐसी भूख है कि यदि वक़्त पर दो रोटी न मिले तो , आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति के मान, सम्मान और स्वाभिमान को यह हज़म कर जाती है।
  कोलकाता में बड़े घर में पलने के बाद और वाराणसी में मास्टर साहब का पुत्र होकर भी, जब इस अंजान शहर में गांडीव हाथ में लिये भटक रहा था। तो घर पर मुझे भी घृणा की दृष्टि से परिजन देखते थें कि मैं अखबार बांट रहा हूँ , इसीलिये मैंने वाराणसी को अपना अपना कर्मक्षेत्र नहीं बनाया था।
    दो वक़्त की रोटी बिना किसी के समक्ष सिर झुकाए मिल जाए , इसी आस में एक विद्यालय के संचालक का पुत्र होने का गर्व भुला कर यहाँ चला आया था।
     अतः जिसे मैं तब असभ्य लड़की समझ रहा था, सम्भव है कि उसके साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है।
 नियति कहाँ लेकर जाएगी , किसे पता। उसकी यही क्षुधा उसे  चारित्रिक पतन की राह पर भी ले जा सकती है !
   वैसे , तीन वर्ष पूर्व इस लड़की के प्रति मेरा नज़रिया तब बदला था। जब मैंने एक किराना दुकान के स्वामी संग उसकी वार्तालाप सुनी थी।
    वह पूछ रही थी , " कमला भैया! आज शाम गंगा घाट मंदिर पर भंडार है न ? "
  मैं समझने का प्रयास कर रहा था कि यह मुस्लिम लड़की, जो तब किशोरावस्था के अंतिम पावदान पर खड़ी थी , वह शिव मंदिर के समीप भंडारे के संदर्भ में इस तरह से क्यों पूछ रही है ? उस दुकान पर वह अकसर ही  गुटखा खरीदने आती थी ।  उस दिन से पूर्व इसका मुझे तनिक भी आभास नहीं था कि यह लड़की अपने पापी पेट को लेकर इस तरह से व्याकुल है कि एक रुपये का गुटखा खाकर अपने भूख को मार रही है। लेकिन उस दिन उसका सब्र टूटने लगा था। इसी कारण उसे आधा किलोमीटर दूर भंडारा स्थल पर बन रही कोहड़े की सब्जी एवं मीठी बुंदियां  की सुगंध आने लगी थी।
    सो, उसने अपनी बात आगे बढ़ाते हुये दुकानदार से पुनः विनती भरे स्वर में कहा  ,
   "भैया ! चली तो जाऊँ मैं भी वहाँ पूड़ी खाने, परंतु भंडारे में इतने सारे मर्दों के बीच बैठ कर खाने में शर्म आएगी मुझे। ऐसा नहीं हो सकता है कि मुझे भंडारा स्थल पर बैठना नहीं पड़े ।आप वहाँ से एक पत्तल में कुछ कचौड़ियाँ, सब्जी और बुंदियां  दिलवा दें। मैं घर ले जाकर आपके भगवान जी का यह प्रसाद खा लूंगी।  "
    दुकानदार थोड़ा दयालु प्रवृत्ति का था। सो, इस लड़की को भी वह अपनी पुत्री जैसा ही समझता था। अतः उसने लड़की की बात मान ली और कहा कि दो घंटे बाद वह स्वयं भंडारे की व्यवस्था देखने जाएगा। तब वह भी चली आए।
     इस सृष्टि में भूख और प्यास के सम्मुख मानव द्वारा निर्मित मज़हब व धर्म की मजबूत दीवार  कहाँ टिक पाती है ? इंसान विवश हो जाता है ।
  अभी पिछले ही माह जब हमारे होटल के सामने शीतला माता का भंडारा था, तो पुनः यह लड़की दिखाई पड़ी थी । उसमें अब वह झिझक नहीं दिख रही थी मुझे। फिर अगले दिन मैंने देखा कि वह एक होटल पर मैनेजर से नौकरी मांग रही थी। जिसमें उसे कामयाबी नहीं मिली। बेचारी करे भी क्या ,जब उसकी ज़ुबान ही ऐसी है कि खुलते ही फिसल जाती है।
 अभी पिछले ही दिनों फिर से वह बूढ़ेनाथ मंदिर के समीप दिख गयी। अब तो उसकी आँखों में भी मुझे अजीब सी भूख दिख रही है और यह शहर हो या गाँव भूखे भेड़ियों को इसी की प्रतीक्षा रहती है !  उसके लिये मैं खुदा खैर करे , बस यही दुआ कर सकता हूँ ।
   इस लड़की को देख मेरा मन अशांत इसलिये हो जाता है, क्यों कि  27 वर्ष पूर्व कालिम्पोंग की उस घटना को आज भी कहाँ भुला पाया हूँ । एक सुंदर नेपाली लड़की छोटे नाना जी के मिष्ठान की दुकान पर आया करती थी। हम सभी उसे कुछ खाने को दे दिया करते थें। एक दिन सुबह कारखाने के पीछे वाले मार्ग  पर काफी भीड़ जुटी हुई थी।  देखा तो पता चला की यह वही लड़की है , जो सुबह से ही शारीरिक कष्ट से छटपटा रही है। दरिंदों ने रात के अंधेरे में उसे कुछ खिलाने के बहाने बुला कर न सिर्फ उसके अस्मत से खेला था, वरन उसके मखमली जिस्म पर भी कम अघात नहीं किया था। इस हादसे के बाद फिर कभी नहीं दिखी वह लड़की।  मुस्कुराता हुआ धुंधला सा उसका चेहरा और वह रुदन आज भी मुझे याद है।
    यहाँ मीरजापुर आने के बाद ऐसे अनेक हृदयविदारक दृश्य मैंने देखें और खबरें भी लिखी हैं । इसी शहर में दो सगी बहनों के साथ दुष्कर्म और पिता संग उनकी निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी ,वह दृश्य दहलाने वाला रहा। इसके पश्चात पत्रकारिता से जुड़कर मैंने मुखौटे वाले अनेक भद्रजनों को देखा और इस तरह मैं भी धीरे- धीरे पत्थर दिल इंसान होता गया। फिर भी इस बनावटी, मिलावटी और दिखावटी दुनिया में एक सच्चे मित्र की खोज में भटकता रहा।
     हाँ,कुछ और याद आ रहा है। जब मीरजापुर आया तो एक और युवती कचहरी, कलेक्ट्रेट और घंटाघर पान की दुकान पर दिखती थी। वह मुँह में पान घुलाएँ कुछ बनठन के घर से निकलती थी। तब उसके कितने ही आशिक थें । भले ही वह सम्पन्न घर की नहीं थी हो , परंतु ऐसा भी न था कि उपवास करना पड़े । सो, परिस्थितियाँ जो भी रही हो। लेकिन, आज वक्त से पहले उसका यौवन ढल चुका है और उसके पास कोई फटकना नहीं चाहता है। उसके स्थूलकाय शरीर एवं उदास चेहरे को देख मेरा हृदय वेदना से भर उठता है । सोचता हूँ कि जीवन का यह धूप-छांव भी कितना अजीब है और यौवन ढलते कहाँ वक़्त लगता है।
      जब इस जनपद आया था,तो एक जिला सूचना अधिकारी मुझसे अत्यधिक स्नेह करते थें। उन्होंने पत्रकारिता जगत में मुझे स्थापित करने में सहयोग भी किया। एक दिन उनके कार्यालय में एक महिला दरोगा मिली। अधिकारी महोदय ने हम दोनों का आपस में परिचय करवाया। उस समय सांध्य कालीन गांडीव का पुलिस विभाग में दबदबा सा था। अतः दरोगा साहिबा ने मेरा बड़ा सम्मान किया। उनका शिष्टाचार देख , खाकी वालों के प्रति मेरे मन में विशेष   आदर का भाव जागृत हो गया। लेकिन, एक दिन देखा कि वही महिला उपनिरीक्षक किसी युवक को पीट रही थी और साथ ही अपशब्दों का बौछार किये जा रही थी।
   ऐसे गंदी गालियाँ उस विधवा महिला पुलिस अधिकारी के मुख से सुन , जिसे मैं सभ्य समाज का प्रतिनिधि समझता था, हतप्रभ रह गया।
   उनसे बात करने की  मुझे फिर बिल्कुल इच्छा नहीं हुई। उन्हें देख बिना दुआ- सलाम के ही आगे बढ़ जाता था।     लेकिन, एक दिन उन्होंने मुझे रोक ही लिया। उन्होंने कहा कि शशि भाई एक चाय पी लो मेरी तब जाना। वार्तालाप के दौरान मैं गुस्से में कह ही दिया कि आप मर्द पुलिसकर्मियों पर भी भारी हो। उस मनचले की पिटाई तो समझ में आती है, परंतु ऐसी भद्दी गालियाँ..?
       तब उन्होंने अपनी रामकहानी मुझे सुनाई और यह भी कहाँ कि अपनों के बीच छिपे घड़ियालों से नौकरीपेशे वाली महिलाओं को सतर्क रहना पड़ता है। सो, ये भद्दी गालियाँ एवं इसी लहजे में हँसी. ठिठोली ही उनका सुरक्षा कवच है। इसे अन्यथा न लें, किसी दिन क्वार्टर पर आये न  .. !
     खैर, उनसे वार्तालाप कर मुझे लगा कि तुम ऐसी क्यों हो..? इसका तर्क संगत उत्तर मुझे मिल गया है।
   परंतु एक दिन छात्रसंघ चुनाव के दौरन मैंने देखा कि कालेज में जहाँ दो महिला पुलिस अधिकारी खड़ी थीं, उनके मध्य से एक दुबला- पतला युवक अंदर परिसर में जा घुसा। अनजाने में अथवा अत्यधिक भीड़ देख , उसने यह दुस्साहस कर लिया हो ।
    तभी सिल्वर स्टार लगा रखीं एक मोहतरमा के ये शब्द ,  "बच्चा, पढने- लिखने की उम्र में ही बीच का रास्ता खोज रहा है तू । "
  मैं आज तक इसे नहीं भूल पाया हूँ। साथ ही यह प्रश्न भी मेरा अधूरा है कि तुम ऐसी क्यों हो.. ?
   और एक बात कहूँ इस सभ्य समाज की शिक्षित युवती एवं महिलाएँ  किसी निर्मल हृदय वाले पुरुष को मित्र बना कर , जब कभी उसके स्नेह की उपेक्षा करती हैं। कल तक उनकी वाणी में जो अपनत्व था , वह जब उसी निर्दोष पुरुष मित्र के लिये मात्र औपचारिकता में परिवर्तित हो जाता है, तब भी यह आहत हृदय चीत्कार कर उठता है कि तुम ऐसी तो न थी?         क्या अंतर है उस असभ्य लड़की और इनमें ..?
    नारी में तो साक्षात देवी का स्वरूप होता और आंचल में स्नेह । वह पुरुषों से भिन्न होती है ! बोलो ,फिर तुम ऐसी क्यों हो ?

         - व्याकुल पथिक

Sunday 5 May 2019

श्रम का यह कैसा उपहास !

श्रम का यह कैसा उपहास !
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काश !  कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-
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      मैं बाजीराव कटरा स्थित अपने आशियाने( होटल ) के ठीक सामने प्रिय मित्र घनश्याम जी की दुकान पर चाय पी रहा था। इस प्रंचड गर्मी में समाचार संकलन के लिये कलेक्ट्रेट, कचहरी,एसपी दफ्तर, अस्पताल और पोस्टमार्टम हाउस का चक्कर मारने के बाद पूरे पांच घंटे मोबाइल पर आँखें फोड़ होमवर्क कर लौटा था । सो , मित्र महोदय के यह कहने पर कि लोहा लोहे को काटता है,चाय पीने ठहर गया।
    तभी  एक युवक फटे- पुराने वस्त्रों में एक हाथ ऊपर किये, जिसकी उंगलियों मेंं ढेर सारे रंग बिरंगे चाबी का गुच्छे लटके हुये थें ,  सामने से गुजरा। दिन भर उसने पैदल ही नगर की गलियों में आवाज लगायी थी। उसका मलीन चेहरे इस बात का गवाह था कि अच्छे दिन लाने का, जो सब्जबाग देश की जनता को आजादी के बाद से दिखाया जा रहा है, उसका सच क्या है ?
 किसी ने गरीबी हटाने की बात की , अब उसके वंशज गरीबी मिटाने के लिये 72 हजार रुपये सालाना आमदनी की प्लानिंग लेकर आये हैं। चुनाव है न साहेब , तो सियासी बिसात पर लोकलुभावने वायदों का महल खड़ा किया जा रहा है, एक बार फिर से ताकि वोटों की फसल अच्छी रहे।

   खैर गरीबी के मामले में सुदामा का प्रतिविम्ब लग रहे इस व्यक्ति ने जेब को टटोला। जो एक पांच का सिक्का निकला , उससे उसने भी चाय पी अपने पेट की भूख शांत की। ब्रेड- ,मक्खन खाने वालों की तरफ निगाहें उठा कर देखा तक नहीं। सम्भवतः गरीबी की आग में उसने अपनी इन इच्छाओं को तपा कर मिटा लिया हो ,यह भी हो सकता है कि उसे अपनी बीवी - बच्चों की याद आ रही हो कि वे भी तो सूखी रोटियों से ही काम चला रहे हैं।
     मुझे अनुभूति है, जब करीब 27 वर्ष पूर्व मैं कालिम्पोंग से दूसरी बार अपने घर वाराणसी वापस लौटा था। बेरोजगार था , तो ठंडा पानी अथवा चाय पी कर इसी तरह से कितने ही दिनों भूख पर लगाम लगाता था।
    घनश्याम भाई ,जिनकी छोटी सी दुकान है, पर हैं दिल के अमीर , ने कहा कि देखें श्रम का यह कैसा उपहास है । दिन भर यह व्यक्ति इसी तरह एक हाथ ऊपर किये चाबी के गुच्छों को झुलाये फटफटा रहा है। क्या हाथ दर्द नहीं करता होगा ? परंतु पूरी निष्ठा  के साथ किये गये श्रम के प्रतिदान में उसे क्या मिला ? किसी- किसी दिन तो वह सौ रुपये भी नहीं कमा पाता है।
  तभी उधर से एक भिखारी गुजरा। उसने कटोरा बढ़ाया एक- दो के सिक्के आने लगे उसने। इसके बाद सामने पेड़ के नीचे अपनी पोटली खोल वह तरमाल ( कचौड़ी एवं मिठाई ) गटकने लगा। बाबू- भैया कर यह भिखारी रोजाना सौ- डेढ़ सौ की आमदनी कर लेता है साथ ही भोजन अलग से ।
   एक बूढ़ी काकी प्रतिदिन उस ठेलागाड़ी को धक्का दे, सड़क किनारे ले जाती है। जिसके टायर फटे हैं। उस पर जगह-जगह  रस्सी लिपटी है। ऐसे ठेले को किस तरह से वह ढकेलती होगी , कभी आप भी हाथ लगा कर देखें न..।
      वह इस पर खीरा रख कर बेचती है । एक और बूढ़ी मैया शहर कोतवाली के मोड़ पर एक छोटे से परात में पापड़ रख दिन भर बैठी रहती है। मुझे आलू के पापड़ पसंद है। सो, वहाँ ठहर जाता हूँ। डबडबाई आँखों से बुढ़िया माँ बार-बार बिक्री के उन चंद सिक्कों को सहेजते रहती है। वह  कहती है - " बेटवा , तेल, आलू और जलावन लकड़ी सब का दाम बढ़ गया है। महंगाई सुरसा डाइन बनी खड़ी है। लेकिन, बिक्री घट गयी है। अब बच्चे पैकेट वाला कुरकुरे खाते हैं। बेटा कुछ दूसरा काम हो तो बता न।"
   क्या उत्तर दूँ इस वृद्ध माता को, यह कि अच्छे दिन आ गये हैं। हमारे राष्ट्र के कर्णधार तो यही कहते हैं कि तस्वीर बदल गयी है। अभी पिछले ही दिनों एक सम्पन्न किसान पड़ोसी जनपद से कुछ मजदूरों को फसल काटने लाया था। उसमें एक किशोरी भी थी। यौवन का सौंदर्य भला गरीबी में भी कहाँ छिपता है। लेकिन, किसान की कामाग्नि ने इस मज़दूर बाला को फूल बनने से पूर्व ही राख में तब्दील कर दी है।  अब  कानून व्यवस्था अपेक्षाकृत कुछ सख्त है । अतः ऐसे मामलों में मुकदमा कायम हो भी जाता है। अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में पेट की आग ने कितनी ही महिला मज़दूरों के अस्मत का सौदा किया है। सहमति से नहीं बात बनी तो जोर जबर्दस्ती भी। कुछ फार्म हाउस ऐसे ही अय्याशी के ठिकाने थें। नारीशक्ति जहाँ अबला नारी बनी पांव तले कुचली जाती रही । क्या इन सभी मज़दूरों के श्रम का यही पुरस्कार है ?
  परिश्रम एवं पुरुषार्थ को लेकर बड़ी- बड़ी बातें तो होती हैं, परंतु नियति के समक्ष वह विवश है। जब कभी क्रांतिदूत जन्म लेते हैं, तो वे अवश्य प्रतिकार करते हैं । हिंसक या अहिंसक माध्यम जो भी हो । वे बलिदान भी देते हैं। लेकिन, उनके संघर्ष पर यह गरीबी बार-बार मजबूरी बन पर्दा करती रहती है।
   काश! कभी सत्ता में शीर्ष पर बैठे ये राजनेता अपने लग्जरी वाहन से नीचे उतर, सिपहसालारों को पीछे छोड़ , दबे कदम  गरीबी की प्रतिमूर्ति इन सजीव पात्रों की दिनचर्या पर दृष्टि डालते और फिर कुम्भकर्णी निद्रा में सो रही अपनी संवेदना को बलात जगाते , तब उन्हें समझ में आता कि देश से गरीबी हटाने में वे कितना सफल हुये हैं। विडंबना यह है कि वे तो सरकारी कागजों पर गरीबों को मिटा रहे हैं।
             ये रहनुमा बड़े तामझाम के साथ किसी दलित के घर भोजन कर  मीडिया के माध्यम से हीरो तो बन जाते हैं। लेकिन कभी किसी गरीब मज़दूर के घर बिन बुलाये मेहमान की तरह पहुँच कर उसका बटुआ नहीं टटोलते हैं । जिससे उन्हें पता चल सके कि शाम के भोजन के लिये उसके पास क्या व्यवस्था है।
    बीते सप्ताह श्रमिक दिवस (1 मई ) से एक बार पुनः मैं अपने चिन्तन- मंथन से उस अमृत कलश की खोज में जुटा  हूँ ,जो तमाम मजदूरों के चेहरे पर खुशी, संतुष्टि, आत्मनिर्भरता और आत्मा सम्मान का भाव ला सके।

इस बार लोकसभा चुनाव होने के कारण जिला मुख्यालय पर सन्नाटा छाया था, अन्यथा पूर्व के वर्षों में यहाँ कलेक्ट्रेट में खासी गहमा गहमी रहती थी। श्रमिकों के दो वर्ग यहाँ दिखते थें। आम भाषा में इन्हें सरकारी एवं गैर सरकारी श्रमिक कहा जाता है। सरकारी नौकरियों में हैं, उनको तो मोटी तनख्वाह मिलती है। ऐसे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी को मैं मज़दूर नहीं मानता और वे मजबूर भी नहीं है। उनका यूनियन बड़ा ही शक्तिशाली है।
    मजदूर को लेकर एक बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि ऐसे लोग जो सरकार से बढ़िया वेतन पा रहे हैं । दिन भर सुरती मला करते हैं या अपने मुंह में पान घुलाएँ रहते हैं, उन्हें श्रमिक कहूँ अथवा ऊपर जिन पात्रों पर प्रकाश डाला है उनको ?
    एक और तबका है , जिनके श्रम का उपहास होता है। आप ने दुकानों पर सेल्समैन तो देखा है न ? वह सुबह साढ़े नौ बजे अपनी ड्यूटी पर आ जाता है और छुट्टी नौ बजे के बाद ही मिलनी है। इनका वेतन पाँच हजार के आसपास है।
 उच्च शीक्षा प्राप्त अनेक अध्यापक भी साधारण विद्यालयों में लगभग इतना ही तनख्वाह पाते हैं। ऊपर से विद्यालय प्रशासक इतना सख्त होता है कि कुर्सी पर बैठने की जगह ब्लैकबोर्ड के समक्ष खड़े - खड़े ही पूरा समय गुजरता है।
 ऐसे निम्न- मध्य वर्ग के लोग महत्वाकांक्षी होते हैं। अपने परिवार को खुशहाल रखने के लिये कोचिंग अथवा घर- घर जाकर बच्चों क़ पढ़ाते हैं,फिर भी दस हजार रुपये के आसपास ही इनकी आमदनी होती है।
  इनके परिश्रम का भी यह कैसा उपहास है की सरकारी प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षक का वेतन जहाँ करीब चालीस है और इनका पांच हजार। फिर क्यों कहा जाता है कि यह संसार परिश्रम का है।

  मेरे जैसे जनपद स्तरीय अन्य श्रमजीवी पत्रकारों, जिनके पास आजीविका के लिये अतिरिक्त आर्थिक स्त्रोत नहीं है,उनकी दयनीय स्थिति को पर्दे में ही रहने दें , तो बेहतर है।  कहने को हम मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं। परंतु यदि इधर- उधर से धन का जुगाड़ न करें न, तो फिर पारिवारिक कर्तव्यों की पूर्ति सम्भव नहीं है। इसी भय ने युवावस्था में मुझे वैवाहिक बंधन से मुक्त रखा। यह कैसा चौथा स्तंभ है ? अन्य तीन खम्भे तो द्वारिकाधीश की तरह वैभव सम्पन्न हैं और यह सुदामा बना उसी कृष्ण के द्वार पर नतमस्तक है । एक शासक के रुप में जिसके गुण- दोष की उसे समीक्षा करनी है। लेकिन वह तो मित्रता और सहयोग की उम्मीद लिये वहाँ पहुँचा है ?
    फिर भी पुरुषार्थ की यह तारीफ शास्त्रों में वर्णित है कि
ललाट पर लिखे विधि के लेखों को धोने की क्षमता तुम्हारे ललाट के पसीने की बूँदों में ही है। मैं तो यही कहूँगा कि जीवित रहते न सही कम से कम मृत्यु के पश्चात तो पुरुषार्थ करने वाले  को सम्मान मिले।
   राजनीति में दिन प्रतिदिन निष्ठावान, कर्मठ और ईमानदार कार्यकर्ताओं का अभाव क्यों हो रहा है , इसीलिये न कि हमारी नयी पीढ़ी यह समझ चुकी है कि चुनाव लड़ने के लिये टिकट प्राप्त करने का अब यह पैमाना नहीं रहा। यहाँ, तो दलबदलुओं, दागदार और जातीय- मजहबी भावनाओं को आहत करने वाले सफेदपोश बन झटपट जनप्रतिनिधि बन जा रहे हैं। वे  जनता की अदालत में अपने जुगाड़ तंत्र का डंका बजाते हुये सर्वोच्च सदन तक पहुँच जाते हैं। वे ही हमारे माननीय हैं अब । हमारे पथप्रदर्शक हैं।
      इस व्यवस्था को हम कैसे बदल पाएँगे ? इस बार भी चुनाव में एक-एक उम्मीदवार कितने ही करोड़ रुपया खर्च कर रहा है। लेकिन, इस अभागे चाभी के गुच्छे बेचने वाले इंसान को एक कुल्हड़ चाय पीने के लिये जेब टटोलना पड़ रहा है।
     काश !  कोई जुगाड़ अपना भी होता कि मैं भी सांताक्लॉज जैसा बन जाता और मेरी झोली में ऐसा कुछ होता कि  बिन बताएँ इनका सहयोग करते हुये ,अपनी निजी वेदना को भुला कर यह गुनगुनाते फिरता-

मधुबन खुशबू देता है, सागर सावन देता है
जीना उसका जीना है, जो औरों को जीवन देता है..।
   जिस स्नेह को पाने से मैं वंचित रह गया और न कभी किसी ने मेरे उस स्नेह को समझा । उसे ऐसे लोगों में बांट पाता। फिर जीवन अपना सफल कर जाता !
                                  -व्याकुल पथिक

Thursday 2 May 2019

सबक़

सबक़
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दर्द  जो सीने में है
उसे दिखाया न कर

ख़ामोशी जो दिल में है
उसे बताया  न कर

 है रात रंगीन जिनकी
उनसे दिल न लगा

तेरी उदासी पर हँसेंगे
नहीं  कुछ तेरा वहाँ

रंग बदलती दुनिया में
दोस्ती कर संभल के

 ऐसे भी हमदर्द  यहाँ
ज़ख्म बन जाते नासूर

 मख़मली एहसासों को
 न अपनी ख़्वाहिश बना

गर्द जम चुकी इश्क़ पे
क़ब्र में कराह रहा वो

गुजर गये जो दिन
वे  लौटते फ़िर कहाँ ?

वाह-वाह की महफ़िल में
तेरे लिये नहीं कुछ वहाँ

पूछ देंगे तुझे वे अपनी
 हसीन रातों में से दो पल ?

हाथी के दांत दिखाने के
 खाने के कुछ और

है ये सबक़ तेरे लिये
वैरागी बन, जी न जला

       - व्याकुल पथिक