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Friday 18 January 2019

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार..
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  एक कल्पना, एक दिवास्वप्न और एक उम्मीद में कभी खो जाता हूँ कि हम मनुष्यों की ऐसी कोई बस्ती कहीं तो होगी, जहाँ  "मानवता" का पुष्प खिला हो । जिसकी पंखुड़ियों को बिखेरने वाले अमानवीय हाथ वहाँ न हो। हम भी जहाँ इसी तरह झूम,नाच और गा लें
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किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है..

   बिखरी हुई इंसानियत और कदम- कदम पर मिली तन्हाई से यह मासूम दिल जब भी उदास होता है, अनाड़ी फिल्म का गीत उसे एक पैगाम देता है। मुकेश की जादुई आवाज़ में राजकपूर को उछले, कूदते , मुस्कुराते और गुनगुनाते देख व्याकुल मन बरबस बोल उठता है , वाह! यही तो मानवता है। एक कल्पना, एक दिवास्वप्न और एक उम्मीद में कभी खो जाता हूँ कि हम मनुष्यों की ऐसी कोई बस्ती कहीं तो  होगी, जहाँ मानवता का पुष्प खिला हो । जिसकी पंखुड़ियों को बिखेरने वाले अमानवीय हाथ वहाँ न हो। हम भी जहाँ इसी तरह झूम,नाच और गा लें। भीड़ भरी सड़कों पर निकलते ही ठोकर खाने का भय न हो , गलियों के सन्नाटे में घुटन न हो , अपने ही आशियाने में षड़यंत्र न हो और घरौंदे के उजड़ने का दर्द जीवन की खुशियों को वक्त से पहले ही  विरक्त न कर दे ।  मानव, मानव जीवन, मानव प्रवृत्ति, मानव स्वभाव की पहचान मानवता से ही है, अन्यथा पशुवत है हम।अपने मन, वचन और काया से, दूसरों की मदद करना, यही मानव जीवन का उद्देश्य है। गोस्वामी तुलसीदास ने मानवता की परिभाषा कुछ यूँ बताई है-

'परहित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई'।

      वैसे, यह हृदय है न जो हमारा ,वह हमारे प्रत्येक मानवीय और अमानवीय कार्यों पर मुस्कुराता और मुर्झाया करता है।  मन की आवाज से बढ़ कर कोई पाठशाला नहीं है, मानवता को समझने का।

   अमानवीय हाथ की बात से ही अपने विचारों को व्यक्त करने का प्रयास करता हूँ। जिसने प्रथम विश्वयुद्ध ( महाभारत) को जन्म दिया। याद करें हस्तिनापुर की वह राजसभा जिसमें एक धर्मराज ने जिन हाथों से पासा फेंक द्यूतक्रीड़ा में अपनी पत्नी को दांव पर लगाया था , युवराज के उस हाथ को भी जो बार - बार जंघा को थपथपा रहा था, किसी नारी कि अस्मत को तार- तार करने के लिये उतावला हो रहा था और उन हाथों को भी जिसने भरी सभा अग्रज की पत्नी के चीरहरण का प्रयास किया। साथ ही "मानवता" के उस हाथ को भी समझने का प्रयास करता हूँ ,जिसे देख एक कवि ने यूँ लिखा-

 सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है
सारी ही की नारी है कि नारी की ही सारी है..

   मानवता पर ऐसे कुठाराघात का वर्णन और कहीं भी नहीं है कि एक राजा के दरबार में उसकी ही कुलवधू न्याय की गुहार लगा रही हो,अपने अस्मत की रक्षा की पुकार लगा रही हो। वहाँ बैठें जितने भी ध्यानी, ज्ञानी, विज्ञानी भद्रजन थें , सभी उसके अपने थें ,जिनमें उसके वे बलशाली पाँच पति भी थें ,परंतु इन सारे नेत्रहीनों की सभा में मानवता का दीपक लिये खड़े एक विदुर को छोड़ किसी ने भी कुलवधू का चीरहरण होते देख प्रतिकार नहीं किया। जिसका परिणाम महाभारत रहा। उस राजसभा में मानवीय मूल्य को भूल अपनी निजी प्रतिज्ञा को जिन्होंने भी महत्व दिया, वे भी नष्ट हो गये इस युद्ध में। महाभारत कथा की दृष्टि से इसे ऐसा विश्वयुद्ध मान सकते हैं। जिसमें लाखों स्त्रियों को विधवा होने का दंश सहना पड़ा। लिंगानुपात असंतुलित हुआ और इसकी परिणति इस कलयुग का प्राकट्य है।
     अब तो इंसानियत किस तरह से हैवानियत में बदल गयी दामिनी कांड उसका एक घिनौना चेहरा है। छोटी- छोटी बच्चियों के साथ दुष्कर्म और साक्ष्य छिपाने के लिये उनकी निर्मम हत्या तक कर देते हैं ऐसे दरिंदे। ऐसी घटानाओं में समाचार संकलन के दौरान कांप उठता है हृदय हम पत्रकारों का भी। जिसे नासमझ बच्ची अंकल जी कहती थी , उस मासूम को टाफी दिलाने का प्रलोभन दे, ऐसा कृत किया जो कोई पशु भी न करता हो। ऐसे में मानवता चित्कार कर उठती  है-
  देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान
सूरज न बदला चांद न बदला ना बदला रे आसमान
कितना बदल गया इंसान कितना बदल गया इंसान...
   
   विदेश में रह रहे एक बेटे ने पिता की मृत्यु के बाद अपने वतन लौट अपनी माँ से कहा कि जो यह भवन है न उसे बेच दो और चलो साथ ,वहाँ तुम्हारी पुत्रवधू  सेवा को तत्पर रहेगी। उधर मकान बिका और इधर एयरपोर्ट पर माँ को छोड़ पुत्र लापता । पुत्र के इस धोखे से आहत बेचारी माँ जब वापस लौटी उसी घर में , तो जानते हैं सजल नेत्रों से नये गृहस्वामी से उसने क्या कहा था , यही कि इस मकान को उसके मृत पति ने अथक परिश्रम से बनवाया था , अतः  इसी में दाई की नौकरी दे दो, आखिरी सांस जीवन का वह अपने पति के घर ही लेना चाहती है।वह टूट चुकी थी और विश्वास नहीं कर पा रही थी कि जिस लाडले को इतनी ऊँचाई दी, वह इतना नीचे जा गिरेगा। लेकिन, तभी मानवता ने हाथ बढ़ा उस वृद्ध महिला को सम्हाल लिया , क्यों कि नये भवन स्वामी ने यह जो कहा , " माँ मुझे ही पुत्र समझ ले न, आप यहाँ अभिभावक बन कर रहें ।"

   हम इसी इंसानियत की तलाश करते हैं । हर मनुष्य चाहे कितना भी कठोर क्यों न हो कभी न कभी मानवता उसमें आ ही जाती है। छात्र जीवन में विद्यालय में एक कहानी "तैमूर की हार पढ़ी" थी। जिसमें यह क्रूर आक्रमणकारी एक बच्चे से कहता है कि तैमूर खूंखार है, लेकिन वह बहादुर बच्चे को सलाम करता है। तेरा दूध और चाकू  हमेशा याद रहेगा,  बिना खूनखराबा किये यह गांव छोड़ कर वह जा रहा है। उस बालक की निर्भिकता ने एक लुटेरे के हृदय में कुछ क्षण के लिये मानवता को जन्म दे दिया।
    बुद्ध के समक्ष आते ही अंगुलीमाल डाकू से साधु हो गया । उसका हृदय गुनगुनाने लगा-

मिटे जो प्यार के लिए वो जिंदगी
जले बहार के लिए वो जिंदगी
किसी को हो न हो, हमें तो एतबार
जीना इसी का नाम है..

      सच तो यही है कि कायर मनुष्य कभी मानवता का उपासक हो ही नहीं सकता है। कोई भी ध्वज तभी सुरक्षित रहेगा है,जब उसका आधार (दंड) दृढ़ हो। सिर्फ भावनाओं से करुणा से मानवता की रक्षा संभव नहीं है। इसके लिये कठोरता भी होनी चाहिए । बौद्ध धर्मावलंबी अहिंसक तिब्बतियों से यही गलती हुई। भावनाओं में बह कर कभी हमनें भी "हिन्द- चीन भाई " कहा था। हमारे रहनुमाओं की यह मानवता राष्ट्रीय अस्मिता के लिये महंगी पड़ी।

         यह चुनावी वर्ष है , तो बात थोड़ी राजनीति पर भी हो जाए।  महामानव बने लोग खादी के वस्त्रों में लकदक जन मंच से मानवीय कल्याण के पक्ष में बड़ी बड़ी लच्छेदार बातें करेंगे। लेकिन , यह सब उनका मुखौटा मात्र होगा। पर याद रखें कि गांधी की तरह लंगोटी में कोई न होगा, न ही लाल बहादुर शास्त्री की तरह सादगी की झलक उनके चाल चलन से दिखेगी। महंगे लग्जरी वाहनों का काफिला , धनवर्षा करता प्रचारतंत्र और झूठे आश्वासनों का पिटारा इनके संग होगा। चुनाव प्रचार के दौरान आमजन के प्रति कुछ ऐसा दुलार दिखलाएँगे कि इनसे बड़ा मानवता का पुजारी और कोई है ही नहीं।
अपने जनपद में भी पाँच वर्ष पूर्व वे बुझी काटन मिल की चिमनी में धुआँ करने का आश्वासन देकर  चले गये थें। भोली जनता ने मानवीय गुण का परिचय दिया और उन्हें सिंहासन सौंप दिया ।  मानवत कथनी और करनी की इन रहनुमाओं की यह रही कि बेरोजगार, बदहाल, बेबस अपने जनपद के नौजवान  आज भी इस बुझी चिमनी ( कलकारखाने की चाह)को टुकुर- टुकुर ताक रहे हैं।
         मुट्ठी भर राजनीति के नेताओं, अर्थपतियों, सफेदपोश अपराधियों और धनलोलुप कुछ नौकरशाहों ने इंसान और इंसानियत से जुड़ी सारी व्यवस्थाओं को चौपट कर रखा है। मानवता खून के आंसू रो रही है, फिर भी मजे की बात यह है कि वे ही इस समाज के भाग्य विधाता बने बैठें है। सभामंडप में बापू (महात्मा गांधी) का द्वितीय अवतार स्वयं को साबित करने के लिये शब्दजाल बुनते रहते हैं। मानवता  इसी में बंधक बनी छटपटाहट रही है। इनकी चकाचौंध भरी दुनिया को देख युवावर्ग दिगभ्रमित है,वह भी मानवीय गुणों का त्याग कर इस अंधकूप में छलांग लगा रहा है।
      नैतिक शिक्षा का वह सबक  जिससे विद्यालय में बच्चे स्वयं ही मानवीय गुणों से परिचित हो जाते थें , वह कहाँ और क्यों गुम हो गया है । सभ्य समाज को इस पर गंभीर चिन्तन करना होगा। पहला तो यही कि जो जनहित में तप ( सृजन) कर रहा हो, समाज उसका संरक्षण करे, उसके कार्य , उसके श्रम, उसकी निष्ठा और निःस्वार्थ भाव से की गयी उसकी साधना को सम्मान दें। उसके इन मानवीय गुणों का उपहास इन शब्दों से करना कि जमाने के साथ चलना  नहीं  सीखा । इससे बढ़ कर अमानवीयता और कुछ भी नहीं है। ऐसे कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तियों को जिस मंच से सम्मान- पुरस्कार मिलना चाहिए , उसपर यदि कोई जुगाड़ तंत्र से अपना अधिकार जमा लेगा ,तो दिन प्रतिदिन मानवता का इसी तरह से क्षय होगा। इन ढ़ाई दशकों में पत्रकारिता के क्षेत्र में उपेक्षा ,उपहास और बेरोजगारी के इस दर्द से मैं  गुजर चुका हूँ। राजनीति, साहित्य और समाज सेवा के मंच पर मुझसे भी अधिक त्याग करने वालों के हृदय को टटोले जरा उनकी इसी "मानवता" ने अनेकों जख्म उसे दिये हैं। भ्रष्ट राजनीति के अपराधीकरण ने माननीयों की परिभाषा बदल दी है। बगुला जब समाजसेवा के मंच पर "हंस" बन खड़ा हो , तो फिर मानवीय गुणों का संरक्षण कदापि सम्भव नहीं है ।

          जब बनारस में कम्पनी गार्डेन से मेरी दोस्ती थी। वहाँ , एक मानव जी , जो कवि भी थें, प्रातः भ्रमण को आते थें। धर्म ग्रंथों की कथाओं को ज्ञान-विज्ञान की तराजू पर तौला करते थें। अतः वहाँ काशी में वामपंथियों जैसी उनकी वाणी को मुझ जैसे चंद युवकों को छोड़ कौन पसंद करता। परंतु एक बात वह यह कहते थें कि बेटा मतभेद विचारों का हो ठीक है,मनभेद मत करना कभी। यदि संकट काल में किसी ने सहायता को पुकारा तो उसकी जाति- धर्म न देखना। यह जो दिल से दिल तक का रिश्ता है न यही "मानवता" है।

 रिश्ता दिल से दिल के एतबार का,
जिंदा हमीं से नाम प्यार का,
कि मरके भी किसी को याद आएँगे,
किसी के आँसुओं पे मुस्कराएँगे,
कहेगा फूल हर कली से बार-बार
जीना इसी का नाम है..

   यह गीत मुझे बेहद सुकून देता है, जब कभी मेरा हृदय स्वयं को छला हुआ, ठगा हुआ महसूस करता है।
   -व्याकुल पथिक
 (जीवन की पाठशाला )