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Sunday 19 January 2020

भिखारी


(जीवन की पाठशाला)


मीरजापुर की एक घटना पर आधारित मार्मिक कथा


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   उसका स्वाभिमान मंदिर के चौखट पर कुचल गया..! आज भगवान जी की मूर्ति के समक्ष यह कैसा अन्याय हो गया.. !! भिक्षुकों की टोली में एक नया भिखारी आखिर क्यों शामिल हो गया.. !!!
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【 दृश्य-1】

  सुबह हो चुकी थी ,परंतु ठंड कुछ ऐसी थी कि गरम कपड़ों के अंदर घुसकर हड्डियों को गलाए जा रही थी। बर्फीली हवाओं से बचने केलिए राघव बार-बार साइकिल की गति धीमी कर मफलर को टोपी पर कस रहा था। तभी भिक्षुकों का एक समूह हाथों में कटोरा लिए  " दान-पुण्य " की पुकार लगाते हुये नगर के एक प्रमुख मंदिर के समीप जा पहुँचा । बूढ़े,जवान,महिला और बच्चे सभी इस टोली में शामिल थें। मर्द जहाँ बड़ी- बड़ी गठरियों को बांस के सहारे कंधे से लटकाए हुये थे , तो वहीं स्त्रियों ने भी दान में मिली पुरानी चादरों में गाँठ लगी बड़ी- बड़ी झोलियाँ ले रखी थीं। ये सभी अनाज से भरी हुई थीं और बच्चों के चेहरे की चमक भी देखते ही बनती , इन्हें खाने केलिए भरपूर सामग्री मिल गयी थी।

 इन्हें देख राघव भुनभुनाता है-  " कैसे निर्लज्ज लोग हैं ये ? मानों पुरुषार्थ न करने की कसम खा रखी हो और  मर्द तो खासे हट्टे-खट्टे हैं , फिर भी भिक्षा मांगने में आत्महीनता का भाव उनमें तनिक न है। भीख मांगना उनके लिए बिना श्रम और धन खर्च किये बढ़िया व्यापार है । हाँ, जन्मसिद्ध अधिकार भी !"
     जब भी ग्रहण लगता है, न जाने कहाँ से डेढ़-दो हजार की संख्या में ऐसे लोग शहर में डेरा डाल लेते हैं। मैले-कुचैले वस्त्र , बिखरे केश , मलिन मुख और शरीर से निकलती दुर्गंध , इनके तो समीप से होकर गुजरना भी कष्टकारी है। इन्हें देख राघव को न जाने ऐसा क्यों लगा कि " शाइनिंग इंडिया " की ये सभी सजीव तस्वीर हैं। स्वामी विवेकानंद के शिकागो धर्मसभा में पहुँचने से पहले अपने देश के संदर्भ में विदेशी लोग जो सोच रखते थे। इन्हें देख राघव को लगा कि वे गोरे कुछभी गलत तो नहीं कहते थे।
      उधर, मंदिर के बाहर तिराहे पर अलाव को घेरे भिखारियों के भी क्या ठाठ हैं। कोई टांग फैलाए, तो कोई उकडूँ बैठ हाथ सेक रहा था। जब हाथ में कटोरा हो , तो पेट भरने की फिक्र काहे की ! भगवान का वास्ता दिये बिना भी इनकी रसना यहाँ तृप्त हो जाया करती है।
  राघव ने देखा कि एक धर्मभीरु भक्त सामने वाली चाय की दुकान से इन्हें आवाज लगा रहा है। अबतो चाय के साथ बिस्किट भी इन्हें मिल गये थें । चायवाले ने उसे बताया कि ठंड के मौसम में इन भिखमंगों की मानों लाटरी निकल आती है। एक मौसम में पाँच से सात कंबलों का जुगाड़ मजे से हो जाता है। इसबार तो मंदिर पर आकर जिले के दयालु कप्तान साहब ने अपने हाथों से इनके ठिठुरते बदन पर बढ़िया किस्म का कंबल डाला था। परंतु अगले दिन ये कंबल न जाने कहाँ गायब हो गये थे । ये भिखारी फिर से फटी-पुरानी चादरों में लिपटे मिले । संग्रह की इनकी यही लालसा इन्हें ऐसे सामग्रियों के उपभोग से वंचित कर देती है।

【दृश्य-2】


    मंदिर के दूसरे छोर से एक और पुकार राघव को  सुनाई पड़ती है। उसने देखा सुबह से बोहनी न होने से निराश ठंड से ठिठुरते उस बूढ़े रिक्शावाले की आँखों में एक भद्रपुरुष को देख तनिक चमक- सी आ गयी है। 

 उसने अतिविनम्र भाव से कहा-" सा'ब ! टेशन -बस अड्डा  ? "
  जिसपर उसकी ओर बिन देखे ही भद्रपुरुष ने कहा- " नहीं । "
" तो सा'ब जी जहाँ आप कहो ?" रिक्शावाले ने तनिक दीनता प्रदर्शित करते हुये पुनः अनुरोध किया।
   परंतु यह क्या ?  इसबार उस भद्रपुरुष की भावभंगिमा कुछ ऐसी थी कि मानों बिल्ली ने रास्ता काट दी हो।
  उसने झुंझलाते हुये कहा - " जहन्नुम में जाना है,  चलोगे? एक तो पैसे भी अधिक लोगे और चाल बैलगाड़ी-सी भी नहीं..!"
    तभी ई-रिक्शे का हार्न सुन वह उसपर सवार हो निकल लेता है ।
  बेवस निगाहों से बूढ़ा कभी अपने रिक्शे तो कभी ई-रिक्शे की गति को देखते रह जाता है  और फिर मंदिर की ओर निगाहें उठा कर कुछ बुदबुदाता है ।
  शायद विधाता से पूछ रहा हो कि उसके पुरुषार्थ का कोई मोल नहीं ?
    अबतो उससे यहाँ ठहरा नहींं जा रहा था। फिरभी जाड़े से संघर्ष करने केलिए वह शरीर पर पड़े पुराने शाल को और कसकर लपेट लेता है।
    सवारी की प्रतीक्षा में पिछले दो घंटे रिक्शे पर बैठे-बैठे उसके हाथ-पांव को मानों पाला मार दिया हो । बदन थरथराने लगा था। वह कभी मंदिर तो कभी सड़क की ओर दृष्टि उठाके देखे रहा था। इन भिखमंगों को देख उसे कुढ़न हो रही थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि दयामयी ईश्वर के दरबार में उसके साथ यह पक्षपात क्यों हो रहा है।  भिखारियों को बिना तन डोलाए ही नाना प्रकार के भोज्यपदार्थ मिल रहे हैं और रिक्शा खींच कर भी उसके पेट में न जाने क्यों आग लगी रहती है।
  आज तो उसे ऐसा लग रहा था कि उसके स्वाभिमान को यह ठंड ग्रहण बन निगलने को आतुर है। पौ फटने से पहले उसने यह सोचकर रिक्शा निकाला था कि चार-छह चक्कर मार लेगा तो सुबह की चाय और कचहरी के पास वाले ठेले से बाटी-चोखा मिल जाता। बोहनी न होने से वह स्वयं पर यह कह झल्लाता है- " ससुरा ! ई पापी पेट बुढ़ापे में भी हलकान किये है। "
   पर वह जानता है कि पेट केलिए मजूरी तो करनी ही है और नहीं तो दिनभर ई-रिक्शा और आटो की धमाचौकड़ी के सामने उसके बूढ़े रिक्शे की सवारी कौन भलामानुष पसंद करेगा।
  परंतु आज तो बाबू-भैया की हाँक लगाते- लगाते उसकी जुबां थक चुकी थी । अपने श्रम के इस उपहास पर किसकी अदालत में अपील करता वह ?

【 दृश्य-3 】


    अचानक गरम हलवे की सुगंध ने उसे फिर से बेचैन कर दिया था । सुबह से चाय भी तो नहीं पी रखी थी। सुर्ती मलकर तलब मिटाने की कोशिश नाकाम हो चुकी थी। रिक्शे की सीट पर घुटने को  छाती से चिपकाए बैठे इस वृद्ध की निगाहें एक बार फिर अलाव के समीप हो रहे कोलाहल की ओर जाती है । यहाँ एक समाजिक संस्था के मुखिया के जन्मदिन पर मंदिर के बाहर बैठे भिक्षुकों को हलवा-घुघरी परोसा जा रहा था।

   राघव ने देखा कि मीडिया के लोग भी पहुँच चुके हैं। जिन्होंने मुखिया जी के इस " दरिद्र नारायण सेवा " वाली कई खूबसूरत तस्वीरें ली ,वीडियोग्राफी भी हुई है । तभी मुखियाजी के कानों में ये मीडियावाले कुछ फुसफुसाते हैं और फिर प्रसाद संग एक-एक लिफाफा इनसभी के हाथों में होता है।  अब यह पक्का था कि उनकी यह तस्वीर कल के अखबारों में समाजसेवा की मिसाल बनेगी। 
       ललचायी आँखों से उसने खाली हो रहे हलवे के भगौने को फिर से देखा। अबतक संस्था के किसी कार्यकर्ता में यह भलमनसाहत नहीं थी कि इधर आकर उससे कहता कि बाबा, तुम भी मुखिया जी की लम्बी आयु केलिए दुआएँ  करो और यह लो हलवा-घुघरी। उनमें तो सेल्फी लेने की होड़ मची हुई थी।
    धीरे-धीरे कोलाहल थमने लगा था। याचना भरे नेत्रों से उसने मंदिर में विराजमान भगवान की ओर भी देखा। मुखिया जी ने आज विशेष श्रृंगार करवा रखा था। नाना प्रकार के मेवा-मिष्ठान मूर्ति के समक्ष रखे हुये थें।
 अबतो उससे बिल्कुल ही रहा नहीं जा रहा था।उसकी समस्त इंद्रियाँ जवाब देने को थीं, यद्यपि उसका स्वाभिमान किसी के समक्ष उसे हाथ पसारने नहीं दे रहा था । भीख ही मांगनी होती तो क्यों इस बुढ़ापे में रिक्शा चलाता वह।  जिंदगीभर की कमाई यूँ ही चली जाए,यह उसे मंजूर न था । उसने एकबार फिर से चारों ओर निगाहें दौड़ाई। काश! कोई सवारी मिल जाए और वह यहाँ से दूर चला जाता।
 उफ!  नियति भी उससे आज ये कैसा खिलवाड़ कर रही है। पुरखों को वह क्या मुँह दिखाएगा ? वह अपने इच्छाओं के प्रवाह को बलपूर्वक रोके हुये था।
  और अचानक .. उसके दुर्बल काया में तेज कंपन होती है। इससे पहले कि वह रिक्शे पर से नीचे गिरता ,उसने किसीतरह स्वयं को संभाल लिया । उसके मस्तिष्क ने काम करना बंद कर दिया था और पांव अलाव की ओर बढ़ते चले गये।  चेतनाशून्य हो वह उन भिक्षुकों के बीच जा बैठा था ।
  तभी मुखिया जी की आवाज उसके कान में पड़ती है -" अरे देखो ! एक तो छूट ही गया। इसके लिए भी दो दोने लेते आना जरा ? "
    यह देख वह जोर से चिल्लाना चाहता था - " भिखमंगा नहीं रिक्शेवाला हूँ मैं..।"
  लेकिन, गला उसका रुँध गया ...।
  उसका स्वाभिमान मंदिर के चौखट पर कुचल गया..!आज भगवान जी की मूर्ति के समक्ष यह कैसा अन्याय हो गया.. !! भिक्षुकों की टोली में एक नया भिखारी आखिर क्यों शामिल हो गया.. !!!
    रिक्शावाले के श्रम का प्रतिदान  ...यह भीख  ?   कैसे हैं हम और हमारी सामाजिक व्यवस्था.. !!!!
   
        - व्याकुल पथिक

25 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक चित्रण 👌👌

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  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 20 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  3. बहुत ही हृदयस्पर्शी रचना ।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (21-01-2020) को   "आहत है परिवेश"   (चर्चा अंक - 3587)   पर भी होगी। 
    -- 
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
    सादर...! 
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 

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    1. जी गुरु जी हृदय से आभार आपका

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  5. रिक्शावाले के श्रम का प्रतिदान ...यह भीख ? कैसे हैं हम और हमारी सामाजिक व्यवस्था..
    हृदय को झकझोड़ता एक महत्वपूर्ण प्रश्न ,बेहद मार्मिक लेख ,सादर नमन शशि जी

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    1. जी आभार ,कामिनी जी, प्रणाम।

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. जी अनील भैया, आपने विस्तार के साथ ऐसे विषयों पर प्रकाश डाला, मेरा लेखन सफल हुआ।
    एक पत्रकार का कर्तव्य है कि वह जनसमस्याओं को उछाले, साहित्यकार का कर्तव्य है कि ऐसी समस्याओं को इस तरह से प्रस्तुत करे कि उसकी संवेदनाएँ औरों तक पहुँच सके, बस हमें डटे रहना चाहिए।

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  8. Tecnology ke vikas ke sath
    bahut kuchh pichhe chhoot jata hai,Auto kam
    kharchila aur time saving
    hai,daya karuna ke bhav
    abhi shesh hain,jisse bhikhari rickshaw vale se
    behtar hota hai, tamam
    Profession thandhe pad
    gaye hain, photographer
    kahan rah gaye, akhbaron
    ke siva, jo pachas ka ho
    gaya bekar ho gaya,chitthi
    chaupati, MO ab gujre daur ki baat hai, naya kya
    hai , behtar ki anthin talash
    ke siva, kahani marmik hai
    aur sochne ko majboor karti hai.

    -श्री अधिदर्शक चतुर्वेदी, वरिष्ठ साहित्यकार मुंबई

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  9. इस गरीब रिक्शे वाले की सी हालत तो हमारे हज़ारों बेरोज़गार नौजवानों की भी है जिन्हें कभी-कभार धरना देने की, जुलूस निकालने की और पत्थर मारने की मज़दूरी मिल जाती है, बाक़ी दिनों तो उन्हें माँ-बाप की खैरात पर ही जीना पड़ता है.

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    1. उचित कहा आपने आदरणीय , उन्हीं बेरोजगारी की फेहरिस्त में हमारे जैसे निठल्ले पत्रकार भी है, कभी थोड़ी लेखनी इधर से उधर कर ली तो कुछ जुगाड़ हो जाता है, नहीं तो दांत निपोरते रहते हैं।
      प्रणाम।

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  10. मार्मिक कहानी

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  11. मार्मिक कथा के साथ घटते श्रम की व्यथा की ध्वनि निकल रही है । खुद के यश के लिए भीख (एक तरह से गलत को दान) देकर आलसी बनाने की फैक्ट्री खोलने वाले पुण्य नहीं पाप कमाते हैं । उन्हें नरक में ही स्थान मिलता है ।
    बहुत अच्छी भाषा और मजे हुए लेखन के लिए बधाई । ऐसा लेखन कलम का सच्चा साधक ही कर सकता है ।
    लेखन के क्षेत्र में भी भिखारी और चोर दिनोंदिन बढ़ रहे हैं । जो दूसरे के लेखन को एडिट कर अपना लेखन साबित करने का प्रयास करते हैं लेकिन उनकी भाषा-बोली तथा लिखावट से तब मालूम होने लगता है जब 'मैंने तो कहते थे साहब, आपने गड़बड़ी किए हैं' का प्रयोग लिखते और बोलते वक्त करते हैं ।-सलिल पांडेय, मिर्जापुर ।

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  12. Ji bhai sb, lekin raghav ji ki nigaah se purusharthi rickshawwala kaise bach pata. Bahut hi hriday-sparshi wa haqeekat-aadharit lekh. 🙏🏻
    -टिप्पणीकर्ता एक वरिष्ठ अधिकारी

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  13. बहुत ही मार्मिक और हृदय को झकझोर देने वाली कहानी को पढ़ने को मिला

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  14. शशि जी आज के यथार्थ को दर्शाती आपकी एक और बेहतरीन रचना जो सभी को सोचने के लिए मजबूर कर सकती है कि "आखिर ऐसा क्यों?" एक कर्मशील इन्सान को भिखारियों की टोली में जा बैठना पड़े इससे बुरा और क्या हो सकता है?

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yes