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Wednesday 24 June 2020

सौदा

मन के भाव
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    "हमारा यह नटखट लल्ला बाबा जी का पक्का भक्त हो गया है। अभी साढ़े तीन साल का है ,पर देखो न ऐसा कपालभाति प्राणायाम करता है कि बड़े-बड़े योग साधक चकित रह जाते हैं..!"

      अमुक प्रतिष्ठान पर खड़ीं उन दोनों महिलाओं का वार्तालाप सुनकर मयंक ने उत्सुकतावश अपनी दृष्टि उस ओर डाली ,तो देखा कि वे औषधीय गुणयुक्त चाय का एक पैकेट खरीद रही थीं। साधारण पोशाक में लिपटी बिना साज- श्रृंगार के ये प्रौढ़ और युवा औरतें आपस में माँ-बेटी थीं। जिनकी निगाहें दुकान में करीने से सजाकर रखे गये बाबा जी के तरह-तरह के स्वास्थ्यवर्धक उत्पादों पर टिकी हुई थीं। वे दुकानदार से ऐसे कुछ उत्पादों का मूल्य पूछतीं और फ़िर उसकी क़ीमत सुनकर मनमसोस के रह जाती थीं। यहाँ से उन्होंने सिर्फ़  एक पैकेट दिव्य चाय ही लिया था। हाँ, बच्चे के ज़िद करने पर प्रौढ़ महिला अपने बटुए को टटोलती है । उसने पाँच-पाँच के दो सिक्के उसमें से निकाले और आटे से निर्मित बिस्किट का एक छोटा सा पैकेट बच्चे को थमा दिया । वह चाहती तो पाँच रुपये वाला पारले-जी बिस्किट भी उसे दिला सकती थी,पर बाबा जी के उत्पाद पर उसे पूरा भरोसा था । 


         वे माँ-बेटी बाबा जी की सच्ची अनुयायी थीं, जो दुकान पर खड़े एक अन्य योग साधक को बड़े गर्व से बता रही थीं कि उनके परिवार का कोई भी सदस्य साधारण चाय नहीं पीता है। वे सभी सुबह योग-प्राणायाम कर गिलोय ,तुलसी और कालीमिर्च इत्यादि डाल के बनाये गये काढ़े का सेवन करते हैं। उनका लल्ला भी यह कड़वा काढ़ा मांग कर पीता है। यह उनके लिए जीवन संजीवनी है। बाबा जी ने बताया है।  हाँ,जब कभी घर में कोई अतिथि आता है,तभी वे इस दिव्य पदार्थों से बनी चाय के पैकेट का उपयोग करती हैं। वे उन्हें दूध-चायपत्ती वाली साधारण चाय पिला कर बाबा जी की आज्ञा का उलंघन नहीं कर सकती हैं।

     वे महिलाएँ जिनके पास स्वयं दिव्य चाय पीने का सामर्थ्य नहीं हो ,फ़िर भी गुरु में उनकी ऐसी प्रबल आस्था देख पल भर के लिए मयंक को अपने आश्रम वाले जीवन का स्मरण हो आता है। जहाँ गुरु में उसकी श्रद्धा तो थी,किन्तु उनकी वाणी को तर्क की कसौटी पर कसने का प्रयत्न करता था। वह स्वयं से सवाल करता था कि ज़ब ईश्वर एक है, तो उस तक पहुँचने का मार्ग बताने वाले धर्मगुरुओं में एक दूसरे की उपासना पद्धति को लेकर इतनी घृणा क्यों है ? वे उपासना के तरीके को लेकर अपने शिष्य के हृदय में "विश्वास परिवर्तन" कराना क्यों चाहते हैं ?  संभवः आस्था की पाठशाला में "तर्क और विज्ञान " जैसे शब्द नहीं हैं,अतः मयंक सच्चा शिष्य नहीं बन सका था। 

     और आज़ भी इन दोनों महिलाओं की गुरु- आस्था को देख वह आनंदित तो हुआ ,लेकिन उनकी आँखों में छिपी ग़रीबी की इस विवशता को पढ़ कर मयंक का संवेदनशील हृदय द्रवित हो उठा था। उसके मन में पुनः अनेक प्रश्न उठ खड़े हुये हैं। लेखन कार्य से जुड़ा होने के कारण वह अनेक गुरुओं के दरबार में गया है। विंध्यक्षेत्र के एक प्रमुख आश्रम में उसने देखा है कि संपन्न भक्तों को गुरु की विशेष कृपा और प्रसाद की बड़ी-बड़ी पोटलियाँ मिलती हैं,जबकि सामान्य भक्त इस सुविधा से वंचित हैं ,चाहे गुरु के प्रति उनमें कितनी भी आस्था क्यों न हो । स्वयं महामाया विंध्यवासिनी के मंदिर में मायापति (वीआईपी) भक्तों के चरणों तले आम दर्शनार्थियों की आस्था कुचली जाती है। ऐसे उपासना स्थलों पर विशिष्ट व धनाढ्य भक्तों की ही पूछ के पीछे व्यापार नहीं तो और क्या है ? फ़िर इन दोनों ग्रामीण महिलाओं की आस्था का क्या मोल है?

यह सवाल आज़ भी उसके लिए यक्ष प्रश्न है! 

  मयंक को नहीं पता कि क्या कभी इन निर्धन महिलाओं में इतना सामर्थ्य होगा कि वे बाबा जी द्वारा निर्मित स्वास्थ्यवर्धक खाद्य सामग्रियों को "गुरु प्रसाद" समझ घर ला सकेंगी। इस अर्थयुग में उसका यह कैसा विचित्र प्रश्न है ?  यह जानते हुये भी कि इस सभ्य संसार में सब-कुछ व्यापार है । अन्यथा ऐसा कोई एक सस्ता स्वास्थ्यवर्धक उत्पाद तो इन ग़रीब भक्तों के लिए किसी न किसी प्रतिष्ठान पर होता ही , जिसे वे अपने परिवार के लिए आसानी से क्रय कर सकती , किसी सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर मिलने वाले राशन की तरह ? काश ! इनके निष्ठा और विश्वास के लिए ऐसी कोई व्यवस्था संभव हो पाती।


     यकायक मयंक को अपने एक संबंधी के उस उपदेश की याद आ गयी थी। जब वह कालिम्पोंग में रहता था। जहाँ उनकी मिठाई की दुकान थी, वहीं पहाड़ की ऊँचाई पर एक सरकारी कन्या विद्यालय भी था। लंच के समय प्रतिदिन उस पहाड़ी से नीचे उतर कर लगभग चालीस- पचास नेपाली छात्राएँ  पचास पैसे का सिक्का लिये उनके प्रतिष्ठान पर आया करती थीं। निर्धन परिवार की ये  लड़कियाँ भूजा (बेसन का नमकीन सेव)  खरीदने आती थीं। पचास पैसे में और कुछ मिलना संभवः भी नहीं था। दुकान पर इनके लिए भूजा के बड़े-बड़े पैकट तैयार कर पहले से रख दिये जाते थे। जिनमें कम से कम एक रुपये का भूजा होता था। मयंक ने स्वयं तोल कर उसे देखा था। वह समझ नहीं पाता था कि दुकान पर यह घाटे का व्यापार क्यों किया जाता है ?  आखिर एक दिन उसने अपने संबंधी से पूछ ही लिया। जिसपर प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था-   
  " हम व्यापारी अवश्य हैं,किन्तु ये बच्चे हमारे लिए 'करेंसी' नहीं हैं ,जो सिक्के का वजन देख कर इन्हें सौदा दिया जाए। देखना ही है, तो भूजा लेने के पश्चात इनके मासूम चेहरे पर मुस्कान देखिये आप.. ।" उनका कहना था कि व्यापार में भी मानवीय संवेदनाएँ  होती हैं। 

     काश ! उनकी यह बात धर्म के तथाकथित उन ठेकेदारों को भी समझ में आ जाती, जो धर्म को ' व्यापार ' और भक्त को 'करेंसी' समझते हैं । जिसके मूल्य के अनुपात में अपना आशीर्वाद भक्त को प्रसाद की छोटी- बड़ी पोटली के रूप में देते हैं। इनमें से कोई भी धर्मगुरु घाटे का व्यापार करना नहीं चाहता है। वे उस बच्चे की तरह खरा सौदा नहीं करना चाहते हैं, जो बाद में गुरु नानक देव बना। कोई भी गुरु नानक, कबीर और रैदास नहीं बनना चाहता है। वे तो मुनाफ़े वाला व्यापार चाहते हैं। फ़िर ऐसे में वे पचास पैसे में एक रुपये का भूजा जैसा कोई उत्पाद ग़रीब भक्तों को कैसे देंगे ..?

   तो क्या इस दुनिया में 'करेंसी' ही अब सब-कुछ है..! धर्म,शिक्षा, चिकित्सा, साहित्य, राजनीति और यहाँ तक की समाजसेवा भी सौदा है..!
आस्था,त्याग समर्पण, संवेदना और भावना जैसे शब्द उसी प्रतिष्ठान के महंगे उत्पादों की तरह सजावट की सामग्री मात्र हैं..! जिन पर निर्धन नहीं सिर्फ़ धनिकों का अधिकार है, क्यों कि व्यवसायिक दृष्टि से वह कागज़ का टुकड़ा भारी है..? 
    परंतु याद रखें जिस दिन हमें हृदय की तुला पर वजन करना आ जाएगा, उन छात्राओं का धातु निर्मित पचास के सिक्के वाला पलड़ा भारी मिलेगा । हम करेंसी से 'इंसान' बन जाएँगे। वे व्यापारी से संत बन जाएँगे,बिल्कुल गुरु नानक देव की तरह हम खरा सौदा कर पाएँगे। 
      
  -व्याकुल पथिक