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Wednesday 27 February 2019

है लहराया तिरंगा



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है लहराया तिरंगा,होरही पुष्प वर्षा
मनाते दिखे सब , होली -दीवाली

मुखरित हुआ मौन, सिंहनाद भारी
माँ भारती के वीरों की हुंकार भारी

ये वक्त हमारा है, वो गर्दिश तुम्हारी
ये आसमां हमारा , वो कब्र तुम्हारी

ये होली हमारी है, वो लहू  तुम्हारा
ये गोली हमारी है, वो लाशें तुम्हारी

शहीदों की माताएँ , कहें सीना ताने
है बढ़े जो कदम तेरे , पीछे न लाना

प्रतिशोध की ज्वाला  ,यूँ न बुझाना
मिटा  दुश्मनों को, वीर लौट आना

शहीदों की विधवाएँ, कहें भैया मेरे
हैं फड़कती भुजाएँ, उठा ले तिरंगा

टूटी चूड़ियों की है सौगंध,तू सुन ले
दुश्मन जो ताके, मिटा उनकी लंका

दिखा पराक्रम आज, जयकार भारी
नभ से पुकारे कोई, वीर भारतवासी

शहीदों की मुस्कान,जुबां पे है वाणी
जला रे तू दीपक,अब हमें दे सलामी

                .         -व्याकुल पथिक

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हम तुम्हें मारेंगे  और जरूर मारेंगे
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 भारत द्वारा सीमा पार आतंकी शिविरों पर की गई बमबारी और भारी संख्या में आतंकवादियों को मार गिराने की खबर से देश का हर नागरिक  गर्व से  सीना  फुलाए है। सौदागर फिल्म में  राजकुमार का वो डायलॉग  "हम तुम्हें मारेंगे  और जरूर मारेंगे, पर  वह बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी और वक्त भी हमारा होगा , बस जमीन तुम्हारी होगी "  युवा वर्ग की जुबां पर है। वहीं वरिष्ठ लोग "जय हिंद जय हिंद की सेना" इस उद्घोष के साथ भारत माता के वीर जवानों को सलाम कर रहे हैं।
   भारी उत्साह का माहौल है । होली और दीपावली दोनों ही सड़कों पर उतर कर यहां की जनता मना रही है। एयर सर्जिकल स्ट्राइक- 2 के बाद से जनमानस में यह भावना जगी है कि हमारी सरकार ,हमारे जवान अब शत्रुओं को उन्हीं की भाषा में उत्तर देने में कोताही नहीं करेंगे । 14 फरवरी को जम्मू कश्मीर के पुलवामा में आतंकी हमले में मारे गए जवानों की तेरही पर हमारी सेना ने जो सफल कार्रवाई की है, वह इन शहीदों के प्रति सबसे बड़ी सच्ची श्रद्धांजलि है। अन्यथा जुबानी ललकार तो वर्षों से हमारे राजनेताओं की भाषा रही है ।जिसे सियासत से अधिक और कुछ भी नहीं जानता समझ रही थी,  परंतु अब यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यह कहते हैं, " मैं देश नहीं रूकने दूंगा-मैं देश के लिए नहीं झुकने दूंगा" या फिर यह कहते हैं "खुद से बड़ा दल ,दल से बड़ा देश" , तो फिर उनकी बातों में वजन है इतना तो कहा ही जा सकता है। भले ही सियासी चश्मे से इसे विभिन्न राजनैतिक दलों के लोग देखते हो ,परंतु यह जश्न का समय है और अपनी सेना की ताकत पर ,उसकी सफल ऑपरेशन पर और उसके सम्मान में जितने भी राजनेता हैं, सभी को एक मंच पर खड़े होकर ताली बजाना चाहिए। जो ऐसा नहीं करता है, वह इस राष्ट्र में जयचंद से अधिक कुछ भी नहीं है। ऐसे लोगों की पहचान यदि समय-समय पर होती रहती तो आज यह स्थिति उत्पन्न ही नहीं होती। ऐसे अलगाववादी तत्वों को राजनैतिक संरक्षण देने के कारण ही आतंकवादियों को अपने रास्ते में शरण देने वालों का मनोबल बड़ा है। परंतु इस सर्जिकल स्ट्राइक टू से अब आतंकवादियों के रहनुमाओं को समझ में कुछ तो आया ही होगा कि हमारी सरकार और हमारी सेना बड़ी कार्रवाई के लिए तत्पर है और वह किसी कूटनीति के चक्रव्यू में उलझने वाली नहीं है सेना का मनोबल इससे बड़ा होगा और शत्रुओं को यह समझ में आ गया होगा कि दरबे में छिपकर बैठने और मौका मिलते ही कायरों की तरह घात लगाकर हमला करने का उनका नापाक खेल अब उनपर ही भारी पड़ेगा । देश की सुरक्षा के लिए मां भारती के लाल अब सीमा उस पार घुस कर भी उन्हें कब्र में सुला सकते हैं ।जैसा कि उन्होंने 26 फरवरी को किया ।भारतीय लड़ाकू विमानों ने जिस तरह से अपना पराक्रम पाकिस्तान की सीमा में घुस कर दिखाया और अपना ऑपरेशन पूरा कर वे वापस अपने वतन को लौट आये ,उससे शत्रुओं का दहल जाना और वहां के राजनेताओं का उल जलूल बयान देना दोनों ही परिस्थितियां पाकिस्तान के प्रतिकूल है। विशेषकर पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के लिए कल जहां पाकिस्तान के रहनुमाओं के विरुद्ध सेम- सेम का नारा लग रहा था तो वहीं अपने देश में भारत माता की जय और मोदी जिंदाबाद का उद्घोष चहुंओर सुनने को मिला। और ऐसा हो भी क्यों ना क्योंकि आतंकवादियों की घिनौनी हरकतों और बिना लड़े ली भारतीय जवानों के इस तरह से मारे जाने को लेकर जनता में वर्षों से आक्रोश रहा। राष्ट्र के प्रति समर्पित हर नागरिक जो स्वयं को भारत माता का संतान समझता है, उसकी एक ही इच्छा थी कि शत्रुओं को उसकी धरती पर सबक सिखाया जाए ।युद्ध का परिणाम भले ही विनाशकारी हो, विध्वंस कारी हो और सभ्य समाज को कटघरे में खड़ा करता हो।  लेकिन यह भी सत्य है कि बिना बलिदान के , बिना युद्ध के, बिना रक्तपात के शांति की स्थापना कहाँ हो पाती है।

Monday 25 February 2019

याचना नहीं अब रण हो



वीर शहीदों को श्रद्धांजलि के बाद
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  रामधारी सिंह "दिनकर" की वीर रस से भरी एक रचना की इन पंक्तियों-

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा...

      ...को साकार करने की मंशा लिये  आतंकी हमले में शहीद हुए जवानों के प्रति राष्ट्रीय और उसके नागरिकों ने विभिन्न आयोजनों के माध्यम से अपना श्रद्धा सुमन अर्पित किया । प्रबुद्ध वर्ग से लेकर साधारण तबक़ा तक ऐसे कार्यक्रमों को करते दिखा। जिससे लगा कि सचमुच हमारे सैनिकों की इस शहादत से हमारी सुप्त संवेदना , हमारी भ्रष्ट व्यवस्था , हमारे जुगाड़ तंत्र, हमारी राजनीति और रहनुमाओं की सोच में बड़ा परिवर्तन आने वाला है। आतंकवाद का पुतला दहन और पाकिस्तान मुर्दाबाद जैसे नारे लगाते लोगों को इस प्रकार से गली -सड़कों पर उतरते मैंने पहले कभी नहीं देखा था। बड़ों की बात छोड़ें,  नासमझ बच्चों का समूह 'मुर्दाबाद-मुर्दाबाद' कहते हुए हाथ में पुतला लिए गलियों में घूम रहा था । सभी की इच्छा यह रही कि आतंकवादियों और उनके संरक्षक को सबक़ सिखाने का समय आ गया है । अब भी अधिकांश लोग यह कहते मिल रहे हैं कि हमारी केंद्र सरकार निश्चित ही इन जवानों की हत्या का प्रतिकार लेगी। जब समझौता का कोई भी विकल्प शेष न हो तो युद्ध का शंखनाद कोई उन्माद नहीं है।  अन्यथा योगेश्वर कृष्ण महाभारत युद्ध होने ही न देते । 
    जब दुर्जनों को प्रेम की भाषा समझ में न आए, उसे यह लगे कि अहिंसा की बात करने वाले मूर्ख हैंं,कमजोर हैंं , बुज़दिल हैं और समझौते का आखिरी मार्ग भी बंद हो जाए तो फिर योगेश्वर कृष्ण द्वारा प्रदत्त 'ज्ञान गीता' रूपी रथ पर सवार हो अर्जुन बन हमें भी शस्त्र उठाना होगा। आरम्भिक परिणाम चाहे जो भी हो ,परंतु विजय सत्य की ही अंततः होती है।

आखिरी रास्ता
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   हमारे राजनेताओं का नज़रिया भले ही सियासत से जुड़ा हो। लेकिन , इस वोट बैंक की राजनीति से देश की रक्षा और उसके मान, सम्मान और स्वाभिमान की सुरक्षा संभव नहीं है। पूर्व प्रधानमंत्री द्वय लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी ने  युद्ध के आमंत्रण को स्वीकार किया और इसीलिये आज भी इन्हें राष्ट्र याद करता है। परिस्थितियाँँ चाहे जितनी भी कठिन हो, अंतरराष्ट्रीय दबाव जो भी हो,  लेकिन युद्ध जब आवश्यक है तो फिर उस महायुद्ध के लिए कमर कस कर तैयार हो जाना चाहिए और इन परिस्थितियों में विपक्ष में चाहे जो भी राजनीतिक पार्टी हो उसे सत्ता पक्ष का समर्थन करना चाहिए । इंदिरा गाँँधी के बाद हमने छद्म युद्ध कला भुला दी।  जिसका परिणाम है कि आतंकवादी बाहर के भी हैं और घर के भी..., इंदिरा गांधी स्वयं भी घर के आतंकवाद का शिकार हुई थीं। राजनीति में जब भी हम अपने स्वार्थ में अराजक तत्वों के साथ क़दमताल करेंगे तो उसका परिणाम हमें और हमारे राष्ट्र को भी निश्चित भुगतना पड़ेगा । जैसा कि पाकिस्तान स्वयं भी भुगत रहा है और वहाँँ के रहनुमाओं को अपनी सत्ता बचाने के लिए और सेना को खुश रखने के लिए सर्प रूपी ऐसे अराजक तत्वों को दूध पिलाते रहना होगा,  क्यों कि स्थिति उनके हाथ से निकल चुकी है। भारत के प्रति विद्वेष की राजनीति पर उनकी सत्ता टिकी हुई है।

मातमी चोले से करें तौबा
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   यह कैसी विचित्र विडंबना है हम भारतीयों की भी कि अभी कुछ दिनों पूर्व राष्ट्र के वे नागरिक , जो जवानों की हत्या पर आतंकवादियों और पाकिस्तान के विरुद्ध आग उगल रहे थे। शोक संवेदना का मातमी पर्व- सा माहौल पूरे भारत में बना हुआ था। यह सब देख कर पत्रकार से कहीं अधिक एक नागरिक के रूप में मैं भी इस उम्मीद से उत्साहित था कि क्या सचमुच 'व्यवस्था' में एक बड़ा परिवर्तन इस घटना के बाद हो रहा है? क्या अब लोग पहले से अधिक संवेदनशील हो रहे हैं ? क्या  हमारे नेता धनबल , जातिबल और बाहुबल की राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय के प्रति सच्चे हृदय से स्वयं को समर्पित करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं ?
    काश !  ऐसा होता तो कितना सुखद होता है।  इन वीर जवानों के बलिदान पर  इससे बड़ी श्रद्धांजलि और क्या होती कि हम एक संवेदनशील भारतवासी बन गए होतें ,परंतु एक संदेह यूँ कहें कि वेदना इस दौरान और भी हृदय में गहरा गई  कि अनेक लोग जो कि दिन में पुतला दहन कर रहे थे, वे शाम ढलते ही विभिन्न मांगलिक आयोजनों में डीजे पर थिरकते दिखेंं। मदिरालयों में भीड़ उमड़ी हुई थी।  और मैंने यह भी देखा कि पुतला दहन जुलूस के साथ सेल्फी लेने वाले युवकों की टोली भी थी, जिनकी आँखों में पानी नहीं था , वे तो अपने कार्यक्रमों के हर दृश्य की वीडियो ग्राफी कर सोशल मीडिया को गुलजार कर रहे थे । वे जुलूस के आगे खड़ा होकर सेल्फी ले रहे थे। 
      इतनी बड़ी घटना के बाद यदि वैवाहिक समारोह में डीजे नहीं बजता तो क्या विवाह बारात की भव्यता में कमी आ जाती ? सुबह तक उपदेशक की भूमिका में जो थे, वे शाम को " आज मेरे यार की शादी है " जैसे गीत पर  ठुमके लगाते मिले। तेज आवाज़ वाले वाद्य यंत्रों पर थिरकते ऐसे नादान लोगों को इतना भी समझ नहीं है कि पड़ोस में कोई व्यक्ति बीमार है, कोई बच्चा परीक्षा की तैयारी में जुटा है, किसी के घर का चिराग़ बुझ जाने से वहाँ मातम का माहौल है । वाद्ययंत्रों और पटाखों की तेज आवाज़ से हृदय रोग से पीड़ित बुजुर्ग लोगों का बुरा हाल है । तो फिर ऐसे तथाकथित देशभक्त शहीदों को खाक श्रद्धांजलि देंगे ? सो,अच्छा तो यही होता कि हमारी असंवेदनशील आँखें पूर्व की भांति वैसी ही पथराई रहतींं , उनमें ऐसी नमी किस काम की है ? कथनी- करनी का  फ़र्क परिवार , समाज एवं राष्ट्र के लिए अत्यधिक पीड़ादायक और हानिकारक है।  ऐसे महाशय जो सुबह मातमी चादर लपेटे  दिखते हैं, शाम होते ही रंग क्यों बदल लेते हैं ? इनकी संवेदना किस तरह के बलिदान से जगेगी ? यह तब भी यक्ष प्रश्न था और अब भी है । समय के साथ यह और भी गहराते जा रहा है।

पुकार रहा कर्मपथ
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  हमारी सुरक्षा व्यवस्था , हमारी खुफिया व्यवस्था और हमारी पुलिस की कार्यप्रणाली कितनी कमजोर है । इसका एक उदाहरण अपने मिर्ज़ापुर मंडल का भदोही जनपद रहा। जहाँ  गत शनिवार को एक मकान में भीषण विस्फोट हुआ था। यह घटना अत्यंत भयावह थी। उस मकान में रहने वाले एक दर्जन से अधिक लोगों की मृत्यु हो गयी। बताया जाता है कि पटाखा बनाने के लिए भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री यहाँ रखी गयी थी । पुलिस प्रशासन द्वारा इस अवैध पटाखा फैक्ट्री की अनदेखी किये जाने का मामला गरमाने लगा तो आलाअफ़सरों ने अपने ही महकमे के कतिपय प्यादों पर दांव खेल अपनी कुर्सी बचा ली।  हर बड़ी घटनाओं में उनके द्वारा कुछ इसी तरह से से मातहतों को शहीद किया जाता है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पूर्व पटना के गांधी मैदान में आयोजित उनकी रैली के दौरान जो बम ब्लास्ट हुआ था। उसमें प्रयुक्त बम हमारे मिर्ज़ापुर नगर में बने थे। बाद में जब इसका खुलासा हुआ , तो यहाँ  से भी कुछ युवकों को उठाकर सुरक्षा जाँच ऐजेंसी की टीम ले गई थी । जरा विचार करें कि जनपद स्तर पर  हमारा सुरक्षा तंत्र और ख़ुफ़िया महकमा कितना कमजोर है , परंतु क्या हम नागरिकों का यह दायित्व नहीं है कि पड़ोस में यदि मौत का सामान बन रहा हो तो इसकी जानकारी हमारे माध्यम से शासन-प्रशासन तक पहुँच जाए ? मैं तो सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि जाति और सम्प्रदाय से ऊपर उठकर   देश के हर नागरिक का यह नैतिक कर्तव्य है कि ऐसे अराजकता तत्वों पर, ऐसे संदिग्ध लोगों पर दृष्टि रखी जाए ? यही हमारा धर्मपथ और कर्मपथ भी है। कभी-कभी माँ भारती के इस पवित्र कार्य के लिए रक्तदान भी करना पड़ सकता है,इन शहीद जवानों की  तरह-

कर्मपथ पर सीना ताने,
 वीर जवान चल दिये,
माँ भारती के थे  दुलारे,
 धर्मपथ पर चल दिये।

-व्याकुल पथिक

Saturday 23 February 2019

तुम आओ न..

तुम आओ न..
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दर्द ये पिघल जाए
दिल जो बहल जाए
स्वप्न  फिर संवर जाए
तुम आओ न..

सोच ये बदल जाए
मीत  जो  मिल जाए
गीत  कोई  नया  गाए
तुम आओ न..

रंग ये निखर जाए
संग जो  तेरा पाए
पुष्प फिर खिल जाए
तुम आओ न..

दिन ये चमक जाए
शाम  जो बहक जाए
बेक़रार हमें कर जाए
तुम आओ न..

नयन ये मुस्काए
बदन जो सिहर जाए
मिलन  फिर हो जाए
तुम आओ न..

चमन ये महक जाए
बागवां जो मिल जाए
सुंगध फिर  बिखर जाए
तुम आओ न..

राह ये दिखा जाए
चैन  जो  हमें आए
हम किसी के हो जाए
तुम आओ न..

यादें ये रुला जाए
आंगन जो सूना पाए
किस्मत नहीं बदल पाए
तुम आओ न..

       -व्याकुल पथिक

Thursday 21 February 2019

ये क़रार तो न था..

 ये क़रार तो न था..
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क़रार जिनसे था , थी बे-क़रारी
झुकी नज़रों में थी,किस्मत हमारी

कहा था जो,किसी ने सुनाते रहेंगे
ताउम्र वो लफ्ज़, तेरी जिंदगी के

दोस्ती से आगे , हममें क्या न था
लबों पे मुस्कान, मयखाना तो न था

नशा इश्क़ का,थे अरमान ज़िंदगी के
ग़फ़लत हुई,वो कत्लखाना तो न था

सजदे में थें जब , वो देते थें दस्तक
हैं रोजे में अब , जाने कहाँ गये सब

ग़म-ए-ज़िंदगी हम, मिटाने चले थें 
ख़्वाबों के लहू में ,नहा के चले हम

साथ चलने का , क़रार हममें न था
यादें भुलाने की,बे-क़रारी थी कैसी

 लफ़्ज़ों का वह खेल और ये तन्हाई
 शहनाई तेरी, कैसी जहर घोल गई

यतीमों को मिलता , कहाँ ठिकाना
दोस्ती वो दो पल की,क़रार तो न था

थी सुकून भरी सांसें, लबों पे मुस्कान
चिराग बुझाना था ,जलाया क्यों था

दर्द जुदाई का उनसे , बूराभी न था
मगर बेवफ़ाई का,  क़रार तो न था

छीन कर,किसी का सब्र-ओ-क़रार
विदाई तेरी , कोई फ़रेब तो न था

                         -व्याकुल पथिक




Wednesday 20 February 2019

प्रख्यात समालोचक डा0 नामवर सिंह की थी अभिलाषा

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       राजनीति में जमा कूड़ों को जलाने का काम करें साहित्यकार
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      आलोचना के शिखर पुरुष समालोचक डॉ नामवर सिंह के निधन से  प्रेमघन, मतवाला, आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ भवदेव पांडेय की नगरी भी शोक विह्वल हुई है । यहां के विद्वान साहित्यकारों एवं प्रबुद्ध जनों ने शोक सभा कर उन्हें श्रद्धांजलि  दी। जहां तक मेरा प्रश्न है , साहित्य जगत से प्रत्यक्ष रूप से अपना कोई वास्ता नहीं रहा। पत्रकारिता में आने के बाद समाचार संकलन के लिए कभी- कभी साहित्यकारों के बड़े कार्यक्रम में जाना मेरी विवशता ही थी, क्यों कि कवि सम्मेलन और साहित्यिक चर्चा में मुझे कोई अभिरुचि तब न थी। मुझे याद नहीं है कि नामवर सिंह के आगमन के पहले मैंने कभी ऐसे किसी कार्यक्रम में अपना पूरा समय दिया और ध्यान पूर्वक मुख्य वक्ता की बातें सुनी हो।

 
   नामवर सिंह 27 दिसंबर 2000 को उग्र जन्मशती के अवसर पर मिर्ज़ापुर आए थे। उन्होंने कार्यक्रम में जो उद्गार व्यक्त किये, मैं यहां उसका उल्लेख करना चाहता हूँ। डा0 सिंह तब कहा था कि छोटे-छोटे शहर और कस्बों जहां से हिंदी साहित्य बना है, हमें इन छोटे शहरों का साहित्यिक इतिहास लिखना है। हां , एक तरह का गजेटियर तैयार करना होगा एवं हो सके तो इस का आरंभ मिर्ज़ापुर से ही हो ,तो बहुत अच्छा है ।उन्होंने यहां की साहित्यिक क्षमता का जिक्र करते हुए तब कहा था कि गंगा की भांति ही हिंदी साहित्य की गंगा को भी काशी जाने से पूर्व मिर्ज़ापुर से होकर गुजरना पड़ता , यदि मिर्ज़ापुर ना होता तो काशी के साहित्य की गरिमा वैसी नहीं होती । लायंस स्कूल के बिरला प्रेक्षागृह में नामवर सिंह ने अपने प्रथम आगमन पर यह भी कहा था कि उग्र जी आग लगाना और कूड़ा जलाना दोनों ही जानते थे और अब भी अपनी जन्मशती पर वे मानो ऐसा ही संदेश दे रहे हैं । उन्होंने कहा था कि हम साहित्यकारों को भी राजनीति में जमा कूड़ों को जलाने का काम करना चाहिए । उन्होंने कहा था कि वह हिंदी साहित्य में खासकर अपने गद्य के लिए पहचाने जाते हैं और स्वयं उनको (नामवर सिंह) भी आलोचना की बारीक सोच उग्र जी से ही मिली थी।
       एक बड़ी बात नामवर सिंह ने तब और कही थी , वह यह कि ब्राह्मण विद्वेष में जलते हुए लोगों को वे उग्र जी कि वह पंक्ति सुनाना चाहेंगे,  जिसमें उसने स्वयं को शूद्र कहने में संकोच नहीं किया था, क्यों कि उनके विचारों से शूद्र ब्राह्मण का पूर्व रूप है।  ठीक वैसा ही जैसे मूर्ति का पूर्ण रूप अनगढ़ पत्थर होता है। जिसकी अनगढ़ता में विश्व विराट की मूर्तियों की संभावनाएं सुरक्षित रहती है, जो मूर्ति में नहीं होती।
    डा0 सिंह वर्ष  2001 और 2003 के बीच हिंदी गौरव डॉ भवदेव पांडेय के बुलावे पर दो बार यहाँ आये थें। आचार्य रामचंद्र शुक्ल , प्रेमघन, डॉ काशी प्रसाद जायसवाल ,पांडेय बेचन शर्मा "उग्र" , महादेव प्रसाद सेठ और बंग महिला आदि से जुड़ी इस साहित्यिक भूमि पर आ कर उन्हें प्रसंता हुई थी।
  स्व0 डा0 भवदेव पांडेय के पुत्र व साहित्यकार सलिल पांडेय ने बताया कि डॉ नामवर सिंह जब यहां आए तो उच्चस्तरीय साहित्यिक कार्यक्रमों में जी खोलकर सिर्फ सम्मिलित ही नहीं हुए बल्कि वाराणसी और मिर्जापुर के बीच साहित्यिक सेतु का निर्माण भी किया था । पहली बार डॉ नामवर सिंह  साहित्य एकेडमी द्वारा आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में डॉ भवदेव पांडेय के 'साहित्य के निर्माता पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र' मोनोग्राफ के लोकार्पण के लिए आए थे । लायन्स स्कूल के खचाखच भरे कार्यक्रम में लगभग डेढ़ घण्टे के उद्बोधन से वे भारतेंदु मण्डल के नगर मिर्जापुर को साहित्य जगत के शीर्ष स्थान पर पहुंचा गए । अत्यंत सम्प्रेषणीय शैली में उनका उद्बोधन रहा । नई कविता एवं नई कहानी में आधुनिकता-बोध से डॉ नामवर सिंह ने अपने अभियान में इस जिले को भी सम्बद्ध किया । उनका वक्तव्य अत्यंत सहज ही नहीं बल्कि ठहाकों के साथ रहा । डॉ नामवर सिंह प्रगतिवादी चिंतन के थे लेकिन स्थानीयता को यहां उन्होंने पूरा सम्मान दिया।  वे मां विन्ध्यवासिनी धाम गए । मां विन्ध्यवासिनी का दर्शन भी किया तथा रत्नाकर होटल में आकर उन्होंने आगन्तुक रजिस्टर में अपने विचार भी लिखे । उन्हें दर्शन कराने में वर्तमान विधायक श्री रत्नाकर मिश्र  तीर्थ पुरोहित की भूमिका में थे । इसके बाद 2003 में डॉ सिंह पुनः डॉ भवदेव पांडेय की पुस्तक 'आचार्य रामचंद्र शुक्ल : आलोचना के नए मानदंड' का लोकार्पण लायन्स स्कूल में ही किया।  यहां वे भारतेंदु मण्डल के प्रमुख सदस्य प्रेमघन जी की तिवराने टोला स्थित कोठी, गऊघाट में महादेव प्रसाद सेठ 'मतवाला' के उस भवन को देखा जहां सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' और 'उग्रजी' सम्पादन कार्य करते थे । वे नारघाट स्थित शहीद उद्यान भी गए । वहां क्रांतिकारियों को नमन किया तथा लाला लाजपत राय स्मारक पुस्तकालय के रजिस्टर पर विचार भी लिखे । डॉ नामवर के साथ काशी का साहित्यजगत का हुजूम भी था जिसमें उनके छोटे भाई श्री काशीनाथ सिंह, श्री गया सिंह, श्री चौथीराम यादव सहित दर्जनों लोग थे । दोनों बार डॉ नामवर सिंह लोकार्पण कार्यक्रम के बाद डॉ भवदेव पांडेय के तिवराने टोला स्थित आवास पर आए । घण्टों बैठे तथा डॉ पांडेय के अन्वेषी चिंतन को उल्लेखीय कहा ।

    अंतिम बार डॉ नामवर सिंह वर्ष 2008 में मिर्जापुर पारिवारिक दृष्टि से आए । उनके समधी श्री वाई पी सिंह उन दिनों बाणसागर परियोजना में सहायक अभियंता थे । उनके बुलाने पर सिंचाई डाक बंगले में आए । डॉ भवदेव पांडेय को भी डाक बंगले पर बुलाया।  उन्हें लेने वर्तमान समय में सिद्धार्थ नगर में अधिशासी अभियंता के पद पर तैनात श्री धर्मेंद्र कुमार सिंह आए तथा वाराणसी तथा मिर्जापुर की साहित्यिक धाराओं को डाक बंगले पर मिलाया । इस प्रकार त्रिकोणधाम के लिए विख्यात मिर्जापुर में डॉ नामवर सिंह की यह तीन यात्राएं महत्त्वपूर्ण रहीं । उनके निधन से दो आंखों से ही नहीं बल्कि चिंतन की तीसरी आँख से अश्रुधारा यहां भी बहती दिख रही है । डॉ भवदेव पांडेय शोध संस्थान भी शोक विह्वल है ।वहीं एक श्रद्धांजलि सभा का आयोजन यहां शहीद उद्यान में ही किया गया ।इस अवसर पर वरिष्ठ साहित्यकार वृजदेव पांडेय ने  नामवर सिंह को इतिहास पुरुष बताते हुए कहा कि आलोचना के क्षेत्र में वे नये-नये सूत्र गढ़ते थे ।वे किसी भी पुस्तक को तत्कालीन सामाजिक परिवेश और मानवीय मूल्यों की कसौटी पर रखकर देखते थे । उन्होंने कहानी नई कहानी लिखकर नई कहानी के क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया । वे ऐसा मानते थे कि नई कहानी के जनक निर्मल वर्मा थे। निर्मल वर्मा की कहानी परिंदे को नई कहानी की प्रथम रचना उन्होंने माना। साहित्यकार भोलानाथ कुशवाहा ने उन्हें बेजोड़ समालोचक बताते हुये कहा कि वे जब तक रहे शीर्ष पर रहे।
  साहित्यकार गणेश गंभीर ने कहा कि उनके पास नामवर सिंह जी द्वारा दिया गया उग्र जी का मोनो ग्राफ है, जो उनके द्वारा सदिनांक हस्ताक्षरित है ।तथ्य का सत्यापन साहित्य अकादमी के निमंत्रण -पत्र से भी किया जा सकता है ।यह भी कि उन्होंने भी उग्र के नाटक महात्मा ईसा पर आलेख पाठ भी किया था ।इस कार्यक्रम में देश के कई साहित्यकार शामिल हुए थे ।
      डा0  नामवर सिंह को मैंने देखा था ,
सुना था और उनकी बातें अच्छी भी लगी थीं। अतः ब्लॉक जगत का सदस्य होने के लिहाज से, मैं उनकी अभिलाषाओं को साहित्य जगत को पुनः अवगत कराते हुए अपनी ओर से यह श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा हूं।

Monday 18 February 2019

पथिक! खोल हृदय का ताला

संत रविदास जी
      की
  जयंती पर
नमन एवं वंदन
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मंजिल ढ़ूंढे, दर-दर भटके ;
पथिक , कहाँ तुझे  जाना ।
है तेरा कौन  ठिकाना ?
दे हृदय पर ताला ।

आयो बसंत, फुले पलाश;
जगमग हुआ मधुशाला ।
पथिक, तू न प्रेम बढ़ाना ;
दे हृदय पर ताला ।

प्रीति की रीति न जाने कोई;
बनिये सा व्यापार नहीं होई।
पथिक , फिर ना पछताना;
दे हृदय पर ताला।

हँसी-ठिठोली करे जो सखियाँ;
पथिक , ना तू भरमाना ।
तुझे साजन संग है जाना;
दे हृदय पर ताला ।

फगुवा बहे, हिय जब झुलसे ;
जेठ  से प्यास बुझाना ।
पथिक , ना तू घबड़ाना;
दे हृदय पर ताला ।

होनी करे, सब खेल निराला;
माटी का पुतला  जग सारा ।
पथिक,  फिर काहे पछताना;
दे हृदय पर ताला।

प्रेम नगर का ठौर ठिकाना;
तुझे पता जहाँ है जाना ।
धीरज रख ,मन बहलाना;
दे हृदय पर ताला।

सतगुरु मिले जान न पाया;
माया ने तुझको भटकाया ।
पथिक ,अब न नाच दिखाना;
दे हृदय पर ताला।

जग भोगी, तू जोग में हुलसे ;
न मंदिर , ना मस्जिद जाना  ।
पथिक !किसका है तू दीवाना;
दे हृदय पर ताला।

जाग पथिक, मिलेंगे प्रियतम ;
हिय कठोती,ज्यों गंग समाना।
सतनाम का अलख जगाना;
खोल हृदय का ताला ।

         -व्याकुल पथिक

Saturday 16 February 2019

न जलाओ दीपक,न दो मुझे सलामी !

न जलाओ दीपक , न दो मुझे सलामी !
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वतन के लिये ,कफन हमने बांधा ;
थी चाहत अपनी, दुश्मनों को मिटाना।

लड़ के मरे हम ,हो प्रताप तुम्हारा;
संगीन पर हो , तब मस्तक हमारा।

राणा के वंशज, वो झांसी की रानी;
वीरों सा सीना, गरजती थी वाणी ।

चले थें घर से , ये तमन्ना लिये हम;
दुश्मन जो ताकें , लाहौर हो हमारा ।

अर्थी सजी हो,तब लोग ये पुकारे;
देखों बन ,अब्दुल हमीद घर आया।

टूटी चूड़ियाँ  ,जब खनकने लगे ;
कहे ,गीदड़ों को मार तेरा वीर आया।

प्रेम -दिवस तब , हुंकार करे सब ;           
कहे मत रो , हो शहीद लौट आया।

माता का आंचल , पुकार करे जब ;
कहे  लाल तेरा ,वो वतन में समाया ।

बूढ़े पिता की , है लाठी जो टूटी ;
कहे लाल तेरा , हो अमर घर आया।

कलाई पर बंधा, है धागा जो टूटा;
कहे भाई तेरा , हुआ सबको प्यारा।

बेटा बुलाएँ, है पिचकारी जो टूटी;
कहे बाप तेरा , अब होली में समाया।

पर मुझे यूँ मरना , तुझे है सिसकना;
बता कैसे चुकाऊँ ,माँ भारती कर्ज तेरा।

वो कत्ल करें , हम शीश बढ़ाएँ ;
बता कैसे निभाएँ , माँ भारती फ़र्ज़ तेरा ।

ये मजमा लगा है, जयचंदों का कैसा ;
न जलाओ दीपक , न दो मुझे सलामी।
     
                        -व्याकुल पथिक

Friday 15 February 2019

श्वेत पलाश सा तू मुस्काना

श्वेत पलाश सा तू मुस्काना
********************

बाबा देख तुझे क्यों ?
ऐसा लगता मेरा-तेरा रिश्ता है।
एक नदी किनारे बैठा है,
एक भवसागर में डूबा है।

 पथराई सी तेरी अँखियाँ,
 मन  मेरा भी सुना है ।
वैरागी बना काहे तू बाबा,
क्या खेल जगत का देखा है ?

कुछ तो मुझसे बोल दे बाबा ,
दिल का दर्द खोल दे बाबा,
भटके को  दे जीवन -दर्शन,
कर ले सफल तू अपना मग ।

रिश्तों का सब बंधन छूटा ,
अपनों का यह स्वांग है झूठा,
तेरी राह में  मैं  बढ़ जाऊँ,
बाबा मुझकों गले लगाना ।

अपना वो वैराग्य दे बाबा,
बसंत का उपहार दे बाबा,
फूल पलाश सा; न मुझे बनाना ,
रंग स्नेह दे; क्यों हुआ बेगाना ?

बाबा बोलें बच्चा सुन लें,
वन की आग बन ;
न मन को जलाना,
श्वेत पलाश सा तू मुस्काना ।

दुर्लभ समझ ढ़ूंढे जब कोई,
रीति जगत का  उसे बताना।
दिल का दर्द न किसे सुनाना,
मन की बात न मुख से लाना।

डोली सजी अब पिया बुलाये,
मुझकों -  तुझसे  दूर है जाना।
"पथिक" जब होते हर फूल यतीम,
पुष्प पलाश सा तू  मुस्काना ।

  - व्याकुल पथिक

हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में

हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
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हम पलाश के फूल,सजे ना गुलदस्ते में
खिल कर महके,सूख,गिर गये,फिर रस्ते में
भले वृक्ष की फुनगी  पर थे हम इठलाये
पर हम पर ना तितली ना भँवरे मंडराये
ना गुलाब से खिले,बने शोभा उपवन की..

  जरा देखें न एक कवि ने पलाश के फूलों के दर्द को किस तरह से शब्द दिया है। उसकी अंतरात्मा चित्कार कर रही है कि उसने तो इस संसार को प्रेम का रंग दिया है , बदले में नसीब ने उसे क्या दिया है। जंगल में तो उसकी खूबसूरती के इतने किस्से हैं, पर क्या इंसान के गुलदस्ते में उसके लिये भी कोई हिस्सा है ? नहीं न , यह मनुष्य तो गुलाब की खूबसूरती और  खुशबू का कद्रदान है।
   पलाश के इसी टीस को समझने का प्रयत्न कर रहा हूँ कि जिसे जंगल के आग के रूप में पहचान मिली है। जो ऋतुराज बसंत का प्रिय पुष्प है। वह टेसू का फूल जिसके रंग में इंसान अपने तन- मन को रंगता है, उसी के घरौंदे में अन्य पुष्पों की तरह उस पलाश के फूल को स्थान न मिलने की पीड़ा उस विकल पथिक से मिलती-जुलती है, जिसके स्नेह की सराहना हुई , परंतु किसी के हृदय पर अधिकार कहाँ है उसका ? वह आशियाना कहाँ , वह मन मंदिर कहाँ, वह गुलदस्ता कहाँ , जहाँ वह किसी के गले का हार बनता ।
 वो गीत है न-
जाने वो कैसे लोग थे जिनके
प्यार को प्यार मिला
हमने तो जब कलियाँ माँगी
काँटों का हार मिला..

   इसे ही किस्मत कहते हैं, अन्यथा जिस पुष्प से पूरा जंगल सुर्ख लाल सिंदूरी रंग से दहकता हो, वह उपवन में क्यों नहीं होता है। उसके भी तो कुछ सपने होते, कुछ अपने( तितली और भँवरे) होते।  उसका यह मौन क्रंदन सुना क्या कभी किसी ने-
ना माला में गुंथे,देवता  के  पूजन की
ना गौरी के बालों में,वेणी  बन निखरे
ना ही मिलन सेज को महकाने को बिखरे..

     क्यों सुनेगा कोई ? हर किसी को सिर्फ उससे रंग (प्रेम) चाहिए, अपने आनंद एवं उत्सव के लिये । कहते हैं कि  कृष्ण  ने इसी पलाश के रंग से ब्रजमंडल की गोपियों संग होली खेली थी । वे स्वयं तो चितचोर से योगेश्वर हो गये, परंतु बावली गोपियाँ स्नेह के इस श्याम रंग में ऐसी रंगी कि विरह की अग्नि में तप कर जोगन हो गयी, पंडितों की वाणी हो गयी । इन पर नहीं चढ़ा फिर कोई दूसरा रंग । यह भजन तो आप सुनते ही है-

राधा ऐसी भयी श्याम की दीवानी,
की बृज की कहानी हो गयी..

       इस वन की आग के मन में धधकते दावानल और विचारों के द्वंद में उलझा हूँ।  प्रकृति की इस निष्ठुरता पर कि ऐसा क्यों होता है कि सर्वस्व अर्पित करके भी प्रेम का यह रंग फीका क्यों , तो दिल का यह दर्द उभर है-

मैं ने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी
मुझको रातों की सियाही के सिवा कुछ न मिला...

 जंगल की इस दहकती लाली की उदासी के मर्म को यदि  कवि मदन मोहन 'घोटू' ने समझा है , तो ऋतुराज के प्रिय पुष्प होने के उसके गौरव पर गोपाल दास 'नीरज' यूँ कह उसको मान भी दिया है-

नंगी हरेक शाख हरेक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में..

  सचमुच पलाश के फूल ऐसे समय लगते हैं जब बाकी पेड़ों में पतझड़ के बाद नई कोपलों के फूटने का समय होता है। चारों ओर इस सूखे माहौल के बीच एक पलाश ही रौनक पाता है। तब यह उस फिल्मी गीत की पंक्तियों को चरितार्थ करता प्रतीत हो रहा है जिसके बोल हैं..

आ के तेरी बाहों में हर शाम लगे सिंदूरी
मेरे मन को महकाया तेरे मन की कस्तूरी..

     पलाश की तरह एक और पुष्प इसी ऋतु में मुस्काता है। रंग दोनों का ही सुर्ख लाल है, परंतु यह सेमल का पुष्प रंग नहीं बिखेरता है, यह इंसान को जीवन का रहस्य बताता है।

याद है न संत कबीर की वाणी -

कबीर यह संसार है जैसे सेमल फूल
दिन दस के व्यवहार में, झूठे रंग ना फूल ।

  युवावस्था में काशी में जब अपनी दोस्ती कम्पनी गार्डेन से थी, तो मंदाकिनी सरोवर किनारे इस वृक्ष के इर्दगिर्द बैठ जाया करता था। भूमि  पर बिखरे सेमल के कुमलाए रक्त वर्ण के पुष्पों से मौन वार्ता होती थी मेरी। तब मैं भी बिल्कुल बेरोजगार और निठल्ला ही था । सो, सेमल के पाँच पंखुड़ियों वाले बड़े - बड़े लाल पुष्पों को खिलते, बढ़ते और गिरते हुये ही नहीं देखता था,वरन् इसके पके फलों से मुलायम श्वेत रेशे जब  हवा में उड़ा करते थें, तो उस दृश्य को भी टकटकी लगाये देखा करता था।  मानों  कभी न मुर्झाने वाले ये श्वेत रेशमी रेशे चहुँओर बिखर कर शांति का संदेश दे रहे हो। इसी सेमल फूल से तब मुझे भी इस जगत की नश्वरता का कुछ- कुछ बोध हुआ था , जब परिजनों  से संवादहीनता की स्थिति थी।  दादी मुझे दुखी देख कम्पनी गार्डेन ले आया करती थीं । जहाँ , इसी  सेमल के पुष्प संग मेरा मौन संवाद जब मुखरित हुआ , तो सतगुरु का दर्शन हुआ और उनके संग आश्रम चला गया। परंतु एक दिन यह सबक, "माया महा ठगनी हम जानी"
 भुला बैठा और पुनः इस भवसागर में आ फंसा ।
       वैसे तो , सेमल के फूल से पलाश के पुष्प की पीड़ा कहीं अधिक है , क्यों कि आकर्षण तो दोनों में ही है, परंतु पलाश अपनी प्रीति का रंग देकर भी अन्य पुष्पों की तुलना में उपेक्षित है।

Wednesday 13 February 2019

है कैसी जुदाई...

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सर्द निगाहों से   दिल ने पुकारा
कहाँ है वो श्वेत वस्त्र तुम्हारा ?
उठेगी डोली बजेगी शहनाई-
मिलन की रात,है कैसी जुदाई ?

   उठा   बचपन में साया किसी का
  दुल्हन के जैसे अर्थी सजी थी   ;
आँखों में आँसू,नहीं थें वो सपने-
  मिलन की राह, है कैसी जुदाई ?

    तरसती जवानी बहकती निगाहें-
    मिले  संगी - साथी - हुये वो पराये;
    तन्हाई मिली है  गुजरा जमाना-
    यादों की बारात , है कैसी जुदाई ?


भटकती रूहों को है पास आना ,
आंचल तुम्हारा है वो आशियाना ;
पथिक का नहीं है कोई ठिकाना-
मिलन की चाहत,है कैसी जुदाई?

    उखड़ती सांसें वो - तरसी  निगाहें-
    तुम्हें पुकारे जो बहे अश्रुधारा ;
    अगन जला, है अनंत में समाना
    बसंत की  आस, है कैसी   जुदाई ?

(व्याकुल पथिक)

Sunday 10 February 2019

मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को...

ऐसी वाणी बोलिए ...
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मैं तो कहूँगा कि अपने दर्द को लेखनी बना लो, यह तुम्हारा सच्चा साथी है ।  जब भी मन में भावनाओं का उफान हो, हृदय की वेदना किसी को पुकार रही हो, उसे शब्द देना सीखो । तुम जितना ही उसमें डूबोगे, उतना ही उसका स्नेह तुम्हारे प्रति बढ़ता जाएगा।
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बुद्धिं देहि यशो देहि कवित्वं देहि देवी मे
मूढत्वं च हरेर्देवि त्राहि मां शरणागतम्

( अर्थ- हे देवि ! आप मुझे बुद्धि दें, कीर्ति दें, कवित्वशक्ति (सुमधुर वचन) दें और मेरी मूर्खता का नाश करें । आप मुझ शरणागत की रक्षा करें ।)

        सरस्वती पूजन का पर्व था कल । छात्र जीवन की अनेक स्मृतियों का बस यूँ ही स्मरण हो आया।   तब मैं पुरानी रद्दी सामग्रियों के साथ में कुछ न कुछ प्रयोग किया करता था । जिसे देख जब यह कहा जाता था कि वैज्ञानिक बनेगा  तू , तो मुझे बड़ी खुशी मिलती थी । परंतु ऐसा हुआ नहीं, अपनों की उस वाणी ,उस आशीर्वाद के मध्य कटुता की दीवर खड़ी हो गयी ।

   उस वृद्ध बाबा की वाणी को भला अब भी कहाँ भूला हूँ।  उस रात  मैं हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, गणित के सवालों में उलझा हुआ था, कमरे की बिजली देर तक जलती देख वे मेरे पास आये थें, उनके पदचाप को मैं सुन न सका, परंतु वे मुझे बड़े ही ध्यान से देख रहे थें। परिवार के सभी सदस्य निंद्रा देवी के आगोश में थें, फिर भी मैं लकड़ी के उसी छोटे से मेज पर कापी- किताब फैलाये हुआ था।
   वृद्ध बाबा ने मुझे तनिक टोका, ऐसा लगा कि मेरे अध्ययन कार्य से खुश थें। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने मेरी हस्तरेखा देखने के लिये दायां हाथ आगे करने को कहा। उनके सम्मान में मैंने ऐसा किया भी, जबकि इन रेखाओं के खेल में मुझे कभी रूचि नहीं थी और आज भी नहीं है । उन्होंने मेरे हाथ पर खींची रेखाओं को देखा और फिर धीमे स्वर से कहा कि इतना परिश्रम काहे कर रहा है तू देर रात तक,तेरे नसीब में विद्या नहीं है। गांव के एक अनपढ़ वृद्ध व्यक्ति के इस भविष्यवाणी पर तब हँसी आयी थी , जब हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा में गणित में मुझे सौ में से 98 अंक मिलें।
   लेकिन इसके बाद ही किस्मत की रेखाओं का खेल शुरु हो गया ।  विद्या की नगरी काशी से मेरा संबंध टूट गया।  आज पत्रकारिता क्षेत्र में होने के कारण अनेक विद्वानों के संग हूँ ,फिर भी विद्या के उस वरदान से वंचित रह गया , जिसकी चाहत छात्र जीवन में थी। तब समझ में आया कि उस बाबा के जिह्वा पर सरस्वती बैठी थीं , जो मुझे दंडित कर रही थीं, परंतु क्यों , किसलिये , मेरा अपराध क्या था, इसलिए कि मैं एक शिक्षक का पुत्र था, विद्याध्ययन के प्रति समर्पित था ?
  सवाल चाहे जितना भी हम करते रहें, परंतु नियति किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं देती है।
  याद है कोलकाता में एक बार माँ ने नाराजगी भरे स्वर कहा था -
  " मुनिया , तंग कर ले जब नहीं रहूँगी तब समझेगा "
  जो माँ सदैव मुझे स्नेह देती थी , क्षणिक क्रोध में उनकी वाणी का व्यापक प्रभाव पड़ा मेरे जीवन में ।

     सलिल भैया का सबक है कि जिह्वा सरस्वती का घर है और झूठ जिह्वा का कूड़ा है । जहां कूड़ा रहता है वहां इंसान नहीं बैठ सकता तो माँ  सरस्वती कैसे बैठेगी ? अतः जो जितने समय झूठ बोलता है तत्काल उतने समय जिह्वा से सरस्वती विदा हो जाती हैं । इसके अलावा गोस्वामी तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है- चरित्र से दूषित, फरेबी, तिकड़म से साधन और शक्ति सम्पन्न व्यक्ति की प्रशंसा करने से सरस्वती नाराज होती हैं । 'कीन्हे प्राकृत जे गुन गाना, ता धुनि लागि गिरा पछिताना'-मानस, बालकांड,11वीं चौपाई ।
    ऐसे में सरस्वती जब नाराज होती हैं तो उस व्यक्ति के घर से बाहर चली जाती हैं। उसकी आने वाली पीढ़ी मूर्ख, आलसी, उद्यम विहीन तथा अन्यान्य दोषों से भर जाती है । सरस्वती की कृपा के लिए अपने से बड़ी उम्र के किसी व्यक्ति को अनर्गल अपमानित नहीं करना चाहिए । बल, धन, पद और रुतबे के चलते अपमानित और आहत करने से सरस्वती को पीड़ा होती है । संत कबीर ने भी तो यही कहा है -

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।

       मानव प्रवृत्ति पर एक महात्मा जी का प्रवचन सुना था। वे बता रहे थें कि दो गुण एक साथ नहीं टिक सकते हैं। उन्होंने "सत्य" और "शील" का उदहारण दिया।
  शीलवान व्यक्ति यह प्रयत्न करता है कि वह प्रिय बोले। कोई अप्रिय बात अथवा निर्णय हो ,तो वह टालने लगता है। वहीं सत्यवादी व्यक्ति निःसंकोच कड़ुवा सत्य प्रकट कर देता है। जैसे उक्त वृद्ध बाबा ने मेरी शिक्षा के संदर्भ में कहा था ।
        महात्मा जी का कहने का तात्पर्य यह था कि मानव में सारे गुण एक साथ नहीं हो सकते हैं। यह तो मेढ़कों की तौल है। अतः विवेक से आवश्यकतानुसार निर्णय लेना चाहिए।

           सरस्वती पूजन की प्रथम धुंधली सी स्मृति कोलकाता के उस इंग्लिश स्कूल की है, जब मैं शिशु कक्षा का छात्र था। इसके पश्चात दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर सरस्वती पूजन के पंडालों को प्रथम बार देखा था। कोलकाता में और फिर वाराणसी में घर पर इस अवसर पर पंडाल आदि की सजावट मैं ही करता था। मुजफ्फरपुर में मौसी के घर अन्य लड़कों के साथ सजावट का अवसर एक वर्ष मुझे मिला। सफेद कागज पर नीले रंग से आकाश जैसा दृश्य मुझे उपस्थित करना था।
सरस्वती देवी की तस्वीर अथवा मूर्ति के समक्ष पुस्तक और कलम को हम सभी रख देते थें। आज के दिन पठन- पाठन का कार्य नहीं किया जाता था।
      छात्र जीवन की ये सारी खुशियाँ न जाने कहाँ चली गयीं । मैंने जितने भी वर्ष जहाँ - जहाँ पंडाल सजाएँ हैं, वे सारे आशियाने फिर से याद हो आये हैं।  कल एकांत में बैठा उन सुखद स्मृतियों को बोझिल मन से टटोल रहा था। रविवार होने के कारण कुछ फुर्सत में जो था। न कोई साथी न मनमीत संग था।
      सिलसिले फिल्म के इस गीत की चंद पक्तियों को गुनगुना रहा था -

कहने को बहुत कुछ है, मगर किससे कहें हम
 कब तक यूँ ही खामोश रहें, और सहें हम
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं..

   जब दर्द हर पैमाने को पार कर जाता है, तन्हाई अंतहीन हो जाती है ,साथी जो राह में मिले,वे सपने हो जाते हैं,वेलेन्टाइन डे जैसे पर्व उपहास उड़ाते हैं । जीवन के हर मोड़ पर किसी को आवाज दे देकर हृदय की वेदना आँसुओं की झड़ी लगाये रहती है। गीत के वो बोल हैं न -

मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा
मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को, तू सुने ना सुने

       तब चेतना कहती है कि आवाज देकर इस लौकिक जगत में किसी को भी न पुकारो । जब दर्द ही तुम्हारी किस्मत है,तो उस पर स्नेह का मरहम भला कौन लगाएगा  , बार बार यूँ दोस्ती का हाथ मत बढ़ाया करों, यह साथ टिकता नहीं।

  सरस्वती के यदि उपासक रहे हो , तो मौन हो जाओ, चिन्तन करो और फिर अपनी लेखनी को शब्द दो। वही तुम्हारा साथी है, मनमीत है। अपनी तन्हाई को औरों के हवाले न करो,वहाँ उपहास मिलेगा, सहानुभूति मिलेगी , कुछ दिनों के लिये तुम्हारे दर्द को बांटने का प्रयास भी कोई उपकारी जन कर सकता है। लेकिन, एक दिन जब तुम्हें आभास होगा कि कच्चे धागे ( सम्बंध) के रिश्ते के समक्ष  तुम्हारे निश्छल स्नेह का कोई मोल नहीं ,तब ?
    ऐसे में इंसान के कदम जब लड़खड़ाते हैं, इस तन्हाई से बचने के लिये वह किसी मादक द्रव्य का साथ पकड़ लेता है। परंतु मैं तो कहूँगा कि अपने दर्द को लेखनी बना लो, यह तुम्हारा सच्चा साथी है ।  जब भी मन में भावनाओं का उफान हो, हृदय की वेदना किसी को पुकार रही हो, उसे शब्द देना सीखो । तुम जितना ही उसमें डूबोगे, उतना ही उसका स्नेह तुम्हारे प्रति बढ़ता जाएगा। यह सच्चा प्रेम ही तुम्हें उस अलौकिक जगत का आभास कराएगा, जहाँ तुम्हारा एकांत  आनंद बन जाएगा , फिर अन्य की प्रतीक्षा कहाँ रहती है ,क्यों कि हम स्वयं ही सृजन करने में समर्थ होते हैं।
   सो, क्यों न इस हृदय के इस दर्द की वीणा को लेखनी के माध्यम से स्वर दिया जाए-

मेरी ज़िन्दगी में वो ही गम रहा
तेरा साथ भी तो बहुत कम रहा
दिल ने, साथी मेरे, तेरी चाहत में थे
ख्वाब क्या क्या बुने
मैं तो हर मोड़ पर...


Friday 8 February 2019

नजरों में कैसी समायी ये दुनिया

नजरों में कैसी समायी ये दुनिया
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नजरों में कैसी समायी ये दुनिया
पलकें उठा कर बिजली गिराती

 उमड़ते  अरमानों को है जलाती
निगाहों में यादें बसाती ये दुनिया

इंसानों को ठगती ,हैवानों को भाती
अपनी सी लगती ,मगर गैर होती

निगाहों में जिसके नहीं है ठिकाना
उम्मीदों के दीपक जलाती बुझाती

रिश्तों में उलझा - सताती ये दुनिया
किस्तों  में दिलको जलाती ये दुनिया

ये सिक्के और पायलों की खनखन
बहका के क्यों बहलाती ये दुनिया

किसी को हँसी दे रुलाती है दुनिया
नजरों में उठा के गिराती है दुनिया

वफाओं को  निगाहों से गिरा के
कातिलों सी  मुस्काती ये दुनिया

सिसकती है यादें सताती है दुनिया
हँसी लबों  की  चुराती  ये  दुनिया

पनाहों में लेकर  - ठोकर क्यों देती
किसी को बसंत किसी को सर्द देती

मुहब्बत का पैगाम सुनाती ये दुनिया
चिता फिर उसकी सजाती ये दुनिया

बुझी राख को सहलाती ये दुनिया
नजरों में कैसी समायी ये  दुनिया

अपने ये जो आँसू खिलते कमल हैं
इसे न सूखा दो ये प्यारी सी दुनिया।

-व्याकुल पथिक







    

नज़र हम पर भी कुछ डालो


नज़र हम पर भी कुछ डालो

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अंधेरे में जो बैठे हैं
नज़र उन पर भी कुछ डालो
अरे ओ रोशनी वालों...

     दुनिया का यह विचित्र मेला , थकान भरी अनजान राहें, बोझिल मन और अपनों को ढ़ूंढती निगाहें -

हमारे भी थे कुछ साथी,
हमारे भी थे कुछ सपने
सभी वो राह में छूटे, वो
सब रूठे जो थे अपने..

 जिधर भी देखों नजरों का ही खेल है, इनमें मोहब्बत है या साजिश, इसकी परख भी कहाँ आसान है । जब सपने टूटते हैं, अपने नहीं मिलते हैं ,तो फिर से रोशनी वालों को पुकारता है यह मासूम हृदय , ताकि वह पुनः छला जाए । विवेक यही तो उलाहना देता है न कि यूँ निगाहें उठा-उठा कर क्यों इंतजार कर रहे हो किसी अपने का, अभी और फिसलने का इरादा तो नहीं  ..?

   सम्बंध फिल्म के इस दर्द भरे गीत का अंत भले ही सुखद रहा हो , परंतु वास्तविक जीवन में ऐसा ही हो , इसकी कोई गारंटी नहीं। नजरों पर भावना, विवेक, प्रेम , सम्वेदना, धर्म और कर्म किसी का भी पहरा नहीं रह गया है। विचित्र  बदलाव हो गया है , इंसान की निगाहों में ? 

   उक्ति है न कि कहीं पर निगाहें , कहीं पर निशाना ।

 राजनीति जगत में ऐसा ही हो रहा है। सियासी बिसात पर गजब का दांव चलते हैं, हर इलेक्शन से पूर्व ये राजनेता। गृद्ध दृष्टि की तरह नजरें उनकी वोटबैंक पर रहती है, जिसके लिये जुबां से न जाने कितने झूठे वायदे करना पड़े, साम्प्रदायिकता , जातिवाद और आरक्षण का मीठा जहर घोलना पड़े।
     छात्र जीवन में मंडल और कमंडल की राजनीति और पीएम की कुर्सी पर बैठने वाले एक शख्स को जनसभाओं में  जेब से चुटका निकालते देखा था। नजरें जनता की उसी चुटके पर गड़ी होती थी। इस चुटके ने दिल्ली का तख्तोताज दिला दिया। आरक्षण की आग ने कई राज्यों में जातिवादी राजनीति को शीर्ष पर पहुँचा दिया, पर चुटका कहाँ खो गया ? सिंहासन से जब वे नीचे उतरे और सितारा गर्दिश में  था, तो यहाँ  विंध्य धाम में एक डाकबंगले पर पत्रकार वार्ता में मुझे भी उनसे सवाल-जवाब का अवसर मिला था।
    याद है कितने ही युवक आरक्षण की आग में उनके ही कारण जल मरे थें, लेकिन वे भी कहाँ अमर रहें। मौत की नजर में राजा -रंक सब समान है। सो, वे भी लाइलाज़ बीमारी के शिकार हो गये । तमाम राजनेताओं की जयंती  मानायी जाती है , परंतु उनके चित्र पर कितने लोग माल्यार्पण करते हैं ?
     अब तक जितने भी राजनैतिक जुमले रहें, उन पर "अच्छे दिन आने वाले हैं"  यह नारा भारी रहा।
    वो कहते भी हैं कि अच्छे दिन आ गये हैं। अंतरिम बजट में देखें किसानों, श्रमिकों और मध्यवर्गीय लोगों को हमने खुशहाल कर दिया। इन रहनुमाओं की नजरें कब हम जैसे निम्न मध्यवर्गीय लोगों पर उठेगी। जिनकी मासिक आमदनी  5 से 6 हजार रुपया प्रतिमाह है, क्या उनके सपने नहीं हैं। वे कैसे चला रहे हैं  घर- गृहस्थी। अपने देश के  तमाम बेरोजगार नौजवान कब तक यह पुकार लगाते रहेंगे-

कफ़न से ढांक कर बैठे हैं
हम सपनों की लाशों को
जो किस्मत ने दिखाए
देखते हैं उन तमाशों को
हमें नफ़रत से मत देखो
ज़रा हम पर रहम खा लो...
 
  अच्छे दिन की यह अन्तहीन प्रतीक्षा कब तक करता रहेगा, यह वर्ग। जो शिक्षित है, संस्कारिक है, दायित्व बोध भी है , उसमें। फिर भी इस वर्ग की कुंठा पर , उनकी पीड़ा पर और उनकी मूलभूत आवश्यकताओं पर निगाहें किसी भी रहनुमा की नहीं उठती। बजट में इन बदनसीब युवाओं के लिये ऐसा कोई सम्मानजनक काम कब होगा , जो इन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाए ?
     एक और प्रश्न जो जनता को स्वयं से पूछना चाहिए कि उनके नजरिए से  किसी राजनैतिक दल विशेष को वोट दिया जाए अथवा एक योग्य प्रत्याशी का चयन किया जाए । लोकतंत्र में यही सबसे बड़ी कमजोरी है जनता की , वह दल , धर्म और जाति की राजनीति को प्रमुखता देती रही है। जो व्यक्ति उसके दुख- दर्द में वर्षों से साथ रहा, निस्वार्थ भाव से सामाजिक कार्य करता रहा, फिर भी मतदान के दिन उसकी ओर नजर उठा कर न देखना , वहीं ऐसा प्रत्याशी जिसे जनता जानती भी न हो,जहाँ से वह चुनाव लड़ रहा है वह उसका कर्मक्षेत्र भी न हो साथ ही कोई सामाजिक सारोकार न हो, इस जुगाड़ तंत्र में किसी प्रमुख राजनैतिक दल से टिकट लेकर आ गया हो, मतदाता इस बात को जानते हुये भी दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठते , ऐसे भ्रष्ट प्रत्याशी को वे अपनी नजरों से गिराते नहीं ,तो परिणाम जगजाहिर है। किसी के ईमान को , काम को, सेवा को  यदि हम अपनी निगाहों में महत्व नहीं देंगे , तो फिर बड़े बैनर की ललक में भ्रष्ट, अपराधी और सर्वथा अयोग्य व्यक्ति को जनप्रतिनिधि चुनते रहेंगे। जनता को यदि रौशनी चाहिए ,तो  उनपर नजर डालनी होगी, जिन्हें उसने अंधेरे में बैठा रखा है। फिर वह यह नहीं कहेगी -

उत्तर ,दक्षिण, पूरब
पश्चिम
जिधर भी देखो मय
अंधकार...

  एक नया शब्द इन दिनों प्रचलित है गोदी मीडिया। चौथे स्तंभ से पिछले 26 वर्षों से जुड़ा हूँ। इस नगर के प्रमुख सामाजिक -राजनैतिक कार्यकर्ताओं से ही नहीं आम जनता से भी अपना दुआ- सलाम है। परंतु जनपद स्तरीय पत्रकारिता में  आठ- दस हजार रुपया वेतन भी प्रतिमाह कुछ ही पत्रकार पाते हैं,जो प्रमुख समाचार पत्रों से जुड़े हैं। ग्रामीण क्षेत्र की पत्रकारिता में वह भी नहीं है।  मेरे जैसे पत्रकार जो मझोले अखबारों से जुड़े हैं , अपने वेतन से वे अपने कमरे का किराया ही दे पाएँगे ,यदि बीवी- ,बच्च़े साथ हो। फिर हम ईमानदारी का बस्ता कब तक ढ़ोते रहेंगे। हमारी परिस्थितियों पर क्या कभी किसी की नजर गयी ? ढ़ाई दशक इस शहर में गुजार दिया हूँ। किसी ने आज तक नहीं पूछा कि शशि भाई पैसे की व्यवस्था कहाँ से करते हो। वहीं जिन्होंने अर्थयुग की महत्ता समझ अपना नजरिया बदला ,वे गोदी मीडिया बन  हर सुख- सुविधा का लुफ्त उठा रहे हैं। मेरे पास भी यह अवसर था। जनता बताएँ कि हम दिन - रात उसकी सेवा में थें, सच लिखने पर धमकियाँ भी मिली और षड़यंत्र के तहत गोदी मीडिया वालों ने हमें मुकदमे आदि में फंसवा भी दिया। कितनों को तो उसके संस्थान से भी वे निकलवा देते हैं। तो जिस जनता के लिये हमने संघर्ष किया , क्या उसने कभी एक- एक रुपया आपस में चंदा करके  हम जैसों का सहयोग किया।  जनता की यह मामूली आर्थिक मदद  हमारी सबसे बड़ी नैतिक विजय होती तब , इस गोदी मीडिया और उसको बढ़ावा देने वालों के विरुद्ध।

    अब यदि कोई वरिष्ठ सरकारी अधिकारी जिसकी मोटी तनख्वाह हो, वह यह कहे कि वह बड़ा ईमानदार है  तो भला इसमें उसका कितना बड़प्पन है ? वह ईमानदार रहे , इसीलिए तो उसे ढ़ेर सारी भौतिक सुख सुविधाएँ पहले से ही मुहैया करवाई गई है। यदि फिर भी वह अन्य अवैध स्त्रोतों से धन अर्जित करता है, राजनेताओं के दबाव में अनुचित कार्य करता है अथवा इसके लिये उन्हें प्रोत्साहित करता है , तो यह उसकी आवश्यक नहीं धनलोलुपता है। ऐसा मेरे एक मित्र ईमानदार पुलिस अधिकारी का नजरिया है । वे दफ्तर में चाय भी अपने पैसे का पीते और मुझ जैसे चुनिंदा लोगों को पिलाते थें। उनका दृष्टिकोण साफ था ,वे अपने सरकारी वेतन को ही कुबेर का खजाना बताते थें। ऐसे अधिकारी जब कभी जुगाड़ तंत्र के षड़यंत्र के शिकार होते हैं। उसके चक्रव्यूह में.फंसने के बावजूद समर्पण नहीं करतें । संकट काल में उनका सुरक्षा कवच बन जनता को आगे आना चाहिए , न कि यह कह खामोश हो जाना चाहिए कि बेचारे बहुत ईमानदार थें, उनके साथ बुरा हुआ । जनता जिस दिन अपनी नजरों से कर्मपथ पर चलने वाले व्यक्ति के ईमान का जनाजा देखना बंद कर देगी,उसी क्षण से सामाजिक एवं राजनैतिक परिस्थितियाँ  बदल जाएँगी।
     वैसे तो, नज़रों का तमाशा भी मन की तरह ही बड़ा विचित्र होता है। मुझे तो लगता है कि तन, मन और मस्तिष्क तीनों के पास अपनी - अपनी दृष्टि होती है। वो कहते हैं न मन की आँखों से देखों , विवेक की दृष्टि से देखों, भावनाओं में मत बहते रहो , स्नेह से देखो नफरत से मत देखो। स्पर्श के पश्चात दृष्टि से ही शिशु अपनों को पहचानता है। मृत्यु के पश्चात सबसे पहले मृत व्यक्ति के नेत्रों की पलकों को ही बंद किया जाता है। अतः जब तक जिंदगी है, अपनी नजरों को साफ रखें।

Sunday 3 February 2019

मन, मौन और मनन

    मन, मौन और मनन
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    मौनं सर्वार्थसाधनम् ।
( मौन सारे काम बना देता है ) — पंचतन्त्र

    * मुनि(मौनी) और उनका यह "मौन" इसे समझने के लिये जब भी आश्रम जीवन को स्मरण करता हूँ, हृदय में आनंद और प्रकाश की अनुभूति होती है। वैसे तो तब भी मैं साधना स्थल पर मौन रह कर मन की चंचलता को "मौन" नहीं रख पाता था, इसलिये मुनि नहीं बन सका ,फिर भी प्रयत्न निश्चित करता था । यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता था कि मेरा मस्तिष्क मौन रहे। वह विचार रहित रहे और मन उसे छेड़े नहीं। मन, मौन और मनन  का मानव की प्रवृत्ति , उसकी जीवन शैली , उसकी कार्य क्षमता यहाँ तक की उसके स्वास्थ्य पर प्रत्यक्ष और व्यापक प्रभाव पड़ता है। जब हम अपने मन को मौन की ओर अग्रसर करते हैं, तो मनन की प्राप्ति होती है।
    हमारा यही मौन चिन्तन हमें अपने कर्मपथ और फिर मोक्षमार्ग की ओर ले जाता है। मौन से ही एकाग्रता, ध्यान और समाधि की प्राप्ति होती है।

    ब्लॉग जगत में विशेष पहचान बना चुका "पाँच लिंकों  का आनंद "  यह ब्लॉग जिस पर इन दिनों मैं सुबह अपने विचारों के मार्गदर्शन के लिये जाया करता हूँ , उसके संचालन का दायित्व देख रहीं यशोदा दी का "मुखरित मौन" उस "अनहद" की तरह है,जिसमें आंतरिक प्रकाश और ध्वनि का संचार नित्य हुआ करता है । हम सभी भी इस "नाद" को मौन रह कर सुनने का प्रयत्न करें। यह हमारे अंदर की ध्वनि है। बाह्य जगत की आवाज तो हम निरंतर सुनते हैं । मौन का पदचाप कब सुनेंगे हम।
 अभी पिछले दिनों संजय भाष्कर जी का एक लेख पढ़ रहा था। जो यशोदा दी को समर्पित था।  जिसके प्रतिउत्तर में
उनके ये शब्द -
"ईश्वर कुछ लेता है, तो बहुत कुछ देता भी है। कैंसर ने आवाज़ छीन ली,पर उंगलियों में कलम पकड़ने की ताकत  भी दी । "
  उनके आत्मविश्वास, आत्मबोध, आत्मशक्ति  और आत्मचिंतन का परिचायक है। किसी तरह की निर्बलता, दुर्बलता और शिथिलता उसमें नहीं है। इसे ही मनोबल कहते हैं। ऐसी ही विचार शक्ति से व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

    उचित कहा उन्होंने कि प्रकृति कुछ लेती है, तो देती भी है, क्यों कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया निश्चित है। यदि स्नेह का बंधन टूटता है, तो उसका चिन्तन पथिक को जीवन दर्शन कराता है।
 कल सोमवार को मौनी अमावस्या पर्व पर यशोदा दी का जन्मदिन है। अतः यही प्रार्थना है, हृदय से कि वे इसी प्रकार दृढ़ता के साथ प्रकाश स्तम्भ बन हम सभी का मार्गदर्शन करती रहें।
      मौनी अमावस्या पर इस सोमवार को जब अनेकों श्रद्धालु जो अपने मुनियों के ज्ञान,विज्ञान और सिद्धांत में विश्वास रखते हैं,इस भौतिक युग में भी मौन रह कर गंगा स्नान करेंगे । मैं भी अपने विकल मन से यह अनुरोध करूँगा कि वह कुछ क्षणों के लिये ही सही  मौन धारण कर ले। मौन को आत्मसात करे वह। जैसा कि मौनी अमावस्या से स्पष्ट है कि यह पर्व वाह्य जगत से अंतर्जगत की ओर ले जाने वाला पर्व है । इंद्रियाँ  यदि मौन होती हैं तभी मन भी मौन रहता है । मन पर विराम न रहने पर चाहकर भी मौन नहीं रहा जा सकता । एकांत में बैठ कर भी मौन रहना कठिन है । इस पर्व पर तीन शब्दों पर गौर करने की जरूरत है । पहला मन, दूसरा मौन, तीसरा मनन ।  मौन रह कर  मन को साधते ही जब मनन की प्रक्रिया शुरू होने लगती है और तब अंतर्जगत में अमृत वर्षा  होने लगती है । जो बाह्य जगत के किसी भी पदार्थ की प्राप्ति से बढ़ कर है ।
       आश्रम में जो पहला कार्य साधकों को करना होता था, वह मौन रहना ही था। मंत्र जाप भी मौन रह कर हम करते थें और ध्यान भी । हाँ , प्रार्थना के समय हमारा मौन टूटता था और तब हृदय से जो शब्द निकलता था , वह मन-मस्तिष्क को आनंद देता था। यह सुखद अनुभूति ऐसी है , जिसकी अभिव्यक्ति के लिये शब्द नहीं होते हैं।
      बचपन की बात करूँ, तो एक बार मैं दार्जिलिंग में पुस्तक खरीद रहा था। बचपना था, तो बोलता बहुत था। उसी दौरान एक नेपाली महिला ने तनिक कड़ुवे शब्दों में प्रथम बार मुझे यह पाठ पढ़ाया था कि कम बोला करूँ। जब कोलकाता में था,तो बड़े नाना जी के घर जाते समय मौसी जी की हिदायत होती थी कि डायनिंग टेबुल पर भोजन के समय दो बातों का विशेष ध्यान रखना , पहला यह कि भोज्य सामग्रियों को दांतों से चबाने की आवाज मुख से बाहर नहीं आये और चम्मच जब प्लेट का स्पर्श करे, तो वह मौन रहे।
  मुझे उनका यह दोनों ही निर्देश पसंद नहीं था, अतः बालीगंज जाना बिल्कुल नहीं चाहता था । पत्रकारिता में भी यही बताया गया कि मौन रह कर पहले सुना करों फिर सवाल करों। यदि हमें असत्य बोलने से बचना है,तो मौन रहने  का प्रयत्न करना होगा। मौन हमारे अहंकार, क्रोध और अशिक्षा जैसी दुर्बलताओं का भी आवरण है।
    अध्यात्म जगत से जुड़े श्री सलिल पांडेय का कहना है कि मौन का वैज्ञानिक महत्व यह है कि मनुष्य का शरीर शून्य में प्रवाहित तरंगीय शक्ति को संचित करने लगता है जैसे स्विच आफ करने से यंत्रों की बैटरी जल्दी चार्ज हो जाती है । मानव शरीर वायु में प्रवाहित तरंगों से, जल में समाहित औषधीय गुणों से, सूर्य किरणों से उत्तम स्वास्थ्य, धरती से उत्पन्न खाद्य पदार्थों से पोषक-तत्व, अंतरिक्ष से निकलती उर्जा तेजी से आत्मसात करने लगता है । पतंजलि के योग सिद्धांत के अनुसार भी उथल-पुथल भरे वातावरण में मौन साधते शरीर के मूलाधार से लेकर सहस्रार तक के सभी षट्चक्र प्राकृतिक ऊर्जा संग्रहित करने लगते हैं । मेडिकल साइंस के अनुसार पूरे शरीर को मस्तिष्क में स्थित 'न्यूरो ट्रांसमीटर' संचालित करता है । मौनसाधना से 'एसीटोलकोलिन हार्मोन्स' संतुलित होता है जो शरीर को स्वस्थ करता है जबकि 'नारइपीनेफ्रिन हार्मोन्स' चित्तवृत्तियों को संयमित करता है । मेडिकल साइंस के इसी भाव को ऋषियों और मुनियों ने माघ महीने में सर्वाधिक 'हरिओम' की कृपा वर्षा का काल माना ।
    मेडिकल सांइस के अनुसार मनुष्य की सर्वाधिक ऊर्जा बोलने, चलने तथा स्त्री-पुरुष के शारीरिक संबन्ध से खर्च होती है। व्यक्ति जब मौन व्रत में बोलने, खानेपीने के साथ मन को संयमित कर जीवन व्यतीत करता है तब  उसके रक्त में क्षारीय तत्व बढ़ता है जो केवल तन के लिए ही नहीं बल्कि मन के लिए लाभप्रद होता है । जबकि इसके विपरीत जीवन जीने से यूरिक एसिड (अम्लीय तत्व) बढ़ता है । पेट में अम्लीय तत्व बढ़ने से पाचन तंत्र बिगड़ता भी है । इसलिए ऋषियों ने माघ महीने में व्रत-उपवास तथा सूर्योदय पूर्व स्नान का विधान किया। फलाहार से क्षारीय रसायन की वृद्धि होती है । अतः मौन साधना की महत्ता समझ कर ही विद्वानों ने कहा कि बोलना एक कला है तो मौन उससे भी उत्तम कला है ।

Saturday 2 February 2019

तेरी याद दिलाएगा...



तेरी याद दिलाएगा...
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जब-जब चन्दा आयेगा
तेरी याद दिलायेगा
सारी रात जगायेगा
मैं रो कर रह जाऊँगी
दिल जब ज़िद पर आयेगा
दिल को कौन मनायेगा..

   यादों की ऐसी पीड़ा भी विचित्र होती है। कोई सांत्वना  काम नहीं देती है। भले ही वक्त ने जख्म को भर दिये हो।
फिर भी कभी- कभी खाली पड़ा यह लंचबॉक्स बचपन के उस टिफिन बाक्स की याद दिला देता है , जिसमें किसी माँ का स्नेह था, किसी मासूम का अरमान था और कितने ही मनपसंद व्यंजन थें उस बालक के , जिसे खोने के बाद टिफिन तो अनेक मिले ,परंतु किसमें स्नेह था और किसमें छल, नहीं समझ सका वह पथिक। जब भी कभी क्षुधा की अग्नि भड़की या मन ने ज़िद ही कर दिया कि आज तो यह चाहिए, उसे डांट पड़नी निश्चित है, क्यों कि विवेक उस पर अपना वर्चस्व चाहता है। भले ही जागते रहे वह सारी रात , मनाने फिर कोई नहीं आएगा उसकी इस पुकार पर- 

होंठ पे लिये हुए दिल की बात हम
जागते रहेंगे और कितनी रात हम
मुक़्तसर सी बात है तुम से प्यार है
तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो..

  कोलकाता  में जब वह माँ (नानी) के पास रहता था। वह टिफिन  बाक्स आज भी उसे याद है और एक लंच बाक्स यहाँ भी है, जो वर्षों से खाली पड़ा है। पिछले एक माह से देर शाम भोजन का पैकेट लेने वह होटल से सांईं मेडिकल तक जाता है। अब यही मोटे कागज का पैकेट ही उसका डिनर बाक्स है । इस भोजन के डिब्बे के रंगरूप बदलने के साथ उसका प्रेम भी बदलता गया।
   जिस टिफिन बाक्स से पथिक का स्नेह जुड़ा था। उसी को किसी ने अपने स्वाभिमान के लिये , तो किसी ने अपने स्वार्थ के लिये पांव तले रौंद दिया। स्नेह का बंधन टूट गया, फिर भी यादों की जंजीरों से वह जकड़ा रहा ।
   अब भी याद है उसे जब वह मात्र पांच वर्ष का था, तो टिफिन बाक्स में  बड़े प्यार व दुलार से अंगूर , काजू की बर्फी और उसके पसंद के व्यंजन मिलते थें।
  परंतु नानी माँ का यही स्नेह उसकी जीवन यात्रा पर एक दिन भारी पड़ा। उस दिन जिसका रक्त था वह , उसी ने यह टिफिन बाक्स देख लिया। समानता का प्रश्न उठा उस बालक को बनारस ले आया गया। कोलकाता के प्रमुख अंग्रेजी माध्यम स्कूल की जगह उसे काशी के हिन्दी माध्यम विद्यालय में दाखिला दिलाया गया। स्कूल की बस की जगह नन्हे पांवों से डेढ़-दो किलोमीटर दूर विद्यालय जाना पड़ा प्रतिदिन ।
      अब जो टिफिन बाक्स था उसके पास, उसमें रोटी-पराठे और टमाटर हुआ करता था। शिशु कक्षा से उसे सीधे दर्जा दो का विद्यार्थी बना दिया गया। अंगूर की जगह टमाटर से उसका मन बहलाने के लिये उसके गुरु जी तब कहा करते थें-

"लाल- लाल है पके टमाटर, खाकर देखों कितने अच्छे।"

    फिर वह कुछ बड़ा हुआ तो कोलकाता में माँ के आंचल का पुनः छांव मिला। फिर से टिफिन में राजभोग और महंगे फलों को स्थान मिला। वर्ष 1982 में ,वह आखिरी दीपावली थी उसकी , जिसे माँ के साथ मनाया था उसने,  वह स्नेहिल छांव कुछ दिनों बाद हमेशा के लिये छीन गया उससे।  वापस बनारस के लिये टिकट कट गया उसका । जाते समय उस बालक को बताया गया था कि वह काशी विद्याध्ययन के लिये जा रहा है ,वापस घर कोलकाता लौट कर आना है। उसके बाबा (नाना) उसे हर माह मनिआर्डर किया करेंगे । सो, टिफिन बाक्स की जगह उसे प्रतिदिन इतना जेबखर्च मिल जाता था कि स्कूल में लंच के समय बाहर जा छोला भटूरा अथवा इटली डोसा खा सकता था। कुछ दिनों बाद वहाँ फिर से समानता की बात उठी। यह प्रश्न किया गया कि एक ही लड़के को मनिआर्डर क्यों आएगा। तो वह जेबखर्च भी चला गया। दुखी मन से बाबा ने मनिआर्डर करना बंद कर दिया।
   फिर कभी टिफिन बाक्स न मिला उसे छात्र जीवन में। हाँ निठल्ला कहलाने का दर्द अवश्य मिला। उसने एक विद्यालय में नौकरी कर ली । अपने घर का स्कूल हो कर भी औरों के यहाँ शरण ली। जब वेतन मिला तो पहला कार्य उसने अपने सहपाठी के प्रतिष्ठा से स्टील का टिफिन बाक्स खरीदने का ही किया। स्नेह और भोजन की तलाश में आश्रम पहुँचा , तो इसी टिफिन बाक्स में आश्रम से भोजन घर पर लाया करता था। फिर बाद में जब वहीं रहने लगा तब टिफिन बाक्स
फिर से खाली हो गया।
         हाँ ,याद है उसे यह भी कि मुजफ्फरपुर एक टिफिन बाक्स मौसी भी दिया करती थी ,जब काम पर जाता था। वे सुबह उठ कर उसके पसंद की उबली सब्जी बना दिया करती थीं ।   कलिम्पोंग में था,तो एक टिफिन बाक्स वहाँ छोटी नानी जी भेजा करती थीं, छोटे नाना जी के मिष्ठान के प्रतिष्ठान पर , उसमें माँ जैसा स्नेह तलाशता था , वह नादान । उसकी उदासी देख पड़ोस की एक आंटी जो महाराष्ट्र की थीं, रात्रि में उस टिफिन को उससे ले लिया करती थीं और अपने यहाँ बना स्वादिष्ट एवं गर्मागरम व्यंजन उसके लिये परोसा करती थीं। आज उन्हें नमन करने की इच्छा हो रही है पथिक को, परंतु बीता हुआ समय कहाँ वापस लौटता है ? सिर्फ यादें ही संग रहती हैं। यह बात भी तो तीन दशक पुरानी है। आंटी शाकाहारी थीं और अंकल जी जो कश्मीरी ब्राह्मण रहें , उन्हें नानवेज बहुत पसंद था। पति परमेश्वर के लिये वे उसे बनाती थीं। दूसरी पत्नी थी उनकी, विवाह इस शर्त पर हुआ था कि दिवंगत प्रथम पत्नी के बच्चों की माँ बन कर ही रहेंगी। स्त्रियों में त्याग की भावना का प्रत्यक्ष दर्शन उनमें मुझे हुआ। फिर भी यदि कोई सौतेली माँ कहे तो..?
    कोलकाता, बनारस , मुजफ्फरपुर, कलिम्पोंग से होते हुये टिफिन बाक्स की कहानी उसकी मीरजापुर में भी जारी रही। लेकिन एक दर्द, एक चुभन , एक परायापन और एक चिन्तन के साथ उसका भी पटाक्षेप हो गया। अब टिफिन बाक्स खाली है । पथिक को प्रतीक्षा है कि आहत हृदय उसका , उसी प्रकार से खाली डब्बा हो जाए। न उसकी याद रहे और न ही कोई आकांक्षा। हृदय का रूदन मौन हो जाए और वह स्थितिप्रज्ञ हो जाए।
    क्यों कि दिल की ज़िद कुछ ऐसी होती है कि जब भी यादें मचलती हैं। तन्हाई में वो अपनों को ढ़ूंढती है । रात आँखों में  कटती है और दिन का उजाला उसे याद दिलाता है-
   
तेरा ग़म तेरी ख़ुशी
मेरा ग़म मेरी ख़ुशी
तुझसे ही थी ज़िन्दगी
हँस कर हमने था कहा
जीवन भर का साथ है
ये कल ही की बात है..

Friday 1 February 2019

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
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 मेरा चिन्तन तो यही है कि अपनी स्मृतियों से इतना भी दूर न चले जाएँ हम कि अपनों को ही न पहचान पाए
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बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी
ख़्वाबों में ही हो चाहे मुलाक़ात तो होगी
ये प्यार ये डूबी हुई रँगीन फ़िज़ाएं
ये चहरे ये नज़ारे ये जवाँ रुत ये हवाएं
हम जाएं कहीं इनकी महक साथ तो होगी ..

    मानव जीवन में मन और मस्तिष्क का विचित्र द्वंद्व दिखता है।  स्मृति जो मस्तिष्क की प्रमुख बौद्धिक क्षमताओं में से एक है, मन उसे कुरेदते रहता है। यादों के घरौंदे को जब भी मन टटोलने लगता है ,अतीत की हर बात ताजी हो जाती है। जो हमें सुख- दुख की अनुभूति करवाती है। हम कहीं भी रहें , यादें हमारी साया बन साथ होती हैं । जीवन में जब कोई संग रहता है । पास या दूर रहता है ।  विश्वास रहता है कि वह अपना है। मन प्रसन्न रहता है । ऐसे क्षणों में ये यादें मुस्कुराती हैं । इस उम्मीद संग यूँ  हसीन ख़्वाब बन जाती हैं -

यादों के चिराग़ों को जलाए हुए रखना
लम्बा है सफ़र इस में कहीं रात तो होगी...

     परंतु हर कोई इतना खुशकिस्मत नहीं है , क्यों कि यादें  सवाल भी तो करती हैं और सताती भी हैं-

जाने कहाँ गए वो दिन, कहते थे तेरी राह में
नज़रों को हम बिछाएंगे
चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुमको उम्र भर
 तुमको ना भूल पाएंगे
मेरे कदम जहाँ पड़े, सजदे किये थे यार ने
मुझको रुला रुला दिया, जाती हुई बहार ने ...

     ऐसी यादों में रूदन होता है, बेइंतहा दर्द होता, अंधकार होता है , ऐसे में इंसान इस खूबसूरत दुनिया के रंगमंच पर स्वयं को फिल्म "जोकर" के उस मासूम राजू के समकक्ष पाता है , जिसके साथ सभी ने अपनी सुविधा के हिसाब से मनोरंजन किया, फिर भी नादान उसी को सच्चा स्नेह समझ बैठा। वह सबका रहा , परंतु उसका कोई नहीं हुआ। तब जब पर्दा गिरता है, भ्रम टूटता है, दिल तड़पता है, वे यादें नगमे बन जाती हैं, हृदय को चुभन देती हैं और जीवन को अंधकार। मनुष्य भूल जाता है , दिन और रात का फर्क-

अपनी नज़र में आज कल, दिन भी अंधेरी रात है
साया ही अपने साथ था, साया ही अपने साथ है
इस दिल के आशियान में बस उनके ख़याल रह गये
 तोड़ के दिल वो चल दिये, हम फिर अकेले रह गये..

    ऐसी ही वेदना जब नियति से निरंतर प्रश्न किये ही जा रही थी , कोमल हृदय बुरी तरह आहत था, माँ के आंचल की स्नेहिल छांव की याद सता रही थी और कोई अवलंबन नहीं था , स्नेह का कोई मोल नहीं था , वह उपहास कर रहा था , दिल से लेकर ईमान तक की सौदेबाजी में  दम घुटा जा रहा था और जीवन व्यर्थ लग रहा था ,  आहत हृदय सावधान कर रहा था-

ऐसे वीराने में इक दिन, घुट के मर जाएंगे हम
जितना जी चाहे पुकारो, फिर नहीं आएंगे हम
 ये तेरा दीवानापन है ...

     तब इन यादों ने ही ब्लॉग पर पथिक को सृजन शक्ति दी है और वह अपने दर्द को शब्द देने का प्रयत्न करने लगा । ढ़ाई दशक की अपनी पत्रकारिता के बाद पिछले वर्ष जब वह आखिरी आशियाना भी उजड़ गया और फिर चंद्रांशु भैया ने अपने होटल में उसे शरण दी । उस वक्त मन की व्याकुलता चरम पर थी । हृदय बार बार स्मृतियों के घरौंदे की ओर भाग रहा था, मानो यह यादों की बारात नहीं उसका जनाजा निकला हो । दर्द, वेदना, अवसाद , भावना एवं  सम्वेदनाएँ और स्वार्थ सभी मिलकर कर " पथिक के विवेक " के अंतिम संस्कार के लिये चिता सजाए हुये थें । कोई आश्रय नहीं था, कोई आश्रम नहीं था , जिसका सहयोग ले पथिक अपने व्याकुल मन को सांत्वना दे सके । ऐसे में ब्लॉग को जब उसने पत्रकारिता के क्षेत्र से जुड़ी अपनी कड़ुवी यादों से सजाना प्रारम्भ किया , सर्वप्रथम रेणु दी का मार्गदर्शन मिला । उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि सकारात्मक लिखों या नकारात्मक , बस वे निरंतर पथिक का उत्साहवर्धन करती रहीं, अपनी स्नेह भरी प्रतिक्रिया के माध्यम से, फिर तो वह बेझिझक लिखता ही चला गया, अपनी स्मृतियों को, अनुभूतियों को अपने चिंतन को शब्द देने लगा।  इन यादों के कारण ही पत्रकारिता जगत से इतर एक नयी पहचान मिली और सम्मान भी। माना कि  ब्लॉग पर वह अन्य रचनाकारों की तरह सकारात्मक लेखन को केंद्र में नहीं रख सका , फिर भी इस नकारात्मकता में कुछ न कुछ सामग्री सभी के लिये है , ऐसा उसका मानना है, क्यों कि कल्पनाओं में जाकर उसने कभी अपनी आकांक्षाओं को व्यक्त नहीं की है , हर एक दर्द से रूबरू हुआ । जब स्नेह के चंद शब्दों की चाह में छला गया। तो लगा अपनी यादों की पोटली टटोलने-

क्या खोया, क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें..

   शिकायत तो  पथिक को भी किसी से नहीं है, बस समय के साथ सभी आगे बढ़ गये और उसकी मंजिल दूर होती गयी।
यादों की जंजीरों को तोड़ने का प्रथम प्रयास अल्पकालीन आश्रम जीवन में उसने किया था। सफलता की ओर अग्रसर था कि अपनों की स्मृतियों के मोह ने उसे मुक्ति पथ से वंचित कर दिया। अन्यथा ध्यान की उस अवस्था में उसे यह कहाँ  याद था कि उसके भी अपने हैं और कुछ सपने हैं। कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी,बस एक कार्य था भृकुटि के मध्य ध्यान केंद्रित करना। उस सुखद क्षण को जब भी याद करता है वह , हृदय आनंद से भर उठता है। वह उलाहना देता है कि पथिक अपनी मंजिल से क्यों भटक गया , स्नेह के जंजीरों में बंध कर छला जाता रहा। काश ! वह आश्रम, वह कुआँ  वह साधना स्थल और वह खड़ाऊँ फिर से प्राप्त कर लेता, लेकिन मन में वह पावनता कहाँ से लाएगा तू पथिक ? यह सोच मन उदास हो जाता है।
   बात यादों की हो रही है, तो महाभारत के आदिपर्व में दुष्यंत और शकुंतला का दृष्टांत है। महाराज दुष्यंत जब शकुंतला से गंदर्भ विवाह करते हैं ,तो वापस राजमहल वापस जाते समय अपनी एक अंगूठी उसे देते हैं । वे कहते हैं कि इस निशानी को दिखलाते ही उन्हें विवाह का स्मरण हो जाएगा । परंतु शकुंतला से वह अंगूठी खो जाती है और राज दरबार में दुष्यंत अपनी पत्नी को पहचान नहीं सकें।
    मेरा चिन्तन तो यही है कि अपनी स्मृतियों से इतना भी दूर न चले जाएँ हम कि अपनों को ही न पहचान पाए।  वर्ष 1994 से पत्रकारिता यहाँ कर रहा हूँ। अर्थयुग के प्रभाव में युवावस्था में जब कभी जुगाड़ तंत्र का अंग बनने के लिये मन मचलता था, तो ये यादें ही थी ,जो यह कह राह रोक देती थीं कि अपने अभिभावकों से जो संस्कार मिला , उसे तुम कैसे भुला सकते हो ?
  हम अपने राष्ट्र वैभवशाली गौरव गाथा , महान क्रांतिकारियों के बलिदान और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के त्याग को भुला रहे हैं, उन्हें भी भूल रहे हैं, जिन्हें हर वर्ष राष्ट्रीय पर्वों पर यह कह नमन किया जाता है-

कुछ याद उन्हें भी कर लो
 जो लौट के घर न आये
ऐ मेरे वतन के लोगों
ज़रा आँख में भर लो पानी..

  परिणाम यह है कि हमारे लोकतंत्र पर दिनों दिन भ्रष्टतंत्र की पकड़ मजबूत होती जा रही है , तो आये उन यादों को फिर से जीवित करें हम , जो भारत माता के इन अमर बलिदानी सपूतों से और उनके संकल्प से जुड़ी हैं। उनके सपनों को साकार करें। भ्रष्टतंत्र और जुगाड़ तंत्र से यदि हमें बाहर निकलना है ,तो बापू और शास्त्री जी जैसे महान आत्माओं की सादगी याद रखनी होगी। जिसके आलोक में हम योग्य जनप्रतिनिधियों का चयन करें। जिन्होंने करोड़ों लुटा कर चुनाव लड़ा , सिंहासन पाने के बाद वे जनता को फिर क्यों याद रखेंगे ?