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Sunday 6 May 2018

आत्मकथा

व्याकुल पथिक
    आत्मकथा

 बाबा से वो आखिरी मुलाकात
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      जीवन भी कैसी विचित्र पहेली है ! जिसने हम सभी से अत्यंत स्नेह किया हो, सभी के पसंद-नापसंद का ख्याल रखा हो। वह खुशमिजाज शख्स मृत्यु की पीड़ा अकेले ही सहते हुये गुजर गया। मुखाग्नि देने वाला भी कोई अपना नहीं था। बाबा से मेरी आखिरी मुलाकात तब अपने घर वाराणसी में हुई थी, जब उन्हें गंभीर स्थिति में मौसी जी लेकर आई थी। अपने पैरों पर वे खड़े नहीं हो पा रहे थें। शरीर  काला पड़ चुका था। दस्त की शिकायत थी। वर्षों बाद बाबा को देखा भी , तो इस स्थिति में... मैंने और दादी ने भी उनकी हर सम्भव सेवा की थी, परंतु हम दादी-पोता दोनों ही बेरोजगार थें। घर पर मेरी हैसियत तब इतनी ही थी कि दो जून की रोटी मिल जाया करती थी। यहां बाबा दो- तीन दिनों तक ही रहें, क्यों कि जेब में उनके पैसा बिल्कुल भी नहीं था। नियति का यही तो तमाशा है कि हमारे बचपन में जब भी बाबा- मां घर पर आया करते थें। सुबह कचौड़ी-जलेबी की दुकान से लेकर रात्रि में मलाई- रबड़ी की दुकान से इतना अधिक खाने का सामान मंगाते थें कि उनके जाने के बाद ये दुकानदार हम बच्चों से हमेशा पूछा करते थें कि तुम्हारे नाना कब आ रहे हैं ?  पैसे को उन्होंने कभी अपना समझा ही नहीं , सो उसे हम सभी पर उड़ाते रहें। उस जमाने की मंहगी से महंगी सामग्री हम सभी को उन्होंने दिलवाया था। मैं बनारस गया, तो मेरे लिये जेबखर्च तक वे मनीआर्डर करते थें  प्रतिमाह... और जीवन के अंतिम दिनों में परिस्थितियां ऐसी हो गई कि न तो बनारस में और न ही मुजफ्फरपुर में वे अपनी दोनों ही पुत्रियों के घर पर रखे जा सकें।  सो, कोलकाता जाने से पूर्व डबडबाई आंखों से उन्होंने हम सभी से कहा था कि देखा हो गया...।  इससे पहले मैंने उनकी डबडबाई नेत्रों को तब देखा था, जब मां( नानी ) का  निधन हुआ था। मां को बचाने के लिये बाबा ने वर्षों संघर्ष किया था। पूरे कमरे को ही हॉस्पिटल बना दिया था । अतः , मां की मृत्यु पर उनकी जुबां पर एक ही बात रही कि वे चौधरी को बचा नहीं पाये ... बाबा और मां एक दूसरे को चौधरी ही बुलाया करते थें। मां की मृत्यु के बाद कोलकाता में बाबा बिल्कुल अकेले पड़ गये थें। मैं , वहां से बनारस तब बिल्कुल भी जाना नहीं चाहता था। परंतु उनके चचेरे रिश्तेदारों ने जबर्दस्ती मेरी बोरिया-बिस्तर बंधवा ही दिया। परिणाम यह रहा कि बनारस में अपने ही घर में एक परायेपन का एहसास मुझे करवाया जाता था और कोलकाता में बाबा बिल्कुल अकेले पड़ गये। इसी स्वतंत्रता ने उनके आखिरी दिनों को बेहद ही पीड़ादायी बना दिया। अपनों पर अपना सब- कुछ लुटाते रहने वाले हमारे प्यारे बाबा के साथ नियति ने इतनी क्रूरता क्यों दिखलाई, बीमार होने के बावजूद भी मां कितना ख्याल रखती थीं उनका । दोनों ही लोग एक दूसरे के प्रति समर्पित थें।  मां की मृत्यु के समय भी उनकी दोनों ही पुत्रियां मौजूद नहीं थीं और बाबा ने तो बिल्कुल पराये जगह आखिरी सांस ली थी। आज भी मुझे वह मनहूस दिन पता नहीं है, जिस दिन हम सभी से दूर उन्होंने बड़ी ही खामोशी के साथ अपनी आंखें बंद की होगी।  मृत्यु से पूर्व मां की आंखें भी तो अपनों को ढ़ूंढ़ रही थी, लेकिन बाबा तो यह जान ही चुके थें कि अब कोई नहीं आने वाला... । हां, मृत्यु से पूर्व एक पोस्टकार्ड अवश्य मेरे पास आया था, जिसमें लिखा था कि एक बार आ जाओं...पर जिसे घर पर दो जून की रोटी  से अधिक कुछ भी नहीं मिलता हो, वह कहां से पैसे की व्यवस्था कर बाबा के पास जा पाता ...।

(शशि) 6/5/18

क्रमशः