सूना आँगन
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बाहर बाजार में ख़ासी चहलपहल है। सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप ख़रीदारी करने में व्यस्त हैं । कार एवं बाइक से पत्नी और बच्चों के संग पुरुष नगर के छोटे-बड़े वस्त्रालय की ओर निकल पड़े हैं। जिनकी आय बिल्कुल सीमित है , ऐसे परिवार की महिलाएँ भी फुटपाथ पर लगे कपड़े की दुकानों पर दिख रही हैं। पर बच्चों की विशेष रुचि तो रंग एवं पिचकारियों में ही होती है।
वे ज़िद मचाए हुये है -" पापा वहाँ चलिए, यह देखिए ,मुझे तो इसे ही लेना है। "
गृहणियों ने पहले से ही गुझिया एवं मालपुआ बनाने के लिए पतिदेव से खोवा और मेवा लाने की फ़रमाइश कर रखी है। हाँ, अनेक सम्पन्न घरों में होली के ऐसे ख़ास पकवान भी अब तो बने बनाए ही किसी प्रतिष्ठित मिष्ठान भंडार से आ जाते हैं। भले ही उसमें घर जैसे स्नेह भरा स्वाद न हो, पर क्या फ़र्क पड़ता है। यह कृत्रित युग है। बस जेब खाली न हो।
और उधर,पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त अर्पित अपने हृदय के सूने आँगन को टटोल रहा था । उसके पास और है भी क्या काम ? ऐसे पर्व पर अपने जीवन के दर्द और शून्यता को समेटने में उसे स्वयं से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी महापुरुषों की तरह अपने व्याकुल मन को समझाता है, तो कभी किसी विदूषक-सा खिलखिलाने का स्वांग रचता है और जब फिर भी मन-आँगन का सूनापन दूर नहीं होता है, तो उसे अश्रुबुंदों से तृप्त करने का असफल प्रयत्न भी करता है।
तभी उसे अचानक अपने घर की याद आती है। वह आशियाना जिसे छोड़े तीन दशक हो गये
हैं। फिर भी जब कोई उससे पूछता, तब अपना स्थाई पता-ठिकाना बताने में उसे गर्व की अनुभूति होती रही कि इस मुसाफ़िरखाने से इतर वहाँ उस शहर में उसका अपना भी एक पुश्तैनी मकान है।
कितनी ही होली एवं दीपावली उसकी इसी घर में गुजरी हैं। वह आँगन जहाँ कृष्णजन्माष्टमी और सरस्वती पूजन पर्व पर अर्पित अपने कलाकौशल को भगवान जी के श्रीचरणों में समर्पित किया था । हाँ, वहीं आँगन जहाँ ग्रीष्म ऋतु में पानी भरे टब के समीप अपने भाई-बहनों के साथ बैठकर खूब शरारतें किया करता और वर्षा ऋतु में उसकी नाली बंद कर कागज की नाव चलाता था । काश.. ! वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी लिए उसका निश्छल बचपन फिर से वापस लौट आता।
अपने घर-आँगन का स्मरण कर अर्पित का मन भारी होने लगा था। विकल हो वह अपने सिरहाने रखी पानी की बोतल उठाता है। परंतु समय तेजी से पीछे भाग रहा था।
अरे हाँ ! अभी घर पर होता तो गुझिया बन रही होती । नये वस्त्र साथ में पिचकारी और रंग इत्यादि सामग्री अब तक आ गयी होती । इसी आँगन में तो छोटा ड्रम भर कर रंग घोलकर दिया करते थे,पिताजी। तीन घंटे तक घर के बाहर वाली गली में रंग डालने की छूट मिलती थी और ठीक बारह बजे फिर से वे दोनों भाई उसी आँगन में स्नान के लिए हाज़िर होते थे । मुख पर लगे रंग छुड़ाने में कुछ अधिक ही व़क्त लगता था। वह बार-बार आईना देखा करता था । तभी माता जी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी- " चलो, ऊपर आ जाओ तुम सभी । भोजन का समय हो गया है। "
अभिभावकों का अनुशासन कुछ अधिक ही था। अतः ना-नुकुर करने की गुंजाइश कम होती थी। दहीबड़ा, कांजीबड़ा सहित अनेक पकवान सामने देख दोनों ही भाइयों एवं बहन के चेहरे पर चमक क्या आती थी कि उनके अभिभावकों की खुशी पूछे मत।
परंतु ,अबतो इन तीन दशक में घर के भोजन की थाली का स्वाद कैसा होता है , यह अर्पित भूल चुका है और ऐसे विशेष पर्व उसके लिए अनेक बार व्रत-उपवास की दृष्टि से उपयोगी साबित हुये हैं।
ख़ैर, वह व़क्त उसके अभिभावकों के लिए संघर्ष भरा था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , परंतु कठोर श्रम , अर्जित धन का अपव्यय न करना एवं अनुशासन , इन तीन गुणों के कारण उसका परिवार खुशहाल था।
जिसका परिणाम रहा कि उस सरस्वती मंदिर की स्थापना ,जिससे उसके अभिभावकों को अपने जीवन में प्रथम बार धनलक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण उनके जीवनशैली एवं विचारों में भी परिवर्तन आने लगा , वहीं अर्पित ने भी किशोरावस्था से आगे की ओर पाँव बढ़ा दिया था।
आधुनिक सभ्य समाज के तीन प्रमुख गुण मिलावट, बनावट एवं दिखावाट से दूर रहने के कारण अर्पित अभिभावकों के स्वभाव में हो रहे इस बदलाव को सहन नहीं कर पा रहा था। अतः अपने कालेज का मेधावी विद्यार्थी होकर भी उसकी शिक्षा अधूरी रह गयी।
वह अपने घर-आँगन से दूर ममता के सागर की खोज में निकल पड़ा। और समय के साथ जमाने भर की ठोकर ने उसे कटी और फटी पतंग बना तमाशाइयों के पाँव तले कुचलने को विवश कर दिया था ।
परंतु अर्पित न थका- न रुका , वह संघर्ष का पर्याय बन गया था , क्योंकि उसके हृदय- आँगन में आशा की एक किरण जगमगा रही थी और आँखों में एक सपना तैर रहा था कि इस खूबसूरत दुनिया के झिलमिल सितारों भरे आँगन में कोई तो ऐसी भी प्रेम की गली होगी जिसमें उसका भी अपना छोटा-सा घर होगा।
स्नेह के इसी दो शब्द के लिए वह इस जग में जहाँ माँ जैसा ममत्व की तलाश में था , तो वहीं यह सभ्य समाज उसे अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलते रहा । उसकी मासूमियत उसके लिए अभिश्राप बन गयी। उसके मन का आँगन सूना ही रह गया। उसकी सारी खुशियाँ उसकी माँ की चिता की राख जैसी बन चुकी थी और अब तो यही उसका अपना आभूषण है। यही नहीं , उसका वह पुश्तैनी घर भी अपना नहीं रहा। पिछले माह ही तो यह दुःखद सूचना मिली थी कि उसे भगोड़ा बता कर उसके परिवार के शेष सदस्यों ने मकान को बेच दिया है।
अथार्त वह पूरी तरह से बंजारा हो चुका है। इस समाचार के मिलते ही उसकी वेदना चरम पर पहुँच चुकी थी। जिस घर को विशेष पर्व पर वह स्वयं सजाया करता था। आँगन के पीछे स्थित उसका शयनकक्ष, जिसमें रखी अटैची, अलमारी और वह कमंडल जो उसकी दादी की आखिरी निशानी थी । सबकुछ छोड़ कर ही तो वह घर से निकला था,तो अब क्यों उसका हृदय चीत्कार कर रहा है ? इसलिए न कि जिस घर के आँगन ने उसके परिवार के चार-चार सदस्यों के पार्थिव शरीर को अपना हृदय पत्थर -सा कठोर कर संभाला था , उनके ही प्रियजनों ने उसका सौदा कर दिया ।
उह ! इतनी भी निष्ठुरता क्यों ? उसने तो कभी भी अपने घर के आँगन का बँटवारा नहीं चाहा था। वह अपना अधिकार तक इसपर से तीन दशक पूर्व छोड़ कर चला गया था, क्यों कर दिया गया फिर पूर्वजों की इस आखिरी पहचान का सौदा ?
अबतो अर्पित के शुभचिंतक तक उसे बुद्धू कह कर उसके इस त्याग पर परिहास कर रहे हैं। उनका कहना है कि तुम्हें भगोड़ा भी बता दिया गया, बावजूद इसके तुमने इस पैतृक सम्पत्ति में से अपने अधिकार को पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। हाँ, तभी तो तुम सच में भगोड़े हो.. भगोड़े । इसलिए जीवन में कुछ नहीं पाया और सुनो.. ! तुम्हारे मन का यह सूना आँगन इसीप्रकार हर पर्व पर तुम्हें तड़पाता, तरसाता एवं रुलाता रहेगा । कभी नहीं बसेगा इसमें किसी का प्यार।
- व्याकुल पथिक
बाहर बाजार में ख़ासी चहलपहल है। सभी अपने सामर्थ्य के अनुरूप ख़रीदारी करने में व्यस्त हैं । कार एवं बाइक से पत्नी और बच्चों के संग पुरुष नगर के छोटे-बड़े वस्त्रालय की ओर निकल पड़े हैं। जिनकी आय बिल्कुल सीमित है , ऐसे परिवार की महिलाएँ भी फुटपाथ पर लगे कपड़े की दुकानों पर दिख रही हैं। पर बच्चों की विशेष रुचि तो रंग एवं पिचकारियों में ही होती है।
वे ज़िद मचाए हुये है -" पापा वहाँ चलिए, यह देखिए ,मुझे तो इसे ही लेना है। "
गृहणियों ने पहले से ही गुझिया एवं मालपुआ बनाने के लिए पतिदेव से खोवा और मेवा लाने की फ़रमाइश कर रखी है। हाँ, अनेक सम्पन्न घरों में होली के ऐसे ख़ास पकवान भी अब तो बने बनाए ही किसी प्रतिष्ठित मिष्ठान भंडार से आ जाते हैं। भले ही उसमें घर जैसे स्नेह भरा स्वाद न हो, पर क्या फ़र्क पड़ता है। यह कृत्रित युग है। बस जेब खाली न हो।
और उधर,पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त अर्पित अपने हृदय के सूने आँगन को टटोल रहा था । उसके पास और है भी क्या काम ? ऐसे पर्व पर अपने जीवन के दर्द और शून्यता को समेटने में उसे स्वयं से कठिन संघर्ष करना पड़ता है। वह कभी महापुरुषों की तरह अपने व्याकुल मन को समझाता है, तो कभी किसी विदूषक-सा खिलखिलाने का स्वांग रचता है और जब फिर भी मन-आँगन का सूनापन दूर नहीं होता है, तो उसे अश्रुबुंदों से तृप्त करने का असफल प्रयत्न भी करता है।
तभी उसे अचानक अपने घर की याद आती है। वह आशियाना जिसे छोड़े तीन दशक हो गये
हैं। फिर भी जब कोई उससे पूछता, तब अपना स्थाई पता-ठिकाना बताने में उसे गर्व की अनुभूति होती रही कि इस मुसाफ़िरखाने से इतर वहाँ उस शहर में उसका अपना भी एक पुश्तैनी मकान है।
कितनी ही होली एवं दीपावली उसकी इसी घर में गुजरी हैं। वह आँगन जहाँ कृष्णजन्माष्टमी और सरस्वती पूजन पर्व पर अर्पित अपने कलाकौशल को भगवान जी के श्रीचरणों में समर्पित किया था । हाँ, वहीं आँगन जहाँ ग्रीष्म ऋतु में पानी भरे टब के समीप अपने भाई-बहनों के साथ बैठकर खूब शरारतें किया करता और वर्षा ऋतु में उसकी नाली बंद कर कागज की नाव चलाता था । काश.. ! वो कागज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी लिए उसका निश्छल बचपन फिर से वापस लौट आता।
अपने घर-आँगन का स्मरण कर अर्पित का मन भारी होने लगा था। विकल हो वह अपने सिरहाने रखी पानी की बोतल उठाता है। परंतु समय तेजी से पीछे भाग रहा था।
अरे हाँ ! अभी घर पर होता तो गुझिया बन रही होती । नये वस्त्र साथ में पिचकारी और रंग इत्यादि सामग्री अब तक आ गयी होती । इसी आँगन में तो छोटा ड्रम भर कर रंग घोलकर दिया करते थे,पिताजी। तीन घंटे तक घर के बाहर वाली गली में रंग डालने की छूट मिलती थी और ठीक बारह बजे फिर से वे दोनों भाई उसी आँगन में स्नान के लिए हाज़िर होते थे । मुख पर लगे रंग छुड़ाने में कुछ अधिक ही व़क्त लगता था। वह बार-बार आईना देखा करता था । तभी माता जी की आवाज़ सुनाई पड़ने लगती थी- " चलो, ऊपर आ जाओ तुम सभी । भोजन का समय हो गया है। "
अभिभावकों का अनुशासन कुछ अधिक ही था। अतः ना-नुकुर करने की गुंजाइश कम होती थी। दहीबड़ा, कांजीबड़ा सहित अनेक पकवान सामने देख दोनों ही भाइयों एवं बहन के चेहरे पर चमक क्या आती थी कि उनके अभिभावकों की खुशी पूछे मत।
परंतु ,अबतो इन तीन दशक में घर के भोजन की थाली का स्वाद कैसा होता है , यह अर्पित भूल चुका है और ऐसे विशेष पर्व उसके लिए अनेक बार व्रत-उपवास की दृष्टि से उपयोगी साबित हुये हैं।
ख़ैर, वह व़क्त उसके अभिभावकों के लिए संघर्ष भरा था। आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी , परंतु कठोर श्रम , अर्जित धन का अपव्यय न करना एवं अनुशासन , इन तीन गुणों के कारण उसका परिवार खुशहाल था।
जिसका परिणाम रहा कि उस सरस्वती मंदिर की स्थापना ,जिससे उसके अभिभावकों को अपने जीवन में प्रथम बार धनलक्ष्मी की प्राप्ति हुई थी। जिस कारण उनके जीवनशैली एवं विचारों में भी परिवर्तन आने लगा , वहीं अर्पित ने भी किशोरावस्था से आगे की ओर पाँव बढ़ा दिया था।
आधुनिक सभ्य समाज के तीन प्रमुख गुण मिलावट, बनावट एवं दिखावाट से दूर रहने के कारण अर्पित अभिभावकों के स्वभाव में हो रहे इस बदलाव को सहन नहीं कर पा रहा था। अतः अपने कालेज का मेधावी विद्यार्थी होकर भी उसकी शिक्षा अधूरी रह गयी।
वह अपने घर-आँगन से दूर ममता के सागर की खोज में निकल पड़ा। और समय के साथ जमाने भर की ठोकर ने उसे कटी और फटी पतंग बना तमाशाइयों के पाँव तले कुचलने को विवश कर दिया था ।
परंतु अर्पित न थका- न रुका , वह संघर्ष का पर्याय बन गया था , क्योंकि उसके हृदय- आँगन में आशा की एक किरण जगमगा रही थी और आँखों में एक सपना तैर रहा था कि इस खूबसूरत दुनिया के झिलमिल सितारों भरे आँगन में कोई तो ऐसी भी प्रेम की गली होगी जिसमें उसका भी अपना छोटा-सा घर होगा।
स्नेह के इसी दो शब्द के लिए वह इस जग में जहाँ माँ जैसा ममत्व की तलाश में था , तो वहीं यह सभ्य समाज उसे अपने स्वार्थ के तराजू पर तौलते रहा । उसकी मासूमियत उसके लिए अभिश्राप बन गयी। उसके मन का आँगन सूना ही रह गया। उसकी सारी खुशियाँ उसकी माँ की चिता की राख जैसी बन चुकी थी और अब तो यही उसका अपना आभूषण है। यही नहीं , उसका वह पुश्तैनी घर भी अपना नहीं रहा। पिछले माह ही तो यह दुःखद सूचना मिली थी कि उसे भगोड़ा बता कर उसके परिवार के शेष सदस्यों ने मकान को बेच दिया है।
अथार्त वह पूरी तरह से बंजारा हो चुका है। इस समाचार के मिलते ही उसकी वेदना चरम पर पहुँच चुकी थी। जिस घर को विशेष पर्व पर वह स्वयं सजाया करता था। आँगन के पीछे स्थित उसका शयनकक्ष, जिसमें रखी अटैची, अलमारी और वह कमंडल जो उसकी दादी की आखिरी निशानी थी । सबकुछ छोड़ कर ही तो वह घर से निकला था,तो अब क्यों उसका हृदय चीत्कार कर रहा है ? इसलिए न कि जिस घर के आँगन ने उसके परिवार के चार-चार सदस्यों के पार्थिव शरीर को अपना हृदय पत्थर -सा कठोर कर संभाला था , उनके ही प्रियजनों ने उसका सौदा कर दिया ।
उह ! इतनी भी निष्ठुरता क्यों ? उसने तो कभी भी अपने घर के आँगन का बँटवारा नहीं चाहा था। वह अपना अधिकार तक इसपर से तीन दशक पूर्व छोड़ कर चला गया था, क्यों कर दिया गया फिर पूर्वजों की इस आखिरी पहचान का सौदा ?
अबतो अर्पित के शुभचिंतक तक उसे बुद्धू कह कर उसके इस त्याग पर परिहास कर रहे हैं। उनका कहना है कि तुम्हें भगोड़ा भी बता दिया गया, बावजूद इसके तुमने इस पैतृक सम्पत्ति में से अपने अधिकार को पाने के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। हाँ, तभी तो तुम सच में भगोड़े हो.. भगोड़े । इसलिए जीवन में कुछ नहीं पाया और सुनो.. ! तुम्हारे मन का यह सूना आँगन इसीप्रकार हर पर्व पर तुम्हें तड़पाता, तरसाता एवं रुलाता रहेगा । कभी नहीं बसेगा इसमें किसी का प्यार।
- व्याकुल पथिक