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Saturday 31 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 1 /4/18

 कल रात्रि 11 बजे तक शास्त्रीपुल पर अखबार के बंडल की प्रतीक्षा में खड़ा था। लेकिन, फिर भी बस नहीं आई तो खाली हाथ वापस लौट आया। आज रविवार है, तो पेपर आना नहीं है। ग्राहकों की शिकायत रहेगी की भैया आपसे स्नेह के कारण  अखबार ले रहा हूं, अन्यथा....। अब आप यह समझ नहीं सकते कि कितनी पीड़ा मुझे होती है। सुबह ही सवा पांच बजे इसलिये उठता हूं कि समय से मोबाइल पर समाचार टाइप कर प्रेस को भेज दूं। इस दौरान अपने ऊपर बस इतना ही समय देता हूं कि सुबह दैनिक कर्म से निवृत्त हो  दलिया पका और खा सकूं। फिर कचहरी, अस्पताल पोस्टमार्टम आदि जगह जा समाचार संकलन में दोपहर के ढ़ाई- तीन तो बज ही जाते हैं अमूमन। दोपहर बाद  करीब साढ़े तीन -चार बजे जब मुसाफिरखाने पर पहुंचता हूं, तो भूख लगी रहती है। बाहर का सामान अब मैं ग्रहण करता ही नहीं, न रात्रि में ही भोजय करता हूं। सो, यहां प्रेम भवन आते ही सब्जी बनाने की तैयारी में लग जाता हूं। उबली सब्जी लेता हूं। अतः ज्यादा समय इसे बनाने में नहीं लगता है। रोटी की व्यवस्था भी राही लाज में ही हो गई है। ऊपर अनिल बनवा दिया करते हैं। भोजन के बाद सिर्फ एक घंटे का समय अपने ऊपर दे पाता हूं। इसके बाद चिन्ता यह लगी रहती है कि बनारस से बस कितने बजे पेपर का बंडल लेकर  निकली है। अमूमन सायं 6 बजे के बाद ही बस चलती है। कल तो साढ़े 7 बजे बंडल लगा था। बस जब 11 बजे रात्रि भी नहीं आई, तो इस चिन्ता में वापस लौटना पड़ा कि आप सभी ग्राहकों से क्या कहूंगा।  जिस मार्ग पर जाम लगता है। उसे लेकर पुलिस की अपनी बहानेबाजी रहती है। वह यह कह बच निकलती है कि सड़क खराब है। जबकी कल पूर्णिमा था। कितने ही हजार दर्शनार्थी इसी मार्ग से विंध्याचल   आते है। परंतु कहां थी टेढ़वा और औराई के मध्य पुलिस की व्यवस्था। इन अफसरों को सोशल मीडिया पर चेहरा चमकाना पसंद है। परंतु बस यात्री कल मध्य में तीन चार किलोमीटर के जाम के कारण वाराणसी और जौनपुर से बाया गोपीगंज होते हुये पांच से छह घंटे में मीरजापुर पहुंच रहे थें। उन्हें जाम से मुक्ति दिलाने की कोई ठोस पहल उन्होंने की क्या। पूरी व्यवस्था ही ध्वस्त हो गई है। और मुझे जो लग रहा है कि वर्तमान सरकार में ये अधिकारी परम स्वतंत्र होते जा रहे हैं। मैं तो इसे नौकरशाही का राजनीतिकरण ही मानता हूं।  सो ,आप झेलो , परेशान हो हर छोटी छोटी समस्याओं को लेकर। इस पीड़ा का अनुभव मैं शास्त्रीपुल पर खड़ा खड़ा कल रात्रि 11 बजे तक कर रहा था। सोचा, तो यह था कि एक अनुशासित पार्टी के नेताओं के हाथ प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता आई है ,तो कुछ तो परिवर्तन व्यवस्था में दिखेगा ही। तो साहब यही परिवर्तन है कि सात बजे चली बस दो घंटे में यहां पहुंचने की जगा पता चला कि साढ़े 12 बजे रात आई थी। कितने ही दर्शनार्थी चैत पूर्णिमा पर्व के कारण बसों में थें, जो मार्ग में फंसे हुये थें। जबकि दो जनपदों की सीमा पर जाम लगा था। चील्ह और औराई पुलिस चुस्त रहती तो ऐसा नहीं होता। ट्रैफिक पुलिस भी लापता रहती है। ऐसे मौके पर, ऐसा मैं अनुभव कर रहा हूं। अब यात्रीगण इस अपना अच्छा दिन , समझे या बुरा। परंतु इस सरकार के बारे में मेरी मत बिल्कुल साफ है....

क्रमशः

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक 31/3/18

 मैं यह नहीं साबित करना चाहता कि  ईमानदारी से पत्रकारिता करके मैंने कोई बढ़ा गुनाह किया है। मैं सिर्फ नये व युवा पत्रकारों को यह बताने का प्रयास कर रहा हूं कि यह राह कितना कठिन है। चकाचौंध भरी इस दुनिया में आप भी ऐसा ही कर कहीं अवसाद की ओर न बढ़ जाएं। क्यों इस रंगमंच पर आकर मैं जब सभी अपनों से दूर होता चला गया, तो उस एकाकीपन से उबरने के लिये मुझे कठिन संकल्प लेंने ही पड़ रहे हैं। संतोष इस बात का है कि मैं इसमें सफल हो रहा हूं। क्योंकि मैं अपने पेशे के प्रति अपनी ईमानदारी को यूं तो अवसादग्रस्त होकर जाने नहीं दूंगा। ताकि कल को लोग यह कहें देखों जरा इस पागल को भाई ,बड़ा ईमानदार पत्रकार बन रहा था ! अतः संकल्प शक्ति से मैं वैराग्य के मार्ग पर बढ़ कर अपनी पीड़ा से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर रहा हूं। भले ही रंगमंच का पात्र वही रहूं, परन्तु यह न कहना पड़े कि जीना यहां मरना यहां , इसके सिवा जाना कहा...। सो,  हर आसक्ति से परे होने का संकल्प लिया है। इसी कारण मैंने  प्रेम भवन में अपना नया आशियाना बनाया। तो एक बार फिर से मोह ग्रस्त होने का जब कुछ एहसास और मन में भारी पन भी हुआ, तो मैं राही लाज चला आया। चंद्रांशु भैया ने इसकी मुझे आजादी दे रखी है कि मैं यहां वहां कहीं भी रह सकता हूं। हां, यहां राही लाज में कोई भी सामग्री ऐसी मेरी नहीं है कि उससे आसक्ति बढ़े । सो, बिलकुल ही मुसाफिर सा हूं और आनंदित भी। अब किसी अपने ठिकाने के प्रति मोह मुझे कैसे जकड़ेगा ?

 रही बात आत्मकथा लेखन कि तो मैंने इसके रविवार का दिन चयन किया है अथवा फुर्सत में कभी भी । शेष अन्य दिन समय मिलना मुश्किल है। आज रात्रि तो वाराणसी से साढ़े सात बजे पेपर ही लगा है। बस साढ़े नौ बजे से पहले नहीं आएंगी। फिर अखबार बांटने में भी दो घंटे तो लग ही जाते हैं। अब साढ़े 11 बजे रात मुसाफिरखाने पर वापस  लौट कर आऊंगा, तो लिखूंगा क्या।(शशि)

क्रमशः