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Saturday 11 May 2019

तुम ऐसी क्यों हो..

तुम ऐसी क्यों हो..
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    क्या अंतर है उस असभ्य लड़की और इनमें ..? नारी में तो साक्षात देवी का स्वरूप होता और आंचल में स्नेह । वह पुरुषों से भिन्न होती है ! बोलो , फिर तुम ऐसी क्यों हो  ?
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     आज सुबह वह फिर नज़र आ गयी। हमेशा की तरह गुटखा चबाते हुये। पुराने लिबास में भी एक आकर्षक था उसमें। न जाने क्यों जब भी मैं उसे देखता हूँ , मन में उसके प्रति घृणा और दया , यह मिश्रित  भाव आ ही जाता है।
   उस लड़की में शालीनता, लज्जा एवं शिष्टाचार , जिसे यह सभ्य समाज नारी का आभूषण बताता है, ऐसा भाव मैंने कभी नहीं देखा । बिल्कुल मुँहफट है और गाली तो उसकी जुबां पर है। मुझे तो लगता है कि भले ही " ककहरे " का ज्ञान उसे ठीक से न हो, परंतु अपशब्दों के प्रयोग में मास्टर की डिग्री अवश्य ले रखी है। पता नहीं किन परिस्थितियों में उसने यह ट्रेनिंग ली हो।
   अब तो उसका यौवन भी निखार पर है, किन्तु क्या मजाल कि कोई मर्द उसकी ओर नजर उठा के देख भी ले।
     यहाँ तक कि गलियों में मंडराने वाले मनचले उसकी परछाई देख रास्ता बदल देते हैं कि कहीं वह शुरू न हो जाए..।
    फिर भी एक कमजोरी है उसमें, जो हर प्राणियों में होती है। वह है पेट की आग । मुझे अनुभूति है इसकी कि यह  ऐसी भूख है कि यदि वक़्त पर दो रोटी न मिले तो , आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति के मान, सम्मान और स्वाभिमान को यह हज़म कर जाती है।
  कोलकाता में बड़े घर में पलने के बाद और वाराणसी में मास्टर साहब का पुत्र होकर भी, जब इस अंजान शहर में गांडीव हाथ में लिये भटक रहा था। तो घर पर मुझे भी घृणा की दृष्टि से परिजन देखते थें कि मैं अखबार बांट रहा हूँ , इसीलिये मैंने वाराणसी को अपना अपना कर्मक्षेत्र नहीं बनाया था।
    दो वक़्त की रोटी बिना किसी के समक्ष सिर झुकाए मिल जाए , इसी आस में एक विद्यालय के संचालक का पुत्र होने का गर्व भुला कर यहाँ चला आया था।
     अतः जिसे मैं तब असभ्य लड़की समझ रहा था, सम्भव है कि उसके साथ भी ऐसा ही कुछ हो रहा है।
 नियति कहाँ लेकर जाएगी , किसे पता। उसकी यही क्षुधा उसे  चारित्रिक पतन की राह पर भी ले जा सकती है !
   वैसे , तीन वर्ष पूर्व इस लड़की के प्रति मेरा नज़रिया तब बदला था। जब मैंने एक किराना दुकान के स्वामी संग उसकी वार्तालाप सुनी थी।
    वह पूछ रही थी , " कमला भैया! आज शाम गंगा घाट मंदिर पर भंडार है न ? "
  मैं समझने का प्रयास कर रहा था कि यह मुस्लिम लड़की, जो तब किशोरावस्था के अंतिम पावदान पर खड़ी थी , वह शिव मंदिर के समीप भंडारे के संदर्भ में इस तरह से क्यों पूछ रही है ? उस दुकान पर वह अकसर ही  गुटखा खरीदने आती थी ।  उस दिन से पूर्व इसका मुझे तनिक भी आभास नहीं था कि यह लड़की अपने पापी पेट को लेकर इस तरह से व्याकुल है कि एक रुपये का गुटखा खाकर अपने भूख को मार रही है। लेकिन उस दिन उसका सब्र टूटने लगा था। इसी कारण उसे आधा किलोमीटर दूर भंडारा स्थल पर बन रही कोहड़े की सब्जी एवं मीठी बुंदियां  की सुगंध आने लगी थी।
    सो, उसने अपनी बात आगे बढ़ाते हुये दुकानदार से पुनः विनती भरे स्वर में कहा  ,
   "भैया ! चली तो जाऊँ मैं भी वहाँ पूड़ी खाने, परंतु भंडारे में इतने सारे मर्दों के बीच बैठ कर खाने में शर्म आएगी मुझे। ऐसा नहीं हो सकता है कि मुझे भंडारा स्थल पर बैठना नहीं पड़े ।आप वहाँ से एक पत्तल में कुछ कचौड़ियाँ, सब्जी और बुंदियां  दिलवा दें। मैं घर ले जाकर आपके भगवान जी का यह प्रसाद खा लूंगी।  "
    दुकानदार थोड़ा दयालु प्रवृत्ति का था। सो, इस लड़की को भी वह अपनी पुत्री जैसा ही समझता था। अतः उसने लड़की की बात मान ली और कहा कि दो घंटे बाद वह स्वयं भंडारे की व्यवस्था देखने जाएगा। तब वह भी चली आए।
     इस सृष्टि में भूख और प्यास के सम्मुख मानव द्वारा निर्मित मज़हब व धर्म की मजबूत दीवार  कहाँ टिक पाती है ? इंसान विवश हो जाता है ।
  अभी पिछले ही माह जब हमारे होटल के सामने शीतला माता का भंडारा था, तो पुनः यह लड़की दिखाई पड़ी थी । उसमें अब वह झिझक नहीं दिख रही थी मुझे। फिर अगले दिन मैंने देखा कि वह एक होटल पर मैनेजर से नौकरी मांग रही थी। जिसमें उसे कामयाबी नहीं मिली। बेचारी करे भी क्या ,जब उसकी ज़ुबान ही ऐसी है कि खुलते ही फिसल जाती है।
 अभी पिछले ही दिनों फिर से वह बूढ़ेनाथ मंदिर के समीप दिख गयी। अब तो उसकी आँखों में भी मुझे अजीब सी भूख दिख रही है और यह शहर हो या गाँव भूखे भेड़ियों को इसी की प्रतीक्षा रहती है !  उसके लिये मैं खुदा खैर करे , बस यही दुआ कर सकता हूँ ।
   इस लड़की को देख मेरा मन अशांत इसलिये हो जाता है, क्यों कि  27 वर्ष पूर्व कालिम्पोंग की उस घटना को आज भी कहाँ भुला पाया हूँ । एक सुंदर नेपाली लड़की छोटे नाना जी के मिष्ठान की दुकान पर आया करती थी। हम सभी उसे कुछ खाने को दे दिया करते थें। एक दिन सुबह कारखाने के पीछे वाले मार्ग  पर काफी भीड़ जुटी हुई थी।  देखा तो पता चला की यह वही लड़की है , जो सुबह से ही शारीरिक कष्ट से छटपटा रही है। दरिंदों ने रात के अंधेरे में उसे कुछ खिलाने के बहाने बुला कर न सिर्फ उसके अस्मत से खेला था, वरन उसके मखमली जिस्म पर भी कम अघात नहीं किया था। इस हादसे के बाद फिर कभी नहीं दिखी वह लड़की।  मुस्कुराता हुआ धुंधला सा उसका चेहरा और वह रुदन आज भी मुझे याद है।
    यहाँ मीरजापुर आने के बाद ऐसे अनेक हृदयविदारक दृश्य मैंने देखें और खबरें भी लिखी हैं । इसी शहर में दो सगी बहनों के साथ दुष्कर्म और पिता संग उनकी निर्ममता पूर्वक हत्या कर दी ,वह दृश्य दहलाने वाला रहा। इसके पश्चात पत्रकारिता से जुड़कर मैंने मुखौटे वाले अनेक भद्रजनों को देखा और इस तरह मैं भी धीरे- धीरे पत्थर दिल इंसान होता गया। फिर भी इस बनावटी, मिलावटी और दिखावटी दुनिया में एक सच्चे मित्र की खोज में भटकता रहा।
     हाँ,कुछ और याद आ रहा है। जब मीरजापुर आया तो एक और युवती कचहरी, कलेक्ट्रेट और घंटाघर पान की दुकान पर दिखती थी। वह मुँह में पान घुलाएँ कुछ बनठन के घर से निकलती थी। तब उसके कितने ही आशिक थें । भले ही वह सम्पन्न घर की नहीं थी हो , परंतु ऐसा भी न था कि उपवास करना पड़े । सो, परिस्थितियाँ जो भी रही हो। लेकिन, आज वक्त से पहले उसका यौवन ढल चुका है और उसके पास कोई फटकना नहीं चाहता है। उसके स्थूलकाय शरीर एवं उदास चेहरे को देख मेरा हृदय वेदना से भर उठता है । सोचता हूँ कि जीवन का यह धूप-छांव भी कितना अजीब है और यौवन ढलते कहाँ वक़्त लगता है।
      जब इस जनपद आया था,तो एक जिला सूचना अधिकारी मुझसे अत्यधिक स्नेह करते थें। उन्होंने पत्रकारिता जगत में मुझे स्थापित करने में सहयोग भी किया। एक दिन उनके कार्यालय में एक महिला दरोगा मिली। अधिकारी महोदय ने हम दोनों का आपस में परिचय करवाया। उस समय सांध्य कालीन गांडीव का पुलिस विभाग में दबदबा सा था। अतः दरोगा साहिबा ने मेरा बड़ा सम्मान किया। उनका शिष्टाचार देख , खाकी वालों के प्रति मेरे मन में विशेष   आदर का भाव जागृत हो गया। लेकिन, एक दिन देखा कि वही महिला उपनिरीक्षक किसी युवक को पीट रही थी और साथ ही अपशब्दों का बौछार किये जा रही थी।
   ऐसे गंदी गालियाँ उस विधवा महिला पुलिस अधिकारी के मुख से सुन , जिसे मैं सभ्य समाज का प्रतिनिधि समझता था, हतप्रभ रह गया।
   उनसे बात करने की  मुझे फिर बिल्कुल इच्छा नहीं हुई। उन्हें देख बिना दुआ- सलाम के ही आगे बढ़ जाता था।     लेकिन, एक दिन उन्होंने मुझे रोक ही लिया। उन्होंने कहा कि शशि भाई एक चाय पी लो मेरी तब जाना। वार्तालाप के दौरान मैं गुस्से में कह ही दिया कि आप मर्द पुलिसकर्मियों पर भी भारी हो। उस मनचले की पिटाई तो समझ में आती है, परंतु ऐसी भद्दी गालियाँ..?
       तब उन्होंने अपनी रामकहानी मुझे सुनाई और यह भी कहाँ कि अपनों के बीच छिपे घड़ियालों से नौकरीपेशे वाली महिलाओं को सतर्क रहना पड़ता है। सो, ये भद्दी गालियाँ एवं इसी लहजे में हँसी. ठिठोली ही उनका सुरक्षा कवच है। इसे अन्यथा न लें, किसी दिन क्वार्टर पर आये न  .. !
     खैर, उनसे वार्तालाप कर मुझे लगा कि तुम ऐसी क्यों हो..? इसका तर्क संगत उत्तर मुझे मिल गया है।
   परंतु एक दिन छात्रसंघ चुनाव के दौरन मैंने देखा कि कालेज में जहाँ दो महिला पुलिस अधिकारी खड़ी थीं, उनके मध्य से एक दुबला- पतला युवक अंदर परिसर में जा घुसा। अनजाने में अथवा अत्यधिक भीड़ देख , उसने यह दुस्साहस कर लिया हो ।
    तभी सिल्वर स्टार लगा रखीं एक मोहतरमा के ये शब्द ,  "बच्चा, पढने- लिखने की उम्र में ही बीच का रास्ता खोज रहा है तू । "
  मैं आज तक इसे नहीं भूल पाया हूँ। साथ ही यह प्रश्न भी मेरा अधूरा है कि तुम ऐसी क्यों हो.. ?
   और एक बात कहूँ इस सभ्य समाज की शिक्षित युवती एवं महिलाएँ  किसी निर्मल हृदय वाले पुरुष को मित्र बना कर , जब कभी उसके स्नेह की उपेक्षा करती हैं। कल तक उनकी वाणी में जो अपनत्व था , वह जब उसी निर्दोष पुरुष मित्र के लिये मात्र औपचारिकता में परिवर्तित हो जाता है, तब भी यह आहत हृदय चीत्कार कर उठता है कि तुम ऐसी तो न थी?         क्या अंतर है उस असभ्य लड़की और इनमें ..?
    नारी में तो साक्षात देवी का स्वरूप होता और आंचल में स्नेह । वह पुरुषों से भिन्न होती है ! बोलो ,फिर तुम ऐसी क्यों हो ?

         - व्याकुल पथिक