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Tuesday 27 March 2018

व्याकुल पथिक आत्मकथा

व्याकुल पथिक

27/ 3/18

  जिसे हिंदी ही ठीक से नहीं लिखने आती हो, वह भला लेखक बनने का दिवास्वप्न क्यों देखें। सबसे अधिक डांट मुझे इस विषय में पड़ी है विद्यालय में। पर जो अध्यापक थें मेरे, उन्हें यह नहीं पता कि कोलाकाता में रहने के कारण बंगला भाषा का और वहां ननिहाल में ही कुछ उड़िया भाषा का भी प्रभाव मेरी भाषा शैली पर पड़ा। बाद में कालिंगपोंग गया, तो वहां नेपाली बोलने लगा। रही सही मेरी हिंदी भी चौपट हो गई। व्याकरण का ज्ञान तो मुझे बिल्कुल भी अब नहीं है। पत्रकारिता में आना मेरे जीवन की एक बड़ी दुर्घटना थी। एक हाथ में कलम , तो दूसरे में.पेपर थमा दिया गया। पर जैसा कि मैं पहले भी बता चुका हूं कि चुनौती कितनी भी कठिन हो, कदम बढ़ा लिया तो वापसी करना मेरा स्वभाव बाल्यकाल से ही नहीं रहा। हां, एक बात बताना चाहता हूं कि मैं यह आत्मकथा इस लोभ से नहीं लिख रहा हूं कि इसे पुस्तक का रुप दे दिया जाए। लोग मुझे पत्रकारिता जगत में संघर्ष का प्रतीक समझ मरणोपरांत मेरे चित्र पर माला पहना कर मेरी आदर्श एवं संघर्षमय पत्रकारिता का बखान करें। जिस तरह से संतान की उपेक्षा के दंश से वृद्धावस्था में व्यथित  माता पिता की मृत्यु के बाद वही पुत्र जब उनकी बड़ी सी तस्वीर अपने ड्राइंगरुम में लटका स्वाग रचते हैं। मैं यह कड़ुवा सच आपको बार बार बताना चाहता हूं कि आज के इस पत्रकारिता जगत में यदि आप जिला प्रतिनिधि / ब्यूरोचीफ के पद पर हैं, तो आपके लिये समाज सेवा का कोई स्थान नहीं है। प्रेस आपसे सिर्फ व्यवसाय मांगेगा सर्वप्रथम। विज्ञापन हित में  खबरों को तोड़मरोड़ के आपकों प्रस्तुत करते रहना होगा। हां, यदि मेरे तरह निर्भिक सम्वाददाता/ जिला प्रतिनिधि बनने की चाहत रखेंगे, तो बाहरी ही नहीं अपनी बिरादरी के भी शत्रुओं से घिरते जाएंगें। और फिर क्या होगा पता है, अवसर मिलते ही वे जब प्रत्यक्ष प्रहार नहीं कर सकेंगे , तो आपकी किसी कमजोरी का लाभ उठा मुकदमे आदि में फंसा ही देंगे। तब क्या होगा। आज के सम्पादक पहले की तरह उदार नहीं है। न ही वे कोई खतरा मोल लेना चाहते हैं। उन्हें तो बस माल(व्यवसाय) चाहिए।  आप अपनी बेगुनाही की लगाते रहें कितनी भी क्यों न गुहार , परंतु जिस संस्थान के लिये आपने दशकों खून पसीना बहाया हो, वहां से आपकों निराशा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। हां, इतना रहम आप पर किया जा सकता है कि उस अखबार के दफ्तर के दरवाजे आपके लिये बंद न किये जाएं। परंतु प्रश्न यह है कि पैसा कहां से आएगा मुकदमा लड़ने का। आपने अनैतिक तरीके से भले ही कुछ न कमाया हो। लेकिन, यदि मुकदमे में फंसे तो सबकों सुविधा शुल्क देते रहना होगा। आपका परिश्रम का पैसा  तारीख दर तारीख  वकील, मुंशी, पेशकश सभी लेते रहेंगे और आप लाचार, बेवश , उपहास के पात्र बने किसी तरह से मुकदमा खत्म हो , इसकी प्रतीक्षा में टूटने लगेंगे। आपका सम्पादक दूर बैठा बैठा अलग फटकार लगाता रहेगा। हालांकि ऐसी स्थिति में एक बड़ा लाभ यह भी होता है कि अपने पराये की पहचान हो जाती है। कौन कितनी पुरानी बातों का बदला ले रहा है। वह भी बेनकाब हो जाता है।  मेरे कितने ही पत्रकार साथी मित्र और वे लोग जो मेरी कलम को दबाना चाहते थें, वे मुझे फंसाने के लिये इतने गिर सकते हैं, यदि मुकदमा ही नहीं होता तो मुझे इस कड़ुवे सच का ज्ञान कैसे होता। फिर भी आज मेरी जो पहचान है न, उसके इर्द गिर्द भी ये बड़े अखबारों के तथाकथित पत्रकार आ तो नहीं ही सकते हैं। हां, बड़े बैनर का लाभ उठा वे अपनी ठेकेदारी जरुर चमका सकते हैं। सो जरा विचार करें कि आपकों जिला प्रतिनिधि बन कर मेरी ही तरह एक ही जिले में सड़ना है, दुश्मनों से घिरना है अथवा आगे का सफर भी तय करना है। हां,  बड़ा सवाल तो यह है कि आज की पत्रकारिता में आप करेंगे क्या। जब मैं आया था , तो सिखाया गया था कि जन समस्याओं पर अधिक ध्यान दूं। स्थानीय लोगों से वार्ता कर बिजली, पानी सड़क , अस्पताल की समस्याओं पर कलम चलाऊं। प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों के कामकाज पर लिखूं। हो सके तो गांव- किसानों तक कलम को ले जाऊं।  और अब कि पत्रकारिता यह है कि यदि कहीं मुख्यमंत्री योजना के तहत सामुहिक विवाह हो रहा है। तो उसमें यह ढूंढ़ा जाए कि किसी को खराब आभूषण तो नहीं मिल गये हैं, या कोई जोड़ी नाबालिग तो नहीं है। ठीक है, यह भी एक खबर है, लेकिन प्रमुख  समाचार तो यही होना चाहिए कि डेढ़ सौ कन्याओं का हाथ पीला हुआ। (शशि)