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Saturday 30 November 2019

बद्दुआ ( जीवन की पाठशाला )

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  बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..
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   अरे !  दादी ये क्या बुदबुदा रही हैं.. क्या वे सच में  बद्दुआ दे रही हैं..मम्मी तो यही कहती हैं कि यह बुढ़िया हमें शाप देती है..परंतु क्यों, वे ऐसी ही हैं..?
  नहीं - नहीं, गलत है यहसब, हमारी दादी तो हम तीनों भाई-बहनों को कितना दुलार करती हैं..हिमांशु कुछ भी नहीं समझ पाता था कि यह उनका शाप था अथवा विलाप..।
   जब भी सास-बहू में वाकयुद्ध प्रारम्भ होता, वह सहम कर  कमरे के किसी कोने में दुबक जाता था, क्योंकि उसे मालूम था कि अब जबतक स्थिति सामान्य नहीं होगी, दादी से मिलने नहीं दिया जाएगा.. फिर कौन सुनाएगा उसे बेलवा रानी की कहानी.. ।
  यह दादी ही थी जिनकी खटिया पर कथरी में घुस कर वह हर रात नयी कहानियाँ सुना करता था..दादी के घुटने और पांव के सहारे झूलता रहता था..लाड और दुलार की उन थपकियों को भला आज भी वह कहाँ भूल पाया है।
  आखिर अपने ही घर में दादी परायी क्यों हो गयी थी ..वे अपना भोजन स्वयं क्यों बनाती थीं.. ?
  और एक अकेला इंसान अपने लिए कोई विशेष व्यंजन बनाये भी तो क्या .. पेट भर जाए यह कम नहीं है ..।
  हिमांशु इससे भलीभांति परिचित है..वह स्वयं भी तो पिछले ढाई- तीन दशक से कुछ ऐसा ही जीवन व्यतीत कर रहा है..।
 अतः वह समझ सकता है कि अपना परिवार होकर भी भोजन की थाली परायी होने की पीड़ा कितनी होती है.. परंतु स्वाभिमान नाक उठाये जो खड़ा रहता है..।
  उसकी दादी भी ऐसी ही थी..तीज-त्यौहार पर घर में पकवान बनते देख दिल मसोस कर रह जाती थी.. पर जबतक पौरूख चला , लिया किसी से कुछ भी नहीं.. यहाँ तक की सरकारी वृद्धा पेंशन भी उनसभी पर लुटा दिया करती थी.. ।
     हिमांशु जब समझदार हुआ, तो उसे अपनी दादी के जीवन-संघर्ष यात्रा की खोजखबर लेनी शुरू की .. पता चला कि वे बड़े बाप की लाडली बेटी हैं.. विवाह भी संपन्न परिवार में हुआ था..परंतु मीनाबाजार में पति के पांव फिसल गये.. तीन पुत्रियों के साथ एक महिला फिर कैसे बिताती पहाड़ जैसा शेष जीवन ..वह भी बनारस में , जहाँ -”राड़, सांड, सीढ़ी, सन्यासी इनसे बचें तो सेवें काशी” जैसी उक्ति मर्दों की जुबां की शोभा थी..।
उस जमाने में पुनर्विवाह भी कहाँ आसान  था..ऐसे में एक परित्यक्ता , वह भी तीन लड़कियों की माँ को भला कौन गले लगाता..?
 उन्होंने इन पुत्रियों के साथ अपने जीवन में वह संघर्ष किया था, जिसे देख बड़े- बुजुर्ग दाँतों तले उँगली दबा लेते थें..।
  उन्हें इस वेदना से तब मुक्ति मिली, जब उनका पुनर्विवाह करवा दिया गया.. अल्पकाल में ही उन्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई..और फिर इस अनपढ़ दम्पति ने यह संकल्प लिया कि उनका पुत्र भविष्य में उनकी तरह अपनी छोटी-सी मिठाई की दुकान पर हलवाई बनकर न तो भट्टी में कोयला झोंकेगा और न ही कड़ाही माँजेगा..वह तो पढ़-लिख कर राजाबाबू बनेगा..।
  तीन पुत्रियों का विवाह , पुत्र को उच्चशिक्षा दिलवाने के साथ ही उसकी दादी ने शहरी इलाके में अपना घर भी खरीद लिया था..।
   पुत्र का विवाह कोलकाता के एक सभ्रांत और संस्कारित परिवार की बेटी के साथ संपन्न करवा इस दम्पति ने अपना नैतिक कर्तव्य पूरा किया..।
  पर बड़ा सवाल  यह था कि उनकी हलवाई की दुकान कौन देखेगा..हिमांशु के दादा का स्वास्थ्य निरंतर गिरता जा रहा था..और  उधर आजीविका के साधन के अभाव में उसके पिता का अधिकांश समय ससुराल में कटता था..जहाँ का ठाठबाट देख वे हीनभावना से ग्रसित होते जा रहे थें.. ।     हिमांशु के दादा की अंतिम इच्छा थी कि वे अपने पौत्र को देख लें .. परंतु ऐसा संभव नहीं हो सका और वे भी उसकी दादी को जीवनपथ पर अकेला छोड़ चले गये..।
    उधर, उसके पिता की ससुराल में न बनी और यहाँ बनारस में भी वे एक कुशल अध्यापक बनने के लिये अभी संघर्ष ही कर रहे थें..। सो, घर की आर्थिक स्थिति डांवाडोल होती चली गयी, साथ ही उनका चिड़चिड़ापन भी बढ़ता गया..। सास-बहू के मध्य इस तंगहाली में अहम के टकराव से जिस मधुर संबंध में संवेदना एवं स्पंदन होना चाहिए वह स्वार्थ के तराजू पर चढ़ गया.. और फिर ऐसा हालात उत्पन्न हुआ कि जो पुत्र मासूम बालक-सा  सदैव अपनी माँ के आँचल में दुबका रहता था..अब वह उनसे दूर हो चला..।
    उसकी दादी ने पुत्रवियोग की इस अप्रत्याशित वेदना को अपने सीने में दबा लिया.. जिस घर को पैसा जोड़-जोड़ कर खरीदा था, वह उसकी मालकिन भी न रही..न ही कोई आसपास रहा..
अब वे एक कमरे में अकेले रहने लगीं ..हाँ, जब मन उदास होता था तो अपना दर्द बांटने पुत्रियों के ससुराल चली जाया करती थीं..।
  और फिर घर वापसी पर जब कभी उन्हें अपने इकलौते पुत्र पर से अधिकार खोने का संताप होता था .. विकल हृदय का यह विस्फोट जुबां पर आ जाता था..ऐसा कर तब उनके उद्विग्न चित्त को तनिक विश्राम मिलता था..।
    अब इसे गाली समझे, बद्दुआ कहें अथवा उनका रुदन..उनकी मनोदशा को कोई नहीं समझ पाता था..जिसे अपने बहू-बेटे से सम्मान और दो वक्त की रोटी की उम्मीद थी..जिस लालसा में कठोर से कठोर दुःख सहन कर अशिक्षित होकर भी अपने पुत्र को उस जमाने में उच्चशिक्षा दिलवाई थी..  इस स्नेह- समर्पण का क्यों कोई मोल नहीं..? वह क्यों जीवनदायिनी गंगा माँ से बहता पानी बन गयी ..   बंद कमरे में उनकी सिसकियों को किसी ने नहीं सुनी ..।
  अंततः उनके हृदय में सुलगती यह आग दावानल बन गयी.. जिसमें उनके अपने ही प्रियजन एक-एक भस्म होते गये..।
  वह विद्यालय जो हिमांशु के माता- पिता के अथक परिश्रम की कमाई थी..जिसके निर्माण के लिये दादी ने अपना प्रिय बैठका ( किसी मकान के आगे का कमरा ) छोड़ दिया था, वे पीछे के कमरे में चली गयी थीं .. उन्हें इस त्याग के लिए घर की बनी दो वक्त की रोटी मिला करती थी..साथ ही चाय की वह प्याली , जिसके लिए  वे सुबह-शाम दरवाजे की ओर टकटकी  लगाये अपनी पौत्री का पदचाप सुनने का प्रयत्न करती थीं..।
दादी के निधन के पश्चात वह स्कूल भी नष्ट हो गया और सबकुछ बिखर गया..।
  हाँ, यह बद्दुआ ही थी कि जिस परिवार के बच्चे अपनी कक्षाओं में विशिष्ट पहचान रखते थें , उनकी शिक्षा अधूरी रह गयी। परिस्थितियों ने उन दोनों ही भाइयों को अपना घर त्यागने के लिये विवश कर दिया.. वह स्वप्न जिसे इनके अभिभावकों ने देखा था कि वे अपने शिक्षित पुत्रों और पुत्रवधुओं के साथ अपने विद्यामंदिर को विस्तार देंगे.. समाज में उनकी प्रतिष्ठा और ऊँची होगी, वह बिखर गया..उनकी इकलौती लाडली पुत्री  के लिये ससुराल पराया हो गया..वह अपने पुत्र के साथ बुझे मन से सदैव के लिये मायके आ गयी..जिसने अपने पिता के मृत्यु से दो दिन पहले अपनी माँ के आँखों के समक्ष ही दम तोड़ दिया..।
     और दादी का वह दुलारा पौत्र ,  जिसके आगमन की प्रतीक्षा उन्होंने मृत्युशैया पर अंतिम सांस तक की..उस तंग कमरे में जहाँ उनकी देखरेख करने कोई नहीं आता था.. वह भी उनकी सुधि लेने नहींं आया..।
    वह निष्ठुर हिमांशु तो वर्षभर पूर्व ही अपनी वृद्ध दादी को एकाकी छोड़ आजीविका की तलाश में बहुत दूर जा चुका था..उसे आज भी याद है कि उसकी प्यारी दादी ने किस तरह से डबडबाई आँखों से ट्रेन के डिब्बे में उसे चढ़ते देखा था.. सम्भवतः उन्हें आभास हो गया था कि यह आखिरी मुलाकात है..।
  वापस घर लौटने पर हिमांशु को उसके मित्र ने बताया था - "  दादी कितनी बेचैनी से तुम्हारे पत्र का इंतजार किया करती थी और फिर धीरे-धीरे वे खामोशी के चादर में लिपटते चली गयीं..  आखिरी बार तुम्हें देखने की लालसा लिये अनंत - यात्रा पर निकल गयीं ..। "
  नियति की यह कैसी क्रूरता थी कि जिस दादी ने अपने भोजन की थाली से सदैव उसका भूख मिटाया.. जो अपने आँचल में छुपा कर उसके लिये रोटी लाती थी..वह उनका अंतिम दर्शन करने न आ सका..।
  वापस लौटने पर दादी का सूना कमरा देख .. आत्मग्लानि से चीत्कार कर उठा था हिमांशु ..।
दादी की याद में उस बंद दरवाजे को देख तड़पता रहा वह पूरी रात..

   गली के मोड़ पे, सूना सा कोई दरवाज़ा
   तरसती आँखों से रस्ता किसी का देखेगा
   निगाह दूर तलक जा के लौट आएगी
   करोगे याद तो हर बात याद आएगी..

  किस तरह से वह रात उसने अकेले गुजारी होगी, जब उसे ऐसा लगता हो कि बगल वाले कमरे से दादी पुकार रही है.. वैसे तो ऊपरी मंजिल पर उसके सभी अपने ही बसे हुये थें.. हँसी-ठहाके की आवाज भी सुनाई पड़ रही थी..किन्तु उसे सांत्वना देने कोई नहीं आया..किसी ने जलपान को भी नहीं पूछा..उसने दो रात भूखे ही गुजार दी थी इसी कमरे में.. और एक दिन वह  सबकुछ छोड़कर पुनः भागा , कभी वापस नहीं आने के लिये..किन्तु यादों की जंजीरों ने उसे यूँ जकड़ा कि आज, दादी के नेत्रों से बही वही अश्रुधारा उसकी पहचान बन गयी है .. निश्चित ही उनकी वह बद्दुआ उसे भी लगी है..बीमार -लाचार यह व्यक्ति अपनों में बेगाना बना स्नेह के दो बूंद के लिए प्यासा भटक रहा है..
 जिसे भी उसने अपना समझा ,उनसभी ने निर्ममता से उसकी हर खुशियों को अपने पांव तले कुछ यूँ रौंदा है, ताकि वह पुनः संभल न पाए..वह धीरे-धीरे अपंगता की ओर बढ़ रहा है.. अपाहिज कहलाने के लिये .. ।

  ( तो यह है एक सभ्य एवं संस्कारी परिवार की  छोटी-सी दर्दभरी कहानी .. ऐसी परिस्थितियाँ न उत्पन्न हो..इस आप भी चिंतन करें , नमस्कार।)
         
              -व्याकुल पथिक