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Sunday 2 September 2018

हार के ये जीवन , प्रीत अमर कर दी



तेरे मेरे दिल का, तय था इक दिन मिलना
जैसे बहार आने पर, तय है फूल का खिलना
ओ मेरे जीवन साथी...
   
      यौवन की डेहरी पर अभी तो इस युगल ने ठीक से पांव भी नहीं रखा था। वे पड़ोसी थें, अतः बाली उमर में ही प्रेम पुष्प खिल उठा। बसंत समीर को कितने ही महीने लगे होंगे इस पुष्प को खिलाने में ,लेकिन समाज के ताने, प्रेम के शत्रु , कहीं आश्रय न मिलने से पुनः वियोग के भय ने लू का झोंका बन उसे हमेशा के लिये जला कर राख कर दिया, वह भी इस पावस ऋतु में , यह कैसा मिलन हुआ इनका ।
      अपने जनपद में पिछले महीने की आखिरी तारीख को  बिजली के खम्भे से एक ही दुपट्टे से लटके इस युगल के चित्र  मोबाइल पर देख मन भर आया। अवस्था इनकी मात्र सत्रह-अठारह वर्ष ही रही होगी । ग्रामीण लड़का-लड़की थें, गरीब थें और स्वजातीय भी थें, फिर भी समाज और अभिभावकों को इनके मधुर संबंध पसंद नहीं थें। सो, दोनों परिवारों में तलवारें तन गयीं। तय हुआ कि दोनों ही परिवार अपने - अपने बच्चे पर कड़ाई से नियंत्रण रखेगा। लड़के को काम के बहाने पुणे उसके मामा के यहां भेज दिया गया । परंतु युवाओं का प्रेम तो अब मोबाइल फोन पर पलता-बढ़ता है। सात समुन्दर की दूरी ही क्यों न हो इनमें ,  फिर भी दो सच्चे प्रेमियों के दिल में एक जैसी तड़प बनी ही रहती है। कभी अनुभव किया क्या आपने भी जब प्रिय के वियोग, दिल यूँ पुकार उठता है -

दिन ढल जाये हाय, रात ना जाय
तू तो न आए तेरी, याद सताये
ऐसे में किसको, कौन मनाये...

   इसी बीच लड़के का पुनः अपने गांव पर आना होता है और फिर एक दिन  अपने प्रेम बंधन को अजमाने के लिये यह युगल साथ जीने- मरने का कसम ले घर से भाग निकलता है, इतनी बड़ी दुनिया में एक आशियाने की तलाश में , कितने ही हसीन ख्वाबों को संजोये हुये होगा यह मासूम युगल , कुछ ऐसा ही -

तेरे मेरे सपने अब एक रंग हैं
हो जहाँ भी ले जाएं राहें, हम संग हैं
ओ मेरे जीवन साथी…

  पर इन नादानों को क्या पता था कि दुनिया का रंग - रुप कैसा है और पैसा ही यहां किस्मत है। अतः जिस काल्पनिक प्रेम नगर के लिये वे अपना घर त्याग कर निकले थें, वह कहीं ना मिला। उधर, अभिभावकों का फोन लगातार आ रहा था। दबाव बढ़ते जा रहा था और भय भी , कहीं कोई आश्रय नहीं मिला। जेब खाली होने को था। लड़की के पर्स में मात्र 520 रुपये मिले और लड़के का एक मामूली कीपैड वाला मोबाइल फोन । यही इनकी जमापूंजी शेष रही। वे प्रेम के इस खेल में बाजी हार चुके थें, फिर भी जुदाई मंजूर नहीं थी। मां को आखिरी संदेश दिया था उसने की अब मुंह दिखलाने नहीं आऊँगी , फिर मोबाइल पर घंटी होती रही किसी ने नहीं उठाया , क्यों कि जहां वे पले बढ़े थें, जहां उन्होंने दो परिवारों के बीच की दीवार को फांदा था,  उसी गांव में प्रेम की बलिवेदी पर वे अपना प्राण न्योछावर कर चुके थें । इनका निष्प्राण शरीर बिल्कुल एक दूसरे के करीब था। मानों एक दूसरे से कह रहा हो यही कि

 तेरे दुख अब मेरे, मेरे सुख अब तेरे
लाख मना ले दुनिया, साथ न ये छूटेगा
आ के मेरे हाथों में, हाथ न ये छूटेगा
ओ मेरे जीवन साथी…

 हम पत्रकार हैं, अतः हमारे अखबारों के लिये प्रथम पृष्ठ का समाचार रहा यह। सो, अपनी सारी सम्वेदनाओं को ताक पर रख, घटनाक्रम को लेखनी से विस्तार देने में जुट गये। हमारे लिये यह कोई पहली दुखद घटना नहीं हैं। मधुर संबधों में प्रेमपथ पर चलने वाले कितने ही युगल की कहानी हमने लिखी होगी। पर अब  जबकि पत्रकारिता से एक पायदान और ऊपर आ चढ़ा हूं, तो हमारी चिन्तन शक्ति हृदय की भावनाओं को कलमबद्ध करने को मचल रही है। अतः स्वयं से फिर से यह प्रश्न पूछ रहा हूँ कि जीवन के इस वरदान को यूँ ही नष्ट कर देना कितना उचित है ? वहीं मेरे जैसा भावुक एवं सम्वेदनशील व्यक्ति ऐसे प्रेम को हेय दृष्टि से देख भी नहीं सकता है। अपने प्रेम के लिये जीवन न्योछावर करने का सामर्थ्य क्या हर किसी में होता है ? भला अपने प्राण किसे प्रिय नहीं है। अब प्रश्न यह है कि फिर ऐसे प्रेमी युगल द्वारा आत्महत्या कर लेने की घटना को हम- आप और हमारा यह सभ्य समाज किस नजरिए से देखे । इसे अमर प्रेम समझ कर नमन करे अथवा इनके इस प्रेम को शारीरिक आकर्षक बता , इस नादानी के लिये इनकी मृत आत्माओं को धिक्कारे , पर कब तक  ? मन की विकलता सवाल पर सवाल दागे जा रही है। जवाब की खोज में जैसे ही अपने पत्रकार मित्र प्रभात जी के कार्यालय पर बैठा आत्मचिंतन कर ही रहा था कि कामरेड सलीम भाई आ गये एक प्रेस विज्ञप्ति लेकर । वे प्रखर वक्ता हैं एवं अपनी पार्टी के स्टार प्रचारक भी। आते ही उन्होंने भी यही प्रश्न किया कि शशि भाई ! प्रेम के प्याले को विषाक्त करने वालों का अस्तित्व क्या कभी समाप्त नहीं होगा ? प्यार के दुश्मनों के पाषाण हृदय में सम्वेदनाओं का अंकुरण किस तरह से हो। क्या प्रतिउत्तर देता उन्हें मैं, जिस प्रेम को पाने, उस पर बलात् अधिकार  एवं उसे मिटाने के लिये इंसान अपनी हर सीमा तोड़ता आ रहा हो। बोझिल मन से कार्यालय से नीचे उतर ही रहा था कि सामने पड़ गये भवन के स्वामी से दो बातें मेरी इसी विषय पर हो गयी। उन्हें भी यह सुनकर कष्ट हुआ। धनिक और सभ्रांत परिवार से होकर भी गृहस्वामी का कहना है कि अपने बच्चों की खुशी के लिये हमें अपनी सोच बदलनी होगी । जीवन अनमोल है यह जानते हुये भी हम अभिभावक अपने अहंकार , अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं जातीय भावना का त्याग नहीं कर पाते, परिणाम प्रत्यक्ष है। उन्होंने कहा कि चार लड़के हैं उनके,सभी से कह रखा हूं कि यदि कभी अपना दिल कहींं लगा बैठे, तो यह न समझना कि तुम्हारा पिता राह रोके खड़ा मिलेगा। वह समाज का हर ताना सह लेगा,लेकिन तुम जान की बाजी मत लगा लेना। ये बच्चे भी यूँ न टूट चुके होते , यदि उनका सही मार्गदर्शन होता। मृत्यु को गले लगाने से कुछ घंटे पूर्व तक वे अपने अभिभावकों के सम्पर्क में थें , फिर भी यह विश्वास उन्हें कोई नहीं दिला सका कि अब तुम्हें जुदाई  नहीं सहन करनी पड़ेगी। वैसे तो आज के बच्चे जिस प्रेम पथ पर चल रहे है, वह उनके लिये मृगमरीचिका है। जो अवस्था शिक्षा पाने के लिये बनी है। स्वयं को गृहस्थ जीवन के योग्य बनाने के लिये बनी है। उसका किस तरह से ये दुरुपयोग कर बैठ रहे हैं। पर इसके लिये यह परिवेश दोषी है। फिर भी हम यदि हठ करेंगे, तो प्रेम की गली में मौत की यह दस्तक कोई नयी बात तो नहीं है ! इसकी तो बस एक ही रीत है-

न उमर की सीमा है न जनम का है बंधन
 जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन...


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

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