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Monday 1 June 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -2]

     
मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -2]
(जीवन की पाठशाला से)

      पिछले लेख की की प्रतिक्रिया में " ब्लॉग जगत की मीरा" की उपाधि से विभूषित कवयित्री मीना दीदी ने मुझे यह एक उपयोगी परामर्श दिया था-" प्रिय शशिभाई, आपकी साइकिल भी आपकी तरह स्वाभिमानी है,आपने स्वयं उसका दर्द समझ लिया तो ठीक वरना वह मौन रहकर सब सहती रहेगी। अब उसको ठीक कराइए। काम के लिए नहीं तो थोड़ा बहुत घूम फिर आने हेतु उसका प्रयोग कीजिए।" 
     उनकी प्रतिक्रिया निश्चित ही मुझे चौंकाने वाली रही।सो,अपने अतीत और वर्तमान को टटोलते हुये स्वयं से यही प्रश्न कर रहा हूँ-"  मैं और यह मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल क्या कभी सुख के साथी भी रहे हैं ?"
   मुझे आश्चर्य हो रहा है कि मैंने ऐसा पहले क्यों नहीं सोचा और सत्य तो यह भी है कि इसने सिर्फ़ मेरे दुःख ही बांटे हैं। मुजफ़्फ़रपुर में जब यह पहली बार मेरे पास आयी तब से लेकर अब तक साइकिल का उपयोग मैंने अपने मनोरंजन के लिए नहीं किया है। साइकिल लेकर कभी किसी धर्मस्थल अथवा पर्यटन स्थल नहीं गया। इसे लेकर स्कूल- कॉलेज जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उस समय साइकिल मेरे लिए एक स्वप्न थी। मैंने इसके पहियों को महज़ अपनी आजीविका के लिए घंटों इन कठोर सड़कों पर घसीटने के अतिरिक्त इसे कभी कोई सुख नहीं दिया है। अतः जो बोया सो काट रहा हूँ, मेरा जीवन भी नीरस और कष्टमय रहा। मेरे लिए यह एक सब़क है। एक अलग प्रकार की अनुभूति है।जैसी क्रिया वैसी ही प्रतिक्रिया यही प्रकृति का मूल सिद्धांत है। जीवन में उत्साह के लिए उत्सव आवश्यक है। सामाजिक एवं धार्मिक पर्वों का सृजन इसीलिए हुआ है। हमें अपने समस्त उत्तरदायित्व के बावजूद अपने मनोविनोद के लिए कुछ वक़्त निकालना ही चाहिए , अन्यथा कहने को फ़िर यही शेष रहेगा- मन पछितैहै अवसर बीते। मैंने ऐसा नहीं किया, इसलिए अपनों से दूर हो गया। 
       साइकिल के प्रति मेरी लालसा की भी एक रोचक कथा है। तब मैं लगभग दस वर्ष का था।  बनारस में मेरे पिता जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। अतः जहाँ तक मुझे स्मरण है मेरा परिवार रिक्शे का प्रयोग वर्ष में दो बार ही करता था। श्रावण मास में दुर्गा जी-मानस मंदिर और 25 दिसंबर (बड़ा दिन) को सारनाथ जाने के लिए । माता-पिता के साथ हम तीनों भाई -बहन एक ही रिक्शे पर बैठते थे। जिससे रिक्शावाले को जहाँ चढ़ाई होती थी, अधिक श्रम करना पड़ता था और हम पाँचों को भी परेशानी होती थी। रिक्शा चालक के ललाट से टपकते पसीने की बूँदों को देख मेरा बालमन भावुक हो उठा था। जहाँ मेरे परिवार के अन्य सदस्य दर्शन-पूजन,मनोरंजन और वार्तालाप में व्यस्त थें, वहीं मैं गुमसुम इस चिंतन में डूबा हुआ था कि काश ! मेरे पास भी एक छोटी साइकिल होती तो हम दोनों भाई इस पर और वे तीनों रिक्शे पर होते। जिससे न रिक्शावाले को अत्यधिक श्रम करना पड़ता और न ही मेरे परिवार को यात्रा में कठिनाई होती। ऐसा सोच-सोच कर मैं इस "बड़े दिन" पर अपना दिल छोटा किये जा रहा था। मैंने आनंद के उस क्षण को व्यर्थ जाने दिया। परिणाम यह रहा कि बुद्ध की प्रतिमा के समक्ष खड़ा होकर भी बोधिसत्व नहीं बन सका। अपने ही परिवार में मेरी इस करुणा, संवेदना और भावनाओं का कभी मोल नहीं रहा। सम्भवतः इसलिए कि मेरे अभिभावकों के लिए वह आर्थिक संघर्ष का दौर रहा। शिक्षण कार्य के प्रति समर्पित होकर भी पिता जी को श्रम का प्रतिदान नहीं मिल रहा था। यह पीड़ा उनकी झुँझलाहट में परिवर्तित हो गयी थी।  हम बच्चों के हृदय को पढ़ने की अपेक्षा हमारे लिए रोटी की व्यवस्था उनके लिए महत्वपूर्ण थी।
     उधर, जिस अवस्था में बच्चे मनोरंजन के लिए साइकिल की माँग अपने अभिभावकों से करते हैं, इसकी उपयोगिता के प्रति मेरा यह दृष्टिकोण बिल्कुल अलग ही था।  मैंने अन्य मित्रों की तरह कभी अपने अभिभावकों से यह नहीं कहा कि मुझे साइकिल चाहिए। इसके पश्चात कोलकाता ननिहाल चला गया तो वहाँ मोटर कार  देखने को मिला। ऐसे में साइकिल की क्यों आवश्यकता पड़ती,परंतु मेरे नन्हे से हृदय में यह आकाँक्षा कभी नहीं हुई कि मेरे पास भी कार हो।
     वापस बनारस आने के पश्चात जब कक्षा दस का छात्र था, अभिभावकों को बिना बताए कॉलेज परिसर में एक सहपाठी की पहल पर पहली बार साइकिल की सवारी की थी। लेकिन तब तक बचपन पीछे छूट चुका था, फ़िर साइकिल सीखने में वह आनंद कहाँ ? 
   और हाँ मेरे पास स्वयं की अपनी साइकिल तब आयी ,जब मैं दूसरी बार मज़फ़्फ़रपुर गया। यहाँ एक थ्रेसर निर्मित करने वाली फ़ैक्ट्री में पहली बार मुझे स्टोरकीपर की नौकरी करनी पड़ी। यह पुरानी साइकिल मेरे लिए स्व० मौसा जी ने साढ़े तीन सौ रुपये में खरीदा थी, क्योंकि फ़ैक्ट्री काफ़ी दूर थी। बारह घंटे की ड्यूटी थी। मैं सुबह एक घंटे साइकिल चला कर जाता और रात जब लौटता, तो मेरी यह संघर्ष सहचरी और मैं दोनों ही बूरी तरह से थक चुके होते थे। प्रतिदिन सुबह आंगन में खड़ी साइकिल मुझे फ़ैक्ट्री की याद दिलाती थी। मौसा जी की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी।सो, आत्मनिर्भरता के लिए मुझे भी कुछ तो करना ही था। परंतु हम दोनों खुश थे, क्योंकि सुबह उठ कर मौसी जी मेरे लिए उबली सब्जी और रोटी बना दिया करती थीं,जो मुझे पकवान से भी अधिक प्रिय थी, जबकि मेरी साइकिल इसलिए प्रसन्न थी, क्यों कि प्रत्येक रविवार मौसा जी उसका ख़ूब सेवा-सत्कार किया करते थे। 
  यह फ़ैक्ट्री शहर से बाहर थी। रात्रि में सुनसान मार्ग से घर वापस लौटते हुये जब मैं भयभीत होता, तो मुझे स्मरण हो आया था कि सारनाथ जाते समय साइकिल की चाह मुझमें स्वयं के मनोरंजन  के लिए नहीं, वरन् अपनों के हित में जगी थी। सो, जैसी कल्पना की थी, वह साकार हो रही है, फ़िर इसप्रकार विचलित और उदास क्यों होऊँ ? हाँ, यह भी सत्य है कि मैं उस साइकिल का आनंद कभी नहीं उठा सका था। वह मेरी संघर्ष सहचरी बन कर रह गयी थी। मेरे सारे स्वप्न बिखर गये थे। हाईस्कूल में गणित में 98 प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाला छात्र उस फ़ैक्ट्री के स्टोर में बैठकर नटबोल्ट गिना करता था।
   यदि मैंने भावनाओं पर नियंत्रण रखा होता , अपनों के तिरस्कार को गले लगा कर अपनी शिक्षा पूर्ण कर ली होती और घर का त्याग नहीं किया होता ,तो आज़ मेरे पास अपना मकान और   परिवार दोनों होता।
     यही भावुकता ही मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है।घर,परिवार और समाज के मध्य हमें रहना है, तो अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना होगा। लोकाचार हमें आना चाहिए, क्योंकि भावना जल है, जिसमें तैरा जा सकता है, किन्तु घर बनाने की आवश्यकता जब भी पड़ेगी, हम विवेकरूपी चट्टान की खोज करेंगे। जिस घर में रहकर हम अधिक सुरक्षित एवं व्यवस्थित होने का अनुभव करते हैं। मैंने अपनी भावनाओं को बुद्धि की कसौटी पर नहीं कसा, विवेकरूपी अंकुश का प्रयोग नहीं किया, इसीलिए सिलिगुड़ी में जन्म लेने के पश्चात बनारस से लेकर कोलकाता, मुजफ़्फ़रपुर, कलिम्पोंग अब इस मीरजापुर में यूँ भटकता रह गया। न अपना आशियाना बना सका न ही घर बसा सका।
      किन्तु ऐसा भी नहीं है कि जीवन में मुझे कुछ भी नहीं प्राप्त हुआ है। जहाँ विष है,वहाँ अमृत भी होता है। मैं अतीत में की गयी अपनी गलतियों को समझ रहा हूँ और विचारों के धरातल को छोड़ कर भावना के आकाश में उड़ने जैसी दुर्बलता से मुक्त होने के लिए प्रयत्नशील हूँ। सच तो यह है कि यह पीड़ा सुकृतियों की पाठशाला है और आत्मपीड़न से आत्मदर्शन प्राप्त होता है।  
 ( क्रमशः)
          - व्याकुल पथिक