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Friday 10 August 2018

जहाँ में ऐसा कौन है कि जिसको ग़म मिला नहीं



" दुख और सुख के रास्ते, बने हैं सब के वास्ते
जो ग़म से हार जाओगे, तो किस तरह निभाओगे
खुशी मिले हमें के ग़म, खुशी मिले हमे के ग़म
जो होगा बाँट लेंगे हम
जहाँ में ऐसा कौन है कि जिसको ग़म मिला नहीं "

     इंसान के जीवन का एक  हिस्सा वेदना से
भरा होता है। यदि एकाकी जीवन है तो इस दौरान उसकी व्याकुलता  कुछ अधिक ही बढ़ जाती है,पर यदि संग कोई साथी है, तब  फिर  " तुम्हारे प्यार की क़सम, तुम्हारा ग़म है मेरा ग़म " उसके  इस अनुगूँज में यह दर्द, यह पीड़ा, यह दुःख, यह संताप, यह शोक यह कष्ट , यह व्यथा निश्चित कम हो जाती है। लेकिन, ऐसा खुशनसीब हर कोई तो नहीं है न ? इस दुनिया में मेरे जैसे भी अनेकों लोग हैं। जिनका जीवन उस सुलगते हुये सिगरेट की तरह है , जो जितना धुआं फेंकेगा उतना शीघ्र नष्ट हो जाएगा। ऐसे में तप्त हृदय पर शीतल बौछार की आवश्यक होती है। जिसका सृजन भी स्वयं ही करना पड़ता है मुझ जैसे इंसानों को। जानते हैं वह क्या है  ? यह है रुदन बंधुओं । वैसे , तो वेदन में भी एक शक्ति है। जो यातना में है उसकी दृष्टि विकसित होती है , तब वह दृष्टा बन सकता है। सिद्धार्थ की वह वेदना ही तो थी,जिससे मुक्ति के लिये वे अपना सम्पूर्ण वैभव त्याग कर उस सुख की खोज में निकल पड़े,जिस ज्ञान को प्राप्त कर वे गौतम बुद्ध कहलाये।  वह मुक्ति पथ इसी वेदना में है।
       लेकिन, रुदन के पश्चात ही ऐसा सम्भव है। जब हृदय का भारीपन नेत्रों से नीर बह कर बहता है, तभी तन- मन दोनों ही विश्राम और नव चिन्तन की स्थिति में आता है। रुदन के बाद अपनी मन- मस्तिष्क की स्थिति पर कभी आपने विचार किया क्या ? किस तरह से यह पुनः उर्जावान हो उठता है।
      मुंशी प्रेमचंद ने " गबन " में लिखा है , " रुदन में कितना उल्लास, कितनी शांति, कितना बल है। जो कभी एकांत में बैठ कर किसी की स्मृति में , किसी के वियोग में सिसक -सिसक और बिलख- बिलख कर नहीं रोया , वह जीवन के ऐसे सुख से वंचित है, जिस पर सैकड़ों हंसिया न्योछावर है। उस मीठी वेदना का आनंद उन्हीं से पूछो, जिन्होंने यह सौभाग्य प्राप्त किया है।  हंसी के बाद मन खिन्न हो जाता है, आत्मा क्षुब्ध हो जाती है, मानो हम थक गये हों, रुदन के पश्चात एक नवीन स्फूर्ति, एक नवीन जीवन, एक नवीन उत्साह का अनुभव होता है। "
      पर हमें यह भी याद रखना है कि पृथ्वी तल सिर्फ रोने के लिये ही नहीं है। हमें अपनी आंसुओं के इस सागर में वह राह तलाशनी है,जो पथिक को मंजिल तक ले जाए । मैं स्वयं इसी  मार्ग पर आगे बढ़ चला हूं, अन्यथा लिखता नहीं यह सब , क्यों कि पहले भी बता चुका हूं कि मैं कोई उपदेश थोड़े ही हूं।  बस अपने जीवन कुछ संस्मरणों को सामने रख , स्वयं को टटोल रहा हूं कि यह जीवन सफर कहां तक पहुंचा। भले ही किसी ने कहा हो कि इसका नाम है जीवनधारा, इसका कोई नहीं है किनारा।
  मुझे भलीभांति याद है कि प्रथम वेदना का एहसास मुझे तब  हुआ था । जब दर्जा पांच में पढ़ता था और  विद्यालय में अपने कक्षा की  खिड़की से गंगा में औंधे मुंह पड़े लाल रंग का गमछा लपेटे गौरांग युवक के शव को देखा था। किसी मृत व्यक्ति को तब मैंने पहली बार देखा था। फिर मैं कितनी ही रात सो नहीं सका था , शायद रो लेता तो वह मृत्यु भय , जो अपने प्रियजनों के वियोग को लेकर अचानक प्रथम बार मेरे बाल मन में उपजा था, कम हो जाता। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और आज चार दशक बाद भी ना जाने मुझे ऐसा क्यों लगता है कि में उसी खिड़की से सटे हुये बेंच पर बैठा हुआ हूं। मोटे वाले गुरु जी कुछ पढ़ा रहे हैं, परन्तु मेरी नजर उस युवक के बहते शव पर है। इसके पश्चात अब तक के जीवन में सबसे बड़ा शोक मुझे तब हुआ, जब कोलकाता में मां (नानी) गुजर गयी । तब 13 वर्ष का ही था मैं, पहली बार हरि बोल कहते हुये शव यात्रा में शामिल हुआ था। महाश्मशान पर वहां अपनी प्यारी मां का चिता सजते और जलते हुये देखा था। और उनके पार्थिव शरीर को किस तरह से सजाया गया था वह भी देखा। जिनके साथ दो महीने पहले ही तो अपनी आखिरी दीपावली मैंने मनाई थी। उन्हें कितनी ही बार बाबा मृत्यु के मुंह से खींच कर बाहर निकालते ही रहे थें। परंतु उस बार ऐसा नहीं हुआ। इस सदमे के बावजूद बाबा  नहीं रोये , तो लाल हो गई उनकी डरावनी सी आंखों को मैं आज तक नहीं भूला पाया हूं। वहीं,मैंने भी रुदन नहीं किया। बस बगल वाले कमरे में एकांत में बारजे से गुमशुम कभी सड़क को , तो कभी आसमां को निहारता रहा। परिणाम सामने है , तभी से ना तो मैं कोई पर्व मनाता हूं , न ही अपना जन्मदिन । कहां से कहां नहीं भागता फिरा , फिर भी उस एकांत कमरे को मैं अपनी स्मृति से नहीं निकाल पाया। वह घटनाक्रम मेरे लिये एक संदेश था , भविष्य में इस वेदना के चरम पर पहुंचने का  !  फिर तो कोई तीन दशक के एकाकी सफर में मैं एक- एक कर के  हर अपनों को खोता ही चला गया। किस - किस पर रुदन करूंं।
       वर्षों पूर्व इकलौते पुत्र को खोने के बाद रुदन करते मैंने ताई जी को देखा था। तीन पुत्रियों के बाद पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी। आज्ञाकारी पुत्र थें विक्की बाबू। परंतु एक दुर्घटना में युवा होने से पूर्व ही साथ छोड़ गये। ताई जी रह -रह के अचेत हो जा रही थीं।  वह कोई मामूली रुदन नहीं था।
परंतु सारा दर्द आंसुओं के साथ बह जाता है। आज वे ईश्वर की आराधना में लगीं दिखती हैं । मानों कह रहींं हो कि

" क्या हुआ तूने बुझा डाला मेरे घर का चिराग
कम नहीं हैं रोशनी, हर शय में तेरा नूर है "
 ऐ खुदा, हर फ़ैसला तेरा मुझे मंजूर हैं "

अतः  अब रुदन न करने की भूल नहीं करता हूं मैं। जो गम हैं , जो अरमान थें, उनकों आंसुओं में बह जाने देता हूं। उसे दबाता छिपाता नहीं हूं। अपने में गुम होने की जगह अपना दर्द इन नगमों के साथ बांट लेता हूं-

"  मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
  हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया
  बरबादियों का सोग़ मनाना फ़िज़ूल था
  बरबादियों का जश्न मनाता चला गया
  जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझलिया
  जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया
  ग़म और खुशी में फ़र्क न महसूस हो जहाँ
  मैं दिल को उस मुक़ाम पे लाता चला गया"

        पर हां , एक कर्मपथ एवं लक्ष्य दोनों ही अपने लिये निश्चित कर रखा हूं, ताकि जीवन के शेष दिन सुलगते सिगरेट की तरह ही न गुजर जाये। अन्यथा तो सब धुआं- धुआं है।