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Thursday 28 May 2020

मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -1]

 मेरी संघर्ष सहचरी साइकिल [ भाग -1]
(जीवन की पाठशाला से)

      मैं अनुपयोगी सी खड़ी अपनी पुरानी साइकिल को देख रहा था। जिसने मुझे 'साइकिल वाले पत्रकार भाई' की पहचान दी है। अन्यथा कोई किसी को यह तो नहीं कहता न कि कार वाले पत्रकार -बाइक वाले पत्रकार ? 
    तभी ऐसा लगा कि आज यह मुझे उलाहना दे रही है, क्योंकि पिछले दो महीने से बिना साफ़-सफ़ाई के वैसे ही खड़ी है और पहिए की हवा भी निकल चुकी है । यूँ कहें कि इस लोकबंदी में हम दोनों की स्थिति एक जैसी ही है। हमारी भागती-दौड़ती ज़िदंगी में ठहर गयी है। न मेरे पास कोई काम है और न ही इससे (साइकिल) किसी को काम है। मैं अपनी पूँजी खा रहा हूँ और यह भी यूँ खड़े-खड़े अपने कलपुर्जों को !
     लोकबंदी के पश्चात यदि मैं पुनः अख़बार वितरण प्रारम्भ कर सका,तभी इसका भाग्योदय संभव है ,अन्यथा एक दिन इसे कोई कबाड़ी उठा ले जाएगा। दो माह पूर्व जिस प्रकार मैं समाचार पत्र का बंडल न आने से अपनी आजीविका खोने के भय से काँप उठा था, ठीक वैसी ही स्थिति कबाड़ी के रूप में अपनी मौत से साक्षात्कार होने की कल्पना मात्र से मेरी साइकिल की भी है।फ़र्क हम दोनों में सिर्फ़ यह है कि मैं अपनी वेदना को व्यक्त कर सकता हूँ और यह मौन- निस्सहाय  खड़ी है। 
    हाय ! इसके रुदन को मैंने पहले क्यों नहीं सुना ? किसी ने सत्य कहा गया है कि मनुष्य प्रत्येक संबंध को अपनी आवश्यकतानुसार स्वार्थ के तराजू पर तौलता है। मैं भी यही कर रहा हूँ, जब तक इसकी उपयोगिता थी,तो इसका कितना ध्यान देता था, किन्तु आज़ इसकी भूख की मुझे चिन्ता नहीं है ? इन दो महीनों में इसके प्रति मेरे व्यवहार में ठीक वैसा ही परिवर्तन आया है , जिस तरह आत्मीय जन संबंध में दरार पड़ने पर सम्मुख हो कर भी अज़नबी बन जाते हैं। मैं यह कैसे भूल गया कि मेरे जीवन में आये अनेक तूफ़ानों की यह साइकिल ही एकमात्र साक्षी है। सर्द रात में ज़ब सड़कें भयावह लगती थीं। यह मेरी यह  "संघर्ष सहचरी "साथ होती थी। पूरे पच्चीस वर्ष प्रतिदिन औसत साढ़े तीन घंटे मैंने साइकिल चलाई है। दो घंटे समाचार पत्र वितरण और शेष समाचार संकलन आदि इसी के सहारे तो करता रहा।
   अरे भाई ! साइकिल वाले पत्रकार भाई का सम्मान मुझे ऐसे ही नहीं मिला है,किन्तु इस लोकबंदी में मेरी ही तरह यह भी अनुपयोगी हो चुकी है। वर्ष 1994-95 की बात करूँ, तो मैं एक वर्ष तक इस शहर में पैदल ही अख़बार लिये भटकता रहा। मीरजापुर से रात्रि 12 बजे जब वापस बनारस पहुँचता ,तब अपने पाँव को थामे, सिसकियाँ रोके माँ को पुकारा करता था, यद्यपि यह दर्द उस भूख से बड़ा नहीं था, जिसके लिए ताउम्र काशी छोड़ने को मैं विवश हुआ। महानगरों से मीलों लम्बी पैदल यात्रा कर घर वापस लौट रहे इन प्रवासी श्रमिकों को देख ,मुझे इनकी क्षुधा और पीड़ा की अनुभूति इसीलिए है कि मैंने भी पूरे वर्ष भर प्रतिदिन छह घंटे खड़े-खड़े बस में सफ़र ही नहीं किया, वरन् हाथों में ढेर सारे अख़बार लिये तीन घंटे किसी अनजान शहर में लम्बे-लम्बे डग भरता सड़कें नापा करता था।  तब मेरी एक ही ख़्वाहिश थी कि किसी प्रकार साइकिल रखने की व्यवस्था इस अनजान शहर में कहीं हो जाती। 
   और यहाँ साइकिल से मित्रता होने के पश्चात एक दिन भी (समाचार पत्र कार्यालय में अवकाश के दिन को छोड़कर)  ऐसा नहीं रहा कि मैंने हाथ-पाँव जोड़ कर इसे मनाया न हो। सवारी करने से पूर्व इसकी सीट पर दुलार से थपकियाँ दिया करता था। जरा भी उबड़-खाबड़ स्थल पर इसका पहिया पड़ा नहीं कि अगले दिन सुबह भागा -भागा उसके डॉक्टर के पास जा पहुँचता था,इस आशंका से कि कहीं  रिम डायल न हुआ हो अथवा ट्यूब पंचर तो नहीं है। आज़ इसकी इस स्थिति के लिए दोषी मैं नहीं तो कौन है ?
          ओह ! मैं कैसे इतना निष्ठुर और कृतघ्न हो सकता हूँ कि जो साइकिल वर्षों से मेरी आजीविका में सहयोगी रही। जिसके साथ मैंने जीवन के तिक्त और मधुर क्षण बिताए है। जिसने मेरी दुर्बल काया को अवलंबन दिया।उसकी देख-भाल भी मैंने नहीं की ! इसीलिए न कि यह मेरे लिए अनुपयोगी हो गयी है। जैसे पिछले दो महीनों से मेरे अख़बार का बंडल नहीं आने से यहाँ मेरी कोई उपयोगिता नहीं रही।  संस्थान ने कभी यह नहीं पूछा - " शशि , तुम बाहर रह कर इन दो- ढ़ाई महीने से अपना ख़र्च किस प्रकार चला रहे हो ।"
       मैंने सोचा था कि चलो विज्ञापन और अख़बार का जो बकाया बिल है,उसके ही कुछ रुपये मिल जाएँगे, तब भी काम चल जाएगा। दुर्भाग्य से ऐसा भी नहीं हुआ, मेरे सिर्फ़ दो-तीन  पाठकोंं को ही इसका स्मरण रहा । इस लोकबंदी में यह उनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, अन्यथा मुझे अपने परिश्रम का धन भी अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। तो क्या मेरे साथ जो कुछ हो रहा है , मैं भी वहीं अपनी इस प्रिय साइकिल के साथ करुँ ? क्या यही मानव धर्म है ? मेरी चेतना मुझे सावधान कर रही थी । 
        अरे हाँ ! कल तो 30 मई (हिन्दी पत्रकारिता दिवस) है। मैं वर्ष 1994 से ही इस अवसर पर मंच से अनेक विद्वान वक्ताओं का यह उपदेश सुनता आ रहा हूँ-
          " पत्रकार केवल समाचार नहीं बेचता है। वह सिर भी बेचता है और संघर्ष भी करता है। उसका कार्य प्रजा के दुःख को सरकार के समक्ष रखना, उसे सही परामर्श देना और आवश्यकता पड़ने पर उसके अन्याय के विरुद्ध अपनी लेखनी को गति देना है। पत्रकार यदि यह कर्तव्य नहीं निभाता है, तो वह भी एक दुकान है,किसी ने सब्जी बेंच ली और किसी ने ख़बर, आदि-आदि..।"
     ऐसे ही आदर्श वाक्यों का प्रयोग हम पत्रकारों ,पत्र प्रतिनिधियों और संवाददाताओं के लिए आज के दिन होता है, किन्तु इस लोकबंदी में जब हम श्रमजीवी पत्रकार अपने संस्थान, समाज और सरकार की ओर इस आशा से टकटकी लगाए हुये थे कि क्या हमें भी किसी प्रकार का आर्थिक सहयोग मिलेगा, तब ऐसे उपदेशक कहाँ चले गये ?
     इन दो माह में पत्रकारिता मुझे अवसाद की  ओर लेती गयी, तन्हाई की ओर लेती गयी। जहाँ प्रवासी श्रमिक तक अपने घरों की ओर भाग रहे थे। मैं जीवन की शून्यता और दर्द को समेटे अपने  आशियाने को ढूंढ रहा था। मेरा कौन है ? मेरे लिए किसी का अपनापन क्यों नहीं है ? क्या मैंने पुरुषार्थ नहीं किया , फ़िर मेरे जीवन की बगिया क्यों नहीं मुस्काई ? क्यों वेदनाओं की कठपुतली बना विदूषक सा औरों का मनोरंजन और ज्ञानवर्धन अपनी लेखनी के माध्यम से करता रहा ? क्या इस सभ्य संसार में निखालिस कुछ भी नहीं है,समय और भाग्य का यह कैसा अत्याचार है ?
      मुझे अपने एक अन्य शुभचिंतक का हितोपदेश स्मरण हो आया है । चार-पाँच वर्ष पुरानी बात है। मैं संदीप भैया की दुकान पर बैठा हुआ था कि भाजपा के वरिष्ठ नेता रामदुलार चौधरी आ गये। वे हमलोगों के साथ हँसी-ठिठोली भी कर लिया करते हैं। सो, सबके समक्ष ही उन्होंने मुझसे कहा था कि पता है,सबरी मुहल्ले में फलां कह रहा था -" ई पगलवा पत्रकार कब-तक साइकिल से अख़बार बाँटता रहेगा ?"
    आरा मशीन संचालक चौधरी साहब मेरा उपहास नहीं कर रहे थे। वे मुझे इस सत्य का बोध करवाना चाहते थे कि अर्थयुग में सिक्के की झंकार ही सब सुनते हैं। उन्होंने कहा था -"समय के साथ चलना सीखों। जरा देखों अपने इर्द-गिर्द , तुम्हारे बाद आये कितने ही रिपोर्टर बिना अख़बार के ही साधन संपन्न हो गये हैं और तुम हो कि हड्डी पर कबड्डी खेल रहे हो।"      
       अत्यधिक श्रम एवं मेरे गिरते हुये स्वास्थ्य को लेकर वे चिंतित थे।  कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यह नहीं कहेगा कि ऐसा कोई व्यापार करो, जो घाटे का सौदा हो ? पत्रकारिता भी अब मिशन नहीं व्यवसाय है। आज कंधे पर खादी का झोला लटकाए चलने वाले पत्रकार और संपादक नहीं रहे। समाजसेवा, राजनीति, चिकित्सा, शिक्षा और पत्रकारिता भी, यहाँ व्यापार है।
       मुझे नहीं पता कि मेरी साइकिल सही रास्ते पर रही अथवा मार्ग भटक गयी, किन्तु आजीविका खोने के अपने तीन दशक पुराने भय पर इस लोकबंदी में मैंने विजय पा ली है, क्योंकि आज़ मैं बेकार होकर भी भूखा नहीं हूँ । बुभुक्षा एवं तृषा से भरे मेरे जीवन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि है। 
  ( क्रमशः)
            -व्याकुल पथिक

    

Sunday 24 May 2020

कोरोना काल की त्रासदी

कोरोना काल की त्रासदी

   पिछले कई दिनों से यहाँ मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर विशेष श्रमिक ट्रेनों का आगमन होता रहा है। घंटों विलंब से पहुँची इन रेलगाड़ियों ने एक बार फ़िर साबित कर दिया कि संकटकाल में भी देश का यह प्रमुख मंत्रालय "इंडियन टाइम" का कितना बड़ा अनुयायी है।  रेलवे स्टेशन  के प्लेटफार्म पर उतरते ही इन प्रवासी श्रमिकों का जिले के वरिष्ठ अधिकारियों ने ताली बजा कर स्वागत किया, किन्तु कैसा करुण दृश्य रहा, जब कोई मासूम बच्चा अपने पिता की उँगली थामे उसे लगभग बाहर की ओर खींचते हुये कह रहा था -" पापा ! अब घर आ गया है ,जल्दी चलो न ?  " और माताएँ अपने ज़िगर के टुकड़े को अपने आँचल में छुपाएँ बाहर खड़ी बस की ओर टकटकी लगाए हुये थीं। रेलवे प्लेटफार्म पर उतरते ही इन सभी प्रवासियों के मलिन मुख पर  चमक सी आ गयी थी । किस तरह से उन्होंने लॉकडाउन के 50-55 दिन महानगरों में एक कैदी की तरह अल्प भोजन करके गुजारे थे, इसे क्या वे आजीवन भूल पाएँगे ? फ़िर भी ये भाग्यवान हैं, जिनके लिए सरकार ने ट्रेन और बसों की व्यवस्था कर दी ,अन्यथा अनगिनत श्रमिक मुम्बई, सूरत, पुणे और अहमदाबाद जैसे महानगरों से ट्रक, आटो और साइकिल से अथवा पैदल ही आये हैं , जिनके स्वागत के लिए मार्ग में अफ़सर नहीं मौत खड़ी थी। इनमें भी कई ऐसे अभागे बीमार लोग थे, जिन्होंने अपने घर के चौखट पर दम तोड़ दिया है। जिनके प्रति शोक संवेदना व्यक्त करने की जगह गाँव वाले उन्हें कोरोना वाहक बता भाग खड़े हुये। अपने जिले का लक्ष्मण माझी भी इनमें से एक था। वह हरियाणा से पहले किसी वाहन और फ़िर पैदल सफ़र तय कर अपने गांव आया था। उसका शरीर ज्वर से तप रहा था। वाहन से गिरने के कारण सिर पर चोट लगी हुई थी। फ़िर भी पूरे धैर्य के साथ  लड़खड़ाती हुई साँसों को संभाले प्रयागराज से विंध्यक्षेत्र की दूरी पैदल ही तय कर उस शाम वह अपने गाँव पहुँचा था । उसने घर के चौखट को चूमा,चार दिन पूर्व दाम्पत्य सूत्र में बंधे अपने पुत्र-पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और कुछ ही घंटों पश्चात लॉकडाउन से ही नहीं जीवन से भी सदैव के लिए मुक्त हो गया। 

         विपत्ति जब आती है,तो मनुष्य को चहुँओर से घेर लेती है।तनिक सोचें जरा उस माँ पर क्या गुजरी होगी, जिसने चलती ट्रेन में रेलवे स्टेशन जबलपुर से पहले बच्ची को जन्म दिया। 23 घंटे तक का माँ-बेटी का साथ रहा। तत्पश्चात इस श्रमिक ट्रेन में ही उसने आँखें बंद कर लीं। यह परिवार ट्रेन से मुम्बई से मुजफ्फरपुर जा रहा था। मीरजापुर रेलवे स्टेशन पर नवजात के शव को बर्फ़ की सिल्ली पर रख उसे परिजनों को सौंप दिया गया।लॉकडाउन में मुंबई में फँसे इस श्रमिक परिवार की आँखों के आँसू भी कष्ट सहते-सहते सूख चुके थे।
       मार्ग में इन प्रवासी श्रमिकों को किस-किस ने नहीं लूटा। ट्रक चालक ने प्रत्येक यात्री से 35 सौ रुपये तक लिए। वह भी एक ट्रक में 70 से अधिक प्रवासी श्रमिक ठूँस दिये गये थे। भूख के समक्ष कैसा सोशल डिस्टेंस ? किस तरह से कर्ज़ मांग कर इन्होंने ये 35 सौ रुपये एकत्र किये, इसकी एक और करुण कथा है। विशेष ट्रेन की बात करें , तो सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी कि सभी प्रवासी श्रमिकों को मुफ़्त में ट्रेन का टिकट दिया गया है। परंतु यात्रियों ने बताया कि पुलिस की उपस्थिति में दलालों ने उनसे 6 सौ से 8 सौ रुपये लिया है। अर्थात उनके पास जो थोड़ा बहुत धन शेष था, वह भी "व्यवस्था" की भेंट चढ़ गया।  
    इधर, राजनीति के अखाड़े में क्या हो रहा है, यही न कि पक्ष-विपक्ष इन श्रमिकों की लाश पर अपनी सियासी रोटी सेक रहे हैं। जबकि इन श्रमिकों का प्रश्न यह है कि लॉकडाउन पार्ट-1 और 2 के दौरान सरकार ने उनको महानगरों से निकाल घर भेजने के संदर्भ में क्या किया ? यदि ऐसा होता तो लॉकडाउन-3 के दौरान धैर्य खो वे इस तरह से कष्ट सहते हुये पैदल ही मीलों सफ़र तय करने को बाध्य नहीं होते। आश्चर्य है कि एक साधारण मज़दूर भी इतनी समझ रखता है।अपनी जान सबको प्रिय है। न जाने क्यों हमारे रहनुमा इसे नहीं समझ सकें कि क्षुधातुर प्राणी को चंद्र खिलौना दिखला कर अधिक देर तक बहलाया नहीं जा सकता है।
  और यह कैसी विडंबना रही कि हममें से अनेक उस समय  पटाखे फोड़ दीपावली मना रहे थे ,जब ये प्रवासी श्रमिक मुंबई जैसे महानगरों में कोराना और भूख से संघर्ष कर रहे थे। वे बेरोज़गार हो गये थे। ऐसे श्रमिकों की क्षुधा तृप्ति के लिए थोड़ा सा छोला और चावल अथवा छह पूड़ी और आलू की सब्जी ,क्या इसे ही सरकारी लंच पैकेट कहते हैं? जबकि टेलीविज़न पर स्वास्थ्य विशेषज्ञ सावधान कर रहे थे कि ऐसे समय में रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए पर्याप्त और पौष्टिक आहार लिया जाए।

  •    आखिर क्यों इन श्रमिकों को कोरोना का आहार बनने के लिए छोड़ दिया गया? काश ! लॉकडाउन पार्ट 1 और 2 में धीरे-धीरे इन श्रमिकों की घर वापसी का प्रयास होता। महाराष्ट्र से प्रवासी श्रमिकों की गुहार यहाँ अपने जिले के अख़बारों के दफ़्तर में पहुँच रही थी। 

" मेरा परिवार  भूखा है। हमारे पास पैसे नहीं हैं।  हमें यहाँ से बाहर निकालो। हमारी जान खतरे में है । प्लीज़ , मदद करो भाई !"
  और उधर टेलीविज़न के स्क्रीन पर विभिन्न दलों के राजनेताओं का आपस में वाकयुद्ध चल रहा था। यदि इस वक़्त कोई आम चुनाव होता, तो पक्ष-विपक्ष के ये ही नेता इन प्रवासी श्रमिकों के दरवाजे पर दस्तक़ देते दिखतें। एक प्रत्याशी आम चुनाव में करोड़ों रुपया उड़ा सकता है, किन्तु ऐसी आपदाओं में वह सिर्फ़ घड़ियाली आँसुओं से काम चलाता है। दूसरी ओर करोड़ों- अरबों में खेलने वाली इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लग्ज़री ओबी वैन ने ऐसी करुण पुकार लगाते लोगों का लाइव न्यूज़ तो ख़ूब दिखाया है, परंतु काश ! ऐसी कठिन परिस्थितियों में ये धन संपन्न न्यूज़ चैनलों के स्वामी अपने इसी वैन के साथ एक और वाहन भेज देते, जिसमें पीड़ितों के बच्चों के लिए खाने का कुछ सामान होता। तब इनकी भी संवेदनाओं की परख जनता को हो जाती । अन्यथा यह उक्ति "पर उपदेश कुशल बहुतेरे" सरनाम है।  स्मरण रहे कि श्रेष्ठ पुरुष वह है, जो पराई पीड़ा को जान कर चुप नहीं बैठता है, बल्कि उनका उपकार करता है।
    शासन-सत्ता में बैठे राजनेता स्वयं ईमानदारी से बताए कि उन सघन इलाके में जहाँ लॉकडाउन के कारण श्रमिक फँसे हुये थे, सोशल डिस्टेंस का ध्यान रख पाना क्या संभव था ? यही कारण है कि अपने मीरजापुर जनपद में दिल्ली से आये तबलीग़ी मरकज़ के तीन जमातियों को छोड़ कर कोरोना के शेष जितने भी मामले आ रहे हैं, सभी का संबंध मुम्बई से है। 
   विद्वानों का कथन है कि राष्ट्र, समाज और परिवार तभी सुखमय होगा, जब हम समस्याओं पर अपने ही नहीं दूसरों के भी दृष्टिकोण से विचार करते हैं। तभी वह हल जो किसी पर थोपा हुआ नहीं लगेगा, बल्कि वह सर्वसम्मति से सबका उत्तर होगा। क्या हमारी सरकार भी ऐसा करती है ?
  वैसे भी श्रमिक तो ऐसे हिम्मती लोग हैं, जो मझधार में पड़े होकर भी तूफान की ताकत को परखते हैं। इनके हौसले को सिर्फ़ भूख ही तोड़ सकती है और यही हुआ है। अतः लॉकडाउन-3 का उल्लंघन किस विवशता में उन्होंने किया, किसकी नादानी से किया, राजनेताओं को इस पर आत्मचिंतन करना होगा । यदि हम इन श्रमिकों के अश्रु को मुस्कान में नहीं बदल सकें,इनके पसीने की बूँदों का मोल नहीं समझ सके , तो यह इनके भाग्य का अभिशाप नहीं,वरन् व्यवस्था का दोष है। 
       अभी तो एक और चुनौती का सामना घर वापसी के  पश्चात प्रवासी श्रमिकों को करना पड़ सकता है। क्यों कि इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि वर्षों बाद महानगरों से वापस घर लौटे श्रमिकों को अपने ही गाँव की माटी का रंग बदला नज़र आए अथवा इनके ही सगे-संबंधी इन्हें अपना प्रतिद्वंद्वी समझ लें। यह "प्रवासी " होने का तमग़ा ऐसा ही होता हैं। अपने ही देश में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में कोई व्यक्ति आजीविका की तलाश में क्या गया कि उसकी पहचान बदल गयी। उसके प्रति अपनों का दृष्टिकोण बदल गया। न वह यहाँ का रहा,न वहाँ का । ऐसा भी होता है। अतः इन प्रवासी श्रमिकों की अगली परीक्षा आजीविका की पुनः खोज होगी। देखना है कि हमारी सरकार इन श्रमिकों को इनके गाँव के आस-पास ही रोज़गार मुहैया करवाने के लिए क्या करती है।
    पूंजीपतियों की नगरी में वापस जाने की कल्पना मात्र से ये मज़दूर काँप उठ रहे हैं। 
महानगरों में ये भोलेभाले इंसान जिस प्रकार स्वार्थ के तराजू पर तौले गये हैं। जिसकी दहशत अब भी उनकी नम आँखों में है, इससे स्पष्ट है कि उनकी वापसी शीघ्र संभव नहीं है। इन्होंने इन महानगरों में अपने जीवन को संवारने का मन में एक काल्पनिक सुंदर चित्र बनाया था, किन्तु वापसी पर मैंने देखा इनके झोले में कुछ बर्तन और वस्त्र के अतिरिक्त कुछ भी कीमती सामग्री न थी। मैंने इन प्रवासी श्रमिकों की मनोस्थिति को समझने की कोशिश की, मानो वह कह रही हो-
" ऐसी दुनिया में मेरे वास्ते रखा क्या है ?"

                        
 - व्याकुल पथिक

Monday 18 May 2020

अभिशप्त बचपन


अभिशप्त बचपन 
"चल निकाल, दस का फुटकर ! "
  संदीप भैया की आवाज़ सुनकर चारों लड़कियों के मासूम चेहरे पर हल्की सी मुस्कान आ जाती है। इनमें जो सबसे छोटी थी वह सिर पर से अपनी पोटली उतार कर ज़मीन पर रखती है और फ़िर एक..दो..तीन ..चार.. कुछ इस तरह बुदबुदाते हुये भीख में मिले सिक्कों की गिनती शुरू कर देती है। मैंने देखा कि उसे गिनती-पहाड़ा तो नहीं आता फ़िर भी हिसाब में पक्की थी। उसने सिक्कों के पाँच ढेर बना कर रख दिये और उन्हीं में से एक ढेर जिसमें एक-एक के दस सिक्के थे ,संदीप भैया को थमा दिया। 
     भैया ने उन चारों को दो-दो सिक्के दिये। वे मुझे बताते हैं कि लॉकडाउन में जब बाज़ार बंद है, तो उन्होंने उन सभी भिखारियों को, जो उनकी दुकान पर आते हैं एक की जगह दो रूपये देने का निर्णय लिया है, जबकि स्वयं उनका कारोबार  ठप्प है। मैंने धंधे में उतार-चढ़ाव को लेकर उन्हें कभी विचलित होते नहीं देखा। जीवन  में परिस्थितियाँ अनुकूल-प्रतिकूल चाहे जैसी ही, उनका यह समभाव मुझे पसंद है, इसी कारण मैं शाम का कुछ वक़्त यहाँ गुजारता हूँ। अपने विकल हृदय को समझाने का प्रयत्न करता हूँ कि स्वास्थ्य, सम्पत्ति और स्वजनों के वियोग को लेकर तू इतना अधीर क्यों है ? क्या जीवन की क्षणभंगुरता का तुझे बोध नहीं है ?
  
    वैसे, आज इन चारों बच्चियों से न जाने क्यों मुझे भी चुहलबाज़ी करने की इच्छा जग गयी थी । 
    मैंने उनसे कहा -" क्यों री ! पता है न लॉकडाउन है ,फ़िर भी तुम सब झुण्ड बनाए घूम रही है। चल तुम्हें पुलिस से पकड़वाता हूँ । "

   अभी मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि उनमें से  जो सबसे समझदार थी, वह बिना भयभीत हुये तपाक से बोल पड़ी--  " जा-जा कह दा साब , ऊ पुलिस वाले त हमने के पैसा देत हैन अऊर खाना भी। "
   सच में उन चारों ने अपनी गठरी में खाने का सामान ले रखा था। मैंने अनुभव किया कि  लॉकडाउन भले ही इस सभ्य समाज के लिए अभिश्राप हो, लेकिन इन भिक्षुक बच्चों के लिए यह वरदान है। मैं इसी चिंतन में खोया रहा कि तभी बड़ी वाली लड़की आँखें मटकाते हुये बताती है कि प्रतिदिन पचास-साठ रुपये की कमाई के साथ अब भोजन के पैकेट भी मिलते हैं। 
     इस लॉकडाउन में इन्हें दुत्कार कम और  सामान अधिक मिल रहा है। अतः वे खुश थीं। मैंने इन चारों की ग्रुप फ़ोटोग्राफ़ी की। मेरे मोबाइल के स्क्रीन पर अपना फ़ोटो देख वे खिलखिला कर हँसी और मुझसे मोबाइल की कीमत पूछती हैं।
   मैंने भी  कहा- " बीस हजार , बता तो सही कितना हुआ ? "  
 जिसपर आँखें फाड़े वे कभी मुझे और कभी मोबाइल को देखने लगती हैं। ये बच्चियाँ सौ-पचास रूपये तो जानती हैं, किन्तु इससे अधिक की गिनती नहीं मालूम। हाँ, उन्होंने हजार रुपये का नाम सुन रखा था, पर बताने में असमर्थ थीं।
  उन्हें इसतरह सिर झुकाए देख मैंने आवाज़ ऊँची कर कहा -" स्कूल तो जाती नहीं फ़िर क्या बताओगी ? बस सुबह होते ही निकल पड़ी कटोरा लेकर भीख मांगने। "
  पत्रकार हूँ,तो यहाँ भी ख़बर ढ़ूंढने लगा। सो, अपनी बातों में उलझा कर मैं उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था कि क्या उनमें अब भी विद्यालय जाने की अभिलाषा शेष है ? 
मैं देख रहा था कि छोटी वाली बच्ची जिसने सिक्के गिनने के बाद जिस सलीक़े से से पोटली में गाँठ लगायी, उसका यह चातुर्य बालबुद्धि से परे है। जिस अवस्था में बच्चे स्कूल न जाने के लिए सौ बहाने बनाते हैं, उसी उम्र में यह लड़की अपने सिर पर यह छोटी सी पोटली नहीं, वरन् अपने घर-परिवार का बोझ उठा रही है। 

     परंतु मेरी वाणी में आयी इस कठोरता पर वे सहम गयी थी और बिना कुछ कहे गठरी अपने सिर पर रख चलने को हुईं, मैंने उन्हें फ़िर से रोक लिया और कहा- 
 " अच्छा चल यह बता कि तेरे माँ-बाप क्या करते हैं ? वे तुझे पढ़ने क्यों नहीं भेजते है ?

  जिस पर इन चारों लड़कियों ने बताया कि वे शहर के बाहरी इलाके में रहती हैं। उनके पिता कुछ नहीं करते हैं, जबकि महिलाएँ और वे सभी लड़कियाँ भीख मांगती हैं। सुबह होते वे अलग-अलग टोली में शहर की ओर निकल पड़ती हैं। उन चारों में अच्छी पटती है, सो वे एक साथ निकलती हैं। उन्होंने कहा कि वे नहीं जानती कि स्कूल कैसा होता है। हाँ, उन्होंने बच्चों  को स्कूल जाते देखा था और उनकी भी लालसा थी कि वैसा ही पोशाक पहन कर वे भी पढ़ने जातीं, परंतु यह कैसे संभव है।
  " पढ़े बेटियाँ, बढ़े बेटियाँ ", यह जो सरकारी जुमला है , इससे भिखारियों की बच्चियों के लिए साक्षर होना संभवतः नहीं है।
    ख़ैर, बच्चों की भिक्षावृत्ति के संदर्भ में संदीप भैया के संपर्क में आने से पूर्व मेरा दृष्टिकोण यह रहा कि इन्हें भीख देना अनुचित है। ऐसा करके हम इनके विकास का मार्ग अवरुद्ध कर रहे हैं। 
 एकदिन मैंने उनसे भी कहा था- " बूढ़े और अपंग भिखमंगों की टोली में आप इन मासूमों को भी न खड़ा करें, अन्यथा राष्ट्र के ये कर्णधार , भविष्य में उसपर बोझ बन कर रह जाएँगे ? " 
     प्रतिउत्तर में उन्होंने कहा था कि इन बच्चों का भविष्य उज्जवल हो,क्या इसके लिए ऐसी कोई व्यवस्था है ? कम से कम उनके द्वारा दिया गया यह एक-दो रुपया उन बच्चों के उदर को तो तृप्त करता है। इसी पैसे से कोई समोसा खरीदता है, तो कोई केला अथवा चाकलेट भी, अन्यथा इनकी कौन सुधि ले ? 
    उनका कथन अनुचित नहीं है। सरकार और समाज के पास इन बच्चियों के लिए तनिक सहानुभूति के अतिरिक्त और है भी क्या ?

  " भिक्षावृत्ति एक अभिश्राप " ऐसे अनेक निबंध छात्र जीवन में पढ़ने-लिखने को मिला हैं। कई डरावनी कहानियाँ भी पढ़ी थीं कि बच्चा चोर गिरोह किस तरह से छोटे बच्चों को उठा ले जाता है और फ़िर उन्हें भीख मांगने के लिए प्रताड़ित करता है। महानगरों में ऐसा हो सकता है। परंतु अधिकांशतः यही देखने को मिलता है कि भिखमंगे अपने बच्चों से भी यही कार्य करवाते हैं। यही इन कर्महीनों की आजीविका है। जबकि वे भी समझते हैं कि समाज की दृष्टि में भिखारी एक तुच्छ वस्तु है।  
      इस लॉकडाउन की बात करूँ, तो ये बच्चे मेरे जैसे निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति की तरह निर्धन नहीं हैं, जिनके पास इस वैश्विक महामारी में आय का कोई साधन शेष नहीं है। और प्रतिष्ठान अथवा संस्थान के मुखिया ने भी अपनी विवशता बता ,जिन्हें  भाग्य के भरोसे छोड़ दिया है। ये बच्चे उन प्रवासी श्रमिकों की तरह हतभाग्य भी नहीं हैं, जिन्होंने पेट थाम कर कितनी ही रातें गुजारी हैं। और जब भूख की पीड़ा असहनीय हो गयी तो घर वापसी के लिए ऐसे कष्टदायक यात्रा पर निकल पड़े, जहाँ राह में मौत खड़ी थी। 

  मेरा मानना है कि मलिन वस्त्र धारण करने वाले इन बच्चों के पास अब भी दूसरों को देने के लिए वह निश्छल मुस्कान है,जो इस सभ्य समाज के भद्रजनों के पास नहीं है। इन भिखारी बच्चों ने छल का वह चश्मा नहीं पहन रखा है कि मीठी वाणी बोल कर दूसरों के वैभव को हर लें। ये मन के सच्चे बच्चे हैं,नियति ने इन्हें अपनों की आँख का तारा न बनाया हो तो भी, इनके पास अपने परिजनों को देने के लिए धन और भोजन दोनों  है। 
   इनमें आपस में कितना सहयोग का भाव यह भी देखा मैंने , जब संदीप भैया किसी बच्ची से यह पूछते हैं- " क रे ! तू त लिये है न,फ़िर कइसे ?"
 जिस पर संबंधित लड़की दूसरी बच्ची की ओर इशारा कर कहती है-"  हम एके दिलावे आये हय न ।"
    जब तक वह एक का सिक्का नहीं मिलता है, कितने धैर्य के साथ ये चुपचाप खड़ी रहती हैं। और परिश्रम भी क्या ये कम करती हैं । इन्हीं नन्हे पाँवों से ये प्रतिदिन सुबह से शाम तक नगर का एक बड़ा हिस्सा भ्रमण करती हैं। सभ्य समाज के बच्चों की तरह वे किसी प्रिय वस्तु के लिए लोभ नहीं करती हैं। किसी से स्नेह और सहानुभूति के दो शब्द की मांग नहीं करते हैं,  फ़िर भी इनके जीवन-संघर्ष का बिना मूल्यांकन किये, हम कहते हैं कि ये भिखारी हैं ?

  हम यह क्यों भूल जाते हैं कि इन मासूमों के भी कुछ स्वप्न हैं। जिन्हें पूर्ण करने का दायित्व इस सभ्य समाज का है और यदि इस समाज ने इन्हें ऐसा कोई अवसर नहीं दिया है कि वे अपने गुणों का विकास करें,तो इनका तिरस्कार कैसा और क्यों ? जीवन और जगत की यह कैसी विचित्र विडंबना है !!

     - व्याकुल पथिक

   

Monday 11 May 2020

ड्रिंकिंग डे

ड्रिंकिंग डे

     इस लॉकडाउन में जब धनी-निर्धन सभी आर्थिक रुप से पस्त हैं। रोज़ी- रोटी को लेकर परेशान हैं। ऐसी स्थिति में भी मैं निठल्ला बिना किसी चिन्ता-फ़िक्र के संदीप भैया के प्रतिष्ठान के सामने स्थित देशी- विदेशी मदिरा की दुकानों पर अँगूर की बेटी के प्रभाव और उसके रहस्योद्घाटन में उलझा हूँ।
   मैंने देखा कि भोलेनाथ के प्रिय दिवस सोमवार को जैसे ही लॉकडाउन के तीसरे चरण के प्रथम दिन (4 मई) मदिरालयों का कपाट खुला लम्बी कतार में खड़े पियक्कड़ों में जो पहला ग्राहक था, वह प्रथम पूज्य गणेश बन गया। माला पहना कर उसका स्वागत  शराब विक्रेता द्वारा किया गया। और फ़िर जो यहाँ अद्भुत दृश्य देखने को मिला, उसका वर्णन संभव नहीं है । कोई पैंट के दोनों  ज़ेब सहित कमीज़ के अंदर और दोनों हाथों में बोतल थामे दिखा, तो कोई झोले में भरकर ले जा रहा था। किसी ने अपनी बाइक की डिग्गी को बोतलों से इस प्रकार सजा लिया, जैसे वह शराबी चित्रपट के महानायक की कार की डिग्गी हो। एक ऐसा व्यक्ति भी दिखा, जो मोटर साइकिल से अपनी दस वर्षीया बच्ची के साथ आया था। बच्ची के कंधे पर एक ख़ूबसूरत बैग था। मैंने देखा कि दारू की बोतलें उसके बैग में रखते देख जिज्ञासा वश मासूम लड़की ने सवाल किया था-" पापा ! यह क्या है? " 
  सम्भवतः उससे सोचा हो कि कोल्डड्रिंक है।
   जिसके प्रतिउत्तर में उस व्यक्ति को यह कहते सुना- " चुप कर ! मम्मी को मत बताना, चल तुझे चाकलेट दिलवाता हूँ।"
   हाँ, विदेशी मदिरा के पड़ोस में स्थित देशी शराब की दुकान पर, जहाँ निम्न वर्ग के ग्राहक आते हैं,पहले की तरह चहल-पहल नहीं थी।
इस वर्ग का ज़ेब जो खाली है। अतः जो भी आते दिखा, समझ लें कि वह अपने ही घरवालों के पेट पर डाका डाल कर , हौली पर आया है । 
      सत्य यही है कि शासन से लेकर श्रमिक तक जिसके समक्ष नतमस्तक हैं,उसका नाम शराब है। देश और प्रदेश में भगवान राम को अपना आदर्श मानने वालों की सरकार के लिए भी इस संकटकाल में यह वारुणी ' धनदेवी' बनी हुई है। उसने एक बार पुनःसिद्ध कर दिया है कि सत्ता और समाज पर वर्चस्व उसका ही है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि इस लॉकडाउन में जहाँ देवालयों के कपाट बंद हैं, वहीं मदिरालयों पर रौनक़ क़ायम है।
      अपने मीरजापुर जनपद में चार मई को मदिरालय खुलते ही लोग लगभग एक करोड़ का शराब गटक गये। पियक्कड़ों की एकजुटता के समक्ष सोशल डिस्टेंस का पालन करवाने वालों की ज़ुबान लॉक हो गयी । इस सोमरस के मद का ही प्रभाव है कि ज्ञानी पुरुषों की संवेदनाओं और नैतिकता की परिभाषा बदल गयी है। जिनके हाथों में शासन की शक्ति है और जो उनके अनुयायी हैं,वे शराब की दुकानों को इस वैश्विक महामारी में खोले जाने का यह कहकर समर्थन कर रहे हैं कि यदि सरकारी  ख़ज़ाने में धन नहीं आएगा, तो देश की अर्थव्यवस्था डाँवाडोल हो जाएगी। 
  ख़ैर, शासन ने तो अपने राजस्व प्राप्ति का मार्ग निकाल लिया, किन्तु व्यापारी और जनता के लिए भी क्या मदिरा जैसी कोई जादुई छड़ी है , जिससे इस तालाबंदी में उन्हें भी अर्थ अर्जन का कोई स्त्रोत मिल जाए ?
  मेरा तो मानना है कि चार मई जिसने सरकारी खजाने को भरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है , इसे तो निश्चित ही " ड्रिंकिंग डे " का सम्मान मिलना चाहिए। किन्तु ऐसा करने से पूर्व  गृहणियों से भी संवाद कर लेना चाहिए। वे हमारे देश के रहनुमाओं को बताएँगी कि लॉकडाउन के मध्य ज़ब वे घोर आर्थिक संकट का सामना कर रही थीं, इस दिन घर की लक्ष्मी का किस प्रकार अनादर हुआ है। घर में जो कुछ धन शेष था, उसमें से भी एक बड़ा हिस्सा ऐसे पुरुषों ने "अंगूरी" की भेंट चढ़ा दिया। 
   मसलन,जनधन खाते में आये पाँच सौ रूपये को ही लें। जिसे बैंक से निकालने के लिए ऐसी महिलाओं ने भगवान भास्कर के प्रचंड ताप को चुनौती देते हुये गृहस्थी का सारा कार्य त्याग कर लम्बी कतारें लगायी थीं। किन्तु चार मई को हुआ क्या ? इस छोटी सी धनराशि में से जो भी पैसा शेष था, उसपर उनके पियक्कड़ पतिदेव ने बलपूर्वक अपना अधिकार जमा लिया। श्रमिकों के बैंक खाते में  सरकार ने जो एक हजार रूपया डाला था, यदि उसमें से कुछ शेष बचा था ,तो वह भी हौली की भेंट चढ़ गया। क्या लॉकडाउन में खुली शराब की दुकानों से पीड़ित ऐसी गृहलक्ष्मियों के प्रति सरकार की कोई संवेदना नहीं है ? भाकपा के वरिष्ठ नेता मो० सलीम जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बताया कि घर-परिवार चलाने के लिए उन्होंने जिन ग़रीबोंं का आर्थिक सहयोग किया था, उसमें ऐसे भी निकले जो हौली पर दिखें।
    मज़दूरों और महिलाओं को शासन से मिला हजार-पाँच सौ रूपया भी यदि नशे की भेंट चढ़ जाए, तो सरकार की यह उदारता फ़िर किस काम की ? सत्य ही कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति हर कार्य को निज स्वार्थ की तराजू पर तौलता है। जिसके लिए समाज और शासन दोनों ही बराबरी  का दोषी है। 
   फ़िर भी कथनी और करनी में एकरूपता की परख तभी होती है ,जब चुनौती सामने हो। हिम्मती तो वे लोग ही कहे जाएँगे,जो मझधार में पड़े हो, फिर भी तूफ़ानों को झेलने का हौसला रखते हो।अन्यथा मानवीय कल्याण की बड़ी-बड़ी लच्छेदार बातें करना किसे नहीं पसंद है। इस युग में सबसे बड़ा परोपकारी आदमी पुरोहित  और संत नहीं, वरन् राजनीतिज्ञ होता है, क्यों कि शास्त्रों के जानकार तो हमें स्वर्ग भेजने का आश्वासन मात्र देते हैं, किन्तु राजनेता धरती पर ही स्वर्ग उतार लाने का दावा करता है। 
   आम चुनाव में ग़रीबी हटाओ, शाइनिंग इंडिया और अच्छे दिन जैसे जुमलों के माध्यम से राजनीतिज्ञ धरती पर स्वर्ग के आगमन का आश्वासन ही तो देता है ? लक्ष-लक्ष मानव मन की आकाँक्षाओं के प्रतीक अब ये राजनेता ही हैं, इन्हीं में से किसी एक को योग्य समझ कर जनता उसके हाथों में अपना नेतृत्व सौंपती है। अब चाहे विपत्ति में वे मदिरा पिलाए अथवा दूध ?
   अपने जनपद में 4 से 9 मई के मध्य लगभग दो हजार पेटी अंग्रेजी शराब मूल्य  1 करोड़, चार हजार पाँच सौ पेटी देशी शराब ,मूल्य 1करोड़ 30लाख 50 हजार रूपया और ग्यारह सौ पेटी बियर मूल्य 29 लाख 70 हजार बिकी है।अथार्त अनुमानित मूल्य 2 करोड़ 60 लाख 20 हजार की शराब छहः दिनों में बिकी है। जिसमें से लगभग एक करोड़ की मदिरा 4 मई को ही बिक गयी थी और शेष 1.60 करोड़ की पाँच दिनों में ,अतः इस आंकड़े से स्पष्ट है कि जब पूरा विश्व कोराना जैसी महामारी से जूझ रहा था, उसी लॉकडाउन के मध्य 4 मई 2020 को पियक्कड़ों ने नया इतिहास रच दिया। ऐसे में इस दिवस को " ड्रिंकिंग डे " के नाम से पुकारा जाए, तो इसमें बुरा क्या है ?
   लेकिन, हौली की ओर बढ़ते कदम भी हौले-हौले थमने लगे हैं, क्यों कि ज़ेब फ़िर से खाली हो गया है। और ऐसे में एक बड़ा ख़तरा यह भी है कि नशे की सस्ती और हानिकारक सामग्रियों का प्रयोग किया जाएगा।

  - व्याकुल पथिक
  


    

Monday 4 May 2020

बेबसी


 लॉकडाउन बढ़ने के तीसरे चरण की घोषणा होते ही विपुल के माथे पर चिन्ता की लकीरें लकीरें और गहरी हो चली थीं। खाली बटुए को देख वह स्वयं से प्रश्न करता है कि अब क्या करें ? यद्यपि शहर में हितैषी तो कई हैं ,पर वर्षों से उसने किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाया था। उसका यह स्वाभिमान भी खंडित होने को था ,किन्तु तभी उसकी चेतना ने सावधान करते हुये कहा- " जानते हो न कि ऐसे वक़्त में किसी से आर्थिक सहयोग की मांग, आपसी संबंधों को लॉक करने जैसा है।"
   जीवन ने उसकी यह कैसी विचित्र परीक्षा लेनी शुरू कर दी है ? हाँ, राशनकार्ड पर उसे सरकार की मेहरबानी से मुफ़्त में चावल मिल गया था। अतः दाल अथवा साग-भाजी न हो तो भी चलेगा,परंतु मुन्ने के दूध के लिए पैसा कहाँ से लाए ? अभी उसने अपनी तीन साल बड़ी बहन गुड्डी की तरह मांड-भात खाना नहीं सीखा है। ऊपर से कमरे का तीन महीने का किराया सिर पर आ चढ़ा था। भवन स्वामी सहृदयी है,फ़िर भी कुछ तो देना ही था, अन्यथा भविष्य में यही बकाया पैसा पहाड़ जैसा लगेगा। अतः सेठ से वेतन के मिले आठ हजार रूपये में से आधा तो किराया चुकाने में निकल गया था। 

    परिवार का मुखिया होने के कारण पत्नी और बच्चों की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति करना उसका नैतिक कर्तव्य है,परंतु अब तो इस लॉकडाउन में ' दाल-रोटी' स्वप्न-सी प्रतीक हो रही है। इसी चिन्ता में घुला जा रहा विपुल समझ नहीं पा रहा था कि आख़िर वह क्या करे ? सेठ ने स्पष्ट कह दिया था-- " देखो विपुल ! माना कि तुम मेरे प्रतिष्ठान के विश्वसनीय कर्मचारी हो और इसी से मैंने मार्च का तुम्हारा पूरा पगार आठ हजार गिन दिया है,किन्तु मेरी भी परिस्थितियों को समझते हुये तालाबंदी के दौरान वेतन के संदर्भ में कोई बात नहीं करना , शेष जब दुकान खुलेगी तब देखा जाएगा।"
    स्पष्ट था कि लॉकडाउन की अवधि का वेतन नहीं मिलेगा। समझदार के लिए इशारा काफ़ी है। प्रतिष्ठान स्वामी के इस रूखे व्यवहार से आहत अपने हृदय को विपुल कुछ यूँ समझाता है--"  देख भाई ! सेठ का कथन अनुचित नहीं है । व्यवसायियों के पास पैसे घर में होते ही कहाँ हैं। उनका धन उनके व्यापार में लगा होता है। उसी में से जो कुछ आता है,उसे वे महाजनों की देनदारी, नौकरों की तनख़्वाह, सरकारी टैक्स , बीमा , बच्चों की महँगी शिक्षा और अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा पर ख़र्च करते हैं। ये सेठ-महाजन कोई दानवीर कर्ण नहीं हैं कि घर फूँक तमाशा देखें। "

    वैसे, छोटे शहर में अधिकांश प्रतिष्ठान ' सफ़ेद हाथी' की तरह होते हैं। समान चाहे जितना रख लो, फ़िर भी बोहनी की प्रतीक्षा में दिन चढ़ जाता है। उसके सेठ ने भी लगन-विवाह को देख लाखों का माल मंगा रखा था। जिससे आमदनी तो दूर , बक़ाये का भुगतान भी मुश्किल है, क्योंकि लॉकडाउन के बाद वैश्विक स्तर पर आर्थिकमंदी तय है। वे ख़र्च का बोझ कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी कर सकते हैं। यदि उसने और दबाव बनाया तो क्या पता कि पहला नंबर उसी का हो ।
  " नहीं-नहीं ! वह बेरोज़गार होना नहीं चाहता।"
 --विपुल ऐसी कल्पना मात्र से सिहर उठता है। वह सोनाली से अपनी व्यथा कथा कह मन हल्का कर सकता था ,किन्तु पत्नी को और व्यथित करना नहीं चाहता था । विवाह के पश्चात अपनी जीवनसंगिनी को उसने दो संतानों के अतिरिक्त और दिया ही क्या है? बेचारी नोन-तेल की चिन्ता में उलझी रहती है।  यह एक कमरा ही उसका घर है। इसी में  शयनकक्ष और रसोईकक्ष दोनों हैं। ऐसे में कभी कोई मेहमान आ जाए तो सोनाली शर्मसार हो उठती है। किसी प्रकार ईंट के सहारे पलंग को थोड़ा ऊँचा कर , उसके नीचे गृहस्थी के सारे समान छिपाकर वह रखा करती है। कमरे को सजा-सँवार कर रखने का पत्नी का यह हुनर देख वह चकित रह जाता है। उसने प्रयास किया था कि कोई ऐसा मकान मिले, जिसमें किचन  अलग से हो। पर क्या करे वह , ढ़ाई हजार से अधिक किराए का कमरा लेने का उसमें सामर्थ्य नहीं है। अरे हाँ ! इसी जुलाई से गुड्डी को किसी स्कूल में दाख़िला दिलवाना है। लेकिन पैसे की व्यवस्था कैसे हो ? कमरे का किराया देने के पश्चात वेतन के शेष बचे हुये रूपये में से हजार-बारह सौ मुन्ना के दूध का होता है। उसके इस मामूली पगार में से भी सोनाली कुछ रूपये ऐसी ही आपाताकालीन परिस्थितियों के लिए कतर-ब्योंत कर बचा लेती थी ।  बच्चे यदि बीमार हो जाए तो उन्हें गोद में उठाए जिला अस्पताल की दौड़ हो अथवा  सरकारी गल्ले की दुकान से राशन लाना, गृहस्थी से संबंधित सारे कार्य बिना किसी शिकायत के सोनाली किया करती थी, क्योंकि वह सुबह निकला तो फ़िर सेठ की दुकान  बंद करवा कर ही रात्रि को लौटता था। अपनी  ड्यूटी के प्रति ज़िम्मेदार जो था । 

    विवाह के पश्चात बीते सात वर्षों से सोनाली कुशल गृहिणी की तरह सबकुछ संभाल रही है। सोनाली चाहती है कि घर पर ही कोई  काम मिल जाए, जिससे बच्चों की देखभाल के साथ ही गृहस्थी की नैया पार लगाने में विपुल की सहायिका बन सके। पत्नी की यह जिजीविषा और उसकी मुस्कान की मृदुलता ही इस दौड़ती-भागती संघर्षमय ज़िदगी में विपुल की औषधि है। किन्तु इसबार की होली उन्हें ख़ासी महंगी पड़ी है। उसी के कहने पर सलोनी ने न चाहकर भी वह कुछ रुपया जो संचित कर रखा था, सभी के नये वस्त्र और मिष्ठान आदि पर ख़र्च दिया था। तब उसे क्या पता था कि ऐसी भी कोई वैश्विक महामारी आ जाएगी कि हाथ पर हाथ रख घर बैठना पड़ेगा। 
     
     आज भगौने ने सिर्फ़ चावल देख विपुल अधीर हो उठा था। पत्नी का स्नेहिल स्पर्श उसके मन के ताप को कम नहीं कर पा रहा था। अपनी इस दीनता पर वह स्वयं को धिक्कारता और सवाल करता कि कर्मपथ पर होकर भी उसके श्रम का कोई मोल क्यों नहीं है ? उसका पुरुषार्थ व्यर्थ है। समय और भाग्य का यह अत्याचार उसके लिए असहनीय था। 
 वह स्वयं से कहता है- " वाह ! क्या नाम रखा था घरवालों ने विपुल ! और यहाँ दरिद्रता सुरसा की तरह मुँह फैलाए खड़ी है।"

     रात के बारह बज चुके थे ,किन्तु आँखों में नींद की जगह उसका उद्विग्न हृदय प्रकृति और मनुष्य की न्याय व्यवस्था के प्रति विद्रोह का शंखनाद कर रहा था। उस जैसे निम्न-मध्यवर्गीय व्यक्ति के साथ इस विपत्ति में भी यह पक्षपात क्यों हो रहा है ? क्या श्रमिकों से उसकी आर्थिक स्थिति अच्छी है ? इस संकट में सरकार, उसके किसी जनप्रतिनिधि और सामाजिक कार्यकर्ताओं को यह बोध क्यों नहीं हो रहा है कि   उनका ज़ेब भी खाली है। सरकार की तरह उनके प्रतिष्ठान स्वामी उन्हें तालाबंदी के दौरान वेतन नहीं दे सकते है। अतःश्रमिकों और किसानों की तरह निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की मदद के लिए  सरकार कब आगे आएगी ? क्या ये रहनुमा इतने अबोध हैं, जो इनके यह कहने मात्र से कि लॉकडाउन में कर्मचारियों का वेतन न काटा जाए , ये सेठ -महाजन मान जाएँगे? शासन-सत्ता में बैठे जनप्रतिनिधियों का यह राजधर्म नहीं है कि निम्न-मध्यम वर्ग को भी सरकार से मदद प्राप्त हो ?क्या वे भी अपने स्वाभिमान को ताक पर रख हाथ फ़ैलाये सड़क पर उतर आए ,तभी सरकार की दृष्टि में वे ग़रीब समझे जाएँगे ? क्या इसीलिए वह अपना गाँव छोड़ शहर आया है कि उसकी आँखों के समक्ष उसकी पत्नी नमक, तेल संग चावल खाकर दिन गुजारे। धिक्कार है ऐसी शिक्षा पर कि पेट की चिन्ता उसकी चिता बनती जा रही हो ।  
   वह अनपढ़ ही क्यों नहीं रह गया। अपने गाँव में चाहे जैसे भी रह लेता। खेती- किसानी अथवा मज़दूरी कुछ भी कर लेता। परंतु ऐसे बूरे दिन नहीं आते । उसे स्मरण है कि यहाँ शहर के एक कॉलेज से डिग्री लेने के पश्चात अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्न किया था,किन्तु एक ग़रीब किसान के पुत्र को इस अनज़ान डगर में कोई मार्गदर्शक नहीं मिला। भाग्य ने भी छल किया। सीढ़ी- साँप के खेल में वह सफलता के करीब पहुँच कर भी फिसलता रहा। और फ़िर एक दिन जब उसे यह आभास हुआ कि सरकारी नौकरी मिलने की कोई संभावना शेष नहीं रही ,तो अपने सेठ की दुकान पर आजीविका की तलाश में जा पहुँचा। एक साधारण कर्मचारी से अब मैनेज़र के पद पर आसीन है , किन्तु वेतन आठ हजार ही है। इस छोटे शहर में इससे अधिक की उम्मीद किसी भी प्रतिष्ठान से नहीं की जा सकती है। 
     यद्यपि आज वह न धनिक है ,न श्रमिक है और न ही अपनी सरकार , प्रतिष्ठान स्वामी और सामाजिक संगठनों की दृष्टि में सहानुभूति का पात्र है। वे सभी इस लॉकडाउन में सच्चे जनसेवक का तमग़ा लेने के लिए दलित-मलिन बस्तियों की ओर दौड़ रहे हैं। श्रमिकों को तलाश रहे हैं। ऐसे वर्ग के साथ ग्रुप फ़ोटोग्राफ़ी से उनके यश में वृद्धि  होगी और जनता उन्हें 'कोरोना योद्धा' कह सम्मानित करेगी। उधर, वह ठहरा निम्न-मध्यवर्गीय ,बिना घर से बाहर निकले , बिना दीनता प्रदर्शित किये, बिना फ़ोटोग्राफ़ी कराए कौन करेगा उसकी मदद ?  उसके वार्ड में कई राजनेता-समाजसेवी है। आश्चर्य तो यह है कि इनमें से किसी ने भी उसके द्वार पर यह पूछने के लिए दस्तक नहीं दी कि विपुल भाई कैसे हो ! 
   
   उसका अशांत चित प्रश्न किये जा रहा था--
  "ओह ! विपुल ,कितने नासमझ हो तुम, जो गाँव छोड़ शहर चले आए । पाषण निर्मित ये ख़ूबसूरत इमारतें तुम्हारी विवशता नहीं समझ सकती हैं। इन ऊँची चारदीवारियों के उस पर तेरी मौन पुकार कोई नहीं सुनेगा। "
  
  विपुल बुदबुदाता है- "  काश ! वह पुनः किसान और मजदूर पुत्र बन कर गाँव वापस लौट पाता। शासन के रिकॉर्ड में उसकी कोई तो प्रमाणिक श्रेणी होती , ताकि इस विपत्ति से उभरने के लिए दिये जा रहे सरकारी अनुदान में उसका भी  हिस्सा तय होता। "
   परंतु वह जिस जीवनधारा में बह रहा है, शायद   उसका किनारा नहीं है। उसके कठोर श्रम, अनुशासित जीवन और स्वामिभक्ति का मूल्य नहीं है।वह आजीविका के लिए ऐसा कार्य करने को विवश है जिसमें आत्मनिर्भरता नहीं है। विपत्ति में किसी से सहयोग की आशा नहीं है। ऐसा जीवन संघर्ष देख वह स्वयं पर से विश्वास खोता जा रहा है। निर्धनता से उत्पन्न लज्जा, ग्लानि और कुंठा ने उसे तेजहीन कर दिया था। 
 निम्न-मध्य वर्ग की यह कैसी बेबसी है ?

      ---व्याकुल पथिक
    
चित्रः गूगल से साभार