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Saturday 16 June 2018

ईद तो तेरी भी थी, उन्हें यूं मिटा के क्या मिला




 


   रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद आज ईद एक बार फिर आई है। अपना जो शहर है , वह वैसे ही गंगा जमुनी तहजीब के लिये सरनाम है। हां, कुछ सियासत कभी कभार घुस जाती है, नहीं तो भाईचारे की महक हममें कायम है। ईदगाह यानी की शहर के इमामबाड़े  मुहल्ले में खासी रौनक है । सुबह से ही तरह तरह की खाद्य सामग्रियों की दुकानें सजी हैं। बच्चों की निगाहें खिलौनों पर और याचकों की ईदगाह पर आने वालों के बटुए पर थीं।  परंतु मेरी नजरें कुछ और ही ढूंढ रही थी। बचपन में मुंशी प्रेमचंद की मशहूर कहानी ईदगाह पढ़ी थी। सो , इतने बड़े मेले में मासूम बच्चा हामिद और उसकी दादी अमीना को ये आंखें खोज रही थीं। चहुंओर नजर दौड़ाया था फिर भी हामिद तो नहीं मिला , लेकिन अमीना एक नहीं अनेक दिखीं। महंगाई के बोझ तले क्या हिन्दू, क्या मुसलमान निम्न मध्यवर्गीय परिवार दबता जा रहा है। अच्छे दिन का हसीन ख्वाब कांटा बन आम आदमी को चुभन दे रहा है। सो, अमीना के अनेक रुप दिखे यहां, पर बहुरुपिया मत समझ लेना इन्हें भाईजान । अब तो कपड़े भी हर नमाजियों के पास नये नहीं थें। फिर भी मासूम हामिद की मुस्कान के लिये  हर मूमकिन कोशिश परिजनों ने की थी। कालीन- दरी का कारोबार ठंडा पड़ने से बेरोजगारी और जोरों पर है। फिर भी  हजारों ऐसे बुनकरों की रोटी पर चोट करके भी रहनुमा खिलखिला रहे हैं।ःः   एक पत्रकार हूं, सो आज मेरा भी जरा डाइट कार्यक्रम रहता है। ईद की नमाज खत्म होते ही  कामरेड सलीम भाई , छोटे भाई , हाशिम चचा के दरवाजे पर दस्तक देना तो तय है। हालांकि इसकी नौबत नहीं आती, मेहमानों के स्वागत में वे पहले से जो तैयार है। सलीम भाई की दूध, केशर और चिरौंजी वाली सेवई लाजवाब होता है।पिछली ईद तक तो अपने चुन्ना भाई हैं न कंतित से अशोक भैया के हाथों टिफिन भर सेवई और दहीबड़ा भेजा करते थें।पर अब ठिकाना बदल दिया हूं। घर- परिवार जो नही है , सो मुसाफिरखाने अपना नया आशियाना है।हम यतीमों का और भला कहां ठिकाना है। फिर भी खुशनसीब हूं कि इतने दोस्त मिले हैं। जरा सी देर हुई नहीं कि छोटे भाई का संदेशा आ जाता है कि कब आ रहे हो भाई। मेराज भाई हो या इमरान मियां सभी अपने मित्र बंधु हैं।आज बुखार ज्यादा हैं पर दवाइयां ले रखी है। सभी जानते हैं कि स्वास्थ्य कारणों से मैं छोला दहीबड़ा नहीं खा सकता हूं।फिर भी कुछ तो लेना ही है न। ईदगाह पर रमजान के नमाज का दृश्य कितना अद्भुत रहता है, जब एक साथ हजारों सिर सिजदे में झूकते हैं। गजब का अनुशासन दिखता है। अल्लाह के दरबार में कोई अमरी न गरीब है, जो जैसे आया नमाज स्थल पर पीछे की कतारों में खड़े होता चला गया यहां। वैसे भी मुझे अजान की आवाज बेहद सुकून देती हैं, ठीक उसी तरह जब किसी मंदिर में आरती के समय घंटा घड़ियाल बजा करता है। सारी चिन्ताएं मानो कुछ देर के लिये चिन्तन में बदल जाती है। लेकिन , इस बार मन कुछ व्याकुल है। सोच रहा हूं कि उस जवान के परिजनों पर क्या बीत रही होगी, जिसे अगवा कर मारा गया है। अब यहां कौन सी मजहब की दीवार है।  ईद की छुट्टी ले वह घर को निकला था, परंतु आतंकवादियों ने उसे जीवन से ही  मुक्त कर दिया । जरा भी नहीं सोचा कि त्योहार पर किस-किस का कलेजा नहीं फटेगा उसके घर पर। यह कैसा तुम्हारा
जहां है। कल हम कहां और तुम कहां, फिर भी मारकाट मचा है। कोई तीन दशक पूर्व जब कालिंपोंग में रहता था, तब गोरखालैंड आंदोलन का रक्तपात देखा था। जिस कमरे में मेरा बसेरा था। उसके ऊपर कत्ल हुआ था। यहां पत्रकारिता में आया तो कुछ ही वर्षों बाद नक्सलियों के पदचाप से जिले का एक हिस्सा दहला था। वर्ष 2001 में मार्च का वह महीना था। रात में होलिका दहन के साथ हर किसी को रंग से सराबोर होना था, पर उसी दिन यहां भवानीपुर गांव में 16 लाशें एक साथ पड़ी थींं। जिसमें एक किशोर का भी शव था। पुलिस इन सभी को नक्सली बता रही थी। लेकिन, वहां मौजूद ग्रामीण महिलाओं की भीड़ कुछ और दास्तां कह रही थी। उस रात जीवन में पहली बार गोलियों से छलनी मृत पड़े इतने इंसानों को देखा था। जब किशोर था तो बनारस में वह खौफनाक दंगा भी देखा था। हिन्दू मुस्लिमों के धर्म से जुड़े जयकारे न जाने क्यों पल भर में साम्प्रदायिक हो जाते थें। आतंकवादी, नक्सली, अलगाववादी सबकी एक ही कहानी है कि यह धरती हमारी है, या फिर हक- अधिकारी की लड़ाई है। दहशतगर्दों को न त्योहार से मतलब है , न ही पुत्र को कंधा देते पिता से या फिर पिता को मुखाग्नि देते उस मासूम से। पल भर में चूड़ियां तोड़ देते हैं वे दुल्हनों की , बोलों बूढ़ी मां का कोख उजाड़ कर तुम्हें क्या मिला। मेरी तरह तुम यतीम तो हो नहीं , मां और बीवी तुम्हारी
राह देख रही होगी। पत्नी ना सही तो भी किसी अपने पर प्यार जरूर आया होगा। देखों तुमनें जिस पत्रकार सुजात बुखारी को मारा है। जनाजे में उमड़ी भीड़ देखी क्या उनके। अमरत्व की यहीं निशानी है। जवान जो मरा है । भारत माता के लिये शहीद हुआ है।  पर तुम्हारी लाशों को तुम्हारा मुल्क क्या देगा । फिर सबकों क्यों विरह वेदना दे रहे हो।  ईद तो तेरी भी थी, यूं इन्हें मिटा के तुम्हें क्या मिला। फिर कैसे मनाऊं ईद बोलो, जब पड़ोस में कोई सिसक रहा है।

शशि