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Sunday 10 February 2019

मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को...

ऐसी वाणी बोलिए ...
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मैं तो कहूँगा कि अपने दर्द को लेखनी बना लो, यह तुम्हारा सच्चा साथी है ।  जब भी मन में भावनाओं का उफान हो, हृदय की वेदना किसी को पुकार रही हो, उसे शब्द देना सीखो । तुम जितना ही उसमें डूबोगे, उतना ही उसका स्नेह तुम्हारे प्रति बढ़ता जाएगा।
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बुद्धिं देहि यशो देहि कवित्वं देहि देवी मे
मूढत्वं च हरेर्देवि त्राहि मां शरणागतम्

( अर्थ- हे देवि ! आप मुझे बुद्धि दें, कीर्ति दें, कवित्वशक्ति (सुमधुर वचन) दें और मेरी मूर्खता का नाश करें । आप मुझ शरणागत की रक्षा करें ।)

        सरस्वती पूजन का पर्व था कल । छात्र जीवन की अनेक स्मृतियों का बस यूँ ही स्मरण हो आया।   तब मैं पुरानी रद्दी सामग्रियों के साथ में कुछ न कुछ प्रयोग किया करता था । जिसे देख जब यह कहा जाता था कि वैज्ञानिक बनेगा  तू , तो मुझे बड़ी खुशी मिलती थी । परंतु ऐसा हुआ नहीं, अपनों की उस वाणी ,उस आशीर्वाद के मध्य कटुता की दीवर खड़ी हो गयी ।

   उस वृद्ध बाबा की वाणी को भला अब भी कहाँ भूला हूँ।  उस रात  मैं हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा की तैयारी कर रहा था, गणित के सवालों में उलझा हुआ था, कमरे की बिजली देर तक जलती देख वे मेरे पास आये थें, उनके पदचाप को मैं सुन न सका, परंतु वे मुझे बड़े ही ध्यान से देख रहे थें। परिवार के सभी सदस्य निंद्रा देवी के आगोश में थें, फिर भी मैं लकड़ी के उसी छोटे से मेज पर कापी- किताब फैलाये हुआ था।
   वृद्ध बाबा ने मुझे तनिक टोका, ऐसा लगा कि मेरे अध्ययन कार्य से खुश थें। सम्भवतः इसीलिए उन्होंने मेरी हस्तरेखा देखने के लिये दायां हाथ आगे करने को कहा। उनके सम्मान में मैंने ऐसा किया भी, जबकि इन रेखाओं के खेल में मुझे कभी रूचि नहीं थी और आज भी नहीं है । उन्होंने मेरे हाथ पर खींची रेखाओं को देखा और फिर धीमे स्वर से कहा कि इतना परिश्रम काहे कर रहा है तू देर रात तक,तेरे नसीब में विद्या नहीं है। गांव के एक अनपढ़ वृद्ध व्यक्ति के इस भविष्यवाणी पर तब हँसी आयी थी , जब हाईस्कूल बोर्ड की परीक्षा में गणित में मुझे सौ में से 98 अंक मिलें।
   लेकिन इसके बाद ही किस्मत की रेखाओं का खेल शुरु हो गया ।  विद्या की नगरी काशी से मेरा संबंध टूट गया।  आज पत्रकारिता क्षेत्र में होने के कारण अनेक विद्वानों के संग हूँ ,फिर भी विद्या के उस वरदान से वंचित रह गया , जिसकी चाहत छात्र जीवन में थी। तब समझ में आया कि उस बाबा के जिह्वा पर सरस्वती बैठी थीं , जो मुझे दंडित कर रही थीं, परंतु क्यों , किसलिये , मेरा अपराध क्या था, इसलिए कि मैं एक शिक्षक का पुत्र था, विद्याध्ययन के प्रति समर्पित था ?
  सवाल चाहे जितना भी हम करते रहें, परंतु नियति किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं देती है।
  याद है कोलकाता में एक बार माँ ने नाराजगी भरे स्वर कहा था -
  " मुनिया , तंग कर ले जब नहीं रहूँगी तब समझेगा "
  जो माँ सदैव मुझे स्नेह देती थी , क्षणिक क्रोध में उनकी वाणी का व्यापक प्रभाव पड़ा मेरे जीवन में ।

     सलिल भैया का सबक है कि जिह्वा सरस्वती का घर है और झूठ जिह्वा का कूड़ा है । जहां कूड़ा रहता है वहां इंसान नहीं बैठ सकता तो माँ  सरस्वती कैसे बैठेगी ? अतः जो जितने समय झूठ बोलता है तत्काल उतने समय जिह्वा से सरस्वती विदा हो जाती हैं । इसके अलावा गोस्वामी तुलसीदास और महर्षि वाल्मीकि ने लिखा है- चरित्र से दूषित, फरेबी, तिकड़म से साधन और शक्ति सम्पन्न व्यक्ति की प्रशंसा करने से सरस्वती नाराज होती हैं । 'कीन्हे प्राकृत जे गुन गाना, ता धुनि लागि गिरा पछिताना'-मानस, बालकांड,11वीं चौपाई ।
    ऐसे में सरस्वती जब नाराज होती हैं तो उस व्यक्ति के घर से बाहर चली जाती हैं। उसकी आने वाली पीढ़ी मूर्ख, आलसी, उद्यम विहीन तथा अन्यान्य दोषों से भर जाती है । सरस्वती की कृपा के लिए अपने से बड़ी उम्र के किसी व्यक्ति को अनर्गल अपमानित नहीं करना चाहिए । बल, धन, पद और रुतबे के चलते अपमानित और आहत करने से सरस्वती को पीड़ा होती है । संत कबीर ने भी तो यही कहा है -

ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोये
औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।

       मानव प्रवृत्ति पर एक महात्मा जी का प्रवचन सुना था। वे बता रहे थें कि दो गुण एक साथ नहीं टिक सकते हैं। उन्होंने "सत्य" और "शील" का उदहारण दिया।
  शीलवान व्यक्ति यह प्रयत्न करता है कि वह प्रिय बोले। कोई अप्रिय बात अथवा निर्णय हो ,तो वह टालने लगता है। वहीं सत्यवादी व्यक्ति निःसंकोच कड़ुवा सत्य प्रकट कर देता है। जैसे उक्त वृद्ध बाबा ने मेरी शिक्षा के संदर्भ में कहा था ।
        महात्मा जी का कहने का तात्पर्य यह था कि मानव में सारे गुण एक साथ नहीं हो सकते हैं। यह तो मेढ़कों की तौल है। अतः विवेक से आवश्यकतानुसार निर्णय लेना चाहिए।

           सरस्वती पूजन की प्रथम धुंधली सी स्मृति कोलकाता के उस इंग्लिश स्कूल की है, जब मैं शिशु कक्षा का छात्र था। इसके पश्चात दार्जिलिंग की पहाड़ियों पर सरस्वती पूजन के पंडालों को प्रथम बार देखा था। कोलकाता में और फिर वाराणसी में घर पर इस अवसर पर पंडाल आदि की सजावट मैं ही करता था। मुजफ्फरपुर में मौसी के घर अन्य लड़कों के साथ सजावट का अवसर एक वर्ष मुझे मिला। सफेद कागज पर नीले रंग से आकाश जैसा दृश्य मुझे उपस्थित करना था।
सरस्वती देवी की तस्वीर अथवा मूर्ति के समक्ष पुस्तक और कलम को हम सभी रख देते थें। आज के दिन पठन- पाठन का कार्य नहीं किया जाता था।
      छात्र जीवन की ये सारी खुशियाँ न जाने कहाँ चली गयीं । मैंने जितने भी वर्ष जहाँ - जहाँ पंडाल सजाएँ हैं, वे सारे आशियाने फिर से याद हो आये हैं।  कल एकांत में बैठा उन सुखद स्मृतियों को बोझिल मन से टटोल रहा था। रविवार होने के कारण कुछ फुर्सत में जो था। न कोई साथी न मनमीत संग था।
      सिलसिले फिल्म के इस गीत की चंद पक्तियों को गुनगुना रहा था -

कहने को बहुत कुछ है, मगर किससे कहें हम
 कब तक यूँ ही खामोश रहें, और सहें हम
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बातें करते हैं..

   जब दर्द हर पैमाने को पार कर जाता है, तन्हाई अंतहीन हो जाती है ,साथी जो राह में मिले,वे सपने हो जाते हैं,वेलेन्टाइन डे जैसे पर्व उपहास उड़ाते हैं । जीवन के हर मोड़ पर किसी को आवाज दे देकर हृदय की वेदना आँसुओं की झड़ी लगाये रहती है। गीत के वो बोल हैं न -

मैं तो हर मोड़ पर तुझको दूँगा सदा
मेरी आवाज़ को, दर्द के साज़ को, तू सुने ना सुने

       तब चेतना कहती है कि आवाज देकर इस लौकिक जगत में किसी को भी न पुकारो । जब दर्द ही तुम्हारी किस्मत है,तो उस पर स्नेह का मरहम भला कौन लगाएगा  , बार बार यूँ दोस्ती का हाथ मत बढ़ाया करों, यह साथ टिकता नहीं।

  सरस्वती के यदि उपासक रहे हो , तो मौन हो जाओ, चिन्तन करो और फिर अपनी लेखनी को शब्द दो। वही तुम्हारा साथी है, मनमीत है। अपनी तन्हाई को औरों के हवाले न करो,वहाँ उपहास मिलेगा, सहानुभूति मिलेगी , कुछ दिनों के लिये तुम्हारे दर्द को बांटने का प्रयास भी कोई उपकारी जन कर सकता है। लेकिन, एक दिन जब तुम्हें आभास होगा कि कच्चे धागे ( सम्बंध) के रिश्ते के समक्ष  तुम्हारे निश्छल स्नेह का कोई मोल नहीं ,तब ?
    ऐसे में इंसान के कदम जब लड़खड़ाते हैं, इस तन्हाई से बचने के लिये वह किसी मादक द्रव्य का साथ पकड़ लेता है। परंतु मैं तो कहूँगा कि अपने दर्द को लेखनी बना लो, यह तुम्हारा सच्चा साथी है ।  जब भी मन में भावनाओं का उफान हो, हृदय की वेदना किसी को पुकार रही हो, उसे शब्द देना सीखो । तुम जितना ही उसमें डूबोगे, उतना ही उसका स्नेह तुम्हारे प्रति बढ़ता जाएगा। यह सच्चा प्रेम ही तुम्हें उस अलौकिक जगत का आभास कराएगा, जहाँ तुम्हारा एकांत  आनंद बन जाएगा , फिर अन्य की प्रतीक्षा कहाँ रहती है ,क्यों कि हम स्वयं ही सृजन करने में समर्थ होते हैं।
   सो, क्यों न इस हृदय के इस दर्द की वीणा को लेखनी के माध्यम से स्वर दिया जाए-

मेरी ज़िन्दगी में वो ही गम रहा
तेरा साथ भी तो बहुत कम रहा
दिल ने, साथी मेरे, तेरी चाहत में थे
ख्वाब क्या क्या बुने
मैं तो हर मोड़ पर...