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Saturday 1 December 2018

दिल से कदमों की आवाज़ आती रही

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हो, गुनगुनाती रहीं मेरी तनहाइयाँ
दूर बजती रहीं कितनी शहनाइयाँ
ज़िंदगी ज़िंदगी को बुलाती रही
आप यूँ फ़ासलों से गुज़रते रहे
दिल से कदमों की आवाज़ आती रही
आहटों से अंधेरे चमकते रहे
रात आती रही रात जाती रही...

          कैसी विडंबना है मानव जीवन का यहाँ कर्म नहीं नियति तय करती है कि किसके नसीब में शहनाई है या  फिर तन्हाई ,  खुशी है या गम , स्नेह है अथवा वेदना .. । हाँ, शहनाई की आवाज  सबको भाती है , पर तन्हाई की सिसक से लोग न जाने क्यूँ सहम जाते हैं। किसी प्रिय की चाहत जब तड़प बन जाती है, किसी का छल जब कोमल हृदय को आहत करता है, किसी की जुदाई जब व्याकुल कर देती है ,तब सुनाई देती है यह तन्हाई भरी सिसकियाँँ । कभी धीरे-धीरे तकिये में मुहँ छिपा कर, तो कभी सुध- बुध खोकर लोग सिसकते हैं। बदले में मिलती है सहानुभूति के दो बोल, पर यहाँ भी उपहास करने वालों की फौज होती है। सो,इस आवाज को अपने तन्हाई भरे कमरे से बाहर न जाने दो , बजने दो वहाँ शहनाई । पड़ोस के कक्ष से किसी युगल के प्रेमालिंगन की आवाज सुन यदि तुम अपनी तृष्णा को और गति दोगे , तो उपहास के पात्र बनोगे मित्र और जो लोग तुम्हारा सम्मान करते हैं,उनके ठहाकों की आवाज तुम्हारे जख्मी हृदय का चीरहरण करने में तनिक भी संकोच नहीं करेगी। इस दुनिया के दस्तूर को समझो बंधु मेरे..।
   हो सके तो जिस मार्ग पर संतों की पदचाप सुनाई पड़े ,उसका अवलंबन लो, फिर भी उस  "अनहद" को यदि तुम न सुन सको, तो भी अपने रूदन को समाज केलिए समर्पित करो। इस निष्ठुर जगत में यदि नियति प्रतिकूल है, तो फिर कभी नहीं तुम्हारे मुख से खिलखिलाहट भरी वो आवाज सुनाई पड़़ेंगी । याद रखों, विदूषक-सा बनावटी ठहाका लगाना भी अपने मन को छलना है । सद्कर्म सम्मान देता है , परंतु प्रेम पर भाग्य का अधिकार है। फिर पलट- पलट कर किससे यह गुहार लगाते हो-

 मेरे लिये भी क्या कोई उदास बेक़रार है
 न जिसकी शकल है कोई, न जिसका नाम है
 कोई इक ऐसी शै का क्यों हमें अज़ल से इन्तज़ार है
 ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है
  हद-ए-निगाह तक जहां गुबार ही गुबार है ...

    इस अंतर्नाद से आगे भी सफर है ,  तुम्हें बुद्ध होना है , शुद्ध होना है मेरे दोस्त..। मन चंचल हो , प्रफुल्लित हो अथवा व्याकुल , नियति के सच की अनुभूति से ही वह शुद्ध और शांत होता है। अंधकार से प्रकाश की इस यात्रा में अनेक ठहराव आते हैं, पर पथिक वही है जो मंजिल तक पहुँच पाता है। जहाँ उसकी खामोशी भी एक आवाज है।
     बात आवाज़ की कर रहा हूं, तो दोनों पैरों से अपाहिज हो चुके बाबा के दर्द भरे वे आखिर शब्द , जिसे मैंने वाराणसी में सुना था, उन्होंने कहा था कि देखा हो गया ,अब चलता हूँ.. । इसके पश्चात कोलकाता में किसी गैर के घर उनकी मृत्यु हो गयी। नियति की इतनी बड़ी निष्ठुरता मैंने अपने साथ भी न देखी है। बचपन में मेरे नटखटपन पर माँ की हिदायत भरी वह आवाज आज भी मुझे बेचैन करती है, जब आक्रोश में उन्होंने कहा था एक दिन कि उनके नह़ीं रहने पर फिर कोई नहीं रखेगा मेरा ख्याल , माँ को भी न पता हो कि उनकी वाणी न जाने कैसे उनके प्रिय मुनिया के लिये जीवन भर का श्राप बन गयी। सचमुच उनकी मृत्यु के बाद कोई मेरा अपना न हुआ। मैं स्वयं अचम्भित हूँ  कि जो इंसान मुझे सबसे अधिक प्रेम करता था ,उसकी वाणी से  मेरा अहित कैसे हो सकता है, कभी नहीं..। वह आवाज जो मैंने मृत्युशैया पर उनके कान में कही थी कि माँ मैं फस्ट आया हूँ , लिलुआ वाली बड़ी माँ ने ऐसा करने को कहा था तब,वह भी याद है। माँ चाहती थी कि पापा उन्हें यह ताना न दे कि ननिहाल के लाड प्यार में यह लड़का बर्बाद हो , अतः मुझसे यह उम्मीद करती थीं  कि मैं अपनी कक्षा में प्रथम स्थान पर रहूँ,जैसे वाराणसी में रहता था ।कोलकाता की पढ़ाई अपेक्षाकृत कठिन थी,फिर भी सफलता मिली, पर मेरा सारा परिश्रम व्यर्थ रहा, माँ से मुझे पुरस्कार तो नहीं मिला , हाँ एक ऐसी तन्हाई मिली, जिसकी कल्पना मेरे बालमन ने तब न की थी।
   सोचे जरा वह वाणी जो कभी किसी के जीवन में स्नेह वर्षा करती हो, यदि अचानक अजनबी सा यह कहे कि उसके रंगमंच का वह एक कठपुतली मात्र है, तब..? शब्दों की ऐसी मार किसी भी सम्वेदनशील हृदय को छलनी कर देती है, अंतहीन पीड़ा देती है, विक्षिप्त सा कर देती है उस प्राणी को।
    दादी का साथ छोड़ अंतिम बार मुजफ्फरपुर जाते समय     आँखों से बहते उन आँँसुओं की आवाज तब कहाँ पहचान पाया था मैं। हम- दोनों आखिरी के कुछ वर्षों में एक दूसरे के पूरक थें। परंतु निकम्मा कहलाने के दर्द से मुक्ति पाने की चाह में दूसरी बार घर छोड़ के जाते समय मैंने उनका साथ सदैव के लिये खो दिया। संघर्ष के दिनों में ठंड की वह रात जब मैंने अखबारों को रजाई- गद्दा बनाया था, मेरे वदन पर से बार- बार सरकते उन कागज के पन्नों की आवाज मुझे रात भर जगाती रही। ठंड भरे मौसम में औराई चौराहे पर अखबार के बंडल के लिये घंटों खड़ा रहता था, बारिश में भींग जब जाता था ,तो शरीर के उस कपकपाहट की आवाज भी मैंने महसूस की है। इसी वर्ष बरसात में जब उस दिन भोर में मैं रायल मेडिकल में अखबार डालते के लिये उस ट्रांसफार्मर के समीप से गुजरा था,जिसमें उतरे करेंट की शिकार एक गाय हो गयी , मृत्यु के पूर्व उसकी पहली और आखिरी पुकार मेरे हृदय को बुरी तरह आहत कर गया था। ऐसा लगा मुझे तब कि मेरी मृत्यु को गौमाता ने मुझसे कहीं  छीना तो नहीं था।
      हम इंसान की गलतियों की सजा इन निरीह प्राणियों को बरसात के मौसम में अकसर इसी प्रकार मिलती रहती है। अभी पिछले ही दिनों एक मॉल के बाहर लगे ढ़ाई दशक पुराने कदंब वृक्ष को अवैध तरीके से मृत्युदंड दिये जाते समय कुल्हाड़ी से छलनी हो गिरने से पूर्व उसके तने और शाखाओं की गुहार क्या आपने भी सुनी थी ?
     उस सुबह फटी- फटी आँखों से कायरों सा खड़ा देखा था मैंने इस बेकसूर वृक्ष के तने पर कुल्हाड़ी चलते हुये और समीप खड़ी एक भद्र महिला मुस्कुरा रही थी। समझ गया था मैं कि जब नारी के हृदय की सम्वेदनाएँ मर चुकी, तो मानवता का पतन तय है। इस आहट को मैंने सुन ली है ,आप भी प्रयत्न करें और आज सुबह ही इस ठंड में ठिठुरते मासूम पशुओं को  इंसान की जिह्वा के स्वाद के लिये के लिये कटते देखा है ।  मृत्युदंड से पूर्व इन निरीह प्राणियों की भयभीत आँखों की आवाज कभी आपने भी पढ़ी है
    जब कभी मैं सड़क किनारे मृत्युदंड दिये जाने से पूर्व नाजुक -सी जलपरियों को थोड़े से जल में घंटों फड़फड़ाते-छटपटाते देखता हूँ,इस पीड़ा से मुक्ति के लिय उन मछलियों की खामोश आवाज़ को भला उसके खरीददार क्या जाने, वे तो उसका स्वाद जानते हैं। मुजफ्फरपुर में जब अपने मौसा जी के मोटर साइकिल पार्ट्स और मरम्मत की दुकान पर बैठा ग्राहकों को इंतजार करता था शाम होते ही जब पक्षियों के वापस घोंसले में जाने की आवाज़ सुनाई पड़ती थी। सड़क उस पार एक बहेलिया जाल में फंसा ढेर सारे छोटे पक्षियों को ले आया करता था। इन सभी की हत्या वह बेहद निर्मम तरीके से करता था,गर्दन काटने की जगह पहले इनके पांव काटता और पंख नोंचता था वह। उन मासूम परिंदों की करुण पुकार याद कर आज भी दिल दहल उठता है।अब तो इंसान भी एक दूसरे को इसी तरीके से काट रहा है। आतंकवाद- नक्सलवाद नाम चाहे कुछ हो,  मिशन इसका यही है।
     दंगा भड़काने के लिये चले पत्थरों की आवाज़ तो हम सुनते हैं। इंसानियत की आवाज़ लगाने वालों को कब पहचानेंगे। हम पत्रकार अपनी लेखनी की आवाज़ को कब पहचानेंगे, जब बदनाम लोगों को सियासत का मसीहा बताते हमें तनिक भी लज्जा नहीं आती हो । यह भोली जनता चुनावी बयार में राजनेताओं के झूठे जुमले की आवाज़ को कब पहचानेगी।अभी पिछले ही दिनों गांधी को महत्मा कहने का यहाँ एक बड़े धर्माचार्य ने विरोध किया,  माना जो कहा उचित है , पर मजहबी उसूलों पर चल कर मोहब्बत का पैगाम आप भी कहाँ दे पाये हो।अतः विचारों के ऐसी ही उलझनों में इस नादान दिल को अनेको बार यूँ समझाता हूँ -

 ऐसी राहों में, कितने काँटे हैं,
 आरज़ूओं ने, आरज़ूओं ने,
 हर किसी दिल को, दर्द बाँटे हैं,
 कितने घायल हैं, कितने बिस्मिल हैं,
  इस खुदाई में, एक तू क्या है
  ऐ दिल-ए-नादान, ऐ दिल-ए-नादान..

शशि/ मो० 9415251928/7007144343/ 9196140020


Shashi Gupta जी बधाई हो!,

आपका लेख - (दिल से कदमों की आवाज़ आती रही ) आज की सर्वश्रेष्ठ रचना के रूप में चयनित हुआ है | आप अपने लेख को आज शब्दनगरी के मुख्यपृष्ठ (www.shabd.in) पर पढ़ सकते है | 
धन्यवाद, शब्दनगरी संगठन