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Wednesday 8 July 2020

सुख

( जीवन की पाठशाला से )
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    बीसवीं सदी के सशक्त क़लमकार कामेश्वर जी की एक रचना "सुख" पढ़ रहा था। जिसमें उद्योगपति जमनालाल बजाज एक मछुआरे ,जो कि अपनी जर्जर नाव की छाँव में आराम से लेट कर बीड़ी पी रहा था, से प्रश्न कर रहे थे। वे उससे कह रहे थे कि यदि तुम अधिक मछलियाँ पकड़ते, तो अमीरी की तरफ बढ़ सकते थे। जैसे ,नाव की जगह मोटरबोट और नायलॉन के जाल खरीद सकते थे। तब तुम्हारी आमदनी काफ़ी बढ़ जाती और तुम बेफ़िक्र हो खुशी से ज़िदगी जी सकते थे। जिसके प्रतिउत्तर में मछुआरे ने उनसे कहा था कि वह ऐसा क्यों करे ? क्योंकि वह तो अब भी खुश है और उनसे ज्यादा सुखी भी है।

     आज़ का मेरा विषय भी यही है। यह सुख क्या है ? मुझे आज़ भी भलीभाँति स्मरण है कि आजीविका की खोज में जब वाराणसी से मीरजापुर आया तो मेरे पास दो जोड़े कपड़े मात्र थे। समाचार पत्र कार्यालय से पारिश्रमिक के रूप में प्रतिदिन चालीस रुपया मिलता था। बनारस से मीरजापुर बस में ढ़ाई घंटे की यात्रा के दौरान मैं दो बड़े-बड़े अनार खरीद कर खा लिया करता था। रात्रि 11 बजे वापस लौटने पर एक ढाबे पर डट कर भोजन करता और  साथ ही एक लीटर दूध सुबह-शाम गटक लेता था। पेट पर हाथ फेरकर डकार लेता और नींद तो इतनी अच्छी आती थी कि आँखें सुबह ही खुलती थीं।धनसंग्रह करने की कोई अभिलाषा नहीं थी। सो,स्वस्थ और प्रसन्न था। दिन भर श्रम करने से जो स्वेद निकलते थे, उनमें मोतियों जैसी मुस्कान थी। 

      कुछ माह पश्चात अख़बार के दफ़्तर में मेरे एक शुभचिंतक ने सलाह दी कि कुछ रुपये इनमें से बचा लिया करो, जिससे तुम्हें इस समाचार पत्र की मीरजापुर एजेंसी मिल सके। इससे तुम्हारा सम्मान और आर्थिक लाभ दोनों बढ़ेगा। मैंने पूछा  कितना तो बताया गया कि कम से कम आठ हजार रुपये और नीचीबाग डाकघर में मेरा बचत खाता भी खोल दिया गया। यह वर्ष 1995 की बात है। मैं समाचार पत्र विक्रेता से अभिकर्ता बन गया। मुझे तीन किस्तों में पैसा संस्थान को देना था। इस धन को अर्जित करने के लिए मैं अपने ख़र्च में कटौती  करने लगा। दो की जगह एक अनार और दूध भी कम कर दिया। जबकि यौवन उफान पर था और अत्यधिक श्रम भी करना पड़ता था, जो इससे पूर्व मैंने कभी किया नहीं था। परिणाम यह रहा कि मेरे स्वास्थ्य में परिवर्तन आना शुरू हो गया। और फ़िर मुझे भविष्य की अनेकानेक चिंताओं ने घेर लिया। विवाह के लिए प्रस्ताव आने लगे, पर मैंने स्पष्ट कह दिया था कि कहा कि धन तो है ही नहीं। तभी अचानक मेरे मन में यह विचार आया कि मुझे किसी भी प्रकार से प्रयत्न करके दस लाख रुपये अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए एकत्र करना है।

 वैसे तो, इस अर्थयुग में पत्रकारिता को भी " जुगाड़ वाला धंधा" समझा जाता है, किन्तु मैं अनैतिक तरीक़े से धन अर्जित करने साहस नहीं जुटा सका, इसलिए मेरे लिए दस लाख रुपये बचत करने का लक्ष्य अत्यधिक कठिन था। इस गुल्लक को भरने के लिए मैं अपनी सारी सुख-सुविधाओं में कटौती कर आजीवन साइकिल से चलता रहा। वर्ष 1998 में असाध्य रोग ने मेरे दुर्बल शरीर पर आक्रमण कर दिया और फ़िर मेरे सारे स्वप्न बिखर गये। हाँ, मैंने कुछ धनसंग्रह अवश्य कर लिया , किन्तु "भविष्य" की चिन्ता में मेरा "वर्तमान"चला गया। मेरी " खुशी" चली गयी। प्रियजनों का वियोग सहना पड़ा।  घर-परिवार विहीन व्यक्ति के लिए उसका स्वास्थ्य  ही सबसे बड़ा धन होता है। अब मेरे पास न तो आजीविका का कोई साधन है और न ही वह खुशी, जिसे लेकर मैं मीरजापुर आया था। संग्रह किया हुआ धन "रोटी" दे सकता है, किन्तु "सुख" नहीं।  
     कुछ लोगों ने स्नेह प्रदर्शन कर छल भी किया।  एकाकी जीवन में ऐसा होता ही है। ऐसी विषम परिस्थितियों में मेरा हृदय अत्यधिक विकल हो उठा। तत्पश्चात गुरुज्ञान के आलोक में मैंने पाया कि इस जगत के लौकिक संबंधों के प्रति विशेष अनुरक्ति ही भावुक मनुष्य की सबसे बड़ी दुर्बलता है । वह अपने प्रति किसी के द्वारा दो शब्द सहानुभूति के क्या सुन लेता है , बिना परीक्षण किये ही उसे अपना सच्चा हितैषी समझ लेता है।
      
     इन दिनों मानसिक शांति और स्वास्थ्य के लिए मैं प्राणायाम कर रहा हूँ। अध्यात्मवेत्ता श्री सलिल  पांडेय ने कहा है कि श्वांस को ऊपर से नाभि की ओर धीरे-धीरे नीचे (अपान वायु) की तरफ लाना है। वायु की प्रवृत्ति उर्ध्वगामी होती है । वायु का शरीर में उर्ध्वगामी होना पाचन-क्रिया को बाधित करता है। इसके लिए वायु को अपान स्वरूप ही श्रेष्ठ है। भगवान की पूजा में "पंचवायु" के समन्वय के क्रम में प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा का जप करते हुए भगवान को नैवेद्य चढ़ाने का विधान किया गया है। मेडिकल साइंस भी वायु के इन स्वरुपों को मान्यता देता है। रक्तचापमापी यंत्र (स्फाइगनोमैनोमीटर) में पारा जिस प्रकार नीचे की ओर उतरता है, कुछ इसी प्रकार ही श्वांस को नीचे उतारने का प्रयत्न कर रहा हूँ। चरणबद्ध तरीके से ऐसा करना है। क्रमशः सर्वप्रथम सहस्त्रार चक्र (मस्तिष्क के मध्य भाग में), आज्ञा चक्र (नेत्रों के मध्य भृकुटि में), विशुद्ध चक्र (कंठ में),अनाहत चक्र (हृदय स्थल में), मणिपुर चक्र (नाभि के मूल में) से अनुभूति के माध्यम से श्वांस को नीचे नाभि पर केंद्रित करना है। मणिपुर चक्र में श्वांस नीचे उतारते समय मूलाधार (गुदा और लिंग के मध्य में) और स्वाधिष्ठान चक्र(लिंग मूल के चार अंगुल ऊपर ) की आनुभूति भी करनी होती है। तत्पश्चात मणिपुर चक्र से श्वास को ऊर्ध्वगामी ( ऊपर की ओर) सहस्त्रार चक्र की ओर ले जाना है। 
   ऋषियों ने माना है कि शिव शीश में स्थित हैं । पूरा शीश (गर्दन के ऊपर का भाग) ही शिवलिंग है। पंच ज्ञानेन्द्रियाँ इसी भाग में हैं। जबकि शिवा यानी माता पार्वती नाभि में रहती हैं । माँ और संतान का सर्वाधिक गहरा रिश्ता इसी नाभि से ही होता है। सारी तंत्रिका प्रणाली का मुख्य केन्द्र विंदु नाभि और मस्तिष्क ही है। शीश पर्वत है तो नाभि कुंड। उक्त प्राणायाम का आशय है कि शिव नीचे उतर कर पार्वती के पास आते हैं । इस स्थिति में तन स्वस्थ होता है। अपान वायु के जरिए नाभि में आकर जब शिव शिवा को लेकर अपने कैलाश पर्वत शीश में आते हैं तो चिंतन-मनन शिवस्वरूप हो जाता है। मन को शांत और तन को स्वस्थ करने के लिए सलिल भैया ने यह विशेष प्रकार का प्राणायाम मुझे सिखाया है।

        अभी प्रारम्भिक चरण है। जिस सुख की कामना मैं ऐसे योग-प्राणायाम के माध्यम से इस अवस्था में कर रहा हूँ, वह सुख तो मुझे तीन दशक पूर्व सहज ही गुरुदेव  के आश्रम में प्राप्त हो गया था। गुरुकृपा से आश्रम में मिले खड़ाऊँ एवं साधारण वस्त्रों में ही। मैं मोहवश इस 'अमृत कलश ' का त्याग कर ' मदिरापान ' के लिए निकल पड़ा था। परिणाम यह रहा कि उस दिव्य प्रकाश (आनंद) से वंचित हो गया।

    परंतु  मछुआरा बुद्धिमान था, उसे ज्ञात था कि उसकी खुशी किसमें है। इसीलिए उसने बड़ी दृढ़ता के साथ उद्योगपति श्री बजाज को जवाब दिया था - "मैं इसी स्थिति में आपसे अधिक सुखी हूँ।"
     सत्य यही है कि मनुष्य अपने संतोष से सम्राट और अभिलाषाओं से दरिद्र हो जाता है। और हाँ, यदि सुख का एक द्वार जब कभी बंद होता है, तो दूसरा खुल भी जाता है। अतः बंद नहीं इस खुले द्वार की ओर भी देखें। 

-व्याकुल पथिक