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Monday 11 November 2019

देव दीपावली


    मैं साहित्य नहीं अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहता हूँ। जहाँ " शाब्दिक बाण"  से मिली मर्मान्तक  पीड़ा का सहज उपचार सम्भव है।
  जानता हूँ यह पथ सहज नहीं है, परंतु वह लक्ष्य भी क्या जो आसानी से प्राप्त हो ?
   मैंने पहले भी कहा है कि हमारे धर्म और परम्पराओं में ज्ञान-विज्ञान - स्वास्थ्य संबंधित जगत एवं जीवन के समस्त रहस्य समाहित है।
  जहाँ मैंने निवास किया और जो मेरा कर्मक्षेत्र है,  उस शिव- शक्ति के  काशी एवं विंध्यक्षेत्र में आत्मोत्थान के लिये अनेक उपासना पर्व है।
    इन्हीं में से एक है देव दीपावली का प्रकाशपर्व। यह मन में दीप जलाने का पर्व है। विद्वानों के अनुसार देव का एक पर्यायवाची नेत्र भी है । इस दृष्टि से भी दीप प्रज्ज्वलन के पीछे नेत्र-ज्योति जागृत रखने का भी सन्देश मिलता है । नेत्र को यहाँ प्रतीक रूप में लिया जाए तो ज्ञान, सदाचार, सद्भाव, आदि भी व्यक्ति के जीवन में आत्मबल के दीपक बन के रोशनी करते हैं ।

     अपने काशी में पिछले ढाई दशक से भव्य देव दीपावली मनायी जाती है। वाराणसी के आठ किलोमीटर लंबे अर्द्धचंद्राकार गंगा तट के 84 घाटों पर जगमगाते असंख्‍य दीपों के बीच फूलों की विशेष सजावट से अलग छटा का एहसास होता है । काशी में देव दीपावली मनाने के पीछे एक पौराणिक कथा है। जिसके अनुसार, भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय ने तारकासुर का वध करके देवताओं को स्वर्ग लोक वापस दिला दिया था। जिसके प्रतिशोध स्वरूप तारकासुर के तीनों पुत्रों ने ब्रह्मा की तपस्या करके वरदान स्वरूप तीन ऐसा नगर प्राप्त किया था कि जब अभिजीत नक्षत्र में ये तीनों एक साथ आ जाएँ तब असंभव रथ, असंभव बाण से बिना क्रोध किए हुए कोई व्यक्ति ही उनका वध कर पाए। इसे पाकर त्रिपुरासुर स्वयं को अमर समझने लगे और अत्याचारी हो गये। अतः देवताओं का कष्ट दूर करने के लिए भगवान शिव ने स्वयं त्रिपुरासुर का  कार्तिक शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन वध किया था। जिसपर हर्षित देवाताओं ने  शिव की नगरी काशी में दीप दान किया। कहते हैं तभी से काशी में कार्तिक पूर्णिमा के दिन देव-दीवाली मनाने की परंपरा चली आ रही है।
    अध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो त्रिपुरासुर के वध से स्पष्ट है कि योग की उच्चतम स्थिति समाधि के देवता भगवान शंकर दैहिक, दैविक, भौतिक तापों, सत-रज-तम गुणों से ऊपर उठकर देवत्व तक पहुँचने का सन्देश दे रहे है ।
    आध्यात्मिक साहित्यकार श्री सलिल पांडेय ने कार्तिक पूर्णिमा की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया है कि   त्योहारों, उत्सवों के माह कार्तिक की अंतिम तिथि देव-दीपावली है । कार्तिक माह के प्रारम्भ से ही दीपदान एवं आकाशदीप प्रज्ज्वलित करने की व्यवस्था के पीछे गायत्रीमन्त्र में आवाहित प्रकाश से धरती को आलोकित करने का भाव रहा है क्योंकि शरद ऋतु से भगवान भाष्कर की गति में परिवर्तन होता है जिसके चलते दिन छोटा होने लगता है और रात बड़ी । यानि अंधेरे का प्रभाव बढ़ने लगता है । इसलिए इससे लड़ने का उद्यम भी है दीप जलाना ।

   देव-दीपावली की महिमा से अनेकानेक पुराण एवं अन्य ग्रन्थ भरे पड़े हैं । इन ग्रन्थों के अनुसार भगवान विष्णु का प्रथम अवतार मत्स्य के रूप में कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था । इसके अलावा तारकासुर को मारने के लिए अग्नि और वायुदेव के सहयोग से जन्में कार्तिकेय को देवसेना का अधिपति बनाया गया लेकिन भाई गणेश के विवाह कर दिए जाने कार्तिकेय रुष्ट होकर कार्तिक पूर्णिमा को ही क्रौंच पर्वत पर चले गए । यह पर्वत भी जम्बू द्वीप की तरह है । कार्तिकेय के स्नेह में माता पार्वती एवं पिता महादेव वहां ज्योति रूप में प्रकट हुए । 6 कृतिकाओं के गर्भ में पले षडानन के क्रौंच पर्वत पर जाना और ज्योति रूप में पार्वती-महादेव के प्रकट होने को योगशास्त्र की कसौटी पर यदि कसा जाए तो षट  चक्रों यथा मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा चक्र को जागृत कर सहस्रार में ज्योति रूप में शिवा-शिव का प्रकट होना परिलक्षित होता है । क्रौंच सारसपक्षी को कहते हैं । यह हंस की प्रजाति का पक्षी है । इसी जोड़े के बहेलिया द्वारा वध से वाल्मीकि के अंतर्मन में निश्चित रूप से श्वांसों का कुछ ऐसा अनुलोम विलोम हुआ कि षट्चक्र भेदन के जरिए उनकी कुंडलिनी शक्ति जागृत हो गई । लोग जिह्वा से 'राम' जपते रहे लेकिन 'उल्टा नाम जपत जग जाना, वाल्मीकि भए ब्रह्म समाना' चौपाई का ध्वन्यार्थ निकलता है कि 'राम' शब्द वे मूलाधार चक्र से जपने लगे ।
    नारदपुराण के उद्धरणों के गुरु शिष्य के कान में मन्त्र बोलता है । योगकाल होने के कारण कार्तिक पूर्णिमा को मन्त्र साधने में सफ़लता मिलती है । मॉर्कण्डे पुराण के अनुसार ब्रह्मा की मन्त्र साधना ही थी कि योगनिद्रा में सोए नारायण के कान से निकले मधु कैटभ के वध के लिए स्वयं नारायण को जागृत होना पड़ा । महाभारत ग्रन्थ के शांति पर्व एवं अनुशासन के अनुसार इस कार्तिक महीने की शुक्ल पक्ष की एकादशी से पूर्णिमा तक शरशैया पर लेटे भीष्म ने योगेश्वर कृष्ण की उपस्थिति में पांडवों को राजधर्म, दानधर्म एवं मोक्षधर्म का उपदेश दिया ।
श्रीकृष्ण ने इस अवधि को भीष्म पंचक कहा ।स्कन्दपुराण के अनुसार ज्ञान का यह काल इतना शुभ कि इस अवधि में व्रत, उपवास, सदाचार, दान का विशेष महत्व है । पूरे महाभारत युद्ध में द्विविधाग्रस्त की स्थिति में रहने वाले भीष्म योगाधीश्वर श्रीकृष्ण का अवलम्बन लेकर मृत्यु को अपनी इच्छा के अनुसार वरण करने की शक्ति प्राप्त की । वे 58 दिनों तक घायल होकर भी उत्तरायण में स्वर्ग गए ।
    सिक्खों के गुरु नानकदेव की भी जयंती कार्तिक पूर्णिमा को आस्था एवं श्रद्धा के साथ मनाई जाती है । उन्होंने भी उसी ओंकार से शक्ति पाने का रास्ता बताया जिसे सृष्टि के प्रारम्भ में मनु से ब्रह्मा जी ने बताया था । आधुनिक विज्ञान के यांत्रिक उपकरणों की तरह 'ओम' एक ऐसा पासवर्ड है जिसके सहारे व्यक्ति स्वयं देवत्व अर्जित कर सकता है । लौकिक रूप से विभिन्न पुराणों में कार्तिक पूर्णिमा को देव मंदिरों, नदी के तटों पर दीप जलाने का प्राविधान है । निर्णय सिंधु के अनुसार इन जलते दीपकों को यदि कीट-पतंग, मछली या अन्य कोई जीवजन्तु देख लेते हैं तो स्वर्ग जाते हैं ।  कार्तिक माह में कीट-पतंग की बहुलता रहती है । इन दीपकों से ये खत्म होते हैं ।

     - व्याकुल पथिक