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Wednesday 6 June 2018

आनंद की खोज मेरी जब हुई पूरी !





   
    आनंद क्या है , कैसा है और कहां है ... हर इंसान को इसकी तलाश रही है। धन से जब वह नहीं प्राप्त होता तो धर्मग्रंथों में हम उसे ढ़ूढ़ने लगते हैं। पुकारते है हम उसे आनंद ओ आनंद ! तुम कहां हो भाई... फिर भी वह हमारे पास नहीं आता। मृगमरीचिका सा हमें दौड़ाता है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा हर धर्म स्थलों की दौड़ लगाते हैं हम । कबीर की अमर  वाणी को भी अजमाते हैं हम, "  मोको कहां ढूंढे रे बंदे मैं तो तेरे पास में।"
    फिर भी यह आनंद है कि सुनता ही नहीं, मानो  मूक बधिर और नेत्रहीन हो गया है वह !  या जानबूझ कर पास आने से मटियाता है ।  व्याकुल पथिक शीर्षक से इस ब्लॉग के सृजन का मकसद भी तो मेरा यही है। अपनी बातें इससे साझा जो कर सकूं।  इस वर्ष 17 मार्च से इस पर जो कुछ लिख रहा हूं, उसे जब तब उलट पलट कर देख भी रहा हूं। कभी - कभी सोचता हूं कि ऐसा क्यों लिख दिया मैंने । मन की वेदनाओं को जब इतने वर्षों तक दबाये- छुपाये रहा हूं , तो अचानक कौन सी व्याकुल आ पड़ी कि यह पथिक यूं ही पिघलता सा  गया था। कभी - कभी तो लगता है कि यह क्या बकवास लिख रहा हूं। खुद ही अपनी जगहंसाई का जरिया यूं क्यों सृजन कर कर रहा हूं। हिन्दी तक शुद्ध लिखने आती नहीं महाशय को और प्रवचन कर रहा हूं। मित्रों यह मन भी न... क्या कहूं अब इसे ?  हां, एक कार्य अच्छा यह हुआ है कि रात की अंधेरी गलियों से निकल कर जबसे सुबह का सूरज देख रहा हूं। अभी कल ही की तो बात है , आनंद सामने खुद- ब -खुद यूं ही खड़ा था। सुबह के पांच बज रहे थें, जब मैं अखबार बांटते हुये एक पार्क की ओर बढ़ा था। देखा एक प्रौढ़ दम्पति एक दूसरे का हाथ थामें बच्चों सा खिलखिला रहा था। न यौवन ढलने का गम , ना ही बुढ़ापे का भय... वह तो बस आनंद की प्रतिमूर्ति ही मुझे दिखा था। साइकिल से पीछा करते मैं अपलक उन्हें निहारे जा रहा था। कारण मेरा मार्ग भी वही था , जिधर उन्हें जाना था। देखा, तभी एक मंदिर पर महिला के पांव ठहर जाते हैं। दुपट्टे को सिर पर किसी दुल्हन की तरह वह सवारती  है , साथ ही हमसफर को भी नयनों से इशारा करती है। दोनों वहां सिर झुकाते हैं, मानों एक दूसरे की सलामती चाहते हैं। और फिर उसी अंदाज में खिलखिलाकर कर मुस्कुराते हैं। घर से पार्क तक का उनका यह सुहावना सफर शायद हर सुबह ऐसा ही होता होगा। फिर किसी और आनंद की क्या है जरुरत इन्हें। हां,  दुआएं इतनी  हमारी भी है, यूं ही गुनगुनाते रहें,  यह जो जोड़ी प्यारी सी है...
 
     हमसफर मेरे हमसफर, पंख तुम परवाज़ हम
    जिंदगी का साज़ हो तुम, साज़ की आवाज हम।

( शशि )
चित्र गुगल से साभार