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Saturday 24 March 2018

व्याकुल पथिक

व्याकुल पथिक

24/3/18

आज दोपहर बाद जब विंध्याचल धाम में चल रहे माता का भंडारा से वापस आटो से शहर की ओर लौटा और लालडिग्गी पर उतर राही लाज की ओर पैदल आ रहा था, तभी अचानक गनेशगंज तिराहे पर किसी ने मुझे पुकारा कि अंकल-अंकल। देखा तो एक प्यारा सा बालक खड़ा था। जो कह रहा था कि सड़क पार करवा दीजिए। भीड़ काफी थी। इसके बावजूद बाइक फर्राटे भर रही थीं। सो, यह देख मैंने जिस दायीं हाथ से पहले उसे पकड़ा था, अब बायीं ओर ले लिया , फिर पूरी तसल्ली कर उसे सड़क उस पार छोड़ा । यह करते हुये मुझे कितना सुखद एहसास हुआ,इसके लिये शब्द नहीं है। स्मृतियों में अपना बचपन भी याद हो आया।  परंतु अब तो सारे रिश्ते ही बिखर चुके हैं। बस स्मृति शेष होने को है। उम्मीद करता हूं कि जिस तरह से अच्छे भोजन एवं धन के लोभ से मैं पूर्ण रुप से मुक्त हो गया हूं। धीरे धीरे सभी इंद्रियों पर भी नियंत्रण कर ही लूंगा। क्यों बचपन से ही मैं हठी जो हूं। जो ठान लिया , सो किया अवश्य है। मेरे गुरुजन कहते थें कि तुम्हारी मेधाशक्ति भले ही उतनी तीव्र न हो। लेकिन तुम्हारा श्रम , तुम्हें पहले पावदान पर ला खड़ा करता है। इसी कारण मैं अपनी कक्षा में सदैव ही प्रथम स्थान पर बना रहा। नहीं तो अपने वर्ग में तो जरुर ही। वाराणसी से वापस कोलकाता में जब दर्जा 6 में भर्ती हुआ। तो वहां की पढ़ाई के लिहाज से मैं कमजोर छात्र था विद्यालय का। लेकिन, जब वार्षिक परीक्षा परिणाम आया , तो मेरा नंबर प्रथम रहा और स्कूल के नियमानुसार कक्षा 7 में वहां मैं ही मानिटर होता। सहपाठी मेरी प्रतीक्षा कर रहे थें , लेकिन नानी का निधन हो गया और मेरा दुर्भाग्य मुझे वापस वाराणसी खींच लाया। काश ! इस तरह से मां(नानी) मुझे छोड़ कर ना जाती। मां का प्यार मुझे उन्हीं से मिला और कुछ मौसी जी से भी। खैर , बचपन की बातें फिर इस बालक के अंकल की एक पुकार से ताजी हो आईं। जब व्याकुलता बढ़ती है, तो किशोर दा की एक गीत

 कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन , बीते हुये दिन वो मेरे प्यारे पल....

इसे सुनने के लिये मन मचल उठता है। पर मैं तो ठहरा यहां एक रंगमंच का कठपुतली मात्र । सुबह से देर रात तक एक ही शो इन करीब ढाई दशक से कर रहा हूं। और अब मैं इतना कुशल हॉकर हो गया हूं कि रात्रि 11 बजे भी पेपर अपने ग्राहकों को देता हूं , तो उसे  नहीं लेने की बात न कह वे यह कहते है कि शशि भाई कल सुबह दे देंते ,थक गये होंगे आप। क्या ऐसा कोई पाठक मिलेगा आपको। जो शाम का पेपर अगले दिन भी लेने को तैयार हो। परंतु इसके लिये बड़ा त्याग भी किया हूं। इस कुशल व विदूषक हॉकर ने मेरे सभी अपनों को मुझसे एक एक कर छीन लिया। जब गांडीव लेकर मीरजापुर आया था, तब से अब तक अपने परिवार के सिर्फ एक वैवाहिक कार्यक्रम में मैं शामिल हो सका, वह रहा ताऊ जी की बड़ी पुत्री का विवाह और फिर उनके इकलौते पुत्र के दुर्भाग्यपूर्ण मौत पर उनके घर पहुंचा था। इसके बाद बहन की शादि, ताऊ जी की छोटी पुत्री की मृत्यु,मौसा जी की दुर्घटना में मौत और फिर उनकी इकलौती पुत्री की शादी, जिसे मैंने अपनी गोद में खिलाया था, बहन और दो दिनों बाद पिता जी की मौत, इन सभी मांगलिक अमांगलिक कार्यक्रमों में शामिल होने की जगह इस शहर की सड़कों पर पैदल दौड़ लगाता हुआ , बाद में साइकिल से आप तक अखबार पहुंचा रहा था।मेरी सारी संवेदनाएं मर चुकी हैं। मैं इस रंगमंच का एक विदूषक मात्र हूं। यहां जो संबंध बने , जो अपने लगें। उनके भी ऐसे कार्यक्रमों में कहां शामिल हो पाया ठीक से। क्या अब भी आप कहेंगे कि मैं एक कुशल समाचार पत्र विक्रेता नहीं हूं।
    और रही बात पत्रकारिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी की तो,
गुरुजी (पं० रामचंद्र तिवारी) के निधन पर भी उनकी अंतिम यात्रा में न शामिल हो, मैं उनके जीवन पर और उनके साथ गुजरे दिनों को कलमबद्ध करने में जुटा था । ताकि शाम तक वह सब आ जाये। इस पर चर्चा बाद में करुंगा, अभी तो हॉकर बनने की बात चल रही है।(शशि)

क्रमशः