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Thursday 30 May 2019

हमें कौन देगा रोटी, कपड़ा और मकान... ! (पत्रकारिता दिवस)

पत्रकारिता दिवस पर हुई निष्पक्ष लेखनी की बात
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पर हमें कौन देगा रोटी, कपड़ा और मकान !
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प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के अंदर से भाव निष्पक्ष है, लेकिन , आदर्श के साथ अर्थ का गहरा संबंध है। हमारे सामने अपने परिवार का भी खर्च है। अतः कहीं न कहीं हमें समझौता करना पड़ता है।
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    प्रत्येक वर्ष 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस पर हम आत्मावलोकन करते हैं । इसके लिये हम जो मंच सजाते हैं और उस पर जो अथितिगण उपस्थित रहते हैं। वे इस दिन  समालोचक की भूमिका में होते हैं। वे हमारी पत्रकारिता के गुण- दोष को बतलाते हैं। राष्ट्रीय, प्रांतीय ,जनपदीय एवं ग्रामीण स्तर पर पत्रकारिता की दशा- दिशा पर चिंतन- मंथन होता है। इस संदर्भ में हम लोगों को याद दिलाया गया कि आजादी के पहले पत्रकारिता मिशन रही, इसके बाद उद्योग और अब यह लाइजनिंग (दलाली)  हो गयी है।
वहीं , एक बुजुर्ग पत्रकार जिन्होंने अपने समय के सबसे प्रमुख समाचार पत्र के कार्यालय में उप सम्पादक की कुर्सी संभाली थी। अपने संघर्ष एवं अनुभव के आधार पर उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया के पत्रकारों के अंदर से भाव निष्पक्ष है, लेकिन , आदर्श के साथ अर्थ का गहरा संबंध है। हमारे सामने अपने परिवार का भी खर्च है। अतः कहीं न कहीं हमें समझौता करना पड़ता है।
      मैं वर्ष 1994 से ही हमलोगों की पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए, इसपर उपदेश सुनते आ रहा हूँ। कोई कहता है कि जनपद स्तर पर सरकारी विभागों में अनेक भ्रष्टाचार हैं। स्थानीय पत्रकार ऐसे मुद्दों पर कलम चलाने से बचने लगें हैं , तो किसी का कहना रहा कि हम विज्ञापनों के पीछे दौड़ने लगें हैं और सत्ताधारी राजनैतिक दल के हाथों की कठपुतली हो गये हैं। किसी ने यह भी कह दिया कि कम से कम सम्पादकीय पृष्ठ तो निष्पक्ष रखा जाए। जो मुख्य वक्ता होते हैं, वे आजादी के समय की पत्रकारिता और उस दौर में लेखनी के पराक्रम की चर्चा अवश्य करते हैं । लेकिन कभी किसी ने यह नहीं जानना चाहा हम जैसे श्रमिक पत्रकारों से कि हमारे परिवार का खर्च कैसे चलता है। आय का श्रोत क्या है , कितना है और बस इतना ही क्यों है , हम पत्रकारों की जीविका के संदर्भ में उनकी जुबां पर एक भी शब्द नहीं रहता  ?
    वे यह जानते ही नहीं कि श्रमिक पत्रकारों का सबसे बड़ा संघर्ष उनके कार्यक्षेत्र से इतर पारिवारिक जिम्मेदारी को लेकर है।  ये भद्रजन हमें जाने और पहचानने भी कैसे , क्यों कि वे तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की चकाचौंध देख रहे हैं,  टीवी चैनलों पर अथवा वे कुछ पत्रकार जो इस जुगाड़ तंत्र में खिलाड़ी समझे जाते हैं और उनके पास सारी सुख सुविधा हैं, उन्हें ही असली पत्रकार समझते हैं। ऐसे जेंटलमैन इस तरह के पत्रकारों से मित्रता किये रहते हैं। शासन, प्रशासन और राजनेताओं से लेकर औद्योगिक घरानों में जुगाड़ू पत्रकारों की पूछ होती है , वहीं श्रमिक पत्रकारों को सुदामा समझ इन प्रभावशाली लोगों के द्वारपाल ही  इनका रास्ता काट देते हैं। वह सखा कृष्ण जो की द्वारकाधीश है , वह द्रुपद हो गया है। वह नहीं पहचानेगा सुदामा को। नहीं मिलेगा सुदामा को अपने कर्मपथ पर डटे रहने का पुरस्कार। होता क्या है अब कि पत्रकारिता के सिद्धांतों से समझौता नहीं करने वाले पत्रकारों को यह कॉकस किसी न किसी तरह अपने चक्रव्यूह में फंसा ही लेता है। समाचार लेखन में कोई कमजोरी पकड़ उसपर मुकदमे आदि दर्ज करवा देता है, फिर सम्पादक को नोटिस जाते ही , ईमानदार पत्रकार छटपटाने लगता है। आय का स्त्रोत उसका इतन नहीं है कि वह कोर्ट कचहरी का चक्कर लगा से। सम्पादक से अलग डांट मिली कि ऐसा क्यों समाचार लिखा ।  तब ऐसे भद्र लोग उस पत्रकार का सहयोग करने सामने नहीं आते, वरन् यह कहते मिलते हैं कि बेचारे के साथ बहुत बुरा हुआ ।
  अतः मरा- कटा और आपराधिक घटनाओं की खबर , बड़े राजनेताओं की बयानबाजी, सामाजिक कार्यक्रम और कभी कभी जनसमस्या भी , अमूमन इन्हीं सब समाचारों से पेज भर दिया जाता है।
       कभी- कभी तो ऐसा भी हो रहा है, जिनके विरुद्ध क्षेत्रीय पत्रकारों ने बिल्कुल सही रिपोर्टिंग की है और अखबारों में प्रकाशित होनेके बाद खलबली भी मची है, ऐसे कर्तव्यनिष्ठ पत्रकारों को प्रेस के स्वामी  " कालापानी" की सजा सुना दे रहे हैं, क्यों कि जिसे पत्रकार ने  खलनायक बताया था , वह प्रेस के स्वामी की निगाहों में नायक बन बैठता है। है न यह भी आठवां आश्चर्य ? जुगाड़ तंत्र में सब चलता है। जिसके पास लक्ष्मी है ,वह मायाजाल का सृजन कर लेता है। फिर देते रहे श्रमिक पत्रकार अपनी ईमानदारी की सफाई।
  मुझे यह समझ में  नहीं आता कि ये भद्रजन जिस गोदी मीडिया  की बात हम पत्रकारों के बीच रख रहे हैं, उसमें हमारे जैसे लोग कितना सुधार कर सकते हैं , क्यों कि यह कार्य तो संस्थान के स्वामी ही कर सकते हैं। हमें तो संस्थान से जो दिशा निर्देश मिलता है , उसी का अनुसरण करना होता है। तमाम बड़े समाचार पत्रों में ऐसा ही होता है।
   मुझे तो यह भी समझ में नहीं आता कि पत्रकारिता दिवस पर हम इन प्रबुद्धजनों को आमंत्रित कर अपनी पत्रकारिता की समीक्षा ही क्यों करवाते हैं, जब हम उनकी सुझावों का अनुपालन ही नहीं कर सकते हैं। हम तो कठपुतली है साहेब अपने संस्थान के और अपने मन से कुछ नहीं कर सकते हैं। हाँ , एक काम हम बखूबी कर सकते हैं , वह यह कि पत्रकारिता के लाइसेंस के सहारे नौकरशाहों, राजनेताओं और औद्योगिक घरानों में अपनी पहचान बना सकते हैं। उनका फंसा हुआ कुछ काम " दलाल " बन कर प्रशासन, पुलिस और राजनेताओं से करवा सकते हैं। ऐसा करने में हम पत्रकार जितना अधिक प्रवीण होंगे, हम इस समाज की नजरों में उतने ही बड़े पत्रकार होंगे। यह कड़ुवा सत्य है कि आज ऐसे ही जुगाड़ू पत्रकार सफल हैं।
   फिर भी कर्म की पूजा निश्चित होती है। इस वर्ष पत्रकारिता दिवस से जुड़े एक कार्यक्रम में मंच पर जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक संग वरिष्ठ कालीन निर्यातक बाबू सिद्धनाथ सिंह भी बैठे हुये थें। एसपी संग गुफ्तगू के दौरान उन्होंने मेरे बारे में उन्हें बताया कि एक ऐसा पत्रकार भी है , जो साइकिल  से ही चलता है और जुगाड़ तंत्र से दूर है। उन्होंने मेरा परिचय जब इन विशिष्टजनों से करवाया , तो मुझे एक सुखद अनुभूति निश्चित हुई कि ऐसे आत्मीयजनों के होते हुये मेरा त्याग निरर्थक तो नहीं गया। लेकिन, अब भी यही कहूँगा कि हमारे श्रम का उपहास न किया जाए और हमें इतना वेतन मिले कि हम श्रमिक पत्रकार भी  मान, सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीवन यापन कर सकें। अपने परिवार की  सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें।
  आप सभी देख ही रहे होंगे कि हम सुबह से रात तक कार्य करते हैं। परंतु जनपद स्तर पर हमें वेतन चार से आठ हजार के   मध्य ही मिलता है। वैसे हम जुगड़ से पैसा कमा सकते हैं,लेकिन तब ये ही भद्रजन आलोचना करते हैं। यदि हम छोटे संस्था से जुड़े हैं, तो वह हमें पर्याप्त वेतन देने में असमर्थ है।बड़े संस्थान भी यही करें, तो निश्चित कष्ट होता है।  हमारी योग्यता और हमारे परिश्रम का मूल्यांकन न भी किया जाए, तो कम से कम सिर उठा कर समाज में उठने बैठने का अवसर तो मिले। एक बात बताऊँ मैं, जब साइकिल से किसी बड़े कार्यक्रम अथवा आला अफसर के यहाँ जाता हूँ, तो कभी- कभी नकली (फर्जी)पत्रकार ठहरा दिया जाता हूँ, क्यों कि पहरेदारों को यह विश्वास नहीं होता कि साइकिल से भी पत्रकारिता आज के दौर में होती है। फिर मुझे अपना परिचय पत्र दिखलाना होता है कि मैं मान्यता प्राप्त पत्रकार हूँ।  तब वे कहते हैं , " सर , प्लीज ! बुरा न माने भ्रम हो गया था। "
   अब आप बताएँ कि बाइक खरीद भी लूँ , तो पेट्रोल का पैसा कहाँ से लाऊँ ?
   हाँ, जुगाड़ तंत्र की दासता स्वीकार कर लूँ,तो दो क्या चार पहिया गाड़ी के स्वामी हम भी होंगे।  खैर ,मुझ जैसे पत्रकारों से यह सम्भव नहीं हो सका।
   ऐसे में जहाँ पत्रकारिता दिवस पर मंच से हमें नसीहत दी जा रही है। वहीं मंच के नीचे हमारे जैसे श्रमिक पत्रकारों के जीवन में अंधकार है, आजीविका के लिये संघर्ष है और जुगड़ तंत्र का उपहास भी सहन करना है। भले ही पत्रकारिता बनिये की दुकान नहीं हो, यह सन्यासी का काम है, फिर भी आप सब हमारी परिस्थितियों पर विचार करें कि ऐसी चुनौतियों के समक्ष हम कब तक तनकर खड़े रहेंगे। मित्रों , हमारी नोकदार कलम भोथरी न हो, इसके लिये सरकार एवं समाज हम श्रमिक पत्रकारों  रोटी ,कपड़ा और मकान मुहैया करवाएँ ?
प्रणाम।
    -व्याकुल पथिक

बाहरी व्यक्ति से बिना आर्थिक सहयोग लिये प्रेस क्लब ने मनाया पत्रकारिता दिवस
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पत्रकारिता में पारिश्रमिक की शुरुआत मदन मोहन मालवीय ने की थी
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     आदर्श पत्रकारिता के मानदंडों पर खरा उतरने के लिए मिर्ज़ापुर प्रेस क्लब रजिस्टर्ड द्वारा इस बार बिना किसी बाहरी व्यक्ति से आर्थिक सहयोग चंदा लिए बिना पत्रकारिता दिवस के आयोजन का जो निर्णय लिया गया था।  उस पर संस्था के सभी सदस्य खरे उतरे। मिर्ज़ापुर के पत्रकारिता जगत के लिए यह एक ऐतिहासिक कार्यक्रम रहा। वरिष्ठ और कनिष्ठ पत्रकारों की मौजूदगी में भव्यता के साथ  इसका आयोजन किया गया । जिसमें जिलाधिकारी अनुराग पटेल के अतिरिक्त ऐसे वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार मौजूद रहे, जिन्होंने पत्रकारिता और पत्रकार से जुड़े सभी विषयों पर प्रकाश डाला।  मुख्य अतिथि वरिष्ठ साहित्यकार बृजदेव पांडेय फिक्की की उस  टिप्पणी का उल्लेख किया, जिसमें उसने कहा है, "  मैं मन और आत्मा की स्वतंत्रता के लिए पत्रकारिता करता हूं।"  उन्होंने बताया कि मदन मोहन मालवीय ने 1947 में अभ्युदय पत्रिका के प्रकाशन के साथ ही पत्रकारों को पारिश्रमिक देने का चलन पारित किया था। मुख्य वक्ता वरिष्ठ पत्रकार  रविंद्रनाथ जायसवाल ने वर्तमान समय में प्रिंट मीडिया की बढ़ती विश्वसनीयता को रेखांकित किया । विशिष्ट वक्ता भोलानाथ कुशवाहा जिन्होंने इलाहाबाद में एक प्रमुख समाचार पत्र के जिम्मेदार पदों पर रहकर कार्य किया है , उन्होंने पत्रकारों की हर तरह की परिस्थितियों पर व्यापक प्रकाश डाला और कहा कि अखबारों का अस्तित्व निष्पक्षता की बुनियाद पर टिका है। यह सच है कि बहुत कुछ अखबार के मालिक की मर्जी पर निर्भर है ,पर भाषा और संवेदना तो पत्रकार के हाथ में है। उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया दस्तावेज है । पत्रकारों का आर्थिक पक्ष मजबूत हो इसके लिए समाज तथा सरकार दोनों को मंथन करना चाहिए गोष्टी में जिलाधिकारी पटेल ने कहा कि नैतिक और विकसित समाज बनाने में पत्रकारों की अहम भूमिका होती है। कार्यपालिका ,न्यायपालिका, व्यवस्थापिका  तीनों ही पत्रकारिता के आईने में अपनी खामियों एवं अच्छाइयों को देख सकता है । उन्होंने कहा कि समाज उन्हें ही याद करता है जो विषम परिस्थितियों में सकारात्मक कार्य करते हैं । पत्रकार इसी श्रेणी में आते हैं। गोष्टी को सर्व श्री सलिल पांडेय, देवी प्रसाद चौधरी ,संजय सिंह गहरवार ने भी संबोधित किया। विषय परिवर्तन पत्रकार संतोष श्रीवास्तव ने किया।  संस्था द्वारा वरिष्ठ पत्रकार सर्व श्री भोला नाथ पांडेय, कृपा शंकर चतुर्वेदी, रविंद्र नाथ जायसवाल ,चंद्रभूषण तिवारी एवं भोलानाथ कुशवाहा को मतवाला सम्मान से सम्मानित किया गया। संस्था के अध्यक्ष प्रभात मिश्रा, सचिव अजय शंकर गुप्त ,शिवशंकर उपाध्याय, शशि गुप्ता ,सुजीत वर्मा ,प्रभाकर मिश्र ,विनोद सिंह ,प्रवीन सेठी ,दिनेश उपाध्याय और राहुल गुप्ता आदि क्लब के सदस्य मौजूद रहे। गणमान्य जनों में विवेक बरनवाल, डा0 रमाशंकर शुक्ला ,बद्री विशाल ,धीरेंद्र सिंह ,कमलेश दूबे ,सुरेश सिंह, संजय दूबे, राजाराम यादव, देव गुप्ता ,मोहित गुप्ता विश्वजीत दूबे,सुनील कुमार पांडेय, आयुष सिंह आदि भी उपस्थित रहे।