Followers

Sunday 10 June 2018

न छांव की तलाश ,न ठोकरों का भय है

 
 न छांव की तलाश ,न ठोकरों का भय है
पथिक मैं उस राह का ,जहां त्याग ही कर्म है
 वेदनाओं की बलिवेदी ही , यहां मेरा धन है
नश्वरता की छांव और वैराग्य अपना अंबर है
प्रेम कलश फूट चुका,व्याकुल नहीं हृदय है
पथिक मैं उस राह का, जहां त्याग ही धर्म है

                 पत्रकार हूं, सो इतना तो जानता ही हूं कि कविता का इस तरह से उपहास नहीं करना चाहिए मुझे, फिर भी मन की भावनाओं का विस्फोटक कहीं तो होना है ।
   हां, अब अपनी जीवन यात्रा को मुजफ्फरपुर में स्टोर बाबू की नौकरी से आगे बढाता हूं। वैसे तो सच बताऊं  दास्यभाव मुझे कभी स्वीकार नहीं था। सो, नौकरी कहीं करने की इच्छा नहीं थी। आज भी इन पच्चीस वर्षों में मैं संस्थान का नौकर तो नहीं ही हूं, वरन् अपने अखबार का यहां मीरजापुर जिला प्रतिनिधि हूं। अब हममें से कुछ पत्रकार ब्यूरोचीफ भी स्वयं को बताया करते हैं, परंतु मैं गर्व से स्वयं को हॉकर पत्रकार कहता हूं। दोनों में से किसी भी पहचान के साथ अन्याय नहीं करना चाहता हूं। रोटी की तलाश में मुजफ्फरपुर से कलिंपोंग होते हुये वापस वाराणसी आकर जब गांडीव समाचारपत्र के कार्यालय पहुंचा और पूज्य सरदार मंजीत सिंह जो तब प्रसार विभाग में वहां प्रबंधक थें, ने मुझे मीरजापुर का दायित्व सौंपा, तब भी वह नौकरी नहीं थी। बाद में भी बड़े अखबारों के कार्यालय से बुलावा आने पर मैं वहां नौकरी करने नहीं गया।, नहीं तो आज अच्छा वेतन पाता। लेकिन क्या बताऊं मेरी यह जिद्द ही था कि ना भाई ना, नौकरी और मैं करुं, बिल्कुल नहीं। करीब तीन वर्ष पूर्व तक एक जनपद से दूसरे जिले जा कर 22 वर्षों तक अखबार का बंडल लाना, फिर रात्रि में अखबार वितरण और सुबह उठते ही ताजी खबरों का पुनः संकलन 17- 18 घंटे की ड्यूटी तो प्रतिदिन देता ही था। समझ में नहीं आता कि मैं भी कितना विचित्र इंसान था कि 10-11 घंटे की नौकरी बड़े अखबारों में थी ,फिर भी करने से कतराता रहा। वहां, वेतन भी कुछ ठीक मिलता एवं साप्ताहिक अवकाश अलग से था ही। परंतु गांडीव में मेरी लेखनी स्वतंत्र थी, मेरे विचार स्वतंत्र थें और सबसे बड़ी बात मेरी पहचान स्वयं की अपनी थी। संस्थान की ओर से विज्ञापन का ही तब ना कोई दबाव था। सो, मेरा यह रंगमंच मेरे विचारों के अनुकूल था। यह वेदनाओं का दौर तब शुरू हुआ , जब अपनों के दुख- सुख से दूर हो चला। रंगमंच पर मेरा चारों शो फिक्स था। सुबह के समय समाचार लेखन फिर दोपहर तक समाचार संकलन, दोपहर बाद समयाभाव में किसी भी तरह से क्षुधा शांत कर अपरान्ह ठीक चार बजे शास्त्रीपुल पर औराई जाने के लिये बस की तलाश शुरू करना और देर रात अखबार बांट कर खाली होना। हां, जब संस्थान की स्थिति बेहतर थी, तो मेरे पास अखबार बांटने के लिये चार लड़के होते थें। ग्राहकों को दुकान बंद होने से पहले गांडीव मिल जाया करता था। उस दौर में सुबह के तीन प्रमुख समाचार पत्रों की तरह ही मेरे गांडीव का भी यहां सम्मान था। फिर कुछ हजार रुपये की नौकरी के लिये मैं अपनी यह पहचान क्यों खोता, आप ही बताएं न ? पर आज इसीलिये साथी मित्र मुझे बेवकूफ कहते हैं। वे कहते हैं कि डूबती नांव की यदि तुम्हें तनिक भी पहचान होती, तो आज खुशहाल घर गृहस्थी होती तुम्हारी। मित्रों के इस कटाक्ष का मेरे पास कोई प्रतिउत्तर नहीं है। सो, सिर झुका अपनी पराजय स्वीकार कर चुका हूं। फिर भी नौकरी मुझे स्वीकार नहीं है । पहचान बनने पर छोटे अखबारों का सम्वाददाता होने के बावजूद भी धन कमाने का आसान तरीका उस दौर में था। पर क्या कहूं मास्टर साहब का जो लड़का था। ईमानदारी की राह अभिभावकों ने बताई थी सो...
 सब कुछ सीखा हमने ना सीखी होशियारी ।
सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी।

(शशि)