Followers

Tuesday 10 April 2018

व्याकुल पथिक पत्रकारिता में मेरा अनुभव

व्याकुल पथिक 10/4/18
आत्मकथा

    नियति के उपहास पर कभी कभी मुझे भी हंसी आती है। समझ में ही नहीं आता कि मैं पत्रकार कैसे बन गया। शहर भी अनजान ,डगर भी और कलम भी...
    रही बात पत्रकारिता लेखन की तो छात्र जीवन में कक्षा में गणित के जटिल सवालों को हल करने में मेरी अधिक रुचि रहती थी। भले ही कोई मार्गदर्शक न रहा हो तब भी मैं अकले ही घंटों जूझता रहता था कागज के पन्नों पर। अंततः विजय तो मेरी ही होती थी। हां ,बचपन में चित्रकला में भी खूब रुचि लेता था। परंतु हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही बिल्कुल पढ़ना नहीं चाहता था। हालांकि ऐसा भी नहीं था कि फेल हुआ हूं, कभी इन दोनों विषयों में । खींचतान कर 60 फीसदी अंक तो पा ही लेता था इनमें भी। फिर भी मैं तब सहपाठियों से यही कहता फिरता था कि हिन्दी भी कोई विषय है, जो व्यर्थ में समय बर्बाद करुं। और अब ढा़ई दशक पीछे की जब सोचता हूं, तो छात्र जीवन की अपनी भूल याद हो आती है। लेकिन, बीता समय फिर कहां आने वाला कि हिन्दी का एक कुशल विद्यार्थी बन जाऊं। आज सफल अथवा असफल पत्रकार जो भी बना, उसी हिन्दी के कारण,वर्तमान में भी जो यह ब्लॉग लिख कर अपनी व्याकुलता कम कर रहा हूं, वह भी तो हिन्दी लेखन से ही सम्भव है। चित्रकला और गणित  मेरे विरान जीवन में रंग भरने तो आया नहीं न। इसलिये वाराणसी में कालेज द्वार से जब प्रवेश करता था ,तो भारतेन्दु हरिश्चंद्र की प्रसिद्ध कविता मातृभाषा का यह दोहा ..

निज भाषा उन्नति अहै,सब उन्नति को मूल।
 बिन निज भाषा - ज्ञान के , मिटत न हिय को सूल।।

जो उनके स्मारक पर लिखा था, अब याद हो आता है। साथ ही तकलीफ भी होती है कि काश ! कुछ हिन्दी का ज्ञान होता, तो मैं अपनी बात प्रभावशाली तरीके से रख पाता। पर आप सभी तो युवा पत्रकार हैं, बड़ी बड़ी डिग्रियां भी हैं आपके पास। फिर समाचार लेखन आप में से बहुतों का प्राइमरी स्कूल के बच्चों की तरह क्यों है। आज कल पोर्टल वाले ब्यूरोचीफ हो गये हैं। पर उनका भाषा ज्ञान देखें साहब !  जब कुछ बताओं या सुधार करने को कहो, तब भी बड़ी बेशर्मी से वे कहते मिलते हैं कि ऐसा तो जानबूझ कर इसलिये करता हूं , ताकि खबर की कापी पेस्ट न हो।
       पर मैं भी बड़ा ही विचित्र तरीके का पत्रकार बना हूं। दोपहर तीन बजे तक खबर लिखना फिर अखबार का बंडल लेने जाना और रात्रि साढ़े 10 - 11 बजे तक पेपर बांटना। मजे की बात तो यह भी है कि जिसे कभी  पत्रकारिता का ककहरा तक नहीं आता था, कुछ वर्षों बाद पहचान.बनने पर उसकी उसी कलम की बोली लगाने वाले भी हो गये। जैसा कि बता ही चुका हूं कि पत्रकारिता धर्म के पालन में यदि आपकी पहचान बन गई है, तो जगह जगह प्रलोभन भी है। जबकि आर्थिक तंगी एक सच्चे व अच्छे पत्रकार की सबसे बड़ी कमजोरी है। सामने लक्ष्मी हो, तो मन को बहुत समझाना पड़ता है। तोहफा और पैसा देने वाले की मंशा को समझना जरुरी है। एक बार इस लोभ रुपी दलदल में गिरे नहीं की आप पत्रकार की जगह एक अच्छे सौदागर बन जाएंगे भाई । ऐसे पत्रकार किसी की कमजोरी पकड़े नहीं कि उसका मोल चाहेंगे।  इलेक्ट्रॉनिक चैनलों को इसलिये मैं कम ही देखता हूं। हां , रवीश कुमार जैसे पत्रकार उसके पास होते, तो जरूर देखता। वहां तो डिबेट के नाम पर मछली बाजार जैसा शोर है। चैनल वाले पत्रकार खबरों को प्रायोजित करते है। एक बार की बात बताऊं किसी समस्या को लेकर एक पीड़ित व्यक्ति को इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कतिपय पत्रकारों ने यह कह कर तैयार किया कि कलेक्ट्रेट में पहुंच कर बस तेल डालों और माचिस जलाने का प्रयास भर करों, देखों फिर  तुम्हारा काम कैसे नहीं हो पाता है। जब यह सब कुछ टेलीविजन के स्क्रीन पर दिखेगा, तो देखना साहब को पसीना आ जाएगा। लेकिन हुआ उलटा , वहां मौजूद सुरक्षा कर्मियों ने उस व्यक्ति को दबोच लिया , चूंकि तब के हाकिम बड़े कड़क थें। सो , उस पीड़ित शख्स को बरगलाने वाले तथाकथित पत्रकारों की तलाश शुरू हो गयी थी। मामला कुछ वर्ष पुराना है।   ऐसे प्रायोजित समाचार से एक अच्छे पत्रकार को बचना  चाहिए।( शशि)

क्रमशः