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Tuesday 28 April 2020

नया सवेरा

 (जीवन के रंग)
  लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू  पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये..
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     क्षितिज कभी मोबाइल तो कभी टीवी स्क्रीन पर निगाहें गड़ाए ऊब चुका था। ड्राइंगरूम के ख़ूबसूरत फ़िश बॉक्स में मचलती रंगबिरंगी मछलियाँ और पिंजरे में उछलकूद करता यह मिठ्ठू भी आज उसका मनबहलाने में असमर्थ था । बड़ी बेचैनी से वह बारजे में चहलक़दमी कर रहा था,किन्तु उसकी मनोस्थिति को समझने वाला यहाँ कोई नहीं था। इस खालीपन से उसकी झुँझलाहट बढ़ती जा रही थी। न जाने क्यों उसे अपना ही आशियाना बंदीगृह सा दिखने लगा था, परंतु लॉकडाउन में जाए भी तो कहाँ ?

     अबतक वर्षों से क्षितिज अपने व्यवसाय में इसतरह से उलझा रहा कि देश-दुनिया की उसे कोई ख़बर ही न रहती।रात वापस जब घर लौटता तो पिता की प्रतीक्षा में उदास दोनों बच्चे  निद्रादेवी के आगोश में होते , किन्तु शुभी गैस चूल्हे पर तवा चढ़ाए अपने पति परमेश्वर का बाट जोहती,अर्धांगिनी जो थी। भले ही उसे इस पतिप्रेम का प्रतिदान न मिला हो। स्वयं को गृहस्वामी समझने का क्षितिज का दम्भ उसके दाम्पत्य जीवन के पवित्र रिश्ते पर भारी था । प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के दर्प में मुहल्ले में किसी से दुआ- सलाम तक न था। यूँ कहें कि विवशता में कुछ संस्थाओं को चंदा देने के अतिरिक्त सामाजिक सरोकार से उसे मतलब नहीं था। व्यवसाय के लाभ-हानि को ध्यान में रखकर सगे- संबंधियों के यहाँ आना-जाना भी कम ही था।
      पिता की मृत्यु के पश्चात सारी चल-अचल सम्पत्ति का इकलौता वारिस क्या बना कि व्यापार के विस्तार की महत्वाकाँक्षा सिर चढ़ बोलने लगी और फ़िर सौ- निन्यानबे के चक्रव्यूह में ऐसा जा फँसा , मानो उसके लिए व्यवसाय के अतिरिक्त सारे संबंध गौण हो। न मनोरंजन , न पत्नी और बच्चों के संग कभी किसी रमणीय स्थल का सैर ।  यहाँ तक कि मोनू और गोलू के स्कूल में जब पैरेंट्स मीटिंग होती,तो शुभी ही जाया करती थी। शुभी से विद्यालय के प्रधानाचार्य और कक्षाध्यापक यह प्रश्न करते कि उसके पति के पास अपने ही बच्चों के लिए थोड़ा भी वक़्त नहीं है ,तो सिर नीचे किये बहाना बनाने के अतिरिक्त वह भला और क्या उत्तर देती ? अब तो बच्चे भी घर की परिस्थितियों को समझने लगे थे और अपनी माँ की यह विवशता उन्हें अच्छी नहीं लगती थी। परिणाम स्वरूप पिता के प्रति उनका आदरभाव नहीं रहा, फ़िर भी क्षितिज को अपने व्यापार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिख रहा था।
    इस लॉकडाउन में जब उसके प्रतिष्ठान पर ताला लटका है, तो वह घर पर बैठकर क्या करे ? व्यवासायिक कामकाज ठप्प होने से उसका मोबाइल फोन भी साइलेंट है। किसी क़रीबी ने उसकी हाल ख़बर नहीं ली थी, क्योंकि ऐसे मधुर संबंधों को उसने अपनी व्यवसायिक व्यस्तता के कारण कब का लॉक कर रखा था। 
   घर में उसकी सर्वगुण संपन्न पत्नी शुभी और दो मासूम से बच्चे मोनू और गोलू थे। पैसे की कोई कमी नहीं थी। उसके पास यह एक सुनहरा अवसर था कि अपने बच्चों संग वक़्त गुजर सके, किन्तु यह क्या ? बच्चे थे कि उसके समीप तनिक देर ठहरते ही नहीं । वह आवाज़ देता रहता , किन्तु  आया पापा कह न जाने वे कहाँ चले जाते और उधर पाकशाला में शुभी सबकी फ़रमाइश पूरी करने में व्यस्त रहती। वर्षों से उसकी यही दिनचर्या है कि सबके लिए अलग-अलग पसंद का व्यंजन तैयार करना ,फ़िर टिफ़िन पैक करना ,बच्चों को स्कूल भेजना इत्यादि अनेक कार्य ।
    लॉकडाउन में गोलू और मोनू पहले से ही मीनू तय कर रखते थे कि नाश्ते और भोजन में कौन सा व्यंजन बनना है। चाइनीज फूड, केक और दक्षिण भारतीय व्यंजन की उनकी डिमांड पूरी करते -करते कब सुबह से रात हो जाती , शुभी को पता ही नहीं चलता। उसे अपने श्रीमान जी के पंसद का भी तो ध्यान रखना पड़ता था।  समय पर चाय-नाश्ता और लंच- डिनर की पूर्ति के लिए वह हाज़िर थी। फुर्सत में बच्चों को पढ़ाती भी थी। उसे इस लॉकडाउन में भी अपने श्रीमान के सामने पड़ी खाली कुर्सी पर बैठने का कहाँ वक़्त होता था।       
       अपने ही कारोबार में खोये रहने वाला क्षितिज इन दिनों अपने ही घर में इस सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) को सहने में न जाने क्यों असमर्थ था।  वह चाहता था कि दोनों बच्चे तो कम से कम उसके साथ बैठा करें। शुभी ने एक -दो बार गोलू और मोनू को डाँट भी पिलाई कि जाओ पापा के पास रहो, लेकिन वे दोनों मासूम से बच्चे यह कह कर -- मम्मी ! आप भी न --हमें स्कूल का काम करने दो, जैसे सौ बहाने बनाते थे।
    यह देख क्षितिज से बिल्कुल रहा नहीं जा रहा था। उसके हृदय में कृत्रित एवं स्वाभाविक भाव में द्वंद तेज होता जा रहा था। जिसकी झलक उसके आँखों में भी दिखने लगी थी। उसे समझ में आने लगा था कि इस व्यवसायिक जीवन में उसने क्या खोया और क्यों उसके परिवार के हँसते-मुस्कुराते जीवन को उसकी महत्वाकाँक्षा निगल रही है। जिस कारण आज उसे अपना यह आशियाना बंदीगृह जैसा लग रहा है। वह सोच रहा था कि ऐसी दौलत किस काम की , जब वह अपनी ही संतानों की दृष्टि में सम्मान का पात्र न हो। उनमें उसके लिए अपनत्व भाव न हो। उसके समीप बैठना भी उन्हें पसंद न हो।
        यह संताप उसके अहम पर भारी पड़ने लगा था। हाँ ,वह स्वयं से प्रश्न कर रहा था कि इसमें इन मासूम बच्चों का क्या क़सूर ,इन्हें उसने कभी एक पिता का स्नेह दिया ही कहाँ है ? कभी इनके साथ बैठ कर लूडो , कैरमबोर्ड नहीं खेला। न कभी इनके संग स्कूल गया और न ही किसी टूर पर और शुभी के साथ उसने क्या किया है ? वह तो जब से ससुराल आयी है , उनसभी की सेवा में ही लगी है। मायके भी कभी किसी विशेष आयोजन में कुछ देर के लिए जाना हुआ,तो बच्चों संग स्वयं ही चली जाती थी। उसके संग वह(क्षितिज) नहीं , वरन् उसका ड्राइवर कार लेकर जाया करता था। फ़िर भी शुभी ने अपने घरवालों के समक्ष उसके सम्मान पर कभी न आँच आने दी। 
     आज क्षितिज की अंतरात्मा उससे प्रश्न कर रही थी कि एक पति और एक पिता के रूप में उसका कर्तव्य क्या था,मात्र इनसभी के लिए भौतिक संसाधनों की व्यवस्था ? उसकी यह हवेली इतने वर्षों से शुभी के लिए कारागार की तरह ही तो नहीं थी ? वह अपने व्यवसाय में इसतरह से क्यों रमा रह गया कि पत्नी और बच्चों की सारी आकाँक्षाओं की बलि चढ़ा दी ? 
 " यह कैसी महत्वाकाँक्षा थी तुम्हारी ,बोलो क्षितिज बोलो ! ", उसका अंतर्मन उसे बुरी तरह से झकझोर रहा था। शुभी के रूप में उसे कितनी सुंदर, सुशील और सुघड़ पत्नी मिली थी। हाँ,याद आया विवाह के पश्चात पिता जी ने एक दिन उससे कहा -" बेटे, दुर्भाग्य से अपनी माँ की ममता से तो तू बचपन में ही वंचित रह गया है ,किन्तु ये मेरी शुभी बिटिया है न, तेरी इस कमी भी पूरी कर देगी।"
 और उसने क्या किया इसके पश्चात ,यही न कि उसके मायके वालों की निर्धनता का सदैव उपहास उड़ाया। गृहस्वामिनी के स्थान पर वह एक नौकरानी की तरह दिन-रात उसकी सेवा को तत्पर रह कर भी डाँट-फटकार सहती रहती ।
  पति के द्वारा तिरस्कार की यह वेदना जब शुभी के लिए असहनीय होती तो उसके नेत्रों से बहने वाली अश्रुधारा का भी उसके लिए कोई मोल नहीं था। इसे त्रियाचरित्र से अधिक उसने कुछ न समझा।
     बारजे पर खड़ा क्षितिज  मन ही मन स्वयं को धिक्कारते हुये कह रहा था- " ओह ! शुभी मैंने तुम्हारे साथ कितना अन्याय किया। तुम्हारे व्यथित हृदय को दुत्कार के सिवा आज तक मैंने दिया ही क्या , फ़िर भी तुम विनम्रता की मूर्ति बनी प्रेम का गंगाजल छलकाती रही । बोलो कभी उफ़ ! तक क्यों नहीं किया?"  
    वर्षों बाद क्षितिज को अपनी भूल का आभास हुआ था। उसे शुभी में एक स्त्री के पत्नीत्व, मातृत्व और गृहिणीत्व  जैसे सभी रूपों की अनुभूति हो रही थी। मानो प्यासे को ठंडे पानी की झील मिल गयी हो।
   ढलती हुई आज की शाम क्षितिज के हृदय में प्रेम की ज्योति जला गयी थी। वह कमरे की ओर आता है। उसने देखा कि शुभी छत पर सूखे हुये  वस्त्र लेने गयी है। यह जानकर क्षितिज आहिस्ता-आहिस्ता किचन की ओर बढ़ता है,और फ़िर जैसे ही शुभी आती है। ट्रे में चाय की प्याली लिये वह नटखट बच्चे की तरह मुँह छिपाये उसके पीछे जा खड़ा होता है। 
 " सरप्राइज़ ..!" 
    यकायक क्षितिज की यह चौकने वाली आवाज़ सुन शुभी जैसे ही उसकी ओर मुख करती है , वह विस्मित नेत्रों से उसे देखते ही रह गई । 
    विवाह के इतने वर्षों पश्चात क्षितिज ने पहली बार चाय बनायी थी। सो, वह जैसी भी बनी हो, किन्तु  इसमें जो चाह भरी थी , उसे देख शुभी के  आँखें बरसने लगी थीं, किन्तु आज ये अश्रु मुस्कुरा रहे थे। उधर,क्षितिज रुँधे कंठ से सिर्फ़ इतना ही कह पायी थी - "शुभी! मुझे माफ़ कर दो..।"
 " बस-बस अब अधिक कुछ भी न कहो जी । "
- उसकी होंठों पर अपनी कोमल उँगली रख शुभी   क्षितिज से जा लिपटती है। उन दोनों के झिलमिलाते आँसुओं के पीछे प्रेम का इंद्रधनुष लहरा उठा था। 
      लॉकडाउन ने क्षितिज को गृहस्वामी होने के अहंकार भरे " मुखौटे" से मुक्त कर दिया था, तो शुभी भी इस घर की नौकरानी नहीं रही। प्रेमविहृल पति-पत्नी को आलिंगनबद्ध देख मिठ्ठू  पिंजरे में पँख फड़फड़ाते हुये गोलू-मोनू  का नाम ले जोर-जोर से आवाज़ लगता है।
     यह देख क्षितिज पिंजरे का द्वार खोलकर कहता है -" जा मिठ्ठू ! आज से तू भी आज़ाद पक्षी है।"
    वह क़ैदखाने का दर्द समझ चुका था। उसने यह निश्चय कर लिया था कि शुभी हो या मिठ्ठू , किसी को भी अब वह यह नहीं कहने देगा--पिंजरे के पक्षी रे, तेरा दर्द न जाने कोई। 

    - व्याकुल पथिक